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________________ जैनधर्म-प्रेमकी सजीव प्रतिमा - - सर सेठ हुकमचन्द्र पूज्य ब्रह्मचारी सीतलप्रसादजीको हम जैनधर्मके सच्चे महात्मा | मानते है। धर्मकी वे एक सजीव मूर्ति थे। उनकी धार्मिक निष्ठा और लगनके कारण हमारी उनपर महान् श्रद्धा थी, और हम उनके प्रति बहुत पूज्य बुद्धि रखते थे। जव-जब वे इन्दौर पधारते हमें उनके दर्शन करके अत्यन्त खुशी होती थी; और एक दिन तो अवश्य उनके साथ जीमते थे। वे एक महापुरुष थे। स्व० सेठ माणिकचन्द्रजीके साथ उनकी मेरी पहिली भेट हुई थी। उनके अन्तिम दर्शन मुझे रोहतकमे हुए। रोहतकमें वे अस्वस्थ थे और विशेषकर उनके स्वास्थ्यको पूछनेके लिए और उनके दर्शन करनेके लिए हम रोहतक गये थे। चूंकि उस महान् आत्मामे हमारी अत्यन्त पूज्य बुद्धि थी। ___ जब-जब वे हमसे मिलते थे, तब-तव जैन विश्वविद्यालयकी स्थापनाके लिए अवश्य प्रेरणा करते थे । इस सम्बन्धमे उनकी वडी दृढ लगन और भावना थी । यह उनकी साधना अपूर्ण रह गई। -वीर, ८ अप्रैल, १९४४ - -
SR No.010048
Book TitleJain Jagaran ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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