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________________ ३७० जैन-जागरणके अग्रदूत हुई तब वह हमसे कई गुने ज्यादह धर्मके ज्ञाता थे और कहकर नहीं, तो मन ही मन हम उनको धर्मके मामलेमे गुरु ही मानते थे और हम उनकी बहुत-सी बातोकी नकल करनेकी कोशिश करते थे। जब वह शिक्षाप्रचारक समितिके काममें लगे हुए थे, तव शिष्टाचारके वह आदर्श थे। गाली तो उनके मुंहपर फटकनेकी सोच ही नही सकती थी। मामूली पाजी या नालायक शब्द भी उनके मुंहसे निकलते हमने कभी नहीं सुना, वह अध्यापक भी थ पर विद्यार्थिगेपर कभी नाराज नहीं होते थे। विद्याथियोसे 'आप' कहकर बोलना हमने उन्हीसे सीखा। यह तारीफ सुनकर सम्भव है हमारे पढनेवाले एकदम ऐंठ जाये, क्योकि उनमेसे बहुतोने उनको गाली देते सुना होगा, और बुरी-बुरी गालियां देते हुए भी सुना होगा। हम उनकी बातोको झुठलाना नहीं चाहते, पर हम तो अर्जुनलाल सेठीके बहुत पास रहे है और मुद्दतो रहे है। यह गाली देनेकी बला उनके पीछे वेलौर जेलसे लगी, जहाँ वे वर्षो राजकाजी कैदीकी हैसियतसे रहे हैं। वहाँ वे इतने सताये गये थे कि 'वेलौर' जेलसे निकलनेके वाद उनके बारेमें यह कहना कि वह अपने होशहवासमे थे ज़रा मुश्किल हो जाता है । जेल से छुटकर वह देहली गये तव हम वहाँ उनसे मिले थे। वे अनेको काम ऐसे करते थे कि जो इस शिष्टाचारसे जरा भी मेल नहीं खाते थे, जिसको हमने जयपुर में देखा था । उदाहरणके लिए हर औरतके पाँव छूने और जगह बेजगह यह कह वैठना कि मैने भगवान्की मूरतका मेहतरोंसे प्रक्षाल करवाया । उन दिनो सारी बाते कुछ इस तरहकी होती थी कि यह नही समझा जा सकता था कि उनको होश-हवास थी। धीरे-धीरे उन्होने अपनेपर काबू पाया, पर गालियोपर इस वजहसे पूरी-पूरा कावू नहीं पा सके कि काग्रेसको राजकारी चपेटोने उनका मरते दमतक कभी पीछा न छोड़ा। निश्चयके बलपर व्यवहारमे वह कभी-कभी इतने पीछे पड जाते थे और वह कभी-कभी इतने आगे बढ जाते थे कि आम आदमी उन दोनोका मेल नहीं बिठा पाते थे। इस वास्ते कभी-कभी किसी-किसी समझदारके मुंहसे तग आकर यह निकल पड़ता था कि अर्जुनलाल योगभ्रष्ट
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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