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________________ जैन जागरण के अग्रदूत जिनेश्वर देवनी वाणीसना वायरा', बाजे मने दिन रात रे, जिनजी नी वाणी भली रे "सीमन्धर० ||४|| इसमें सन्देह नही कि कानजीका व्यक्तित्व बडा प्रभावक है और वक्तृत्वशैली अनुपम है । उनके प्रभाव से सोनगढ के जनेतर अधिवासी भी अध्यात्म वचक प्रेमी वन गये है । अपने सोनगड के प्रवास - कालमें हमें इसका अनुभव हुआ । एक दिन एक व्यक्ति विद्वानोके वासस्थान पर आकर अध्यात्मको चर्चा करने लगा । पूछने पर उसने अपना परिचय देते हुए कहा कि मैं मुसलमान हूँ, पुलिसमे कान्सटेवुल हूँ और प्रतिदिन महाराजका उपदेश सुनने जाता हूँ । दूसरे दिन एक विद्वान्‌को ज्वर आ गया । उन्हें देखने के लिए डाक्टर आया । एक घंटे तक खूब अध्यात्म चर्चा रही । fharat है कि मण्डन मिश्र एक बहुत वडे विद्वान् थे । जब शकराचार्य शास्त्रार्थके लिए उनके ग्राम में पहुँचे तो उन्होंने ग्रामके बाहर कुआँपर पानी भरनेवाली एक स्त्रीसे मण्डनमिश्रका घर मालूम करना चाहा । उस पानी भरनेवालीने उत्तर दिया--- " स्वतः प्रमाणं परत: प्रमाण कीरांगना यत्र गिरो गिरन्ति । द्वारेऽपि नीडान्तः सन्निरुद्धा श्रवेहि तन्मण्डन मिश्रधाम ॥" 'जिसके द्वारपर पीजरोमें वन्द मैनाएँ ' प्रमाण स्वतः होता है अथवा परत होता है' इस प्रकारको चर्चा करती हो, उसे ही मण्डनमिश्र का घर समझना ।' सोनगढके विषयमें भी ऐसा ही समझना चाहिए । जहाँके वायुमण्डलमें अध्यात्म प्रवाहित हो वही कानजीका निवास स्थान सोनगढ है । -काशी १ अक्टूबर, १९५९ ९५ १ वायु ।
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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