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________________ श्री सुमेरचन्द एडवोकेट खंडवा अधिवेशनके वाद ८ मई १९३८ को तो मुजफ्फरनगरकी मीटिंगमें वह आये ही थे । काश ! उस समय मालूम होता तो जी भरकर उन्हे देख लेता। मुझे क्या मालूम था कि मीटिगके बहाने उनके दर्शनार्थ कोई आन्तरिक शक्ति मुजफ्फरनगर खीचे ले जा रही है । मुजफ्फरनगरकी मीटिंगका सँभालना उन्हीका काम था। कन्धेपर हाथ रखकर जो-जो वाते सुझाई, वह सव आज रुलाईका सामान बन रही है। ___मै कहता हूँ यदि उन्हे इस ससारसे जाना ही था तो जैसे दुनिया जाती है, वैसे ही वे भी चले जाते । व्यर्थमें यह प्रीति क्यो वढानी थी। समाजने उनका दामन इसलिए नही पकड़ा था कि मझधारमें धोखा दिया जायगा। किसने कहा था कि वह इस झगडालू समाजको प्रीतिकी रीति वतायें, और जव प्रीतिकी रीति वताई ही थी तो कुछ दिन स्वय भी तो निभाई होती। सहारनपुर-जैसी ऊसर जमीनमे किस शानसे और किस कौशलसे परिषद्का अधिवेशन कराकर सुधारका वीजारोपण किया; और रुड़कीमें परिपद्के छठे अधिवेशनके सभापति होकर क्या-क्या अलौकिक कार्य किये? मैं यह कुछ नही जानता हूँ, मै पूछता हूँ परिषद्के वारहवे अधिवेशनके सभापति वनकर वह देहलीमे क्या इसीलिए आये थे कि इतना शोधू हमे यह दुर्दिन देखना नसीव होगा। यदि ऐसी बात थी तो क्यो वे सैकड़ों वार महगाँव-काडके सम्बन्धमें देहली आये? क्यो वह सतना, खडवा, लाहौर, फीरोजपुर, रोहतक, मुजफ्फरनगर, मेरठ, ग्वालियर आदि स्थानोमें परिषद्के लिए मारे-मारे फिरे ? यदि परिषद् उन्हें इस तरह छोडनी थी तो अच्छा यही था कि वह परिषद्का नाम भी न लेते और इसे उसी तरह मृतक-तुल्य पडी रहने देते । क्यों उन्होने देहली अधिवेशनमें आकर परिषद्म नवजीवन डाला, और क्यो सतना और खंडवामें पहुँचकर परिषद्की आवरूमें चार चांद लगाये ? वावू सुमेरचन्द अव नही है, वर्ना सब कुछ में उनका दामन पकडकर पूछता। मैने उन्हे सबसे पहली वार सन् ३५ मे जब देखा था, तब वह देहली
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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