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क्षुल्लक गणेशप्रसाद व
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यह सच है कि जबलपुरकी स्थानीय समाजके निजी कारणोंसे प्रथम प्रयत्न तथा समाजकी दलवन्दी एवं उदासीनताके कारण द्वितीय प्रयत्न सफल न हो सका, तथापि उसने ऐसी भूमिका तैयार कर दी है जो भावी गावको के मार्गको सुगम बनावेगी। आज भी वर्णीजी बना कर्मठताका पाठ पढानेवाले गुरुकुलों तथा साहित्य प्रकाशक सन्थाओंकी स्थापना व पोषणमे दत्तचित्त है । ऊपरके वर्णनने ऐना अनुमान किया जा सकता है कि वर्णीजीने मातृमण्डलको उपेक्षा की, पर ध्रुव सत्य यह है कि वर्णीजीका पाठशाला आन्दोलन लड़के-लड़कियोंके लिए समान रूप चला है । इतना ही नही ज्ञानी त्यागी मार्गका प्रवर्तन भी आपके दीनागुरु वावा गोकुलचन्द्र ( पितुश्री प० जगमोहनलालजी निहान्तनानी) तथा आपने किया है |
पर स्वारयके कारने -
आश्चर्य तो यह है कि जो वर्गीजी पैसा पास न होने पर हफ्तो कच्चे चने खाकर रहे और भूखे भी रहे और अपनी माता (स्व० चिरोंजावाईजी) से भी किसी चीजको मांगते गरमाते थे, उन्हीका हाथ पारमार्थिक सस्थाओंके लिए माँगनेको सदैव फैला रहता है। इतना ही नही, सत्याओका चन्दा उनका ध्येय वन जाता था। यदि ऐसा न होता तो सागरमें सामायिकके समय तन्द्रा होते ही चन्देकी लपकमे उनका गिर क्यों फूटता । पारमार्थिक सस्थाओ की झोली सदैव उनके गलेमें पड़ी रही है । आपने अपने शिप्योके गले भी यह झोली डाली है । पर उन्हें देखकर वर्णीजीकी महत्ता हिमालयके उन्नत भालके समान विश्वके सामने तन कर खड़ी हो जाती है । क्योकि उनमे "मर जाऊँ माँगूँ नही अपने तनके काज।" का वह पालन नही है जो पूज्य वर्णोजीका मूलमंत्र रहा है । वर्णीजीकी यह विशेषता रही है कि जो कुछ इकट्ठा किया वह सीवा सस्थाविकारियोको भिजवा दिया और स्वयं निर्लिप्त । वर्गीजीके निमित्त से इतना अधिक चन्दा हुआ है कि यदि वह केन्द्रित हो पाता तो उससे विश्वविद्यालय सहज ही चल सकता ? तथापि इतना निश्चित है कि