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________________ श्री अर्जुनलाल सेठी ३६९ उन्ही साधनो और उपायोसे जो दूसरे लोग कर रहे है, अथवा जिनमें बहुत कुछ सफलता जैनोके सहयोगसे मिलती है।..... आपके सामने आधुनिक काल-प्रवाहके भिन्न-भिन्न आन्दोलनसमूह धार्मिक वा सामाजिक, वाञ्छनीय वा अवाञ्छनीय, हेय वा उपादेय, उपेक्षणीय वा अनुपेक्षणीय, आदरणीय वा तिरस्कार्य, व्यवहार्य वा अव्यवहार्य, लाभप्रद वा हानिकर इत्यादि अनेक रूप-रूपान्तरमें मौजूद है। उनमें से प्रत्येकका तथा उनसे सम्बन्ध रखनेवाली घटनाओका गृहस्थ तथा त्यागी, श्रावक-श्राविकाओके दैनिक जीवनपर एवं मन्दिर-तीर्थो अथवा अन्य प्रकारकी नूतन और पुरातन सस्थाओपर पड़ा है, वह भी आपके सम्मुख है। मै तो प्राय सबमें होकर गुजर चुका हूँ, और उनके कतिपय कड़वे फल भी खूब चाख चुका हूँ और चाख रहा हूँ। अत आपका और आपके सहकारी कार्यकर्ताओका विशेप निर्णायक लक्ष इस ओर अनिवार्य-अटल होना चाहिए। नही तो जैन सगठन और जैनत्वको रक्षाके समीचीन ध्येयमें केवल वाधाएँ ही नही आयेगी, धक्का ही नही लगेंगे, प्रत्युत नामोनिशान मिटा देनेवाली प्रलय भी हो जाय तो मानवजातिके भयावह उथल-पुथलके इतिहासको देखते हुए कोई असम्भव बात नहीं है। अल्पसख्यक जातियोको पैर फूंक-फूंककर चलना होता है और बहुसख्यक जातियोके बहुतसे आन्दोलन जो उन्हीको उपयोगी होते है, अल्पसख्यकोमें घुस जाते है और उनके लिए कारक होनेकी अपेक्षा मारकका काम देते है । उनकी बाहरी चमक लुभावनी होती है, कई हालतोमें तो आँखोमें चकाचौध पैदा कर देती है, मगर वास्तवमें Old is not gold ghtters हरेक चमकदार पदार्थ सोना ही नहीं होता। बहुसंख्यक लोगोकी तरफसे मखमली खूबसूरत पलगोसे ढके हुए खड्डे विचारपूर्वक वा अन्त स्थित पीढ़ियोके स्वभावज चक्रसे तैयार होते रहते है, जिनके प्रलोभन और ललचाहटमें फंसकर अल्पसंख्यक लोग शत्रुको ही मित्र समझने लगते है, यही नहीं; किन्तु अपने सत्त्व-स्वत्वकी रक्षाका खयाल तक छोड वैठते है। किमधिकम्, इस स्व-रक्षणकी भावना वासना भी
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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