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जैन - जागरणके श्रग्रदूत
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खातिर में अपने धर्मको तो नही वेचूंगा। जब मुझमे न्यायीकी स्थापना दोनो पक्षोने कर दी तो फिर में अन्यायीका रूप क्यो धारण करता मेरा धर्म मुझे न छोडे, चाहे सारा ससार मुझे छोड़ दे, तो भी मुझे चिन्ता नही ।"
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लालाजीने मुझे स्वय उक्त घटना सुनाई थी। फर्माते थे कि -- "थोडे दिन तो मुझे पण्डितजीके इस व्यवहारपर रोष-सा रहा, पर धीरेधीरे मेरा मन मुझे ही धिक्कारने लगा और फिर उनको इस न्यायप्रियता, सत्यवादिता, निष्पक्षता और नैतिकताके आगे मेरा सर झुक गया, श्रद्धा भक्ति से हृदय भर गया और मैने भूल स्वीकार करके उनसे क्षमा माँग ली । पडितजी तो मुझसे रुष्ट थे ही नही, मुझे ही मान हो गया था, अत. उन्होने मेरी कौली भर ली और फिर जीवनके अन्त तक हमारा स्नेहसम्बन्ध बना रहा
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मुझे जिस तरह और जिस भाषामे उक्त सस्मरण सुनाये गये थे, न वे अव पूरी तरह स्मरण ही रहे है न उस तरहकी भाषा ही व्यक्त कर सकता हूँ, फिर भी आज जो वैठे-बिठाये याद आई तो लिखने बैठ गया । - अनेकान्त, मार्च १९४८ ई०