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________________ जैनसमाजके विद्यासागर ____ श्री धन्यकुमार जैन HTTक काग़ज़ दीजिये न, किताबोपर चढाऊँगा ?" S"एक काग़ज़की कीमत दो पैसे है,-पैसे देकर ले सकते हो।" "यो हो एक दे दीजिये न, बहुत-से तो है ?" "इनका मैं मालिक नहीं, मैं तो बिना पैसेका नौकर हूँ।" "तो मालिक कौन है, उनसे कहके दिलवा दीजिये न?" "मालिक तो सारा जैन समाज है, हम-तुम सभी मालिक हैं; पर बेनेके लिए नही, देने के लिए।" ___ सन् १९१४-१५ की बात है। मैं तब स्याद्वादमहाविद्यालय काशीमें शिक्षा पा रहा था। मैदागिनकी जैनधर्मशालाके फाटकके पास भारतीय जैन-सिद्धान्त-प्रकाशिनी सस्थाका कार्यालय था, जिसमें बैठे जैन-समाजके सुप्रसिद्ध शिक्षागुरु स्व०प० पन्नालालजी वाकलीवाल पुस्तकें बाँध रहे थे। जिस समय उनसे मेरी उपर्युक्त वातचीत हुई थी, तब मै नहीं जानता था कि मैं उन्हीसे बात कर रहा हूँ, जिनकी लिखी कई पुस्तके मै पढ चुका हूँ और 'मोक्षशास्त्र' आदि अव भी पढ रहा हूँ, जिनपर चढानेके लिए कागज मॉग रहा था। तब तो मुझे ऐसा लगा कि बुड्ढा बहुत कजूस है और निर्दयी भी, कि जिसको मेरी विनीत प्रार्थना पर जरा भी दया नही आई । मुझमे तव इतनी समझ ही कहाँ थी कि उनके उन सीमित शब्दोमें अवैतनिक सामाजिक कार्यकर्ताओके उत्तरदायित्वका कितना जबरदस्त उपदेश है। बादमे तो लगभग दस-बारह वर्ष तक मुझे उनके निकट रहकर उक्त सस्थाकी सेवा करनेका सौभाग्य प्राप्त रहा, और खूब अच्छी तरह समझ गया कि अवैतनिक कार्यकर्ता का आदर्श क्या होना चाहिए।
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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