SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७. सीतलप्रसाद १६. पास भेज दिया । शायद तब मैने ठीय-गी हिन्दी भी न नितीगी। किन्तु न० जीने उसे 'मित्र' में प्रकाणित गार दिया । अपना लेग में छपा हुआ देखकर मैं बहुत प्रनन हुमा । मै नितान्त र परिपद की स्थापनाके समय 'वीर' के गम्पादाना बनाव हनिको पा । गायन व जीने ही मेरा नाम तजवीज किया, में जगमजनम ५ गया, दिन इतना वडा उत्तरदायित्व में कैसे लेना? किन्तु जी व्यनियान नाम लेना जानते थे। मेरे सालको उन्होंने बटाया । आगिर नपर मैने उनकी बात मानी कि वह सम्पादक रहे और मैं नहायता । वह पर अकमे अपना लेख देते रहे, वाकी मेंटर में जुटाऊँ ! यही हुआ। गायद एक साल वह सम्पादक रहे। बादमे 'चीर' का भार म माप दिया ! व० जीने मुझे लेखका और मपादक बना दियानिमित्त उन्होंने जलाया था । __ इटावेके चातुर्मासमे मै उनको मत्सगतिका लाभ उठाने के लिए भादोके महीनेमे वही रहा । श्री मुन्नालालजीनी धर्मगानामे ऊपर . जी ठहरे हुए थे और उसी धर्मनालामे नीचे हम लोग थे। उन समय मुझे व० जीको निकटसे देखनेका अवसर मिला था और में ज्यादा न लिपर र यही कहूंगा कि ब्र० जी ओतप्रोत धर्ममय थे। उनमे गप्ट्रधर्म भी था समाजधर्म भी था और आत्मपर्म भी था। उस समय एक दफा उन्हें लगातार दो दिन निर्जल उपवान करना पड़ा, इसमें शारीरिक मिथिलता आना अनिवार्य था। व० जो रातको धर्मोपदेश दिया करते थे। हम लोगोने यह उचित न समझा विव० जी वैसी दशाम बोले । जब उन्होंने सुना, वह मुस्कराये और धर्मोपदेग देनेमे लीन हो गये। उस रोज वह खून वोले-~~-अध्यात्म रस उन्होने खूब छलकाया । यह था उनका आत्म-बल ! इटावेके चातुर्मासमे उन्होंने मुझे 'तत्त्वार्थाधिगम सूत्रजी' का अर्थ पटाया । मुझे ही नही, इटावेके एक तत्त्वदर्शी अर्जन विद्वान्को भी वह जैनधर्मका स्वरूप समझाते रहते थे। आखिर जैनधर्मको उन्होने ३० जोसे पढ़ा । जैनपूजामें भक्तिरसकी निर्मल विशुद्धिका परिचय भी
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy