Book Title: Davvnimittam
Author(s): Rushiputra  Maharaj, Suvidhisagar Maharaj
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमितशास्त्रमा TH - निमितशाप्रम (M हुवाणिमित्त (निमित्तशास्त्रम्) मूल ग्रन्यकर्ता परम पूज्य आचार्य श्री ऋषिपुत्र जी महाराज अनुवादक एवं सम्पादक । परम पूज्य युवामुनि श्री सुविधिसागर जी महाराज प्राप्तिस्थान भरतकुमार इन्दरचन्द पापड़ीवाल एन-9 , ए-११५ - ४१/४, शिवनेरी कॉलनी, सिडको, औरंगाबाद. (महाराष्ट्र) फोन संपर्क :- (०२४०) २३८१०६१ आवृत्ति-१ प्रति- ५००० पुनर्प्रकाशन हेतु सहयोग राशि २५ रु. मात्र प्रकाशनकाल ५-११२००३ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : : समर्षण विश्ववन्ध श्रमणपरम्परा के मुकुटमणि, अनेक गुणों के समाधार,उदारमनस्वी, मात्रमात्रपरिग्रही.स्व-परहितैषी, चतुर्विधाराधनाराधक, विशिष्ट चिन्तक. ___ परिशुद्धमतिधारक,महागुणधनी, जितमदनविलासी. व्यावृत्यवित्तस्पृह, मानवता के मानद प्रतीक, महाप्राज्ञ, शालीन व्यवहार के व्यवहर्ता, लोकहा, भक्तों के हृदयाभरण, अविचल संकल्प के स्वामी, भक्ति-कर्म, ज्ञान-प्रतिभा-प्रेमपरिश्रमादि अनेकानेक गुणरत्नों के रत्नागार, प्रतिभापर, प्रशमाकर, गुरुदय अर्थात् परमपूज्य आचार्य शिरोमणि श्री सन्मतिसागर जी महाराज और परम पूज्य आचार्यकल्प श्री हेमसागर जी महाराज के पावन करकमलों में प्रस्तुत कृति सभक्ति समर्पित Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिपित्तशास्त्रमा III || मनोगत श्रुतसमुद्र अत्यन्त विशाल है । केवलज्ञान और श्रुतज्ञान में विषयवस्तु की अपेक्षा कोई भिन्नत्व नहीं है। केवलज्ञान जितनी और 1. जिन वस्तुओं को प्रत्यक्ष जानता है, उन्हीं और उतनी वस्तुओं को श्रुतज्ञान । परोक्षरूप से जानता है । प्रत्यक्ष और परोक्षकृत अन्तर ही केवलहान और श्रुतज्ञान में पाया जाता है। श्रुतज्ञान अंगबाह्य और अंगप्रविष्ठ के भेद से दो प्रकार का है । अंगप्रविष्ठ श्रुतज्ञान आधारांग आदि बारह अंगों में विभाजित है। बारहवें अंग का नाम दृष्टिवाद है । उसके परिकर्म, सूत्र, प्रथमामुयोग, पूर्वगत और चूलिका ये पाँच भेद हैं। पूर्वगत चौदह भेदों वाला है। विद्यानुवाद । पूर्वमत का दसवाँ पूर्व है । यह पूर्व समस्त जैनमन्त्रों व ज्योतिष का उद्गाता है । उसमें अष्टांग निमित्तों का वर्णन किया गया है। इसके । । अतिरिक्त परिकर्म नामक दृष्टिवादांग में ज्योतिष से सम्बन्धित सम्पूर्ण रहस्य अंकित हैं। उन्हीं अंगों और पूर्वो का अंश प्रस्तुत ग्रन्थ में प्राप्त होता है। इस ग्रन्थ का नाम दव्वणिमित्तं अर्थात् निमित्तशास्त्रम है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में ग्रन्धकर्ता ने भगवान आदिनाथ को नमस्कार किया है । तत्पश्चात् भगवान महावीर को नमन करके ग्रन्थकर्ता ने न्ध को रचने की प्रतिज्ञा की है। चौथी गाथा में निमित्त के तीन भेद किये गये हैं। यशा . णमिऊण वड्डमाणं णवकेवललद्धिमंडियं विमल । वोच्छंदव्वणिमित्तं रिसिपुत्तयणामदो तत्थ ॥२॥ अर्थ :- नौ केवललब्धियों से मण्डित, अत्यन्त विमल श्री वर्धमान स्वामी को नमस्कार करके मैं (फ्राषिपुत्र) दवणिमित्तं अर्थात् निमित्तशास्त्र नामक ग्रन्थ है का कथन करता हूँ। तत्पश्चात् ग्रन्थकर्ता लिखतें हैं कि मैं चारणमुनियों के व्दारा दृष्ट, उन्हीं के व्दारा वर्णित तथा निमित्तबानियों के व्दारा कथित निमित्तों, Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रम् का वर्णन कसंगा। - अपनी प्रतिज्ञा का निर्वहण करते हुए ग्रन्थकर्ता ने चौदह प्रकार के निमित्तों का कथन करते हुए ग्रन्थ का विस्तार किया है। ११:- यह प्रकरण गाथा ७ से २१ पर्यन्त अर्थात् १५ गाथाओं में विस्तृत है। इस प्रकरण में ग्रन्थकर्ता ने सूर्यसम्बन्धित निमित्तों का विस्तारपूर्वक कथन किया है। २:- यह प्रकरण गाथा २२ से ३२ पर्यन्त अर्थात् ११ गाथाओं में विस्तृत है। इस प्रकरण में ग्रन्थकर्ता ने मेघसम्बन्धित निमित्तों का विस्तारपूर्वक र कथन किया है। ३:- यह प्रकरण माथा ३३ से ४३ पर्यन्त अर्थात् ११ गाथाओं में विस्तृत है। इस प्रकरण में गन्यात जे काजलराजनित निमित्तों का विस्तारपूर्वक कथन किया है। ४:- यह प्रकरण गाथा ४४ से ६४ पर्यन्त अर्थात् २१ गाथाओं में विस्तृत । है। इस प्रकरण में ग्रन्थकर्ता ने सामान्य उत्पातलक्षणों को देखकर उससे शुभाशुभ को जानने की विधि दर्शायी है। १५:- यह प्रकरण गाथा ६५ से ६१ पर्यन्त अर्थात् ५ गाथाओं में विस्तृत है। इस प्रकरण में ग्रन्थकर्ता ने वर्षा से सम्बन्धित अनेक उत्पातों का वर्णन किया है। ६:- यह प्रकरण गाथा ७० से १२ पर्यन्त अर्थात् २३ गाथाओं में विस्तृत है। इस प्रकरण में प्रतिमाओं के विकृतरूप से हो जाने पर प्राप्त होने * वाले फलों का कथन किया गया है। १७:- यह प्रकरण गाथा १३ से १00 पर्यन्त अर्थात् ८ गाथाओं में विस्तृत है। राजा के छत्र का भंग आदि होने पर क्या फल होते हैं ? इनका वर्णन करने के लिए इस प्रकरण की रचना हुई है। :- यह प्रकरण गाथा १०१ से ११५ पर्यन्त अर्थात् १५ गाथाओं में विस्तृत है। इन्द्रधनुष के माध्यम से आगामी काल में होने वाले शुभाशुभ फल को जानने की विधि इस प्रकरण में प्रदर्शित की गयी है। र ९ :- यह प्रकरण गाथा ११६ से १३३ पर्यन्त अर्थात् १८ गाथाओं में विस्तृत है । उल्काओं का पतन होने पर कौन-कौनसे शुभाशुभ फलों १ की प्राप्ति होती है ? इस विषय को प्रस्तुत प्रकरण में विशदरूप से स्पष्ट Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमितशास्त्रमा किया गया है। १०:- यह प्रकरण माथा १३४ से १४७ पर्यन्त अर्थात् १४ गाथाओं में विस्तृत है । इस प्रकरण में गन्धर्वनगर के कारण से ज्ञात होने वाले शुभाशुभ फल का बोध कराया गया है। ११ :- यह प्रकरण गाथा १४८ से १५३ पर्यन्त अर्थात् ६ गाथाओं में , विस्तृत है । उत्पलपतन की घटना को देखकर उसके द्वारा शुभाशुभ फल को जानने के उपाय इस प्रकरण में वर्णित है। १२ :- यह प्रकरण गाथा १७४ से १६२ पर्यन्त अर्थात् १ गाथाओं में से विस्तृत है। विद्युल्लता को देखकर समस्त इष्टानिष्ट फलों को जानने के उपाय इस अध्याय में बताये गये हैं। R:- सदाका 12 से . पर्यन्त अर्थात् १३ गाथाओं में विस्तृत है। इस प्रकरण में मेघविषयक योग प्रकट किये गये हैं। १४:- यह प्रकरण माथा १७६ से १८५ पर्यन्त अर्थात् १० गाथाओं में से विस्तृत है। धूमकेतु को देखकर उससे भविष्यकालीन फलों को जानने । के उपायों का वर्णन इस प्रकरण में किया गया है। इसके पश्चात् दो गाथाओं में ग्रन्थ का उपसंहार किया गया है। इसप्रकार इस ग्रन्थ में कुल १८७ गाथायें हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता कौन हैं ? इस प्रश्न का उत्तर खोजना * अतिशय सरल है क्योंकि ग्रन्थका ने इस ग्रन्थ में अपने नाम का प्रयोग तीम बार किया है। ठिदतीय गाथा में ग्रन्थ की रचना करने की प्रतिज्ञा करते हुए ज्यकार ने अपना और ग्रन्थ का नाम लिखा है। उसके अतिरिक्त दो स्थानों पर उनके नाम का उल्लेख स्पष्टसप से हुआ है। यथा :११:- अह खलुमारिसिपुत्तिय णाणणिमुत्तुपाय । पस्सयणं पक्खइस्सामि वग्गमुणि सिद्धकर्म ॥ जोइसणाणो विहपणविकणच्याव्वसव्वणितुप्पायं । तं खलु तिविहेण वोच्छामि ॥३॥ अर्थः- यह निश्चय है कि निमित्तशास्त्र तीन प्रकार का है। ज्ञानी पुरुषों ने, निमित्तशास्त्र का जैसा निरूपण किया है, मैं प्रषिपुत्र भी वैसा ही निरूपण Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रम करूंगा। २:- एवं बहुप्पयारं गुप्पायपरंपराय णाऊणं । हरिसिपुत्तेण मुणिणा सव्वप्पियं अप्पगंथेण ।।१८७|| अर्थ :- इसतरह अनेक प्रकार से उत्पातों का स्वरूप मुझा अषिपुत्र मुनि ने स्व-बुद्धि के अनुसार इस छोटे से ग्रन्थ में बताये है। ग्रन्थकर्ता इस ग्रन्थ का नाम दव्वणिमित्तं मानते हैं। यह तथ्य द्वितीय गाथा के वोच्छं दव्वणिमित्तं इस चरण से ज्ञात होता है। ग्रन्थप्राप्ति का इतिहास: ब्यावर चातुर्मास काके दिसम्बर १३०१ में मैं अजमेर पहुँना ! * अजयमेरु नाम से प्रसिद्ध यह शहर सांस्कृतिक विरासतों का मुख्य केन्द्र है। यहाँ भद्दारक परम्परा की गद्दी भी थी । विशाल जैनमन्दिरो से सम्पन्न इस शहर में अनेक प्राचीन ग्रन्थभण्डारों का दर्शन करके मन अतिशय सन्तुष्ठ हुआ। अजमेर गया हुआ कोई भी व्यक्ति सोनी जी की नसिया से अपरिचित नहीं रह सकता । चाहे जैन हो या अज्जैन, सोनी जी की नसिया में स्थित अयोध्या नगरी की रचना को देखने के लिए अवश्य आता है। उसी विशाल नसिया में एक विशाल ग्रन्थभण्डार (श्री सिद्धकूट चैत्यालय सरस्वती भण्डार) है। उसमें आधुनिक युग में प्रकाशित किये। गये कृतियों का संकलन तो है ही, साथ में हस्तलिखित पाण्डुलिपियों का भी संकलन है। ग्रन्थभण्डार इतना व्यवस्थितरूप में सुसज्जित था। कि उसे देखकर मन व्यवस्थापकों की प्रशंसा करने का लोभ संवरण ही न कर पाया। उससमय इन्दरचन्द जी पाटनी उस ग्रन्थभण्डार की देखभाल करते थे। उन्होंने हमारी इच्छा का आदर करते हुए हमें एक-एक करके : * भण्डार में स्थित सारी हस्तलिखित पाण्डुलिपियों का दर्शन कराया । उन ग्रन्थों में हमें निमित्तशास्त्रम् नामक ग्रन्थ उपलब्ध हुआ । उसे देखकर हमें बहुत आश्चर्य हुआ, क्योंकि तबतक हमारे लिए आचार्य श्री ५ अषिपुत्र जी महाराज का नाम अश्रुतपूर्व था । हमने ग्रन्थ को आधोपान्त Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..................-. - ----- निमित्तशास्त्रम [VIE पढ़ा । मंगलाचरण में भगवान आदिनाथ और जिन भगवान की स्तुति को पाया तो इस कृति का जैनत्व स्वयमेव सिद्ध हो गया । इस निश्चय के उपरान्त हमने इस ग्रन्थ का अनेकों बार स्वाध्याय किया। देवलगाँव राजा के चातुर्मास में अनेक बार जैनज्योतिष विषयक वर्या में इस राज्य का आधा । सं. वे कुरा साधुओं में भी इस ग्रन्थ के मर्म को समझने की इच्छा जागृत हुई। उन्हें समझाने के उद्देश्य से ही इस कृति का प्रणयन हुआ। इस बात को प्रामाणिकता से स्वीकार करने में मुझे कोई झिझक नहीं है कि यह अनुवाद मेरा स्वतन्त्र अनुवाद नहीं है। हस्तलिखित पाण्डुलिपि में ढूंढारी भाषा में अज्ञातकर्तृक एक अनुवाद है. जिसका प्रकाशन इसी कृति के परिशिष्ट में किया जा रहा है, उसका सहयोग लेकर मैंने इस अनुवाद को १९१७ में किशनगढ़ के वर्षायोग में किया था *। देवलगाँव राजा में प्रत्येक प्रकरण के अन्त में प्रकरणवर्णित विषय का विशदीकरण किया गया है। इस कार्य के लिए भद्रबाहु संहिता और अन्य में ज्योतिषीय ग्रन्थों का सहयोग लिया है। म सौभाग्य से मुझे श्री कल्याण पावर प्रिण्टिंग प्रेस (सोलापुर) से प्रकाशित वईमान पार्श्वनाथ शास्त्री के व्दारा सम्पादित और पण्डित श्री लालाराम जी शास्त्री के व्दारा अनुवादित ग्रन्थ प्राप्त हुआ। गुरुदय की अनुकम्पा से ही यह अनुवाद पूर्ण हुआ है। मैं ज्योतिष का जाता नहीं हूँ। फिर भी मैंने गुरुभक्ति से प्रेरित होकर इस कृति का अनुवाद किया है। इस अनुवाद में यदि कहीं तृटी रह गयी हो तो सुधीजन , सुधारने का कष्ट करें। ज्योतिष और कर्मसिद्धान्त दोनों का गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर दोनों में किसीप्रकार का विरोधाभास परिलक्षित नहीं होता। इन दोनों की विषयविवेचना को समझाना अनिवार्य है। उसे ज्ञात किये। बिना इस ग्रन्थ का स्वाध्याय करने वाले भव्य के मन में अनेक प्रश्न । जागृत हो सकते हैं। ॐ संसार में जीव के साथ घटने वाली प्रत्येक घटना के पीछे किसी न किसी कर्म की गति कारणीभूत होती है । मनुष्य ने पूर्वभव में जो कुछ है शुभ अथवा अशुभ कर्म उपार्जित किया था. इस भव में वह उन कर्मों का Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 नितिशास्त्रम् [VIII उदय होने पर तद्रूप फल प्राप्त करता है, यह सर्वमान्य सिद्धान्त है । कर्मसिद्धान्त के अनुसार कर्मों की स्थिति और अनुभाग में अन्तर लाया जा सकता है, क्योंकि कर्म द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का निमित्त पाकर अपना फल देने में समर्थ होते हैं । तीर्थंकर भगवान को जिन कर्मों का उदय होता है, उनमें एक असातावेदनीय भी है। इसी कारण तत्त्वार्थसूत्रकार ने उपचार से उनके; ग्यारह परीषह स्वीकार किये हैं। उनका असाता वेदनीय कर्म भी साता में संक्रमित होकर फल देता है। मनुष्यगति में नाना जीवों की अपेक्षा से उदय में आने वाले कर्मों की संख्या १०२ है । प्रतिसमय कर्म उदय में आ रहे हैं। यदि उनका फल भोगना अनिवार्य हो जायेगा, तो अविपाक निर्जरा के और मोक्षमार्ग के कारणों का सेवन करना व्यर्थ हो ठहरेगा। नहीं, कमी में हम अपने पुरुषार्थ के प्रभाव से परिवर्तन ला सकते हैं । बाह्यनिमित्तों को देखकर विशिष्ट श्रुतज्ञान के प्रभाव से उनका फल कर्मों के उदय से पूर्व भी जाना जा सकता है। आगम में श्रुतज्ञान के लिंगज और शब्दज ये दो भेद किये हैं। लिंगज श्रुतज्ञान अर्थ से अर्थान्तर का बोध कराता है। आगामी काल में होने वाली घटनाओं का आज ही संकेत करने वाला होने से ज्योतिषशास्त्र मात्र संकेतशास्त्र है । व्यवहारनिपुण और पुरुषार्थकुशल भव्य ज्योतिषशास्त्र के बल पर कर्मों की गति को जानकर सजग हो जावें, यही इस ग्रन्थरचना का वास्तविक उद्देश्य है । इस ग्रन्थ के संशोधन कार्य में मुझे संघ के साधुओं ने महत्वपूर्ण सहयोग प्रदान किया है, उनके ही परिश्रम के फल से इस ग्रन्थ का प्रकाशन सम्भव हुआ है। इस ग्रन्थ के प्रकाशन में मुझे प्रत्यक्ष और परोक्षरूप से अनेक श्रुतभक्त भव्य श्रावक-श्राविकाओं ने सहयोग प्रदान : किया हैं। उन समस्त सहयोगियों को विशिष्ट श्रुतज्ञान और निर्दोष चारित्ररत्न की प्राप्ति हो, यही मेरा आशीर्वाद है । | आइये इस अपूर्व ग्रन्थ का स्वाध्याय करके ज्ञान का अर्जन करें, जिससे कि धर्मसाधना निर्विघ्न सम्पन्न हो सकें । मुनि सुविधिसागर 100-1 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ---निमितशास्त्रम | LXT अनुवादक का परिचय ...... . .".:.:..:".'.... औरंगाबाद शहर धार्मिक और सामाजिकदृष्टि से अनेक सन्तो, विचारकों तथा सुधारकों का जन्म या कार्यक्षेत्र रहा है। इसी शहर में है। १११-3-१९७१ को रात्रिकालीन अन्ध:कार में तमस से बंद करने वाले हैं जयकुमार नामक पूर्णचन्द्र का जन्म हुआ। श्रीमान् इन्दरचन्द जी । पापड़ीवाल और माता कंचनबाई की आँखों का तारा यह सपूत एकदिन । विश्ववन्ध श्रमणेश्वर के पद पर आसीन हो जायेगा - यह शायद किसी ने सोचा तक नहीं होगा। १ जयकुमार बचपन से ही विद्याव्यासंगी, परिश्रमी, पराक्रमी. सुहास्यवदनी, प्रज्ञापुंज, विनयी और प्रतिज्ञ थे । किसी भी कार्य को । प्रारंभ करके पूर्णत्व तक ले जाना उनके स्वभाव में ही था। दया और सहयोग उनके गुणालंकार थे । बडों की विनय करना परन्तु अपनी बात से स्पष्ट शब्दों में व्यक्त करना तो उनकी विशेषता थी। भय भी उनके नाम से भय खाता था । विनोदप्रियता और अजातशत्रुता उनको प्राप्त हुआ है सृष्टिप्रदत्त उपहार ही था। क जो परिस्थितियों से दो हाथ करना नहीं जानता हो, वह कभी महान हैं नहीं बन सकता। संघर्ष ही उत्कर्ष का बीज है। जन्म के उपरान्त तीसरे ही दिन आपकी आँखों में नासुर नामक रोग हुआ । अबतक उसकी छह में बार शल्यचिकित्सा हो चुकी है। बचपन से आपकी कमर खराब है, फलत: पाँच वर्षपर्यन्त आप बैठ नहीं पाते थे । यद्यपि अनेकों उपचार किये गये। परन्तु आज भी उपर्युक्त ये दो अंग कमजोर अवस्था में हैं। जराकुमार ने पाँचवीं कक्षा तक का अध्ययन औरंगाबाद में ही किया। तत्पश्चात् तीन वर्षों तक का अध्ययन उन्होंने बालब्रह्माचर्याश्रमबाहुबली (कुम्भीज) में किया। शिक्षा के अन्तिम दो वर्ष पुनः औरंगाबाद । में ही व्यतीत हुये । आपने लौकिकदृष्टि से मात्र दसवीं कक्षा तक ही अध्ययन किया है, परन्तु आपकी अध्ययनशीलता. ने समस्त उपमानों को पीछे छोड़ दिया है । आप निजी अध्ययन के साथ-साथ अपनी बहन के - विजया व भाई भरतकुमार को भी पढाया करते थे। आप घर में अद्वितीय Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमितशास्त्रम (प्रथम) थे तो बुद्धिद में भी अद्वितीय थे। र अति-बालपन से ही आपको धार्मिक संस्कारों से विभूषित किया गया था। आपने आयु के दसवें वर्ष में ही परम पूज्य आचार्य श्री समन्तभद्र जी महाराज से शुद्धजलत्याग, रात्रिभोजनत्याग, कन्दमूलत्याग और पच्चीस वर्ष का होने तक ब्रह्मचारी रहने का नियम लिया । जब आप दूसरी कक्षा में पढ़ते थे, तभी से आपने चाय का त्याग कर दिया था । * आपका त्याग इतना सहज था कि दूसरों को कभी कष्ट नहीं हुआ । आप किसी वस्तु का त्याग करते थे तो उसके बदले में अन्य वस्तु की क चाहना नहीं करते थे। ___आप गुरु का अन्वेषण कर रहे थे । महाराष्ट्र प्रान्त के शेलू नामक है गाँव में आपने परम पूज्य आचार्यकल्प श्री हेमसागर जी महाराज के १ दर्शन किये । उनकी चर्या एवं ज्ञान रो अभिभूत होकर आपने उनके । चरणों में श्रीफल भेंट किया एवं अपने विचारों से उन्हे अवगत कराया। उनकी अनुहा से ही जयकुमार ने दसवीं तक की शिक्षा प्राप्त की। २८-1 *४-८६ को घर का आजीवन त्याग करके चरित्रनायक ने गुरुचरणों की शरण को वरण किया। जलगाँव जिले के नेरी नामक गाँव में आपने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया । रागियों के रंग-बिरंदो वस्त्रों को त्याग कर आपने में * श्वेतवस्त्र परिधान किये। वह अक्षयतृतीया का पावन दिवस था। गुरुदेव ने आपको जैनेन्द्रकुमार यह नवीन नाम प्रदान किया । गुरु का अनुगमन करते हुए आप अतिशय क्षेत्र कचनेर जी पहुँचे । आषाढ़ शुक्ला अष्टमी के दिन आपने चिन्तामणि पार्श्वनाथ प्रभु के समक्ष गुरु के द्वारा सप्तम प्रतिमाव्रत धारण किया । तदनन्तर आप गुरुदेव के चरणों ना में अध्ययनरत हो गये। १३-3 - ८१७ को आपने शुल्लक दीक्षा धारण की । जन्मभूमि से केवल ५५ कि.मी. दूरी पर स्थित शिऊर नामक गाँव में यह समारोह सम्पन हुआ। पूज्य गुरुदेव ने आपका नाम रवीन्द्रसागर रखा । सन् ॐ ११८७ का वर्षायोग न्यायडोंगरी (जि. नाशिक) में हआ। वर्षायोग के तत्काल बाद २३-१०-१९८७ को आपने ऐलक दीक्षा स्वीकार की। गुरदेव ने आपको रूपेन्द्रसागर इस नाम से अलंकृत किया । आपने Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमितशास्त्रम E गुरु के साथ सिद्धक्षेत्र मांगीतुंगी के दर्शन किये तथा सोनज (मालेगाँव) से आपने अलग विचरण करना प्रारंभ किया। विहार करते-करते आप अपने दादागुरु परमपूज्य आचार्य श्री सन्मतिसागर जी महाराज के चरमों में पहुँचे । अतिशमन या जि. डूंगरपुर) में आपने दादागुरु के करकमलों से ११-४-१९८१ को मुनिदीक्षा । ग्रहण की। मुनिदीक्षा का प्रथम चातुर्मास गुरुदेव के साथ सम्पन्न करके में आपने अलग विहार कर दिया । आत्मसाधना आपका ध्येय था तो सारा समाज प्रबोधित हो यह आपकी पवित्र इच्छा थी । इन दोनों ही लक्ष्यों ने को सिद्ध करते हुए आपने अनेक गाँवों और शहरों को अपनी चरणरज से पवित्र किया। अापकी प्रवचनशैली बे-जोड़ है। आपके प्रवचन में केवल ओज ही नहीं, अपितु साथ में आगम की धाराप्रवाहिकता भी है | विषय की सर्वांगिनता, दृष्टान्त की सहजता और शैली में नयविवक्षा का होना आपके प्रवचनों का वैशिष्ट्य है । प्रवचनशैली की तरह ही आपकी अध्यापनशैली अनुपम है । प्रत्येक चातुर्मास में आप नवयुवकों को धार्मिक शिक्षण कराते हैं । फिजुलखर्चीपना आपको रुचिकर नहीं है तथा समय * की पाबन्दी में आप सबके लिए एक आदर्श उदाहरण हैं। : आप अनेक विशेषताओं से सम्पन्न हैं और अनेक सदगुणों के समाधार भी। आपकी समस्त विशेषताओं को विलोक कर दूरदृष्टिवान गुरुदेव ने १९५५ में आपको आचार्यपद प्रदान करने की घोषणा की । पदों के प्रति निरासक्त रहते हुए आपने गुरुदेव से निवेदन किया कि हे गुरुदेव ! आप मुइन पर प्रसन्न हैं तो आचार्यपद नहीं , अपितु अपने दो पद (चरणयुगल) प्रदान कीजिये ताकि चारित्रपथ का अनुगमन करते हुए मैं कभी थकावट का अनुभव म कसं । बालयोगी, शब्दशिल्पी जैसे कितने ही पढ़ों को है आपने ग्रहण नहीं किया। S आपकी रुचि प्राचीन शास्त्रों की सुरक्षा में है। आप जहाँ भी जाते हैं, वहाँ के हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के ग्रन्थागार का अवलोकन अवश्य करते हैं। अप्रकाशित ग्रन्थों का प्रकाशन कराना आपका ध्येय है। अबतक संघ से वेरखनसार, दव्वसंग्गह आदि ग्रन्थों का प्रकाशन हो चुका है जो कि मात्र पाण्डुलिपि में ही उपलब्ध थे । मिथ्यात्वनिषेध, श्रीपुराण, Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रम् OXIC बाफला सामायिक पात स्वतन्त्रनामृतम् आदि ग्रन्थ भी प्रकाशनाधीन हैं । 1 परिचय के लेखन तक आप ३ मुनि, ९ आर्यिका एक क्षुल्लक एवं एक क्षुल्लिका दीक्षा दे चुके हैं। अबतक आपके सानिध्य में १ मुनि व ५ आर्यिकाओं की सल्लेखना हो चुकी है। इतने अपार वैभव के धनी होकर भी आपको अहंकार स्पर्श तक न कर पाया। आपकी चर्या सहज है और आपकी चर्चा अतिमार्मिक है। आपकी स्पष्टवादिता और सरलता ही ऐसा अद्भुत वशीकरण मन्त्र हैं कि श्रावकवर्ग आपके पास खिंचा चला आता है । का आपके कारण जैनों का धर्मध्वज गर्वयुक्त होकर लहरा रहा है वह ऐसा ही लग रहे आपकी धर्म जिला दूगुणी और रात चौगुणी बढ़ती रहें. आपका शिष्य परिवार दिनों-दिन विकसित होता रहें, आपको स्वास्थ्य ऐश्वर्य की प्राप्ति हों, आपके द्वारा नित - नवीन ग्रन्थों का अनुवाद होकर प्रकाशन होता रहें, आपका नाम साधकशिष्यों के लिए आदर्श बनें, आपका यश दिग्दिगन्त में फैलता रहें तथा आप दीर्घायुषी बनकर निरन्तर आध्यात्मिक प्रगति करते रहें यही हम सबकी मंगल कामना है । Y Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिमित्तशास्त्रम् अनुक्रमणिका) क्रमांक विषय भगवान आदिनाथ की स्तुति भगवान महावीर की स्तुति निज्ञा निमित्त के भेद निमित्तों का कथन करने की प्रतिज्ञा सूर्य प्रकरण मेघयोग प्रकरण चन्द्र प्रकरण उत्पातयोग प्रकरण वर्षाविषयक उत्पात देवोत्पात प्रकरण राजोत्पात प्रकरण इन्द्रधनुष प्रकरण उल्कापतन प्रकरण . . गन्धर्वनगर प्रकरण उत्पलपतन प्रकरण विद्युल्लता प्रकरण मेघयोग प्रकरण धूमकेतु प्रकरण अन्धसमापन अन्तिम निवेदन अज्ञातकर्तृक अनुवाद श्लोकानुक्रमणिका हमारे उपलब्ध प्रकाशन Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M निमित्तशास्त्रम निमितशास्त्रामा सो जयउ जयउ उसहो अणंतसंसारसायणुत्तिण्णो। झाणेणलेण जेयणलीला इविनि जिययमणो ॥१॥ अर्थ : ___ अनन्त संसार को इन्द्रियों के दमन का उपदेश देकर जो ध्यान * में लीन हुए, वे भगवान आदिनाथ जयवन्त हो-जयवन्त हो। भावार्थ: ग्रन्थ के आरम्भ में ग्रन्थकार श्री ऋषिपुत्राचार्य आदिनाथ भगवान का जयघोष कर रहे हैं। कैसे हैं वे आदिनाथ ? संसार में संसरण करने वाले अजन्तानन्त भव्यजीवों को संसार के कारणभूत इन्द्रियों के व्यापार का दमन करने की शिक्षा देने वाले हैं तथा ध्यान में मन्न हैं। ₹ णमिऊण वड्डमाणं णवकेवललद्धिमंडियं विमलं। वोच्छं दव्वणिमित्तंरिसिपुत्तयणामदो तत्थ ॥सा अर्थ : नौ केवललब्धियों से मण्डित, अत्यन्त विमल श्री वर्धमान स्वामी । को नमस्कार करके मैं (ऋषिपुत्र) दव्वणिमित्तं अर्थात् निमित्तशास्त्र नामक ग्रन्थ का कथन करता हूँ । भावार्थ: क्षायिक भाव के नौ भेद हैं । यथा - केवलदर्शन, केवलज्ञान, क्षायिक सम्यग्दर्शन, क्षायिक सम्यक्चारित्र तथा पाँच क्षायिक लब्धियाँ (दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य) । इन्हीं नौ भावों को आगम में * केवललब्धि इस संझा से अलंकृत किया गया है। श्री दर्दमान स्वामी हुन लब्धियों से मण्डित हैं। ग्रन्थकार चरम तीर्थकर श्री वर्द्धमान भगवान को नमस्कार करके प्रतिक्षा करते हैं कि Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -निमित्तशास्त्रम - मैं निमित्त शास्त्र नामक ग्रन्थ का कथन करूंगा। अह खलुमारिसिपुत्तियणाणणिमुत्तुपाय। पस्सयणपक्खइस्सामिवम्गमुणिसिद्धकम्मं ॥ जोइसणाणोविहपणविऊणव्वाव्वसव्वणितुप्पायं। तंखलुतिविहेण वोच्छामि ॥३॥ अर्थ : यह निश्चय है कि निमित्तशास्त्र तीन प्रकार का है। ज्ञानी पुरुषों जे निमित्तशास्त्र का जैसा निरूपण किया है, मैं ऋषिपुत्र भी वैसा ही निरूपण करूंगा। भावार्थ:. निमित्तशास्त्रों में तीन प्रकार के निमित्तों का कथन पाया जाता है। ग्रन्थकार कहते हैं कि मैं पूर्वाचार्यों के मत का अनुसरण करते हुए उन । तीनों का वर्णन करूंगा। इस गाथा के व्दारा व्रन्थकार ने अपनी आत्मकर्तृता का निषेध किया है तथा स्वेच्छाचारिता को निरस्त करते हुए पूर्वाचार्यो के मत की पुष्टि की है। इससे इस अन्य की प्रामाणिकता भी सुस्पष्ट हो जाती है। जे दिठ्ठ भुविरसण्ण जे दिट्ठा कुहमेण कत्ताणं। सदसंकलण दिनावउसदिय ऐणणाणधिया ॥४|| अर्थ : जो भूमि पर दिखाई पड़ें. जो आकाश में प्रकट होते ही लथा जिसकाइ शब्द सुनाई दे. इसतरह निमित्त तीन भेदों वाला है ऐसा ज्ञान से जाना जाता है। भावार्थ : निमित्त तीन प्रकार के होते हैं - १. जो भूमि पर दिखाई पड़ें। जैसे - चंचल पदार्थों का अचल हो जाना। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -निमित्तशास्त्रम् - २. जो आकाश में प्रकट होते हो। जैसे- सूर्योदय के समय दिशायें लहू के समाज लाल होना अशता सूर्यास्त के समय सौ से धुआँ निकल रहा है । ऐसा दिखाई देना। 10. जिसका शब्द सुनाई दे । जैसे- काकशब्द, उलूकशब्द आदि। । जे चारणेण दिठ्ठा अणं दो सायसहम्मणाणेण। । जो पाहुणेण भणिया तं खलु तिविहेण वोच्छामि ||५|| अर्थ : धारणमुनियों ने जिसतरह देखा तथा उन्होंने अपने ज्ञान के द्वारा जिसप्रकार से उसके शुभाशुभ का कथन किया - अन्य पण्डितों ई ने भी जैसा वर्णन किया है, मैं उस तीन प्रकार के निमित्तज्ञान का वैसा ही वर्णन करता हूँ। भावार्थ : जैनागम की परिपाटी पूर्वाचार्यों का अनुसरण करने वाली है। अन्धकर्ता कहते हैं कि मैं अपने मन से कुछ भी नहीं कहूँगा । पूर्व में चारणऋद्धि के धारक मुनियों ने या अन्य विद्वान आचार्यों ने जैसा वर्णन किया है, मैं भी वैसा ही वर्णन करूंगा। सूरोदय अच्छमणे चंदमसरिक्खमम्गहचरियं । तं पिच्छियं णिमित्तं सव्वं आएसिहं कुणहं ॥६॥ अर्थ: सूर्योदय से पूर्व और सूर्यास्त के पश्चात् चन्द्र या नक्षत्र आदि के मार्ग का अवलोकन करके निमित्तों को जानना चाहिये । भावार्थ : इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम आकाशीय निमित्तों का कथन किया जा रहा है। आकाशमण्डल सूर्योदय व सूर्यास्त के समय आकाशमण्डल कैसा है ? चन्द्रगति व नक्षत्रादिकों की गति कैसी है ? इन सब का ज्ञान करके निमित्तहानी उसका फल जान लेता है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ む निर्मितशास्त्रम्) सूर्य प्रकरण सूरोय उथव्वमणो स्तुप्पलवण्णहोव्व दीसिज्ज । सो कुणइ रायमरणं मंत्तीपुत्तं विणासेई ॥७॥ अर्थ : ४ सूर्योदय के समय यदि सभी दिशायें मूंगे के समान लाल वर्ण की हो जावें तो उस देश का राजा अथवा मन्त्रीपुत्र मरण को प्राप्त होगा ऐसा जानना चाहिये । ससलोहिवण्णहोवरि संकुण इत्ति होइ णायव्वो । संगामं पुण घोरं खग्गं सूरो गिवेदेई |cli अर्थ : सूर्योदय के समय दिशायें यदि माणिकमणि के समान वर्ण वाली अथवा रक्त के समान वर्ण वाली हो जाय तो वहाँ घोर युद्ध होगा तथा 'खूब तलवारें चलेगी ऐसा जानना चाहिये । हेमंतम्मिय उण्णं गिम्हे सीयं पमुच्चए सूरो । लोयस्स वाहि मरणं काले कालं ण संदेहो ॥ ९ ॥ अर्थ : यदि हेमन्त ऋतु में सूर्य से गर्मी और ग्रीष्मकाल में सूर्य से सर्दी निकले तो मनुष्य बार-बार बीमारियों से मरेंगे। इसमें किसीप्रकार का सन्देह नहीं करना चाहिये । उदयच्छमणो सूरो अग्गिफुलिंगेव णाय मुच्चंतो। दीसिज्ज जम्हि देसे तम्हि विणासो णिवेदेदि ॥१०॥ अर्थ : यदि सूर्योदय अथवा सूर्यास्त के समय जिस देश में ऐसा ज्ञात Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्त शास्त्रम् होवे कि सूर्य से अग्नि की चिनगारियाँ निकल रही हैं तो उस देश में हर प्रकार से विनाश होगा ऐसा निवेदन करना चाहिये । अह णिप्पहोव दीसह उच्छंतो धूलिधूसरो छायो । सो कुणइ राइमरणं वरिसदिणभंतरे सूरो ॥११॥ अर्थ :~ यदि सूर्यास्त के समय ऐसा लगे कि सूर्य से धुआँ निकल रहा हो या धूलि निकल रही हो तो एक वर्ष के अन्दर उस देश के राजा की मृत्यु होगी ऐसा जानना चाहिये । उदयच्छमणे सूरो वक्को इव दीसए णहयलम्मि | सो अइरेण य साहदि मंत्तिवह रायमरणं च ॥ १२॥ अर्थ : यदि सूर्योदय व सूर्यास्त के समय सूर्य की आकृति टेढी बालुम हो तो राजा या मन्त्री का मरण अवश्य होगा ऐसा समझो । जइ मच्छासरिमेणं मज्झे णयमयरणुवि अढभेण । ठायज्जइ उट्टंतो लोयस्स भय णिवेएइ ॥ १३ ॥ अर्थ : सूर्यास्त के समय यदि सूर्य के भीतर से जाज्वल्यमान मछली के आकार का उठता हुआ चिह्न दिखाई पड़े तो वह मनुष्यों के लिए भय का कारण होता है। रणूवेण भेणं गीढो जइ दीसए समुठ्ठेतो । जं देसम्म जे दीसइ छम्मास विणासएणं च ॥१४॥ अर्थ : सूर्य से लम्बी ज्वाला उठती हुई दिखाई पड़ती हो तो छह मास के भीतर-भीतर देश का विनाश हो जायेगा । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CH -निमित्तशास्त्रम् -- अह सूरपासउइवो दीसइ पडिसूर उज्जाया विविज्। मासे कुणइ पीडा रायाणं वाहि लोयं च॥१५॥ अर्थ :र सूर्यास्त के समय यदि सूर्य के समीप उद्योतवान द्वितीय सूर्य दिखाई दे तो जान लेना चाहिये कि एक माह में राजा और प्रजा दोनों को व्याधि के कारण कष्ट होगा। अह दीसइ जइ खंडो उधूलो धूलिधूसरो सूरो। है सो कुणइ वाहि मरणं देसविणासं च दुभिक्खं॥१६।। अर्थ : सूर्य में से धूलि और धुआँ उठता हुआ दिखाई दे तो ऐसा जानना चाहिये कि उस देश में व्याधि से पीड़ा होगी अथवा मरण होगा। देश का * नाश होगा और अकाल पड़ेगा। र अह मंडलेण णुद्धं पीयय मंजिल सरिस किण्हेण। 3 सो कुणइ णवरसभया पंचमदिवसे ण संदेहो॥१७॥ अर्थ : सूर्यास्त के समय यदि सूर्य के चारों ओर पीला, मंजीठी रंग का अथवा श्यामवर्ण का मण्डल दिखाई दे तो पाँचवें दिन नौ रसों में विकार होगा । इसमें कोई सन्देह नहीं है। है अह हत्यिसरिस मेहो सूरं पाएणथिन्तु मक्कमई। सो कुणइ राइमरणं छठे दिवहे ण संदेहो॥१८॥ अर्थ : यदि सूर्य साँप और हाथी के समान दिखाई देवे तो छठे दिन 1. राजा का मरण होगा। इसमें कोई सन्देह नहीं है । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -निमित्तशास्त्रम् ---- । ७। ___ अह णच्चंता दीसइ पुरुसेहि बहुविदेहि भूवेहि। ___ सो पंचमम्मि मासं रोयं रणे णिवेदेहि॥१९॥ अर्थ : यदि अस्त होते हुए सूर्य में से पुरुषों के आकार की बहुत सी शाखायें जाज्वल्यमान होकर निकल रही हैं ऐसा दिखाई दे तो पाँचवें माह में बहुत से मनुष्य रुदन को प्राप्त होंगे। उदयच्छमणो सूरो सूरिहि बहुएहि दीसए विद्धो। मासे विदिए जुद्धं तद्देसो होई णायव्वं ॥२०|| अर्थ : यदि सूर्योदय और सूर्यास्त होने के समय में सूर्य में छेद दिखाई दे तो वहाँ पर दो माह के अन्दर युद्ध होगा और उस युद्ध में बहुत से लोग । मरेंगे। अह धूमो अच्छयणे गिम्हम्हि य दीसए जय सूरो। देसम्मि इदं घोरं तेरस दिय हम्म जुझं च॥२१॥ १ | | अर्थ: । यदि सूर्यास्त के समय में सूर्य के भीतर से धुों के गोले निकल में रहे हैं ऐसा ज्ञात हो तो तेरहवें दिन वहाँ युद्ध होगा ऐसा जानो। प्रकरण का विशेषार्थ सूर्य प्रकरण में सूर्य के निमित्त से होने वाले शुभाशुभ फलों का ट्र कथन किया गया है। इस प्रकरण में सूर्योदय और सूर्यास्त के समय सूर्य के आकार और रंग के आधार पर शुभाशुभत्व प्रकट किया गया है। भु यदि सूर्योदय के समय सारी दिशायें मूंगे के समान लाल दिखाई। देती हो तो उस देश के राजा अथवा मन्त्री के पुत्र की मृत्यु हो सकती है। यदि सूर्योदय के समय में दसों दिशायें रक्त के समान लाल हो तो उस Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (निमित्तशास्त्रम्) [ ¢ देश में घोर युद्ध होगा और शस्त्रास्त्रों की धूम मचेगी । हेमन्तऋतु के वातावरण में सर्दी होती है और ग्रीष्मऋतु के वातावरण में उष्मा होती है। इस स्वाभाविक दशा से विपरीत वातावरण होने पर उस देश में मनुष्यों की बीमारियों के कारण मृत्यु होगी । जिस देश में ऐसा ज्ञात हो कि सूर्योदय और सूर्यास्त के समय सूर्य के भीतर से अग्नि की चिनगारियाँ निकल रही है, उस देश का विनाश अवश्यम्भावी है । रादि सूर्य से धूलिया धूआँ निकलता हुआ होता हो तो एक वर्ष के अन्दर उस देश के राजा की मृत्यु होगी । सूर्यास्त के समय में उसके भीतर से मछली के आकार का जाज्वल्यमान चिह्न दिखाई पड़ने पर उस क्षेत्र के मनुष्यों को भय उत्पन्न होगा ऐसा जानना चाहिये। उस समय सूर्य से लम्बी ज्वाला उठती हुयी दिखाई देना उस देश का छह माह के अन्दर विनाश हो जायेगा इस बात को सूचित करता है। सूर्यास्त के समय सूर्य के पास उद्योतित दूसरा सूर्य दिखाई दें तो राजा और प्रजा दोनों को भी निकट भविष्य में कष्ट होने वाला है, ऐसा प्रकट करता है । सूर्य के टुकड़े-टुकड़े दिखें, उसमें धूआँ या धूलि दिखाई देवें, सूर्य के चारों ओर पीले रंग का अथवा काले रंग का मण्डल दिखाई देवें तो उस देश में दुर्भिक्ष होगा व नौ रस में विकार हो जायेगा । सूर्योदय और सूर्यास्त के समय सूर्य में छेद दिखाई देने पर उस क्षेत्र में दो माह में यह हो सकता है। सूर्यास्त के समय सूर्य के भीतर से धूओं के गोले निकलते हुए दिखने पर उस दिन से तेरहवें दिन के अन्दर युद्ध हो सकता है। सूर्योदय के समय में दसों दिशायें पीत, हरित या अनेक वर्ण वाली दिखाई पड़ें तो प्रजा सात दिनों में रोग को प्राप्त होगी। सूर्योदय 'के समय में दसों दिशायें नील वर्ण वाली हो तो समय पर वर्षा होगी। सूर्योदय के समय में दसों दिशायें काले वर्ण वाली हो तो बालकों में रोग, फैलते हैं। - सूर्योदय के उदयकाल में शुक्लवर्ण की परिधि दिखलाई देने पर राजा को विपदा प्राप्त होती है। सूर्योदय के उदयकाल में लालवर्ण की परिधि दिखलाई देने पर सेना के बल की वृद्धि होती है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ----निमित्तशास्त्रम् - प्रतिदिन सूर्य के अर्धास्त हो जाने के समय को लेकर जब तक आकाश में नक्षत्र अच्छीतरह दिखाई न पड़े तब तक संध्या काल रहता है, उसी प्रकार अर्धोदित सूर्योदय से पूर्व तारादर्शन तक संध्या काल माना जाता है। टूटी-फूटी. क्षीण विध्वस्त, विकराल, कुटिल, बाई ओर को झुकी हुई छोटी-छोटी तथा मलिन सूर्यकिरणें सायंकाल में हो तो उपद्रव है या युद्ध होने की सूचना समझनी चाहिये । ऐसी सन्ध्या वर्षा का रोधन भी किया करती है। यदि काला, पीला, कपिश, लाल, हरा आदि विभिन्न वर्गों की किरणें आकाश में फैल जाये तो अच्छी वर्षा होती है तथा सात दिन तक भय भी बना रहता है। यदि संध्या के समय में सूर्य की किरणें श्वेत वर्ण की हो तो मानव का अभ्युदय होगा और उसे शान्ति प्राप्त होगी। सन्ध्या के समय में सूर्य किरणे तामरंग की हो तो सेनापति की। मृत्यु होती है । सन्ध्या के समय में सूर्य किरणें पीले या लाल रंग की हो । तो सेनापति को दुःख पहुँचता है। सन्ध्या के समय में सूर्य किरणें हरित वर्ण की हो तो पशु और धान्य का नाश होता है। सन्ध्या के समय में सूर्य किरणें धूम वर्ण की हो तो गायों का विनाश होता है। सन्ध्या के समय में सूर्य किरणें मंजीठ के समान आभा और रंग वाली हो तो शस्त्र और अग्निकृत भय होता है। सन्ध्या के समय में सूर्य किरणे भरम के समान रंग वाली हो तो अनावृष्टि का योग समझाना चाहिये। सन्ध्या के समय में सूर्य किरणें मिश्रित एवं कल्माष रंग की हो तो वृष्टि का क्षीणभाव होता है । सन्ध्याकालीन सूर्यकिरणों का स्वच्छ और शुभ होना मंगलकारक माना गया है। सूर्य की किरणें सन्ध्याकाल में जल और दायु से मिलकर दण्ड के आकार को धारण करें तो उसे दण्ड कहते हैं। तब यह दण्ड विदिशााओं में स्थिर होता है तब वह राजाओं के लिए अनिष्टकारी होता है और जब वह दण्ड दिशाओं में स्थित होता है, तब वह छिजातियों के लिए अनिष्टकारी होता है। दिन निकलने से पहले और मध्यसन्धि में दण्ड दिखने पर शस्त्र और रोगासे से भय उत्पन्न होता है आकाश में सूर्य के ढकने वाले दही के समान किनारेदार नीले Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिपितशास्त्रम [१० मेघ को सतर कहते हैं। यह नीले वर्ण का मेघ यदि नीचे की ओर मुख किये हुए पता चले तो बहुत अधिक वर्षा होती है। अभतरु शत्रु के ऊपर। आक्रमण करने वाले राजा के पीछे-पीछे चलकर अचानक शान्त हो जाय तो युवराज और मन्त्री का नाश होता है। यदि शाम के समय गन्धर्वनगर, कुहासा और धूम छाये हुए दिखाई पड़ जाये तो वर्षा कम होती है। शाम के समय में शस्त्र को धारण किए हुए मनुष्य रूपधारी मेध सूर्य के सामने छिन्न-भिल हो तो शत्रुभय होता है। श्वेतवर्ण और श्वेत किनारे वाले मेघ शाम के समय में सूर्य को आच्छादित करें तो वर्षा होने का योग समझना चाहिये। यदि सूर्योदय के काल में दिशायें पीत. हरित और चित्र-विचित्र रंग की हो तो सात दिन में प्रजा में. भयंकर रोग फैलेंगे। यदि सूर्योदय के काल में दिशायें नीले रंग की हो तो समय पर वर्षा होगी और यदि सूर्योदय के काल में दिशायें काले रंग की; हो तो बालकों में रोग फैलता है। प्रातःकालीन और सायंकालीन सन्ध्याओं के रंग एक समान होने पर एक माह तक मसाला और तिलहन का भाव सस्ता, सोना और चाँदी का भाव महँगा होगा। प्रातःकालीन और सायंकालीन सन्ध्याओं के रंगों में परिवर्तन हो तो सभी प्रकार की वस्तुओं के भावों में अत्यधिक में गिरावट की सम्भावना होती है। यदि उदित होता हुआ सूर्य पूर्व दिशा में सामने की ओर विकृत उत्यात से सहित दिखलाई दे तो निवासी राजा के और पीछे की ओर. विकृत दिखाई देवे तो आक्रामक राजा के विनाश का सूचक होता है। यदि उदयकालीन सूर्य सुनहरे रंग का हो तो वर्षा का प्रमाण अच्छा होता है। यदि उदयकालीन सूर्य मधु के समान रंग का हो तो लाभप्रद माना गया है और उदयकालीन सूर्य सफेद रंग का हो तो सुभिक्ष और कल्याण की सूचना देता है। हेमन्त और शिशिर ऋतु में लाल रंग, ग्रीष्म और वसन्त ऋतु में पीला एवं वर्षा और शरद ऋतु में सफेद रंग का सूर्य शुभदायक है, इन ६ वर्गों से विपरीत वर्ण का हो तो उस सूर्य को अयदायक जानना चाहिये। सूर्य की विविध आकृतियों के कारण भी फलादेश में भिन्नता आती है । अतः सूर्यप्रकरण का अध्ययन सूक्ष्मता से करना चाहिये। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PANDHAMALLAHAB -... --- अधिनमा .. -.-. मेघयोगप्रकरण अह मेहोणहयलये पउमिणि सुरिसुघदीसए जच्छं। र सो पंचम्मिय दिवहे वायं वरिसं च को वेई॥२२॥ अर्थ : यदि सूर्य के चतुर्दिक में कमल के आकार का मण्डल दिखाई दे । तो पाँचवें दिन हवा चलकर पानी बरसेगा । मुसलसरिच्छो मेहो दीसइ व जात पव्वयाभोया । सो सत्तमम्हि दिवहे वार्य वरिसं च को वेई॥२३॥ अर्थ : सूर्य के चतुर्दिक में यदि मूसलाकार मण्डल दिखाई पड़े तो सातवें । दिन अवश्य ही हवा चलकर पानी बरसेगा । है अह दीसइ परधीओ उदयच्छवणम्हि उछितो घोरो। है तो तियरा पुणि दिवहे वायं वरिसंच को वेई॥२४॥ अर्थ : सूर्योदय व सूर्यास्त के समय यदि सूर्य के चारों ओर वलयाकार मण्डल दिखाई देवे तो तीसरे दिन हवा चलकर अवश्य पानी गिरेगा। र हेमंतकतुणकगिण्हे सुख दक्खिणोय जय वाऊ। अण्णुण्ण दिसा वायइ वरिसा मुत्तच्छ णायव्वो॥२५।। अर्थ : यदि हेमन्तऋतु में सही मिली हुई दक्षिणी हवा चले तो शीघ्र ही वर्षा होगी ऐसा जानो। ववरूव सूरस्सुदयच्छमणे पडंति जलबिंदऊणहयलाऊ। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -निमित्तशास्त्रम [१२ तइहे दिवहे वरसइ तइसे णत्थि संदेहो॥२६॥ अर्थ : यदि सूर्योदय अथवा सूर्यास्त के समय ओस के समान पानी पड़ जावे तो उस देश में उस दिन से तीसरे दिन पानी बरसेगा। इसमें किसीप्रकार का सन्देह नहीं है। जदि चंडवायु वायदि अहपुण मद्दमि वायवे वाऊ। तहिं होही जलवरसे पंचम दिवहे ण संदेहो॥२७|| अर्थ : यदि तेज हवा चले और बीच-बीच में मन्द हवा चले तो उस देश म पाँचवें दिन अवश्य पानी बरसेगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है। छित्तेण कोई पुच्छइ घरम्हि छायंत हद्द वसणो वा। * उदकुंभम्मियहच्छो वरसइ अज्जंत णायव्वो॥२८॥ अर्थ : यदि कोई एकाएक आकर पूछे कि क्या आपने मकान छा लिया। है ? कपडे पहने हुए भी सही मालुम होने लगे और घड़ों का पानी गरम हो, तो आज या कल में ही वर्षा होगी ऐसा जानो। सूहा पीययवण्णा मंजिठाराय सरिस वण्णा वा। चारत्ता णीलयवण्णा वार्य वरिसं णिवेदेहि॥२९॥ अर्थ :व सूर्योदय अथवा सूर्यास्त के समय यदि आकाश पीतवर्ण या मंजीठ, के समाज वर्ण वाला जात होवे तो हवा चलकर पानी बरसेगा- ऐसा, * निवेदन करना चाहिये। र गुप्पयवण्ण सरिच्छा द्विकत्तिज्ज सण्णिवेदेति। णियह धूसरवण्णा पाहीमरणं णिवेदेहि॥३०॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -निमित्तशास्त्रम् अर्थ : सन्ध्या के समय में बादल तम्बाकू के रंग का हो या खाकी रंग का हो अथवा बादल में छेद दिखाई पड़े तो पानी का अन्त हो गया ऐसा जानो। र अह खंड भिण्णभिण्णा गोमुत्तसरिच्छ कपडवण्णाभा। स कुणइ राइमरणं मंदं वरिसं णिवेदेहि॥३१॥ अर्थ : यदि सूर्योदय अथवा सूर्यास्त के समय में बादल खण्ड-खण्ड और गोमूत्र के जैसी आकृति वाले काले रंग के दिखाई देवे तो राजमरण तथा अल्पवर्षा की सूचना देते हैं। का इच्छंती दीसइ अभेहि बहुविहेहि रूवेहि। __ अक्खइ बालविणासं हेमंतरणिगायासस्सा॥३२॥ अर्थ : सूर्योदय अथवा सूर्यास्त के समय यदि बादल के टुकड़े-टुकड़े । कई रंग के परिहात होवे तो बालकों की मृत्यु व पानी का अभाव ज्ञात होता है। प्रकरण का विशेषार्थ वर्षाऋतु के समय में जिस दिन सूर्य अधिक दुस्सह और घी के समान वर्ण वाला हो उस दिन अवश्य वर्षा होगी। जिस दिन उदयकालीन सूर्य अत्यन्त प्रकाश के कारण देखा न जा सके, पिघले हुए स्वर्ण के समान वर्ण वाला हो और तीव्र होकर तप रहा हो अथवा आकाश में बहुत ऊँचा चढ गया हो तो उस दिन बहुत अच्छी वर्षा होती है। जिस दिन दिशाये निर्मल हों, आकाश कौओ के अण्डे की कान्ति को धारण करने वाला हो अथता गाय के नेत्र के समान कान्ति को Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ カ SOCCE (निमिन शास्त्रम्) १४ धारण करने वाला हो, वायु का गमन रुक-रुक कर हो रहा हो तो उस 'दिन वर्षा निश्चित होगी । KAMIC उदय अथवा अस्त के समय में चन्द्रमा अथवा सूर्य शहद के समान रंग वाला दिखाई पड़े तो प्रचण्ड वायु के साथ अतिवृष्टि होगी । सूर्यपिण्ड से निकलने वाली सांधी रेखा को अमोघ किरण कहते, हैं। ये अमोघ किरणें कभी-कभी निकलती हैं। जिस दिन अमोघ किरणें; सन्ध्या के समय निकले उस दिन महावृष्टि होगी ! प्रातः काल उदित होता हुआ सूर्य लाल वर्ण का हो, बिना वर्षा. के इन्द्रधनुष उदित हो जाय तो अतिशीघ्र वृष्टि होगी। नील रंग वाले बादलों में सूर्य के चारों ओर कुण्डलता हो, दिन के समय में ईशान कोण में बिजली चमक रही हो तो वर्षा अतिशीघ्र ही होगी । सायंकाल में अनेक तह वाले बादल यदि मयूर, धनुष, लाल रंग के पुष्प और तोते के समान हों अथवा जलीय जन्तुओं, लहर या पहाड़ों' के समान आकार वाले हों तो वर्षा अवश्य होगी । 1 घड़ों में रखा हुआ जल अपने आप गरम हो जाय, सभी लताओं का मुख ऊँचा हो जाय, सात दिन तक आकाश मेघ से आच्छादित रहें. • रात्रि में जुगुनू जलाशय के समीप में जाते हों तो शीघ्र वर्षा की सूचना जाननी चाहिये । गोबर में कीटों का होना अत्यन्त कठिन परिताप का होना, छाछ का एकाएक खट्टा हो जाना, मछलियों का भूमि की ओर कूदना, बिल्ली का पृथ्वी को खोदना, लोह की जंग से दुर्गन्ध निकलना, पर्वत 'का काजल के समान वर्ण वाला हो जाना कन्दराओं से भाप का निकलना, गिरगिट आदि के द्वारा वृक्ष की चोटी पर चढकर आसमान को देखना, गायों का सूर्य को देखना, बगुलों का पंख फैलाकर स्थिरता से बैठ जाना, घर की छत पर चढकर कुत्तों का आसमान की ओर देखना, मेंढकों की जोर से आवाज आना, चिड़ियों का मिट्टी में स्नान करना, 'टिटिहरी का जल में स्नान करना, चातक का जोर जोर से शब्द करना, - छोटे पेड़ों की कलियों का जल जाना, बड़े पेड़ों में कलियों का निकल, जाना, बड़ की शाखाओं का खोखला हो जाना, मक्खियों का अधिक घूमना, काँसे के बर्तन में जंग लग जाना, कागज पर लिखने के बाद स्याही का न सूखना इत्यादिक निमित्त तत्काल में होने वाली वर्षा की सूचना देते हैं। - Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमितशास्त्रम् [ १५ (चन्द्र प्रकरण चंदो सरूवसरिसो ये यारिसणू विऊण हयलम्मि। जइ दीसइ तस्स फलं भण्णम्मि इत्तो णिसामेहा॥३३॥ अर्थ : अब चन्द्र का रूप देखकर शुभाशुभ फल को कहने का ज्ञान बतलाते हैं। भावार्थ : अबतक की गाथाओं में सूर्य के दर्शन से होने वाले निमित्तों का कधन किया जा रहा था। अब आचार्य भगवन्त चन्द्रदर्शन से ज्ञात होने वाले निमित्तों का कथन कर रहे हैं। णायामंगलसरिसो दक्किगजर सम गऊ चंदो। 3 जुगदंडधणुसरिसा समसरित मण्डलो णोदू ॥३४॥ अर्थ : उदित होता हुआ प्रतिपदा या द्वितीया का बालचन्द्रमा । धनुषाकार दक्षिण-उत्तर में समाज हो तो सर्वत्र सुभिक्ष होगा । अबलं वियसी सधरो रूवे यसछलक्षणो चंदो। *णावाइ कुणइ वरिसं सुभिक्ख देइ हलसरिसो|३५|| अर्थ : शुभ, स्वच्छ और समान चन्द्रमा बहुत पानी बरसाता है तथा हल के समान दिखने वाला चन्द्रमा सुभिक्ष की सूचना देता है। * आरोगं दक्खिणवो जुगसंपत्ति जुगस्सयाणो य। दंडम्मि दंडसरिसो धणुसरिसो ससहरो जुस्स ॥३६|| अर्थ : Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ---निमितशास्त्रम--- यदि चन्द्रमा की किनारी दक्षिणदिशा की ओर ऊँची हो, तो वह आरोग्य, समाज किनारी होने पर संपत्ति, सपाट किनारी होने पर (दण्ड र के समान दिखाई देने पर) दण्ड और धनुषाकार दिखने पर सम को संसूचित करता है। समचलणो समवण्णं भयं च पीडं तहा णिवेदेहि। लक्खारसपायासो कुणइ भयं सव्वदेसेसु ॥ ३७।। अर्थ : समवर्ण वाला समान चन्द्रमा भय और हानिकारक है तथा लान । के समान वर्ण वाला चन्द्रमा सम्पूर्ण देश में भय की सूचना देता है। विप्पाणं देइ भयं वाहिरण्णो तहा णिवेदेई। पीलो खत्तियणासं धूसरवण्णो य वयसाणं॥३८॥ अर्थ : चन्द्रमा यदि रक्तवर्ण वाला हो तो ब्राह्मणों को भय उत्पन्न । ॐ करेगा । चन्द्रमा पीतवर्ण का होने पर क्षत्रियों को भय उत्पन्न करेगा। और चन्द्रमा धूसर वर्ण का होने पर वैश्यवर्ण वालों को भय उत्पन्न करेगा। किण्णो सुद्द विणासो चित्तलवण्णो य हणइ पयईऊ। दहिखीरसंखवण्णो सव्वम्हि य पाहिदो चंदो॥३९॥ अर्थ : चन्द्रमा कृष्ण नजर आवे तो वह शुद्रों का विनाश करता है। चित्रलवर्ण वाला, दही, रखीर या शरव वर्ण वाला चन्द्रमा समस्त दूधार पशुओं का नाश करता है। रिक्खम्मि पास वछहरो रोहिणिमज्जे पयदये चंदो। ___ सो कुणइ पयविणासं पंचममासे ण संदेहो॥४०॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिमित्तशास्त्रम [१७ अर्थ :* खण्डित आकार का कोई मण्डल यदि चन्द्रमा के चहुँ ओर दिखाई पड़े तो पाँचवें माह में दूध का नाश होता है । इसमें कोई सन्देह है नहीं है। : जे मंडलाय पछिया सूरो ससिणो य तित्तियचिवा। वर सुप्पाइ णिमित्तं ते सव्वे हुँति णायव्वा॥४१|| अर्थ : पूर्व में जो कुछ सूर्य या चन्द्रबिम्ब के चिह्नों का कथन किया। १ गया है, वे निमित्त अवश्य ही होते हैं। भावार्थ :है पूर्व गाथाओं में सूर्य और चन्द्र के चिह्नों का कथन विस्तारपूर्वक किया गया है। आचार्य भगवन्त कहते हैं कि निमित्त का अध्येता ध्यानपूर्वक प्रकाशबिम्बों को देखकर फल ज्ञात करता है। वे निमित्त अवश्य ही होते हैं। पव्वणि रहिओ चंदो राहूणय गाढिणूपयासिज्जू। सो कुणइ देसपीडं भयं च रणा णिवेदेहि॥४२॥ अर्थ : जो चन्द्रमा पर्वरहित हो परन्तु ग्रहण लगा हुआ हो अर्थात् राहु के द्वारा ग्रसित किया गया हो तो वह चन्द्रमा देश में पीड़ा और भय को बताता है। मेहाणय जेणूवा जे भणिया पढमसूर जोयस्स। 8 ते विय ससिणो सव्वे णायव्वा वण्णतूवेण॥४३॥ अर्थ : जो चिह्न वर्षा के लिए पूर्व में सूर्य प्रकरण में कह आये हैं, वे ही चिह्न चन्द्रमा के भी हैं ऐसा जानना चाहिये। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमितशास्त्रम प्रकरण का विशेषार्थ इस प्रकरण में चन्द्र के निमित्त से ज्ञात होने वाले शुभाशुभ फल का वर्णन किया गया है। चन्द्र का आकार, रंग और ग्रहयुति के निमित्त से फल में अन्तर आता है । K १८ यदि चन्द्रमा लाल दिखाई देवें तो ब्राह्मणों के लिए भयप्रद है । यदि चन्द्रमा पीला दिखाई देवें तो क्षत्रियों के लिए भयप्रद है । यदि चन्द्रमा खाखी दिखाई देवें तो वैश्य के लिए भयप्रद है । यदि चन्द्रमा काला दिखाई देवें तो शुद्ध के लिए भयपढ है। यदि चन्द्रमा पंचरंगा अथवा दूध के रंग का दिखाई देवें तो दूधारू पशुओं का विनाश अवश्य होता है। यदि चन्द्रमा लाख के रंग का दिखाई देवें तो सम्पूर्ण देश के लिए भयप्रद है । - आचार्य श्री भद्रबाहु का मत है कि - शस्त्रं रक्ते भयं पीते, धूमे दुर्भिक्षविद्रवे । चन्द्रे तदोदिते ज्ञेयं, भद्रबाहुवचो यथा ॥ ( भद्रबाहु संहिता :- १४ / १३६) अर्थात् :- उदित होते हुए चन्द्रमा का वर्ण लाल होने पर मनुष्यों को शस्त्र का भय - होता है । उदित होते हुए चन्द्रमा का वर्ण पीला होने पर मनुष्यों को दुर्भिक्ष का भय होता है और उदित होते हुए चन्द्रमा का वर्ण धूम के समान होने पर वह मनुष्यों के • लिए आतंक का सूचक होता है, ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है । आषाढ़ मासीय शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को चन्द्रमा के दोनों श्रृंग (किनारी) समान दिखलाई पड़े तथा मण्डल भी समान हो तो वह 'निस्सन्देह राजा के लिए भय करने वाला होता है। यदि इसी दिन दोनों . श्रृंग समान दिखलाई पड़े तो अनाज की उत्पत्ति कम होती है तथा वर्षा भी कम होती है। चन्द्रमा का बायाँ श्रृंग उन्नत होनेपर लोक में दारुण • भय का संचार होता है, इसमें संशय नहीं है । यदि चन्द्रमा के उदयकाल में चन्द्रमा के दक्षिण श्रृंग पर शुक्र हो तो राजा का ससैन्य विनाश होता है। विकृत मंगल यदि चन्द्र के श्रृंग पर स्थित हो तो पुरोहित और राजा के चंचल हो जाने से प्रजा को अत्यन्त कष्ट होता है। चन्द्रश्रृंग पर शनि के होने पर वर्षा का भय होता हैं और Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -निमित्तशास्त्रम (१९) अयंकर दुर्भिक्ष का सामना करना पड़ सकता है। किसी भी ग्रह के व्दारा भय के कारण से चन्द्रमा का भेदन होता है तो राजभय होता है और प्रजा को दारुण दुःख होता है । क्रुरग्रह से युक्त चन्द्रमा यदि राहु के व्दारा ग्रहण किया गया हो या देखा गया हो तो राजा और सामन्त क्षुब्ध होते हैं और प्रजा को पीड़ा होती है : .. ऊपर में स्थित चन्द्रमा मनुष्यों के पापों का विनाश करता है। तिर्यस्थ चन्द्रमा राजा और मन्त्री के पाप का विनाश करता है। अधोगत चन्द्रमा समस्त पृथ्वी के पापों का विनाश करता है। म चन्द्रमा के चारों ओर खण्डित मण्डल दिखाई पड़ना सम्पूर्ण । देश के लिए भयप्रद है। उससे पाँचवें माह में दूध का विनाश भी जानना। चाहिये । पर्वरहित ग्रहणयुक्त चन्द्रमा भय और पीड़ा का कारण है। यदि चन्द्रमा स्वच्छ और सम हो तो अच्छा पानी बरसता है।* चन्द्रमा हलसदृष हो तो सुभिक्ष को प्रकट करता है । बाल धनुषाकार १. चन्द्रमा भी सुभिक्ष को प्रकट करता है। यदि चन्द्रमा की किनारी दक्षिणदिशा की ओर ऊँची हो तो वह आरोग्य के वर्धन की सूचना देती है । चन्द्रमा की किनारी समान हो तो वह सम्पत्ति की सूचना देती है। * यदि चन्द्रमा सपाट आकार वाला हो तो मनुष्यों को दण्ड की ॐ सूचना देता है। __ आचार्य श्री भद्रबाहु के मतानुसार जिस व्यक्ति के जन्मनक्षत्र पर में राहु चन्द्रमा का ग्रहण करे अर्थात् चन्द्रग्रहण हो तो उस मनुष्य के लिए रोग और मृत्यु का भय अवश्य होता है । आचार्य श्री के शब्दों में - राहुणा गृह्यते चन्द्रो, यस्य नक्षत्रजन्मनि। रोगं मृत्युभयं वापि, तस्य कुर्यान्न संशयः॥ (भद्रबाहु संहिता:-१४/९४) पूर्व प्रकरण में सूर्य के आकार-प्रकारों को देखकर मेघविषयक योग बताया गया है। वहीं वर्षा विषयक योग चन्द्र से सम्बन्धित भी जानना चाहिये । केवल सूर्यप्रकरण में जहाँ सूर्य लिखा है, वहाँ चन्द्र समझना चाहिये। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिमितशास्त्रम [२० ---- ---लिमितशारप्रम----- उत्पातयोगप्रकरण अह अंतरिक्स रायो सुव्वइ बहुशाणले युरिसाणं! पंचममासे मारी होई देसे ण संदेहो॥४४|| अर्थ: जिस देश में अनेक मनुष्यों की आवाज सुनाई देवे परन्तु बोलने के दाले दिखाई न देते हो तो ऐसा निश्चित् समझाना चाहिये कि उस देश में 2 * पाँचवें माह में मारी की बीमारी होगी। अह बहु सति धावंति सवदो जुज्झणुपवदंति। रोवाराव कुणंता भूया लोयरस णासाय॥४५॥ अर्थ : जिस देश में अनेक मनुष्यों के दौड़ने और लड़ने की आवाजें ज्ञात हों अथवा रुदन का शब्द सुनाई दे तो यहाँ हजारों मनुष्यों का नाश होगा ऐसा जानना चाहिये। ई संझावेलासमये रवयं सिवा चउदस गामपासेसु। कहदिग्गामुपाद रस्थिविणासंणसंदेहो॥४६|| अर्थ : यदि संध्या की बेला में गीदड या लोमड़ी गाँव के चारों ओर रोवे तो ऐसा जानना चाहिये कि राजा का मरण होगा। मज्झण्णेपरचक्कंसंझाए कुणइरोगवाहिभयं। सेसेसुसिवाकालेरोवंती सोहना रत्ती॥४७॥ अर्थ : यदि अर्द्धरात्रि के समय में गीदड़ रोवे तो परचक्र के भय की सूचना माननी चाहिये । यदि शाम के समय गीदड़ रोवे तो रोग और Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [स निमित्तशास्त्रम र व्याधि के भय को सूचित करते हैं। इन दोनों समयों को छोड़कर शेष समय में गीदड रोवे तो उससे कोई हानि नहीं होती। • अहतूरवोसुव्वइअणाहवोजम्मिकम्मिदेसम्मि। FOR तद्देसे जुद्धभयंहोही घोरंण संदेहो॥४८॥ अर्थ : जिस देश में सदैव कोलाहल का शब्द सुनाई देवे. उस देश में 14 अवश्य महायुद्ध होगा । अह जत्थधुवो चलदीचालिज्जंतोवि णिच्चलोहोई। होहइतस्स विणासोगाम्मस्सयतीहिमासेहि॥४९॥ अर्थ : जिस नगर में ध्रुव वस्तुयें चलायमान हो जाये और चंचल वस्तुयें । अचल हो जाये तो तृतीय माह में उस गाँव का नाश होगा। णाणा वइत्तमणा वज्जतिअताडिया चउदी। णासंतद्देसगमोक्रपुरिसंणाणसंदेहो॥५०॥ अर्थ : जिस गाँव के चारों ओर बिना बजाये ही वाद्य की आवाज सुनाई। देवे तो उस गाँव का निःसन्देह नाश हो जायेगा । अहिजुत्ताविय सपडा वच्चंतिणमुठ्ठिया चिवच्चंति। वित्तंतिगामघादेभयंच रणोणिवेदेहि॥५१॥ अर्थ : सांप जुते हुए हैं जिसमें, ऐसी गाड़ी गाँव की ओर आती हुई दिखाई देवे तो समझो कि गाँव का कुभाग्य आया है। जूवोहलो विदीसइणच्चंतोखित्तमज्झयारम्मि। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (निमिन शास्त्रम) होईणयरविणासो परचक्काऊण संदेहो ॥५२॥ अर्थ : यदि बिना बैलों का हल अपने आप खड़ा होकर नाचने लगे तो ऐसा जानना चाहिये कि परचक्र के द्वारा इस गाँव का नाश होगा | णाणा दुमउयणयिदि णायंतो जइ पडेदि भूमीए । तो अवयव प्रारिभयंता संदेहो ॥५३॥ अर्थ : यदि कोई वृक्ष बिना हवा ही चले अथवा बिना किसी कारण गिर , पड़े तो उस गाँव में भारी रोग अवश्य फैलेगा। इसमें किसीप्रकार का सन्देह नहीं है। णयरस्स रच्छमज्झे साणा रोवंति णुद्धतुडाणं । होइ णयरविणासो परचक्काऊण संदेहो ॥५४॥ २२ अर्थ : शहर के मध्य में कुत्ते ऊँचा मुँह करके रोवे तो परचक्र से नगर का नाश होगा। इसमें कोई सन्देह नहीं है । णम्मि यदि तं कंकालज्जइ विदीसए जत्थ । राइविणासो होही परचक्काऊ ण संदेहो ॥५५॥ अर्थ : जिस नगर में पुरुष कंकाल के समान (हड्डियों के ढांचे के समान) ज्ञात होने लगे तो परचक्र से वहाँ के राजा का नाश होगा। इसमें कोई . सन्देह नहीं है। आमिगपक्खी गामे णयरेय जत्थ दीसंति । होही णयरविणासो परचक्काऊ ण संदेहो ॥५६॥ अर्थ : Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | [ । -जिमितशास्त्रम् जिस नगर में बहुत से मांसभक्षी पक्षी बिना किसी कारण के ही उड़ते हुए दिखाई देवें तो वह नगर परचक्र से अवश्य ही नष्ट होगा। अहबाला कीलता मिलियाजइ सव्वदेसिधावंति। जुज्झतिषणोसव्वेतयहविजुज्झतिणायव्वो॥५७॥ अर्थ : जहाँ पर बच्चे खेलते-खेलते आपस में लड़ते हुए अधिक क्रोध में । लड़ाई करने लगे तो वहाँ युद्ध अवश्य होगा। गेहोणिते कुणंतं अग्गी लायंति बहुरमंति। तम्मिय गामेअम्गीपंचमदिवहेणसंदेहो॥५८॥ अर्थ : यदि खेलते-खेलते बच्चे आग लेकर आवे और उससे खेले तो पाँचवें दिन उस गाँव में आग अवश्य लगेगी। अहकीलमाणचोरंतवालयासव्वदोयधावंति। तइयम्मितच्च दिवहेचोरस्सभयंमुणेयव्॥५९॥ अर्थ : जहाँ पर बच्ढे खेलते हुए यह चोर आया, इसे पकड़ो आदि शब्द बोले तो उस गाँव में तीसरे दिन चोर का भय होगा। अह माणुसीय गाएय हथिणी घोडियाय सुणहीणा। पसर्वतिअभदाई देसविणासंणिवेदंति ॥६०॥ अर्थ : जहाँ पर गाते हुए मनुष्य का गीत सुनने के लिए घोड़ी, हथिमी अथवा कुतिया आवे तो उस देश का नाश होगा ऐसा जानो। अह माणसीएमास गावी एहायपक्खएक्केण। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमिन शास्त्रम--- [२४ । छम्मासेणय घोडी वरिसेणयहत्थिणी कुणई॥६१॥ । अर्थ : __ जहाँ पर पन्द्रह दिन तक घोड़ी या हथिनी गाना सुने तो छह माह में घोड़ी और एक वर्ष में हथिनी उस देश का नाश करेगी। न सुणहीपणमासेहिजइपसवइतोवियाणउप्पादं। गामविणासंएएछठे मासे पकुव्वंति॥६२|| अर्थ :है यदि घोड़ी और हथिनी पाँच माह तक गीत सुने तो छह माह में उस गाँव का नाश अवश्य होगा । जइछेलएहिगीढो कुक्कूरोमूसएहिमज्जारो। पिक्खिय एय णिमित्तंगावविणासंणिणायव्वो॥६३|| अर्थ : जहाँ पर गीदड़ कुत्ते को तथा चूहा बिल्ली को मारे तो उस देश का जाश अवश्य होगा। जइसुक्खो वियरुक्खोउल्लहमाणोय दीसईजत्थ। गामेवाणयरेवातत्थ विणासंतिणायव्वो॥६४|| अर्थ : जिस ग्राम में अथवा नगर में सूखा पेड उखडता हुआ दिखाई पड़े तो उस नाम अथवा नगर का नाश अवश्य होगा । प्रकरण का विशेषार्थ उत्पातशब्द को परिभाषित करते हुए आचार्य श्री भद्रबाहु जी लिखते हैं - प्रकृतेर्यो विपर्यासः स धोत्पातः प्रकीर्तितः। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --निमितशास्त्रम् -- - (२५) (भद्रबाहु संहिता :- १४/२) 'अर्थात् :- प्रकृति के विपर्यास (विपरीत कार्य के होने) को उत्पात कहते हैं। भट्टारक श्री कुन्दकुन्द जी लिखते हैं - प्रकृतस्यान्याभाय, उत्पातः सत्वनकधा स यत्र तत्र दुर्भिक्षं, देश-राष्ट्र-प्रजाक्षयः॥ (कुन्दकुन्द श्रावकाचार :-८/६) अर्थात् :- वस्तु या देश आदि के स्वाभाविक स्वरूप का अन्यथा होना उत्पात । - कहलाता है। वह उत्पात अनेक प्रकार होता है । वह उत्पात जहाँ पर होता है, वहाँ । पर दुर्भिक्ष, देश का विनाश, राष्ट्र और प्रजा का क्षय होता है। महारक श्री कुन्दकुन्द जी के मतानुसार जहाँ पर देवों का आकार विकृत हो जाय, चित्रों में और धर्मस्थानों में देव-मूर्तियाँ भंग को प्राप्त होवे और जहाँ पर फहरती हुई ध्वजा ऊर्ध्वमुखी होकर उड़ने लगे, वहाँ पर राष्ट्र आदि का विप्लव होता है । जलभाग, स्थलभाग, नगर और। । वन में अन्य स्थान के जीवों का दर्शन हो तथा श्रृगालिनी, काकादि है में आक्रन्दन नगर के मध्य में हो तो वे नगरविच्छेद के सूचक उत्यात हैं। जिस देश में राजछत्र, नगर-प्राकार (परकोटा) और सेना आदि। का दाह हो तथा शस्त्रों का जलना और म्यान से खड्ग का स्वयं निर्गमन हो, अन्याय और दुराचार का प्रचार हो, लोगों में पाखण्ड की अधिकता हो और सभी वस्तुयें अकस्मात् विकृत हो जावें, उस देश का नाश अवश्य होता है। इन्द्रधनुष दोषयुक्त दिखे, अग्नि सूर्य के सम्मुख हो, रात्रि में 9 और प्रदोष काल में सदा ढुष्ट जीवों का संचार हो तो वर्णव्यवस्था के है कारण से उपद्रव होता है। यदि वृक्ष अकाल में फूलें और फलें तो अन्य राजा के साथ महान् युद्ध होता है । पीपल, उदुम्बर, वट और प्लक्ष (पिलखन) वृक्ष यदि । अकाल में फूलें और फलें तो क्रम से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण । के लोगों को भय होता है। यदि वृक्ष में, पत्र में, फल में, और पुष्प में, क्रम से अन्य वृक्ष , अन्य पत्र, अन्य फल और अन्य पुष्प उत्पन्न हो तो लोक में दुर्भिक्ष आदि का महाभय होता है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -निमित्तशास्त्रम [२६ __यदि रात्रि में गाय-बैलों का रंभाना व चिल्लाना हो, अथवा परस्पर कलह हो तथा प्रचुरता से मेंढक, मयूर, श्वेतकाक, और गीध आदि पक्षियों, का परिभ्रमण हो तो उस देश का विनाश होता है। र यदि अपूज्य लोगों की पूजा होजे लगे और पूज्य पुरुषों की पूजा । न हो, हथिनी के गण्डस्थलों से मद झरने लगे, दिन में श्रृगाल रोवें-. चिल्लावें और तीतरों का विनाश हों तो जगत् में भय उत्पन्न होता है। गर्दभ के रेंकने के समकाल में ही अन्य गर्दभ रेकने लगे अथवा अन्य नाखूनी पंजे वाले जीव चिल्लाने लगे, तब दुर्भिक्ष आदि होता है । अन्य जाति के पशु-पक्षी का अन्य जाति के पशु-पक्षी के साथ बोलना, अन्य जाति से प्रसव में शिशु होना, अन्य जाति के पशु-पक्षी के साथ अन्य जाति के पशु-पक्षी का मैथुन करना और गर्दभ की प्रसूति का, देखना भी भयपद्ध होता है। (उपर्युक्त वर्णन कुन्दकुन्द श्रावकाचार से यथावत् लिया गया है।) उत्पात के कारण होने वाले अनिष्टो का क्षेत्र बहुत विस्तृत है.. क्योकि उत्पातों के कारण से सभी क्षेत्रों में मनुष्य अथवा प्रकृति को हानि होती है। फिर भी सुविधा की दृष्टि से कुछ क्षेत्रों का चयन करके उनसे सम्बन्धित उत्पातों का वर्णन करना सामयिक ही होगा। ११:- वैयक्तिक हानि और लाभसूचक उत्पात - यदि किसी व्यक्ति को कहीं बाजा न बजते हुए भी बाजों के बजने की आवाज लगातार सात दिनों तक आती रहे तो चार माह में उसकी मृत्यु हो सकती है। साधारणतया किसी जीव को अपने नाक के अग्रभाग पर बैठी हुई मक्खी दिखाई नहीं देती है। फिर नहीं होने पर दिखाई देने की बात * तो हास्यास्पद ही है। जिसे यह Eश्य दिखता है, उसे चार माह तक व्यापार में हानि होती है। क जो व्यक्ति स्थिर वस्तुओं को चलायमान और चलायमान वस्तु को स्थिररूप में देखता हो उसे व्याधि, धनक्षय का भय और मरणय सताता है। में यदि प्रातःकाल जागने पर किसी की दृष्टि अपने हाथों की हथेलियों पर पड़ जाय तथा हाथ में कलश, ध्वजा और छत्र सहज ही दिखलाई पड़े तो उसे सात महीने तक निरन्तर धन का लाभ होता है तथा Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रम् २७ भावी उन्नति भी होती है। गन्धद्रव्य के आसपास में न होनेपर भी यदि सुगन्धि का अनुभव हो तो मित्रमिलन, धनलाभ और शान्ति की प्राप्ति होती है। २:- धन-धान्य नाशसूचक उत्पात रात या दिन के समय में उल्लू किसी के घर में प्रविष्ट होकर बोलने लगे तो उस व्यक्ति की सम्पत्ति छह महीने में नष्ट हो जाती है। घर के दरवाजे पर लगा हुआ वृक्ष रोने लगें तो उस घर की सम्पत्ति विलीन होती है, घर में अनेक प्रकार के रोग फैलने से कष्टों की वृद्धि होती है। घर की छत के ऊपर बैठकर सफेद कौआ पाँच बार जोर-जोर से कॉव-काँव करें, पुनः चुप होकर तीन बार धीरे-धीरे काँव-काँव करे तो उस घर की सम्पत्ति एक वर्ष में नष्ट हो जाती हैं। यदि यही घटना नगर के बाहर पश्चिमी द्वार पर घटित हो तो उस नगर की सम्पत्ति का विनाश हो जाता है । = जंगल में गयी हुई गायें मध्याह्न में ही रंभाती हुई लौटकर आ जायें और वे अपने बछड़ों को दूध न पिलायें तो सम्पत्ति का विनाश समझना चाहिये | लगातार तीन दिनों तक प्रातकालीन सन्ध्या काली, मध्याह्नकालीन सन्ध्या नीली और सायंकालीन सन्ध्या मिश्रित वर्ण की दिखलाई पड़े तो उसे भय, आतंक के साथ द्रव्य विनाश की सूचना समझनी चाहिये । रात को निरभ आकाश में ताराओं का अभाव दिखलाई पड़े या. तारायें टूटती हुई दिख पड़े तो रोग और धननाश ये दोनों ही फल प्राप्त होते हैं । पशुओं की वाणी मनुष्य के समान प्रतीत होने लगे तो धनधान्य के विनाश के साथ संग्राम की सूचना भी मिलती है। जिस घर पर कबूतर अपने पंखों को पटकते हुए उल्टा गिर पड़ता है और मृत जैसा दिखने लगता है उस घर का धनक्षय हो जायेगा । नगर की दक्षिणदिशा की ओर से श्रृंगाल रोते हुए नगरप्रवेश करे तो उस नगर का अकूत धन भी अतिशीघ्र ही नष्ट हो जाता है। ३:- रोगसूचक उत्पात = जिस नगर में चन्द्रमा कृष्णवर्ण का दिखाई पड़े, विभिन्न वर्ण की तारायें टूटती हुई बात हो तथा सूर्य उदयकाल में Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८ -निपित्तशास्त्रम -- कई दिनों तक लगातार काला और रोता हुआ दिखलाई पड़े तो उस नगर । में दो महीने उपरान्त महामारी का प्रकोप होता है। बिल्ली तीन बार रोकर एकाएक चुप हो जाय तथा नगर के भीतर आकर श्रृगाल तीन बार रोकर चुप हो जाय तो उस नगर में भयंकर हैजा फैलने वाला है ऐसा जानना चाहिये। ॐ उल्कापात हरे वर्ण का हो, चन्द्रमा हरे वर्ण का दिखाई पड़े तो सामूहिक रूप में ज्वर का प्रकोप होता है। यदि सूख्ने हुए वृक्ष अचानक बिना किसी कारण के हरे हो जाये। तो उस नगर में सात महीने के भीतर महामारी फैलती है। चूहों का समूह अपनी सेना बनाकर किसी नगर के बाहर जाता। हुआ दिखलाई पड़े तो उस नगर में प्लेग का प्रकोप होने वाला है ऐसा समझना चाहिये। जिस नगर में पीपल के वृक्ष और वटवृक्ष में असमय में पुष्प और *फल आवे तो उस नगर में पाँच महीनों के भीतर संक्रामक रोग फेलने से, नागरिकों को कष्ट होगा । गोधा, मेंढक और मोर रात्रि के समय में विचरण करें तथा श्वेत काक एवं गृद्ध घरों में घुस आयें तो उस नगर में तीन महीने के भीतर बीमारी फैलती है। कौओ का मैथुन देखने वाला पुरुष छह मास के भीतर मृत्यु को प्राप्त होता है। १४:- राजनीतिक उपद्रवसूचक = जिस स्थान पर मनुष्य गाना गा, रहे हो, वहाँ गाना सुनने के लिए यदि घोड़ी, हथिनी, कुतियाँ आदि पशु एकत्र होते हो तो वहाँ राजनीतिक महान उपद्रव होने वाला है ऐसा जान लेना चाहिये। जिस नगर में बच्चे खेलते-खेलते अकारण ही आपस में लड़ाई करने लग जाय और क्रोधपूर्वक लड़ने लग जायें तो वहाँ युद्ध अवश्य , होता है तथा राजनीति के सरदारों में आपस में फूट पड़ जाने से देश की हानि भी होती है। * जिस नगर में बैलों के बिना ही हल अपने आप खड़ा होकर नाचने लग जाय तो वहाँ जिस पक्ष का शासन है, उससे विपरीत पक्ष का शासन । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमितशास्त्रम् स्थापित हो जाता है । उस नगर में शासक का पराजय और अपमान । दोनों ही होने लगते हैं। शहर के मध्य में कुत्ते ऊँचे मुँह करके लगातार आठ दिनों तक भूकते दिखलाई पड़े तो उसका फल भी पूर्ववत् ही जानना चाहिये । जिस जगर में गीहड़ कुते को और चूहा बिल्ली को मारते हुए। दिख पड़े, उस नगर में राजनीतिक उपद्रव अवश्य होते हैं। उन उपद्रवी । के कारण से जनसामान्य में अशान्ति और भय समाया हुआ रहता है। यह स्थिति घटना के बाद भी दस महीनों तक रहती है। जिस नगर में सूखा वृक्ष स्वयं ही उखड़ता हुआ दिखलाई पड़े, उस नगर में राजनीतिक पक्षपात प्रारंभ हो जाता है। नेताओं और मुखिया । में परस्पर वैमनस्य हा जाता है, जिससे उस जगर को अत्यधिक हानि । होती है। जनता में भी परस्पर फूट पड़ जाती है । इस फूट के कारण से स्थिति की गंभीरता और अधिक बढ़ जाती है। जिस जगर में बहुत से मनुष्यों की आवाज सुनाई पड़े, पर बोलने वाला कोई भी दिखलाई नहीं पड़े, उस नगर में आने वाले पाँच महीनों के कार्यकाल में अशान्ति का विस्तार रहेगा। यह उत्पात रोगों के प्रकोप का भी संकेत देता है। यदि सायंकाल के समय में गीदड अथवा लोमड़ी किसी नगर या ग्राम के चारों ओर रुदन करें तो भी राजनीतिक झंझट बढ़ने की संभावना होती है। इसप्रकार के अशुभसूचक उत्पातों को देखने पर उनकी शान्ति के लिए क्या करना चाहिये ? इस प्रश्न का उत्तर देते समय आचार्य श्री भद्रबाहु लिखते हैं - देवान् प्रव्रजितान् विप्रांस्तस्माद्राजाभिपूयेत्। तदा शाम्यति तत्पापं यथा साधुभिरीरितम्॥ (भद्रबाहु संहिता :- १४/१८०) अर्थात् :- उत्पात से उत्पन्न हुए दोषों की शान्ति के लिए देव, दीक्षित, मुनि और * विप्रों की पूजा करनी चाहिये । इससे जिस पाप से उत्पात उत्पन्न होते हैं, वह पाप * मुनियों के व्दारा उपदिष्ट होकर शान्त हो जाता है। आगम की व्यवस्था को समझकर जो भव्य अपनी दिनचर्या का परिपालन करता है, उसका जीवन सुखी रहता है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ---निमित्तशास्त्रम ---- निमित्तशास्त्रमा वर्षा विषयक उत्पात प्रकरण गामेवाणयरेवा जइरिसइ बहुविहाय वरिसाइ। वसमंसपूयवरिसंतिल्लं सप्पे चणुहिरंवा॥६५|| अर्थ : किसी ग्राम अथवा नगर में वर्षा सम्बन्धी उत्पात होते हैं, जैसे। कि - रक्त की वर्षा, मांस की वर्षा अथवा तेल की वर्षा । आगे इनके फलों को कहते हैं। भावार्थ : इस गाथा से आगे वर्षा के उत्पातों को बताने की प्रतिज्ञा की है। वर्षा अनेक प्रकार की होती हैं- रक्तवर्षा, मांसवर्षा, धौवर्षा । अथवा तेलवर्षा । इनका फल आगामी गाथाओं में बतायेंगे । मारी हाट्ठी घोरा जत्थेहे एहाति वरिस उप्पाया। तसेवज्जिजहाकालपमाणंवियाणित्ता॥६६॥ VERNashirtlethari अर्थ : उपर्युक्त वर्षायें जहाँ पर होती हैं, वहाँ पर घोर मारी की बिमारी, होती है। उस देश का त्याग करो। आगे उसकी अवधि बतलाते हैं। भावार्थ : कुवर्षा जहाँ पर होती है वहाँ अवश्यमेव भारी रोग फैलता है। उसके देश का त्याग कल्याणेच्छु भव्य को करना चाहिये । कुवर्षा का फल कितने समय में मिलता है ? इस प्रश्न का उत्तर आचार्य भगवन्त स्वयं ही अगली गाथाओं में देंगे। मासेऊमासेणंदोमासेसोणियस्सणायव्यो। विट्ठाएछम्मासं विय तिल्ले सत्तरत्तेण॥६७|| अर्थ : Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रम् [३१ यदि मांस की वर्षा हो, तो वह एक माह में अपना फल देती है। र रक्तवर्षा दो माह में अपना फल देती है। विष्ठा की वर्षा छह माह में से अपना फल देती है तथा घी अथवा तेल की वर्षा होने पर वह वर्षा सात * दिनों में ही अपना फल देती है। परचक्कभवोघोरोमारी वातस्थ होइ देसम्मि। S णयरस्स विणासोका देसविणासोयणियमेण॥६८॥ अर्थ :म यह सम्पूर्ण उत्पात परचक्र का भय, घोर मारी, राजमृत्यु, नगर का नाश अथवा देश का नाश अवश्य करते हैं। भावार्थ: गाथा ६६ में बताया गया था कि जहाँ पर वर्षा होती है, वहाँ पर भारी रोग फैलता है। इस गाथा में वर्षा के अन्य दुष्परिणाम बताते हुए कहते हैं कि म उससे परचक्र का भय, भयंकर मारी रोग, राजा की मृत्यु, नगर विनाश अथवा देश का विनाश होगा। अण्णह काले वल्ली फुलंती महणुव्व सुरोयाणं। सेठव्वा असदीसइदेसविणासोणसंदेहो॥६९॥ अर्थ : यदि अकाल में लतओं, फूल और वृक्षों से खून की धारा निकलती हुई दिखाई पड़े, तो उस देश का अवश्य नाश होगा। प्रकरण का विशेषार्थ यद्यपि मेघयोग आदि में वर्षाविषयक चर्चा की जा चुकी है, परन्तु यदा-कदा कुवर्षायें भी हुआ करती हैं । रक्तवर्षा, मांसवर्षा, घी की वर्षा, तेलवर्षा आदि वर्षाओं को कुवर्षा कहा जाता है। जिस जगर में उपर्युक्त वर्षायें होती हैं, उस नगर में महामारी फैलती है । परचक्रभय, राजमृत्यु, जगर या देश का विनाश और अराजकता का विस्तार ये सज Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -निमितशारभा---- उन्हीं कुवर्षाओं के फल हैं। प मांस की वर्षा अपना फल एक माह में प्रकट करती है। रक्त की वर्षा अपना फल दो माह में प्रकट करती है । विष्ठा की वर्षा अपना फल छह माह में प्रकट करती है। घी की वर्षा अपना फल सात दिनों में प्रकट हैकरती है । तेल की वर्षा अपना फल गत दिनों में प्रस्ट करती है। कुवर्षाओं के विषय में आचार्य श्री भद्रबाहु लिखते हैं - मद्यानि रूधिरास्थीनि, धान्यङ्गारवसास्तथा। मघावान् वर्षते यत्र, तत्र विन्दद्यात्महद्भयम्॥ सरीसृपा जलचराः, पक्षिणो व्दिपदास्तथा। वर्षमाणा जलधरात्, तदाख्यान्ति महाभयम् ।। (भद्रबाहु संहिता :- १४/१३-१४) अर्थात् :- जहाँ मेघ मद्य, रुधिर, अस्थि, अग्नि की चिनगारियाँ और चर्बी की वर्षा : ए करते हैं, वहाँ चार प्रकार का मग्य होता है। * जहाँ मंघों से सरीसृप जन्तु, जलचर जीव एवं ब्दिपद पक्षियों की वर्षा । होती हो, वहीं घोर भय की सूचना समझनी चाहिये। इसके अतिरिक्त अकाल में लतायें फूलें या वृक्षों से खून की धारा से निकलती हुई दिखाई पड़े तो जान लेना चाहिये कि अतिशीघ्र उस नगर । का विनाश होना है। भट्टारक श्री कुन्दकुन्ददेव का मत है - अकाले पुष्पिता वृक्षाः, फलिताश्चान्यभूभुजः । अन्योन्यं महती प्राज्यं, दुर्निमित्तफलं वदेत्॥ (कुन्दकुन्द श्रावकाचार :- ८/१३) अर्थात् :- यदि वृक्ष अकाल में फूलें और फलें नो अन्य राजा के साथ महान युद्ध । होगा ऐसा उक्त दुर्निमित्त का फल कहना चाहिये । 1 अकाल में पीपल, उदुम्बर, वटवृक्ष और प्लक्ष के वृक्ष का फलना और फूलना क्रम से ब्राह्मणवर्ण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्रवंश वाले मनुष्यों । की अपार हानि को प्रकट करता है। - एक वृक्ष में अन्य वृक्षादिकों का फलना और फूलना भी हानिकारक है । ऐसा उत्पात भयंकर अकाल की सूचना देता है। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ----निमित्तशास्त्रम -- --- (देवोत्पातप्रकरण तित्थयरछत्तभंगेरथभंगेपायहत्थसिरभंगे। भामण्डलस्सभंगेसरीरभंगेतहच्चेव॥७०|| अर्थ : यदि तीर्थंकर के छत्र का भंग हो, रथ का भंग हो अथवा हाथ,पाँव, मस्तक, भामण्डल या शरीर का भंग हो। भावार्थ : अब तीर्थकर की प्रतिमा से जो उत्पात होते हैं, उनको आचार्य भगवन्त बताते हैं। तीर्थंकर की प्रतिमा का छत्रभंग, रथभंग, हाथ में पाँव, मस्तक या शरीर के किसी भी अंग का भंग हो जावे या भामण्डल का भंग हो जावे, तो उसका क्या फल होगा ? इसका वर्णन आगे आने वाली गाथाओं में बतायेंगे । एए देसस्स पुणोचलणेतहणच्चणेय णिग्गमणे।। जेत्तियतदोसा तेसव्वेकत्तइस्सामि॥७१। अर्थ : जिस देश अथवा नगर में प्रतिमा जी स्थिर या चलते हुए भंग हो। से जाये, उनके शुभाशुभ फलों को कहता हूँ। भावार्थ : जिस देश में अथवा जिस नगर में चल प्रतिमा भंग हो जाये अथवा अचल प्रतिमा भंग हो जाये, तो उसका क्या फल होता है ? प्रतिमा के भंग हो जाने पर प्राप्त होने वाले शुभ और अशुभ फल का वर्णन मैं करुंगा। ऐसी प्रतिज्ञा ग्रन्थकर्ता ने की है। छत्तस्स पुणोभंगोणरवइभंगोरहस्सभंगेण । होहइणरवइमरणंछठे मासे पुरविणासो॥७२|| Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ : (निमित्तशास्त्रम) अर्थ : छत्र का भंग होने के कारण राजा को हानि होती है । जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा का रथभंग होने से राजा का मरण होता है तथा छह माह में उस नगर का भी नाश होता है । भामंडलस्स भंगे जरदरीडा य भरणांलाया होहइ तइए मासे अहवा पुण पंचमे मासे ॥७३॥ भामण्डल के भंग हो जाने पर तीसरे या पाँचवें माह में राजा को यावज्जीवन के लिए कष्ट होता है। हत्थत्त पुणो भंगे कुमारमरणं च तइए मासेण । पायस्स पुणो भंगे जणपीडा सत्तमे मासे ॥७४॥ ३४ अर्थ : प्रतिमा का हाथ टूटने से तीसरे माह में राजकुमार की मृत्यु होगी और पाँव टूटने से सातवें माह में मनुष्यों को कष्ट होगा । एकदेसे चलिए यव्वययाणं वियाण पीद्वेइ । णयरस्स हवइ पीडा णच्चंतो तइयमासेण ॥७५॥ अर्थ : यदि प्रतिमा स्वयं ही चलायमान हो जावे तो तीसरे माह में नगर के मनुष्यों को और राजा को अचानक कष्ट होगा । णरवइपहाणमरणं सत्तममासेण हवइ सिरभंगे। वउवण्णस्स पुणो जणवइपीडा हवइ घोरा ॥ ७६ ॥ अर्थ : यदि प्रतिमा का मस्तक भंग हो जावे तो सातवें माह में राजा के Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 思い निमित्तशास्त्रम् [ ३५ प्रधान की मृत्यु होगी और प्रतिमा जी की भुजा टूटने से मनुष्यों को घोर पीड़ा होगी । पडिमा विणिगामेण य रायामरणंच चोर अग्निभयं । जायइ तइए मासे पडिए पुण लक्खइ पडणं ॥७७॥ अर्थ : यदि प्रतिमा से आग निकलते हुए दिखाई पड़े अथवा मूर्ति सिंहासन से गिर पड़े तो जान लो कि तृतीय माह में राजा की मृत्यु होगी तथा नगर में चोर व अग्नि का भय होगा । जइ पुण एए सव्वे पक्खब्भंतरेण उप्पाया । जायंति तया खिप्पं दुब्भिक्खभयं णिवेदंति ॥७८॥ अर्थ : यदि उपर्युक्त उत्पात बराबर पन्द्रह दिन होता रहे तो बहुत शीघ्र दुष्काल का भय अवश्य होगा । देवा णच्वंति जिहं परिसज्जंतीय तहय रोवंति । जय घूमंति चलंतिय हसंति वा विधिहरूवेहि ॥७९॥ अर्थ : यदि देव की प्रतिमा नाचने लगे, जीभ निकाले, रोने लगे, घूमने लगे, चलने लगे, हँसने लगे या कई प्रकार के भाव दिखाती हो तोभावार्थ: होती है । प्रतिमा विकृतरूप से दिखाई पड़े तो अवश्य ही कुफल की प्राप्ति प्रतिमा विकृतरूप में कैसे होगी ? देव की प्रतिमा नाचने लगे, जीभ निकाले, रोने लगे, घूमने लगे, चलने लगे, हँसने लगे या इस तरह कोई भाव प्रकट करने वाली होगी, तो क्या फल होगा ? इसका वर्णन आगे तिच्या जायेगा । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -मितशास्त्रम् ---- लोयस्स दित्तिमारी दुभिक्खंतहयरायपीडंच। __ चित्तंतीहापावंपुरस्सतहणयररायस्स।८०॥ अर्थ : ___जानी कि मनुष्यों को मारी की बीमारी. देश में अकाल अथवा अशहर के लोगों को व राजा को नाना प्रकार का कष्ट होगा । रुइयेणराइमरणंहसियेनपदेसविब्भमोहोई। चलियेण कंपिएणय संगामोतत्थणायव्वो॥८१॥ अर्थ :१ प्रतिमा जी के रोने से राजा की मृत्यु होगी। प्रतिमा जी के हँसने । से देश में विवेष फैलेगा। प्रतिमा जी के चलित हो जाने से अथवा काँपने छ से उस नगर में संग्राम होगा ऐसा जानो। पस्सिणेतह वाही धूमेणय बहुविहाणि एयाणि। बंभाण वियाणासंरुद्देमुपणासणंकुणइ।।८२॥ अर्थ :के प्रतिमा से धुआँ युक्त पसीना निकलना अनेक तरह के फलों को। बताता है। यदि यह कार्य शिवप्रतिमा से दिखाई पड़े तो ब्राह्मणों का नाश होगा। वणियाणच्च कुबेरखंदोपुणभोइये विणासेई। कायच्छाणंविसहोइंदोराइविणासेई।।८३॥ अर्थ : यदि कुबेर की प्रतिमा से धुर्वे से सहित पसीना निकलता हो तो वैश्यों का नाश होगा। यदि कुबेर की प्रतिमा के कन्धों से धुवें से सहित पसीना निकले Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - --निमितशारत्रम - तो भोइयों का विनाश होगा। कुबेर की प्रतिमा के हाथों से धुवें से सहित पसीना निकले तो कायस्थों का नाश होगा । ___ यदि इन्द्र की प्रतिमा से धुवें से सहित पसीना निकले तो राजा का नाश होगा। भोगवइण कामो किण्णोपुण सङ्कलोपणा णयरे। अरहंत सिद्धबुद्धाजईणणासंपकुवंति॥८४|| अर्थ : कामदेव की प्रतिमा से धुआँ निकले तो आगम के बातों की हाजिर होगी। कृष्ण की प्रतिमा से धुआँ निकले तो समस्त जाति के मनुष्यों की हानि होगी। अरिहन्त, सिह और लकी गालिग से धुलिकले तो समस्त । जातियों का विनाश होगा। कच्छाइनझेसियचडियायपहणंतिसव्वमहिलाणं। उपमालियायपहणइ वाराही हणइ हत्थीण।।८५॥ अर्थ : चण्डिका देवी के बालों से धुआँ निकले तो स्त्रियों का नाश " होता है। वराही देवी के बालों से धुआँ निकले तो हाथियों का नाश होता। णाइणि गहभविणासंकरेइपणाणणासयरो। एदेजेसि यवुत्ताअसुहं कुवंतितेसुसया ॥८६|| अर्थ : नागिनी देवी के बालों से धुआँ निकले तो गर्भ का सर्वनाश । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -निमित्तशास्त्रम् -------- (३८ होगा। ये जो बातें बताई गई हैं , वे नियमतः अशुभ ही हैं। जइसिवलिगंफुट्टइअग्गीजालवमुफुल्लिंग। पसतिल लाहिरका होइजोजाणउत्पायं॥८७॥ अर्थ : यदि शिवलिंग फूटे और उसके अन्दर से अग्निज्वाला निकले या रक्त की धारा निकले तो उसका फल बतलाते हैं। भावार्थ : शिवलिंग फूटने पर, शिवलिंग से अग्निज्वाला निकलने पर या * शिवलिंग से रक्त की धारा निकलने पर उसका फल अशुभ होता है। उन फलों का वर्णन आगे आचार्यदेव स्वयं करेंगे। फुडिएणयंतिभेऊअग्गीजालेण देसणासोय। वसतिल्लरुहिरधारा कुणंतिसेयंणखइरस॥८८| अर्थ :र शिवलिंग फूट जाने से आपसी फूट बढ़ेगी, अग्निज्वाला से देश का नाश होगा और रक्त की धारा से घर-घर में रुदन होगा। मासे हितीइयेहि रुवंदंसंति अप्पणा सव्वे। a जइण विकीरह पूया देवाणंभक्तिएएणं॥८९॥ अर्थ : ऐसा उत्पात होने पर मनुष्यों को चाहिये कि तीन माह तक भक्तिसहित जिनेन्द्रदेव की पूजन करें। भावार्थ :व उपर्युक्त उत्पात होने पर अर्थात् शिवलिंग फूट जाने पर, प्रतिमाओं में से पसीजा निकलने पर मनुष्यों को चाहिये कि तीन मासपर्यन्त भक्ति से युक्त होकर जिनेन्द्रदेव की पूजन करें। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -निमितशास्त्रम् - भलेहिगंध धूवेहि पुज्जवलि बहुविहार देवेहि। तूसंतितव्व देवा सति तत्थंणिवेदंति॥९०|| अर्थ : पुष्प, गन्ध, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से देवता की पूजन करनी चाहिये। अवमाणिया विणासंकरंतितहपूझ्या अपूएहिं। देवंणिच्चं पूया तम्हापुणसोहणाभणिया||९१|| के अर्थ : देवों का अपमान करना हानि का कारण है। इसलिए देवों को - अपूज्य न रखें और उनका प्रतिदिन पूजन करें। णय कुव्वंति विणासंणय रोये येणदुक्खसंताव। ज, देवा विआइ विरुधा हवंतिपुणपूइयासंत॥९॥ अर्थ : सन्तुष्ठ हुए देव किसी का विनाश नहीं करते और दुःखादिक नहीं देते। अतः शान्ति के इच्छुक मनुष्यों को देवताओं की पूजन करते है। में रहना चाहिये। भावार्थ : यद्यपि तत्त्वतः विचार किया जावे, तो यह परिलक्षित होता है। है कि भगवान किसी का भला या बुरा नहीं करते । सम्पूर्ण इष्ट या अनिष्ट । * कार्य अपने पूर्वकृत कर्म के उदयानुसार प्राप्त होते हैं । कर्मों के तीव्र * उदय को मज्द करने में देवपूजनादि शुभक्रियायें सहयोग प्रदान करती। में हैं। अतः अनिष्ट निमित्तों के देखने पर शान्ति के इच्छुक मनुष्यों को । जिनेन्द्रदेव की पूजन करजी चाहिये । प्रकरण का विशेषार्थी देवों की प्रतिमा अपनी-अपनी साम्प्रदायिक मान्यता Dr. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plea निमित्तशास्त्रम्) ४० अनुसार बनायी जाती है। उनमें विकृतियों का आना अनिष्ट का सूचक है। इस प्रकरण में इसी अनिष्टों का विस्तृत वर्णन किया गया है । तीर्थंकर का छत्र भंग होने से राज्य का विनाश होता है। तीर्थकर का रथ टूटने से राजा का मरण होता है और छठे माह में राज्य का नाश होता है। तीर्थंकर का सिंहासन गिर पड़े तो तीन माह में राजा की मृत्यु, होगी। तीर्थंकर के आमण्डल का भंग होने से तीन से पाँच माह के अन्दर राजा को मारणान्तिक कष्ट होगा । जिनप्रतिमा का हाथ टूटने से तीन माह में राजकुमार की मृत्यु होगी। जिनप्रतिमा का पैर टूटने से सातवें माह में प्रजा को अपार कष्ट होगा। जिनप्रतिमा का मस्तक भंग हो जाय तो एक माह में राजा के प्रधान पुरुष की मृत्यु होगी। जिनप्रतिमा की भुजा टूट जाने से मनुष्यों, को घोर पीड़ा होगी। तीर्थंकर की प्रतिमा से आग निकलने घर नगर में; अग्नि और चोरों का भय होगा और तीसरे माह में राजा की मृत्यु होगी। ये उत्पात लगातार पन्द्रह दिनों तक होते रहे तो उस नगर में, अकाल का भय रहता है। प्रतिमा रोते हुए दिखाई देवे तो राजा की मृत्यु होगी । प्रतिमा हँसते हुए दिखाई देवे तो राज्य में महान विद्वेष का प्रसार होगा। प्रतिमा चलती हुई और काँपते हुई दिखाई देवे तो उस देश में महासंग्राम होगा । शिव की प्रतिमा से धूआँ सहित पसीना निकले तो ब्राह्मणों का नाश होगा। कुबेर की प्रतिमा से धूआँ सहित पसीना निकले तो वैश्यों, का नाश होगा। इन्द्र की प्रतिमा से धूआँ सहित पसीना निकले तो राजा का नाश होगा। कामदेव की प्रतिमा से धूआँ सहित पसीना निकले तो आगम के वाक्यों की हानि होगी। कृष्ण की प्रतिमा से धूआँ सहित पसीना निकले तो मनुष्यों को अपार कष्ट होगा। अरिहन्त अथवा सिद्ध की प्रतिमा से धूआँ सहित पसीना निकले तो मनुष्य जाति की अत्यधिक क्षति होगी। बुद्ध की प्रतिमा से धूआँ सहित पसीना निकले तो मनुष्य, जाति की हानि होगी । कुबेर की प्रतिमा के कन्धे से धूआँ सहित पसीना निकले तो भोइयों का नाश होगा। कुबेर की प्रतिमा के हाथों से धूआँ 'सहित पसीना निकले तो कायस्थों का नाश होगा। विश्वकर्मा की मूर्ति से विकृति के दर्शन होने पर शिल्पियों को कष्ट होता है। धन्वन्तरी की. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --निमित्तशास्त्रम प्रतिमा में विकृति के देखने पर वैद्यों को पीड़ा होगी। ___ चण्डिकादेवी के बालों से धूआँ निकले तो स्त्रियों का नाश होता है। वाराही देवी के बालों से धूआँ निकले तो हाथियों का नाश होता है। नामिनीदेवी के बालों से धूआँ निकले तो गर्भ का नाश होता है। शिवलिंग फूटे तो परस्पर में फूट बढ़ेगी । शिवलिंग में से अग्निज्वाला निकले तो देश का विनाश होगा । शिवलिंग में से रक्त की धारा निकले तो घर-घर रोना होगा। देवताओं के हँसने, रोने, नृत्य करने और चलने आदि को निमितमा शुभ मात्र मालो हैं होने जा निमिर के घटिज होने पर छह माह से लेकर एक साल तक जनता के लिए महान भय होने वाला है। * ऐसा जानना चाहिये। चन्द्रमा अथवा वरुण इन दोनों में से किसी एक के साथ कोई विकृति दिखाई पड़े तो सिन्धु देश, सौवीर देश, गुजरात और वत्सभूमि में मनुष्यों का मरण होगा। भोजन की सामग्री में भय रहता है और राजा की का मरण समय से पूर्व में ही हो जाता है। पाँच महीने के बाद वहाँ घोर भय का संचार होता है अर्थात् भय व्याप्त होता है। शिव और वरुणदेव की प्रतिमा में किसी भी प्रकार का उत्पात दिखाई पड़े तो वहाँ पर ब्राह्मणों के लिए एक सौ पाँच दिनों तक महाभय, * होता है। इन्द्र की प्रतिमा में कोई भी उत्पात दिखाई पड़ जाय तो तीन महीने में युद्ध होता है और राजा अथवा सेनापति का वध होता है । यदि बलदेव की प्रतिमा या उसके उपकरण-छत्र, चमर आदि में किसी भी। प्रकार का उत्पात दिखाई पड़ जाय तो सात महीनों तक उस राष्ट्र के ३ योद्धाओं को पीड़ा होती है। . वासुदेव की प्रतिमा और उसके उपकरणों में किसी भी प्रकार का । उत्पात दिखलाई पड़े तो सारी प्रजा में षड्यन्त्रकारियों का वर्चस्व बना। रहता है और चार माह के भीतर ही राजा का वध हो जाता है। प्रधुम्न की , प्रतिमा में किसी भी प्रकार का उत्पात दिखाई पड़ना वेश्याओं के लिए अत्यन्त भयकारक होता है । कुशील व्यक्ति भी आठ माह तक भय का पात्र बना रहता है । सूर्य की प्रतिमा में कुछ उत्पात दिखाई देता हो तो एक महीने या डेढ़ महीने में चोरों का विनाश हो जाता है या वे रुदन Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमित्तशास्त्रम करते हुए बहुत दुःख को प्राप्त होते हैं। भूतों की मूर्ति में उत्पात दिखाई पड़े तो दास-दासियों को सदा पीड़ा होती है। इस उत्पात को देखने वाला व्यक्ति भी एक महीने तक अधिक पीड़ा को प्राप्त होता है। . चन्द्रमा, वरुण, शिव और पार्वती की प्रतिमाओं में उत्पात हो तो इराजा की पहरानी को मरण का भय होता है । सुलसा की मूर्ति में उत्पात है दिखाई पड़ने पर सपेरों को कष्ट पहुँचता है । भद्रकाली की प्रतिमा में, उत्पात परिलक्षित होने पर व्रती स्त्रियों को पीड़ा होती है। कामदेव की स्त्री की प्रतिमा अर्थात् रति की प्रतिमा अथवा किसी भी स्त्री की प्रतिमा में किसीप्रकार का उत्पात दिखाई पड़ने पर नगर की प्रधान स्त्रियों में भय का संचार होता है। लक्ष्मी के मूर्ति की विकृति वैश्यवर्णीय स्त्रियों के लिए भयकारक मानी गयी है। जहाँ देवों द्वारा जात्तना, बोलना, हँसना, कीलना और पलक झपकना आदि क्रियायें की ताजी हैं, वहाँ अत्यन्त भय होता है। स्थिर प्रतिमा अपने आप अपने स्थान से हटकर दूसरे स्थानपर जावे अथवा चलती हुई बात हो तो तीसरे महीने में उस नगरवासियों के समक्ष अचानक विपत्ति आती है । उस नगर या प्रदेश के प्रमुख अधिकारी को मत्यतल्य कष्ट भोगना पड़ता है। जनसाधारण को भी आधि-व्याधिक आदि से उत्पन्न कष्ट उठाने पड़ते हैं। प्रतिमा सिंहासन से नीचे उतर आये अथवा सिंहासन से नीचे गिर र जाये तो उस प्रदेश के मुखिया की मृत्यु हो जाती है । उस प्रदेश में अकाल, महामारी फेलती है और वर्षा का अभाव रहता है। है यदि उपर्युक्त उत्पात लगातार सात दिन अथवा पन्द्रह दिनों तक होते रहे तो निश्चयरूप से प्रतिपादित फल की प्राप्ति होती है परन्तु एक या दो दिन उत्पात होकर शान्त हो जावे तो पूर्ण फल की प्राप्ति नहीं होती है। किसी भी देवता की प्रतिमा जीभ निकालकर कई दिनों तक रोती हुई दिखाई पड़े तो उस नगर में अत्यन्त उपद्रव होता है। प्रशासक और प्रशास्यों में वैमनस्य हो जाता है। धन-धान्य की क्षति होती है । चोर और डाकुओं का उपद्रव अधिक बढ़ जाता है। संग्राम, मारकाट और Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४३ ----निर्मितशास्त्रम् - संघर्ष की स्थिति बढ़ती जाती है। 3 प्रतिमा का रोना राजा, मन्त्री या किसी महान नेता की मृत्यु का सूचक है । प्रतिमा का हँसना पारस्परिक विद्वेष, संघर्ष एवं कलह काम । सूचक है । प्रतिमा का चलना अथवा काँपना बीमारी, संघर्ष, कलह.. विषाद, आपसी फूट का सूचक है 1 प्रतिमा का गोलाकार चक्कर काटना भय, विद्वेष, असम्मान, आर्थिकहानि तथा देश की जनहानि का सूचक है। प्रतिमा का हिलना तथा रंग बदलना अनिष्टसूचक है । इस निमित्त को तीन महीनों में अनेक प्रकार के कष्टों के आगमन की सूचना ही। समझनी चाहिये। किसी भी देवता के प्रतिमा का पसीजना अग्निभय, चोरभय है और नगर में महामारी का सूचक है। धुओं सहित प्रतिमा से पसीना निकले। , तो जिस प्रद्देश में यह घटना घटित होती है, उसके सौ कोस की दूरी तक, चारों ओर धन और जन की क्षति का कारण होती है। उस स्थानपर अतिवृष्टि या अनावृष्टि के कारण जनता को महान कष्ट होगा। तीर्थंकर की प्रतिमा से पसीना निकलने पर धार्मिक विव्देष • फैलेगा, जिससे मुनियों और श्रावकों को विधर्मियों के व्दारा उपसर्ग सहन करना पड़ सकता है। राम की प्रतिमा से पसीने को निकलते हुए। देखने से उस स्थानपर लूटपाट और उपद्रवों के व्दारा अपार धन का विनाश हो जाता है । सूर्यप्रतिमा से पसीने के निकलने पर मनुष्यों को। * अचानक ही अपार कष्ट भोगने पड़ते हैं। * ग्रहों की प्रतिमायें, शासनदेवी-देवताओं की प्रतिमा और दिक्पाल देवों की प्रतिमाओं में किसी भी प्रकार की विकृति दिख पड़ने पर समाज की हर तरह से हानि होती है। प्रतिमा का विकृतरूप दिखने पर प्राप्त होने वाले अशुभ फलों की शान्ति का उपाय बताते हुए ग्रन्थकार ने लिखा है - मासे हितीइयेहिरूवंदंसंतिअप्पणा सव्वे। जइण विकीरहपूया देवाणं भत्तिएएणं॥८९।। अर्थ :- ऐमा उत्पात होने पर मनुष्यों को चाहिये कि तीन माह तक भकिनसहित जिनेन्द्रदेव की पूजन करें। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- ---निमित्तशास्त्रम्------ Saraswireek राजोत्पातप्रकरण छत्तोणुज्जलदंतोजइपडइणरवइस्सपासम्मि। ___ अहपंचमम्मिदिवसेजरपइ सुतिणायव्यो।९३|| अर्थ : यदि छत्र अथवा चमर अपने आप टूट कर राजा के पास आकर पड़े, तो राजा की पाँचवें दिन मृत्यु होगी। अहणंदितूर संखा वज्जंतिअनहया विफुदंति। अहपंचमम्मि मासेणरवइमरणंचणायव्यो॥९४|| अर्थ :है जहाँ ढोलक, तुरंग, तुरई और शंख के अपने आप बजने की, आवाज कानों में सुनाई पड़ती हो, वहाँ अवश्य ही पाँचवें माह में राजा की मृत्यु हो जायेगी। है चावंमुसली सत्तीसतोणचंताणवर जच्छदीसंति। ___ अहपंचमम्मिमासेणरवाणासुत्तिणायव्यो॥९५|| अर्थ :ॐ जिस स्थान पर यक्ष मूस से लड़ते हुए दिखाई देवें, वहाँ पर पाँचवें, माह में राजा की मृत्यु होगी। कोटणयरस्सदोर देवल चउप्पहेय रायगिहे। अह तोरणेय इंदो णिद्धसण सोहणंणीऊ॥९६|| अर्थ : नगर या कोट के दरवाजे पर, देव के मन्दिर पर, राजमहल पर अथवा चौराहे पर पक्षी लड़ते हुए दिखें अथवा नाचते हुए दिखें, तो उसका र फल निम्नरूप से जानना चाहिये । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रम् भावार्थ : जगर के दरवाजे पर, कोट के दरवाजे पर, मन्दिर पर, राजमहल । पर अथवा चौराहे पर पक्षियों को लड़ते हुए देखना या नाचते हुए देखना है अशुभ होता है। उसका फल आगामी गाथाओं में बतायेंगे। पायारवालवहोतोरणमज्झेय गब्भयाऊय। गयसाल अस्स साले कुणइवहंसाहणस्स सया||९७|| अर्थ : पक्षी यदि कोट पर नाचे, तो बच्चों की हानि होती है। पक्षी यदि दरवाजे पर नाचे, तो गर्भवती महिलाओं की हानि होती है । पक्षी यदि * गां-शाला अथवा धुशाला पर नाधे, तो साहूकारों की हानि होगी। देवणुले विप्पभओ रायगिहेरायणासणं कुणई। शक्कधये सुयपडिवोपुरस्सणासंणिवेदेई॥९८॥ अर्थ : देवमन्दिर पर पक्षियों के नाचने से ब्राह्मणों को दःख होता है। राजमन्दिर पर पक्षियों के नाचने से राजा का मरण होता है और चौराहे * पर पक्षियों के नाचने से सम्पूर्ण शहर का नाश होता है । आइच्चोजइ छिद्दोअह अकवीसे यदीसएमज्झे। तोजाणरायमरणं संगामोहोईवरिसेण॥९९|| अर्थ : यदि सूर्य के मध्य में छेद मालुम होने लगे और सूर्य के मध्य में कुंजाकृति (लताओं और पौधों से आच्छादित स्थान के आकार के समान आकृति का धारक)मनुष्य ज्ञात हो, तो एक वर्ष में राजा की मृत्यु होगी और महाभयंकर संग्राम होगा। दिवसेउलूय हिंडति सव्वण वायसऊ रयणीसु। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aashan 1 (निमित्तशास्त्रम्) ४६ अरवंति पुरविणासं भयं च रण्णं णिवेदेहि ॥ १०० ॥ अर्थ : यदि दिन में उल्लू और रात में कौवे रोवें तो नगर का विनाश व संग्राम का भय बना रहेगा । प्रकरण का विशेषार्थ छत्र या चमर अपने आप टूट जाये और राजा के पास आकर गिरे, तो पाँचवें दिन राजा की मृत्यु होगी। आचार्य श्री भद्रबाहु का मत है - राजोपकरणे भग्ने, चलिते पतितेऽपि वा । क्रव्यादसेवने चैव, राजपीडां समादिशेत् ॥ ( भद्रबाहु संहिता : - ४ / ५५ ) अर्थात् :- राजा के उपकरण (छत्र, चमर, मुकुट आदि) के भंग होने पर, चलित, होने पर गिरने पर अथवा मांसाहारी के व्दारा सेवा करने से राजा को पीड़ा होगी ऐसा कहना चाहिये । 1 जहाँ पर बिना बजाये भी ढोलक आदि की आवाजें सुनाई दें. वहाँ के राजा की मृत्यु पाँचवें माह में होती है। यही फल यक्ष को मूसे के 'साथ लड़ते हुए देखकर कथान करना चाहिये । कोट पर पक्षियों के नाचते अथवा लड़ते हुए देखने से बच्चों की, हानि होती है। दरवाजे पर पक्षियों के नाचते अथवा लड़ते हुए देखने से गर्भवती स्त्रियों की हानि होती है। गऊशाला या घुड़साल पर पक्षियों के 'नाचते अथवा लडते हुए देखने से साहूकारों की हानि होती है। देवमन्दिर' . पर पक्षियों के नाचते अथवा लड़ते हुए देखने से ब्राह्मणों की हानि होती. है। राजमन्दिर पर पक्षियों के नाचते अथवा लड़ते हुए देखने से राजा का • मरण होता है। चौराहे पर पक्षियों के नाचते अथवा लड़ते हुए देखने से, सम्पूर्ण शहर का विनाश होता है। यदि ऐसा प्रतीत हो कि सूर्य में छेद हैं तो एक वर्ष के अन्दर उस नगर के राजा की मृत्यु हो जायेगी। दिन में उल्लू और रात्रि में कौवें यदि रोवें अथवा घूमें तो संग्राम होकर उस नगर का नाश हो जायेगा । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रम् ४७ इन्द्रधनुषप्रकरण रत्तिम्मिय इंदधणुजइदीसं एसोय सुक्किलभं। सो कुणइरत्थभंग रणस्सवीरोय पीडंच ॥१०१॥ अर्थ : रात्रि के समय में यदि श्वेत इन्द्रधनुष दिखाई देवे तो वहाँ पर संग्राम में स्थभंग होंगे व मनुष्यों को कष्ट होगा। दिवहेदीसइधणुओ पुव्वेणय दक्खिणेण वामेण। सोकुणइणीरणासंवायं च व मुंचय बहुयं।।१०२॥ अर्थ : यदि दिन के समय में इन्द्रधनुष पूर्व से दक्षिण की ओर वक्र मालुम होवे तो खूब हवा चलेगी परन्तु पानी नहीं बरसेगा। पच्छिमभाये पुणओवरिसंचविमंचएअइ बहुयं। उत्तर उइवोअहवादीसंतिण सोहणाधण्णू॥१०३॥ अर्थ : यदि इन्द्रधनुष पूर्व से पश्चिम की ओर टेडा दिखाई दे तो पानी बहुत बरसेगा । यदि धनुष पूर्व से उत्तर की दिशा में टेढ़ा दिखाई , पडे तो शुभ नहीं है। धणियंणइएविना कण्णा कुवंतिमंडलंणिउी साहंति अग्गिदाहंचोरभयंचणिवेदत्ति॥१०४|| * अर्थ : यदि इन्द्रधनुष मण्डलाकार ज्ञात होते तो अग्जि व चोर का भय* अवश्य बतावेगा। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S (निमित्तशास्त्रम इंदुडवणेय पुणो जे दोसा हुति णयरमज्जम्मि । तेहुति णरिदस्स दु वरिसदिणब्भंतरे णियदं ॥ १०५ ॥ अर्थ : ४८ इन्द्रधनुष के ये दोष जिस नगर में अथवा जिस राजा के राज्य में दिखाई पड़े, उस स्थान पर इसका फल मिलता है। उट्टंतो जइ कंपइ परिधो लभइ वलययाणमई । तो जाणई वलसोहं रजब्भंसंचरणस्सं ॥१०६॥ अर्थ : जो धनुष उठता हुआ या काँपता हुआ दिखाई देवे अथवा कभी लम्बा या कभी चौड़ा दिखाई देवे तो राजभय होगा ऐसा जानी । इंदो कीलविणासं मंत्तिविरुद्धो दुपरियणे होई । उट्टंते पुण पडइय णरवइपडणं णिवेदेई ॥१०७॥ अर्थ : यदि इन्द्रधनुष खड़ा दिखाई देवे तो मन्त्री व राजा में विरोधहोता है। यदि वह उठता हुआ दिखाई पड़े और तत्काल गिर पड़े तो राजा का राजभंग होता है । भंगे णरवइभंगं फुणियेण रोयपाडिऊंहोई । पावग्गहस्स णु गहिए उट्टंतो कुणइ संगामं ॥ १०८ ॥ अर्थ : टूटता हुआ इन्द्रधनुष दिखाई पड़ने पर उस नगर के राजा की 'मृत्यु होती है। यदि इन्द्रधनुष बिखरता हुआ दिखाई पड़े तो रोग की पीडा होती है और यदि इन्द्रधनुष से अग्निज्वाला निकलती हुई दिखाई देवे तो संग्राम होगा । जइ मुंचइ धूमं वा अग्गिजालं च णुट्ठिओ संतो। my Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोकुणइराइमरणंदेसविणासंपुणोपच्छा।।१०९॥ अर्थ : यदि इन्द्रधनुष से घूआँ निकलता हुआ दिखे और उसके चारों । ओर अग्नि की चिनगारियाँ उठती दिखाई देवे तो राजा की मृत्यु होगी। * और बाद में उस देश का नाश होगा। है वेठिज्जइएहिज्जइ महुजालेहिंफीडए हिंवा। है तोजाण मारिघोराजणसरोगंच दुभिक्खं॥११०|| अर्थ :ए यदि मधुमक्खी के छत्ते के समान इन्द्रधनुष नगर को घेर लेवे तो ऐसी घोर महामारी होगी जिससे मनुष्यों को कष्ट होगा व राज्य में अकाल पड़ेगा ऐसा जाजो। इंदद्दयमारुढो रिठोज्जइकुणइबहुविहारावं। अक्खइसोपुरभंगचणोयमेणा-----||१११॥ अर्थ : यदि एक के ऊपर एक दो इन्दधनुष दिखाई देवे तो मनुष्यों की हर तरह से हानि होगी एवं नगर का विनाश होगा। एदेपुणउप्पादा सव्वेणासंतिवरिसदेसंति। पंचदिणभंतरदोअहवापुण सत्तरत्तेण॥११२|| अर्थ : इन्द्रधनुष सम्बन्धित ये कुफल पाँच दिन, सात दिन या एक वर्ष के अन्दर अवश्य दिखाई देगें। ___ यदि सोमोणिसुद्दोउढदिणुप्पादवज्जिदोसंतो। __ रण्णेपुरासहोहदिखेमसिवंतम्मिदेसम्मि॥११३॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AIRiविशिER -"होयर अर्थ : यदि यह उत्पात दोषों से रहित हो तो राजा को शान्तिदायको में होते हैं एवं नगर में भी शान्ति होती है। ई अह उत्तमेहिणीया वमाणिया सोहणंतिणायव्वं। __ अहमेल्लिोत्तमा पुणदेसविणासंपरिकहंति॥११४|| अर्थ : उत्तम पुरुष उत्पातों का अच्छीतरह से विचार करके देश के विनाश का कारण बताते हैं। जइ बाला हिंडंता भिक्खं देहिंतिमुकुरावित्ता। दुभिक्खभयं होहइतइसेणस्थिसंदेहो||११५|| अर्थ : जहाँ बच्चे खेलते-खेलते रोने लगे और मुझे भीख दो ऐसा मुँह से। कहने लग जायें, उस देश में दुष्काल पड़ेगा। इसमें किसीप्रकार का सन्देह नहीं है। प्रकरण का विशेषार्थ श्वेतप्रकाश का सात रंगों में धनुषाकार विभाजित होने को इन्द्रधनुष कहते हैं। सामान्यतः किसी भी समय एक ही इन्द्रधनुष दिखाई देता है । यद्यपि चित एक साथ दो इन्द्रधनुष भी दिखाई देते हैं। इन्द्रधनुष में किस रंग का बाहुल्य है ? इन्द्रधनुष कौनसी दिशा, में दृष्टिगोचर हो रहा है ? इन्द्रधनुष का आकार कैसा है ? आदि बातों को देखकर शुभाशुभ फल जाने जा सकते हैं। ॐ इन्द्रधनुष के रंगों का प्रभाव बताते हुए आचार्य श्री भद्रबाहु जी लिखते हैं - इन्द्रायुधं निशिश्वेतं, विप्रान् रक्तं च क्षत्रियान्। निहन्ति पीतकं वैश्यान् , कृष्णं शुद्रभयङ्करान्।। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशारत्रम् (भद्रबाहु संहिता:-१४/५८) अर्थात् :- यदि रात्रि के समय में श्वेतवर्ण का इन्द्रधनुष दिखाई देता हो तो वह ब्राह्मणों के लिए भयदायक होता है। यदि रात्रि के समय में रक्तवर्ण का इन्द्रधनुष प दिखाई देता हो तो वह क्षत्रियों के लिए भयदायक होता है। यदि रात्रि के समय में • पीतवर्ण का इन्द्रधनुष दिखाई देता हो तो वह वैश्यों के लिए भयदायक होता है। यदि रात्रि के समय में श्यामवर्ण का इन्द्रधनुष दिखाई देता हो तो वह शूद्रों के लिए मकवायक होता है। भट्टारक श्री कुन्दकुन्द जी महाराज भी इस बात की पुष्टि करते क हुए लिखते हैं - सितं रक्त पीतकृष्णं, सुरेन्द्रस्यशरासनम्। भवेद् विप्रादि वर्णानां, चतुर्णा नाशनंक्रमात्॥ (कुन्दकुन्द श्रावकाचार :-८/१२) इन्द्रधनुष के श्वेतरंग से सम्बन्धित फलादेश में प्रस्तुत ग्रन्थकार का मतभेद है । अन्धकार के अनुसार श्वेतरंग का इन्द्रधनुष । संग्रामकारक और मनुष्यों के लिए कष्टसूचक है। इन्द्रधनुष का कम्पित होजा अथवा भग्न होना राजा और राज्य के के लिए हानिकारक है। इस विषय में आचार्य श्री भद्रबाहुजी का मन्तव्य ॐ इसप्रकार है - भज्यते नश्यते तत्तु, कम्पते शीर्यते जलम् । चतुर्मासं परं राजा, म्रियते भत्यते तथा॥ (भद्रबाहु संहिता:- १४/५९) अर्थात् :- यदि इन्द्रधनुष भग्न होता हो, नष्ट होता हो, काँपता हो और जल की वर्षा करता हो तो राला चार महीने के उपरान्त मृत्यु को प्राप्त होता है अथवा ) आघात को प्राप्त होता है। इन्द्रधनुष टूटता हुआ, बिस्वरता हुआ अथवा अग्नि से युक्त * होता हुआ दिखाई पड़ना अशुभकारक है। मधु के छत्ते के समान आकार * का धारक इन्द्रधनुष महामारी का सूचक है। एक के ऊपर एक ऐसे दो ह इन्द्रधनुष दिखाई देने पर उस नगर के मनुष्यों को हर प्रकार की अपार है १ हानि सहन करनी पड़ेगी। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- ---निमितशारश्रम------ (५२) (उल्कापतनप्रकरण) पुव्वे उत्तरमुण्णाणुक्का वाजत्थदीसएथपडा। तत्थ विणासो होहइगामेणयरेणसंदेहो॥११६|| अर्थ : यदि उल्का पूर्व और उत्तरदिशा में दिखाई पड़े तो उस गाँव अथवा नगर का नाश होगा। इसमें किसीप्रकार का सन्देह नहीं है।' उक्कायस्थजलंतिमासे-मासेसुसव्वकालेसु। छम्मासंपङमाणंतत्थोपाणंणिवेदेई॥११७|| अर्थ : जहाँ पर हर माह में उल्का दिखाई देवे इसतरह वह लगातार छह. माह तक दिखाई देवे तो अवश्य ही उस देश में रहने वाले मनुष्यों के 8 प्राणों का हरण होगा। सुक्किदवा धूमाभाजइवाणिच्चाइधूसराउका। पडमाणो दिसिज्झाणंहम्मितंजाणउप्पाद।।११८॥ अर्थ : सफेद धूसर रंग वाली उल्कापात जहाँ होती है, उसे बड़ा भारी उल्कापात जानो। . सुक्का हणेइ विप्पास्त्ता पुणखत्तई विणासेई। पीयाहणेइवइसे किण्हापुणसुद्दणासयरी॥११९॥ अर्थ : सफेद उल्का विनों का संहार करती है । लाल उल्का क्षत्रियों का संहार करती है। पीली उल्का वैश्यों का संहार करती है तथा काली उल्का शुद्रों का संहार करती है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -निमिनशास्त्रम - चित्तलयं तिल्लाणवाहिमारिच ताण को वेइ। सामासम्मिपङती सोहणउक्काणवेराइ॥१२०॥ अर्थ : पंचरंगी उल्का मारी की बीमारी करती है और जो उल्का इधर उधर से टकरा जाये, वह प्राणनाश करती है। o मज्झणिएसंज्झाए वायम्गिभयंणिवेइपडती। म अहअण्णवेलदिट्टा उक्का रणस्सणासयरा।।१२१॥ अर्थ : सन्ध्या व अर्धरात्रि की उल्का हवा व अग्नि का भय करती है। तथा सूर्योदय की प्रथम उल्का राजा का नाश करती है। पडमाणी णिहिटाधुव सुवण्णस्सणासिणीउक्का। अंगारायणजुत्ताअग्गीदाईणिवेदेई॥१२सा अर्थ : जो उल्का गिरती हुई दिखाई देवे तो वह सुवर्ण का नाश करती है तथा यदि वह अंगारे लिये हुए गिरे तो वह अग्निदाह करती है। अह सुक्केणय जुत्ताजम्हाजइपडइ कहव पलजंती। तोरणमंडविणासंकच्छुकंडुच्च साणिवेएई॥१२३॥ अर्थ : यदि शुक्र के उदय में जलती हुई उल्का दिखाई देवे तो वह रस के बर्तनों को नष्ट करती है और खुजली के रोग को उत्पन्न करती है। .......................................................। ___राहूण विसयघादंजलणासय रहिवेउक्का॥१२४॥ अर्थ : Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमितशास्त्रम यदि राहु के उदय में उल्का का पतन होता है तो वह पानी का नाश करती है। परकम्मिजस्सपडियातस्सघोराहवेइ पुण्णाणी। ६इंददिसाए सुपडियाखेम सुभिक्खंणिवेदेहि॥१२५।। अर्थ : पश्चिमदिशा में पड़ी हुई उल्का घोर पीड़ा उत्पन्न करती है। उत्तरदिशा में पड़ी हुई उल्का कुशल और सुभिक्ष को उपजाती है। अम्गेई अम्गिभयंजम्माएएणसोसयंजणणी। अहणरइयेपडियादव्वविणासंणिवेदेहि॥१२६| अर्थ : __ यदि उल्का अग्नेयकोण में पड़े तो अग्निभय को उत्पन्न करती, है। यदि उल्का दक्षिणदिशा में पड़े तो पीड़ा को उत्पन्न करती है और जैऋत्यकोण में पड़ी हुई उल्का द्रव्य का नाश करती है। अहवारुणीयपडिया वरिसंवायंच बहणिवेएई। वायव्वे रोयभयंसोभापुण सोतया होई॥१२७॥ अर्थ :4 . यदि नीची या ऊपर चलती हुई उल्का पड़ जाती है तो वर्षा और हवा चलाती है। वायव्यकोणीय चलती उल्का रोगभय को करती है, परन्तु यदि उल्का वायव्यकोणीय हो तो वह शुभ भी है। ईसाणाएपडियाघादंगभस्स कुणइमहिलाणं। दित्तदिसासुयपडिया भयजणणी दारुणीउक्का॥१२८|| अर्थ : ईशानकोण में पड़ी हुई उल्का गर्भ का नाश करती है और यदि १वह पूर्वदिशा में पड़े तो घोर भय को उत्पन्न करती है। . ... . -4 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रम् ५५ सूरम्मितावयंती पुहवी तावेइ णिवणियाणुक्का । सोमे पुण सोममुही खेमसुभिक्खंकरी उक्का ॥ १२९ ॥ अर्थ : यदि रविवार के दिन उल्कापतन हो तो पृथ्वी पर गर्मी से सम्बन्धित पीड़ा होगी और यदि सोमवार को उल्कापतन हो तो सुभिक्ष का निर्माण करती है । जस्सय रिक्खे पड़िया तरसेव य सोहणं बहु कुणई। अण्णरसवि कुणई भयं थोवं-थोवंण संदेहो ॥१३०॥ अर्थ : उल्कापात जो जहाँ से उठा हो वहीं पर लौट जाये तो अच्छा है, अन्यथा वह पुनः पुनः भयोत्पादन करती है। इसमें किसीप्रकार का सन्देह नहीं है। - कित्तिय रोहिणिमज्झे पङमाणी कुणइ पुहइतावं । डहइय पुरगामाई रायगिहंणत्थि संदेहो ॥१३१॥ अर्थ : यदि उल्कापतन कृतिका व रोहिणी नक्षत्र में हो तो पृथ्वी के. लिये सन्तापदायक है, शहर या गाँव को राज्य या राजमहल को नष्ट कर देती है। इसमें कोई सन्देह नहीं है । चोरा लुंपंति मही रायकुलापयाची लुप्पया होंति । विलयंति पुत्तदारा पापविणस्सते तथा सव्वं ॥ १३२॥ अर्थ : धरातल पर चोरों का भय बढ़ेगा। माता पुत्र को और स्त्री प्रति को छोड़ देगी । इंदो वरसइ मंदं सस्साण विणासणो हवइ लोए । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिशास्त्रम A २ इयणुप्पापणिमित्तंजाणेयवंचपयत्तेण॥१३३॥ अर्थ : पानी मन्त्र बरसेगा । गेहूँ आदि धान्य नाश को प्राप्त होंगे। यह सब उत्पात इस प्रकार के उल्कापात से होता है। प्रकरण का विशेषार्थ का निमित्तशास्त्रों में आकाश से पतित होने वाले ताराओं को उल्कापतन कहते हैं। आधुनिक वैज्ञानिकों के लिए उल्कापतन का विषय है आश्चर्यकारक रहा है। वे इसके रहस्य को अवगत करने का प्रयत्न कर रहे हैं। कुछ वैज्ञानिक इसे टूटने वाला नक्षत्र {Shooting Stars} कहते । हैं तो कुछ वैज्ञानिक इसे अग्निगोलक {Fire Balls} मानते हैं। अन्य। वैज्ञानिक इसको उपनक्षत्र {Asterides} कहते हैं। संहिता ग्रन्थों में उल्कापतन का विस्तारपूर्वक वर्णन पाया जाता है है। यहाँ उसका वर्णन संक्षेप से किया जा रहा है। ६ लालवर्गीय वक्र, टूटी हुई उल्का को पतित होते हुए देखने वाले व्यक्ति को भय, पाँच माह के अन्दर परिवार के किसी इष्ट व्यक्ति की मृत्यु, धन की हानि, दो माह के बाद किये गये व्यापार में हानि, राजकीय, कर्मचारियों से विवाद, मुकदमा और अनेक प्रकार की चिन्ताओं से ग्रस्त हु होना पड़ता है। श्यामवणीय उल्का का पतन देखने से व्यक्ति के किसी आत्मीय की मृत्यु सात माह के अन्दर-अन्दर ही होगी। उसे हानि, अशान्ति, । झगड़ा और परेशानियों का सामना करना पड़ेगा । यदि कृष्णवर्णीय उल्का का पतन सन्ध्याकाल में दिखाई पड़ता है तो उसे भय, विद्रोह और अशान्ति का सूचक जानना चाहिये । यदि सन्ध्याकाल के तीन द्र घटिका के बाद (७२ मीनट के बाद) उल्कापतन दिखाई दे तो विवाद, . * कलह, पारिवारिक कलह, किसी इष्ट व्यक्ति को कष्ट आदि का संसूचक है। मध्यरात्रि का उल्कापतज देखने पर स्वयं को अपार को कष्ट होगा, ऐसा प्रकट करता है। उससे किसी पारिवारिक सदस्य की मृत्यु, आर्थिक संकट और अशान्ति का बोध होता है। KHARE MAN Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रम् ५७ श्वेतवर्ण वाली उल्का का पतन सन्ध्या के समय में दिखना सुखदायक है। इससे धनलाभ, आत्मसन्तोष, मित्रमिलन और सौख्य की प्राप्ति होती है। यदि श्वेत उल्का दण्डाकार हो तो लाभ की स्थिति सामान्य होती है। यदि श्वेत उल्का मुसलाकार हो तो लाभ अतिशय अल्प होता है । शकटाकार अथवा गजाकार उल्का पुष्कल लाभ को सूचित करती है। अश्व के आकार की उल्का विशेष लाभदायक है। उक्त उल्का मध्यरात्रि के समय में दिखाई पकने पर पुत्र और पतिकों का लाभ होता है। इतना ही नहीं, अपितु अभीष्ट कार्य की सिद्धि होती यदि श्वेत उल्काओं का पतन रोहिणी, पुनर्वसु, धनिष्ठा और तीनों उत्तराओं में (उत्तराषाढा, उत्तराफाल्गुनी और उत्तराभाद्रपदा) दिखाई पड़े तो अधिक लाभ मिलता है। उस दृष्टा को धन-धान्यादि की प्राप्ति के साथ-साथ स्त्री व पुत्र का भी लाभ होता है । आश्लेषा, भरणी, रेवती और तीनों पूर्वाओं में (पूर्वाषाढा, पूर्वाफाल्गुनी और पूर्वा भाद्रपदा नक्षत्र में उल्का का पतन दिखने पर सामान्य लाभ होता है । आर्द्रा, पुष्य, मघा, धनिष्ठा, श्रवण और हस्त नक्षत्रों में श्वेत उल्का का पतन भारी लाभ को सूचित करता है । मघा, रोहिणी, उत्तराषाढा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराभाद्रपदा, मूल, मृगशिर और अनुराधा नक्षत्रों में उल्का का पतन स्त्री तथा सन्तानलाभ को प्रकट करता है। पुनर्वसु और रोहिणी इन दो नक्षत्रों में मध्यरात्रि में श्वेत उल्का का पतन देखने से इष्टकार्य की सिद्धि होती है । पीतवर्ण की उल्का शुभ फलदायक है। सन्ध्या के तीन घटिका के बाद पीतवर्णीय उल्कापात देखने पर मुकदमें में विजय, परीक्षाओं में उत्तीर्णता और राज्यकर्मचारियों से मैत्री होने के अवसर को प्रकट करता हैं। आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य और श्रवण नक्षत्र में पीतवर्ण की उल्का का पतन देखने से स्वजाति और स्वदेश में सम्मान की वृद्धि होती है । उक्त उल्का मध्यरात्रि में दिखने पर हर्ष की प्राप्ति होती है। रात को लगभग एक बजे उक्तप्रकार की उल्का का पतन देखने पर सामान्य पीड़ा, आर्थिक लाभ और प्रतिष्ठित व्यक्तियों से प्रशंसा का लाभ प्राप्त होता है । श्री Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्मित्तशास्त्रम ५८ विचित्रवर्ण वाली उल्का का पतन देखना अर्थहानि को सूचित करती है। धूमवर्ण वाली उल्का का पतन देखने से वैयक्तिक हानियों का सामना करना पड़ता है। उल्काओं के आकार से भी फल में अन्तर पाया जाता है। हाथी, घोड़ा और बैल आदि पशुओं के आकार को धारण करने वाली उल्कायें सुख की सूचिकायें हैं। साँप, शूकर और चमगीदड़ आदि के समान आकार खाली उल्काओं का पतन भय और रोग को सूचित करती हैं। सूक्ष्म आकार वाली उल्कायें शुभ और स्थूल आकार वाली उल्कायें अपना अशुभ फल देती हैं। तलवार की धुलि के समान उल्कायें व्यक्ति के अवनति को सूचित करती है। कमल, वृक्ष, चन्द्र, सूर्य, आदि रूप वाली उल्कायें यदि रविवार, मंगलवार और गुरुवार ਤੇ ਫਿਰ ਰਿਹ हुए दिखाई पड़े तो व्यक्ति को आकस्मिक लाभ अत्यधिक मात्रा में होता है। उसे सन्तान का लाभ और 'अनेक मांगलिक सूचनाओं की प्राप्ति होती है। मंगलवार, शनिवार और सोमवार को उल्कापात का दिखना अनिष्टकारक है। मंगलवार और आश्लेषा नक्षत्र में शुभसंकेत को सूचित करने वाली उल्काओं का पतन देखने से अनिष्ट ही होता है। मंगलवार और रविवार को अनेक व्यक्ति मध्यरात्रि में उल्कापात देखें तो राष्ट्र की भयंकर हानि होगी । श्वेत, पीत और रक्तवर्ण की उल्का का पतन शुक्रवार और गुरुवार को दिखें तो वह राष्ट्रीय बल के बढ़ाने वाली सूचना देती है । शुक्रवार की मध्यरात्रि में अनुराधा नक्षत्र में उल्का का पतन कृषि के लिए अतिशय उत्तम है। सोमवार की मध्यरात्रि में श्रवणनक्षत्र के समय 'में होने वाला उल्का का पतन देखने से गेहूँ और धान की फसल अच्छी होगी ऐसा जान लेना चाहिये। मंगलवार के दिन श्रवण नक्षत्र हो और उसदिन उल्का का पतन दिखे तो जान लेना चाहिये कि गन्ने की फसल अच्छी होगी परन्तु चने की फसल को रोग लगेगा । गुरुवार अथवा शुक्रवार के दिन पुष्य या पुनर्वसु नक्षत्र हो और रात्रि के पूर्वार्ध में श्वेत या पीत वर्ण की उल्का का पतन दिखे तो अन्नादि 'वस्तुओं के भाव सामान्य ही रहेंगे ऐसा जानना चाहिये । गुरुपुष्यामृत योग में उल्कापात दिखाई पड़े तो यह सोने-चाँदी के भावों में विशेष Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAZ निमित्तशास्त्रम् ५९ घट-बढ़ के सूचक है। रविपुष्यामृत योग में पीतवर्णीय उल्का का पतन सोने के भाव को पहले तीन माह तक गिरना और उसके बाद बढ़ने की सूचना देता है। श्यामवर्ण की उल्का का पतन रविवार की रात्रि के पूर्वार्ध में दिखें तो काले रंग की वस्तुओं के भाव बढ़ेंगे। पीतवर्ण की उल्का का पतन रविंदर की पत्रि के पूर्वार्ध में बिले तो गेहूँ और के व्यापार में अधिक घटा-बढ़ी होगी । श्वेतवर्ण की उल्का का पतन रविवार की रात्रि के पूर्वार्ध में दिखे तो चाँदी के भाव में बहुत गिरावट होगी। रक्तवर्ण की उल्का का पतन रविवार की रात्रि के पूर्वार्ध में दिखे तो सोने के भाव में बहुत गिरावट होगी। यदि कोई व्यापारी रविवार, मंगलवार और शनिवार के दिन पूर्वदिशा में गिरती हुई उल्का देखें तो उसे माल बेचने से बड़ा भारी लाभ हो सकता है। इन्हीं रात्रियों में यदि पश्चिमदिशा में उल्कापतन दिख जाये तो उन्हें माल खरीदना चाहिये । दक्षिण से उत्तर की ओर गमन करने वाली उल्का देखने से मोती, हीरा, पन्ना आदि में अपार लाभ होता है । इन रत्नों के मूल्य में आठ माह तक घट-बढ़ होती रहेगी। स्निग्ध, श्वेत प्रकाशमान और सीधे आकार का उल्का का 1 पतन शान्ति, सुख और निरोगता को सूचित करती है । प्रायः सभी प्रकार की उल्काओं के पतन को सन्ध्याकाल में देखने पर चतुर्थांश फल प्राप्त होता है। उल्कापतन की रात्रि के प्रथम प्रहर में देखने से उसका षष्ठांश फल प्राप्त होता है। उल्कापतन को रात्रि के दूसरे प्रहर में देखने से उसका तृतीयांश फल प्राप्त होता है। ठीक मध्यरात्रि में अर्थात् रात्रि के बारह बजे उल्का का पतन देखने पर उसका फल आधा मिलता है। रात्रि में बारह से एक बजे के मध्य में उल्का का पतन देखने पर फलप्राप्ति पूर्णरूप से होती है। रात्रि को एक बजे उल्का का पतन देखने पर उसका अर्धाधिक फल प्राप्त होता है। उल्कापतन की रात्रि के अन्तिम प्रहर में देखने से उसका फल न्यूनरूप में प्राप्त होता है। अनिष्टकारी उल्का का पतन देखने पर अनिष्ट की शान्ति के लिए चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान की पूजन करनी चाहिये । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ----निमित्तशास्त्रम्----- ६० गन्धर्वनगरप्रकरण पुव्वदिस्सम्मिय भाएदीसदिगंधध्वसण्णिहोणयरो। पच्छिमदेस विणासोहोहइतत्थेवणायव्यो।।१३४|| अर्थ : यदि गन्धर्वनगर पूर्व दिशा में दिखाई देवे तो पश्चिम देश का नाश होगा ऐसा जानो। ६ दक्खिणदिसम्मिदिडोरायाण विणासणोहवेणियरे। अह पच्छिमेणदीसइहणइपुणपुव्वदेसोई॥१३५|| अर्थ : दक्षिणदिशा में यदि गन्धर्वनगर दिखाई देवे तो राजा का नाशहोगा और पश्चिमदिशा में गन्धर्वनगर दिखाई देने पर पूर्व दिशा के देशों का नाश शीघ्र ही होगा। णुत्तरणुत्तरियाणणयराणविणासणोहवइ दिहो। हेमंते रोयभयं वसंतमासेसुभिक्खयरे||१३६|| अर्थ :8 उत्तरदिशा में यदि गन्धर्वनगर दिखाई देवे तो उत्तरदिशा वालों का नाश होता है। यदि हेमन्तऋतु में गन्धर्तनगर दिखाई पड़े तो रोग का. भय व वसन्तऋतु में गन्धर्वनगर दिखाई देने पर सुकाल करता है। है गीम्मेणणयरघादी पाउसकाले असोहणोदिहो। वरिसाभयदुभिक्खंसरए पुणवहि पीङयरो॥१३७|| अर्थ : ग्रीष्मऋतु में दिखाई देने वाला गन्धर्वनगर नगर का नाश करने वाला है। यदि गन्धर्वनगर वर्षाऋतु में दिखे तो पानी कम होगा अर्थात् Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ........- me-सिमिविशिवाय दुष्काल पड़ेगा । यदि शरदऋतु में गन्धर्वनगर दिखाई पड़े तो मनुष्यों को पीड़ा देता है। रिउकालमऊ एसोरयक्खय हिंङमाणणूवस्स। मज्झणेरायाणेछम्मासेसोविणासेई॥१३८|| अर्थ : शेष ऋतुओं में गन्धर्वनगर दिखाई देने पर उसके फलस्वरूप राजा का नाश छह माह के अन्दर होगा। तसंसोणासदिजत्थपहिडंति दीसएराई। पच्चूसेचोरभयंणरवइणासंचपुणएहं॥१३९॥ अर्थ : गन्धर्वनगर यदि रात को दिखे तो वह देश का नाश करेगा। यदि कुछ रात्रि शेष रहने पर गन्धर्वनगर दिखे तो चौरभय और राजा 9 का नाश होगा। ई अणकालम्मिदिठेसुभिक्खयरोग उहदेसयरो। । जइमवण्णइदीसएहणऊअणेयाय विसयाइ॥१४०|| अर्थ : उपर्युक्त समय से अन्य समयों में दिखाई देने वाला गन्धर्वनगर सुभिक्ष की और रोग दूर करने की सूचना देता है। चित्तलवोभयजणणोसामारोयस्ससंभवाहोई। घिय तिल्ल खीरघादी सुक्किलऊहोय लोयस्स॥१४१॥ अर्थ : यदि गन्धर्वनगर पंचरंग का होवे तो वह नगरभय और रोगभय को करने वाला होता है । श्वेतवर्ण वाला गन्धर्तनगर घी, तेल और दूध के नाश को सूचित करता है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -निमित्तशास्त्रमकिण्होवच्छविणासोरत्तोपुण उदयणासणो भणिओ। __ अइकालस्तवण्णोदीसंतअसोहणोणयरो॥१४२। अर्थ :ॐ गन्धर्वनगर यदि काले वर्ण का हो तो वह वस्त्र का नाश करता, है । लालरंग का गन्धर्वनगर उदय के नाश को दर्शाता है। यदि । गन्धर्वनगर लालरंग का हो और अधिक देर तक दिखाई देवे तो वह अधिक अशुभ है। एएदरसणणूवाणयरीअसुहावहा मुणेयव्या। है जम्मिदिसे दिसिज्जातम्मिदिसेतत्तुणायव्वा।।१४३|| अर्थ : गन्धर्वनगर जिस शहर व जिस दिशा में दिखाई पड़ें, वह उसी शहर और उसी दिशा का नाश करता है अर्थात् उसे हानि पहुंचाता है। 8 अह रिक्खमज्झवच्चहछायंतोतारयाणि बहुयाणि। सोमज्झदेसणासंकुणइपुणोणत्थिसंदेहो॥१४४॥ अर्थ : आकाश में तारों की तरह बीच में छाया हुआ गन्धर्वनगर दिखाई, देने पर वह मध्य देश का नाश करता है। इसमें किसीप्रकार का सन्देह नहीं है। एयंतेणउवच्चइ एयंत विणाउ हवइ दिहो। यच्च तद्देसणासंवाहीमरणंचदुभिक्ख॥१४५|| अर्थ : म यह गन्धर्वनगर जितनी दूरी तक फैला हुआ दिखाई पड़े, उतनी दूरी तक देश का नाश, रोग से मरण और दुर्भिक्ष को दर्शाता है। इंदपुरणयर सहिऊदीसइ जइपुक्खरोय हिंडतो। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DCHधका निर्मितशास्त्रम चिंतेइदेसणासंवाहीमरणंचदुभिक्खं॥१४६॥ अर्थ :* यदि गन्धर्वनगर इन्द्रधनुषाकार अथवा सर्प के बांबी के आकार का हो तो देशनाश, व्याधि से मरण और दुर्भिक्षकारक होगा। छाइज्जइमहेणंपव्वइ मित्तेण बहुपयारेण! छिज्जंतजच्छदीसइरायविणासोहवेणियमा॥१४७|| अर्थ : यदि नगर के ऊपर नगर के आकार का गन्धर्वनगर दिखाई ६. देवे और उसके चारों ओर कोट घिरा हुआ दिखाई देवे तो निश्चय ही। राजा की मृत्यु होगी। प्रकरण का विशेषार्थ. गगजमण्डप में उदित होने वाले इष्ट और अनिष्ट के सूचक पुरविशेष को गन्धर्वनगर कहा जाता है । पुल के आकार विशेष ही आकाश में नगर के रूप में निर्मित हो जाते हैं। उनके रूप, आकार व स्थानादि का अवलोकन करके इष्टानिष्ट फल ज्ञात किया जाता है। - ज्योतिषग्रन्थों के अनुसार यदि किसी भी माह के रविवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो जनता को कष्ट, दुर्भिक्ष, अन्न के भाव में तेजी, घास की कमी, विषैले जन्तुओं की वृद्धि, व्यापार में लाभ, कृषि * का विनाश और अन्य अनेक प्रकार के उपद्रव होते हैं। यदि रविवार को सायंकाल में गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो भूकम्प का भय होता है। यदि रविवार को मध्याह्न में गन्धर्वजार दिखलाई पड़े तो जनता में अराजकता फैलती है । यदि रविवार को प्रातःकाल में गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो साधारणतः सामान्य का वातावरण होता है । सन्ध्याकाल में दिखाई देने वाला गन्धर्वनगर अधिक 8 बुरा समझा जाता है | रात में दिखाई देने वाला गन्धर्वनगर अल्पफल, को प्रदान करता है। चैत्र मास में मंगलवार को सन्ध्याकाल में यदि गन्धर्व जगर Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -निमित्तशास्त्रम् --- दिखाई देता है तो नगर में अग्नि का प्रकोप, पशुओं में रोग, नागरिकों में है कलह और अर्थ की हानि होती है । चैत्र मास में बुधवार को मध्याह्नकाल में यदि गन्धर्वनगर दिखाई देता है तो अर्थ का विनाश, असन्तोष की उत्पत्ति, रसादि पदार्थों का अभाव और पशुओं के लिए चारे की कमी को हैप्रकट करता है । चैत्र मास में गुरुवार को रात्रि में यदि गन्धर्वनगर दिखाई। देता है तो जनता को अत्यन्त कष्ट, व्यसनों का प्रचार और अर्थ की क्षति होती है । चैत्र मास में शुक्रवार को यदि गन्धर्वनगर दिखाई देता है तो चातुर्मास की अच्छी वर्षा, उत्तम फसल, अनाज का भाव सस्ता, गोरस की अधिकता और व्यापारियों को लाभ होता है । चैत्र मास में शनिवार को मध्यरात्रि अथवा मध्यदिन में यदि गन्धर्वनगर दिखाई देता है तो जनता में घोर संघर्ष एवं अशान्ति होती है। इससे सर्वत्र अराजकता फैलती है। * वैशाख माह में मंगलवार को प्रातः काल या अपराह्न काल में से गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो चातुर्मास में अच्छी वर्षा और सुभिक्ष का * विस्तार होता है । वैशाख माह में बुधवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े, तो व्यापारियों में मतभेद, आपस में विवाद और आर्थिक क्षति होती है। है वैशाख माह में गुरुवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो अनेक प्रकार के लाभ प्राप्त होते हैं। वैशाख माह में शुक्रवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो समय पर वर्षा, धान्य की अधिक उत्पत्ति और वस्त्र के व्यापार में लाभ होगा । वैशाख माह में शनिवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो सामान्यतया फसल अच्छी होती है। जेष्ठ माह में मंगलवार को गन्धर्वजगर दिखलाई पड़ने पर उस वर्ष आषाढ़ में अच्छी वर्षा होती है। श्रावण और भाद्रपद में वर्षा की कमी रहेगी । अश्विन मास में अच्छी वर्षा होगी। इसके अतिरिक्त फसल अच्छी है से होती है। लोहा, सोना और वस्त्र के व्यापार में हानि होती है। कागज का मूल्य बढ़ता है । जेष्ठ माह में बुधवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़ने पर अशान्ति, कष्ट, भूकम्प, वजपात, रोग और धनहानि जैसी आपदाओं का सामना करना पड़ता है। जेष्ठ माह में गुरुवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़ने पर जनता को लाभ, शान्ति का विकास, पारस्परिक प्रेम और है सुभिक्ष का विस्तार होता है । जेष्ठ माह में शुक्रवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़ने पर कलाकारों को कष्ट, नेता की मृत्यु, प्रशासक वर्ग को है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ----निमितशास्त्रम् - [६५ । हानि, धनी-मानियों को विपत्ति और साधारण जनता में विशेष लाभ की स्थिति रहती है । जेष्ठ माह में शनिवार को गन्धर्वनगर दिखलाई। र पड़ने पर वर्षा का अभाव, जनता को कष्ट, अग्निभय की प्राप्ति, विषैले जन्तुओं का आतंक और तूफानों का वर्चस्व बना रहता है। 8 आषाढ़ माह में मंगलवार को गन्धर्वनगर के दर्शन होने पर अन्न सस्ता होता है, सोना और चाँदी के भाव में गिरावट आती है, देश का आर्थिक विकास होता है, सामाजिक सौहार्द्रता बढ़ती है और वर्षा अच्छी होती है । केवल लोहे के व्यापारियों को आर्थिक हानि सहन करनी पड़ती है । आषाढ माह में बुधवार को गन्धर्वनगर के दर्शन होने पर अच्छी वर्षा होती है, जनता को साधारण कष्ट होता है, व्यापार में साधारण लाभ मिलता है और वज्रपात का भय अधिक रहता है। आधार माह में गुरुवार को गन्धर्वनगर के दर्शन होने पर सभी प्रकार की सुख* शान्ति प्राप्त होती है। आषाढ़ माह में शुक्रवार को गन्धर्वनगर के दर्शन * होने पर वर्षा साधारण होती है । वस्त्र और कल-पुर्जी के व्यापार में अधिक लाभ होता है। प्रतिदिन प्रयोग में आने वाली वस्तुयें महँग हो जाती है। आषाढ़ माह में शनिवार को गन्धर्वनगर के दर्शन होने पर *वर्षी साधारण होगी और व्यापारियों को कष्ट होगा । प्रावण के महिने में गन्धर्वनगर यदि मंगलवार के दिन दिखलाई पड़े तो उस माह में वर्षा की कमी होगी । फसल साधारण होगी और में आपस में कलह की वृद्धि होगी । श्रावण के महिने में गन्धर्वजगर यदि । बुधवार के दिन दिखलाई पड़े तो अल्पवर्षा होगी । वस्त्र, सोना और चाँदी का भाव कम हो जायेगा परन्तु सभी प्रकार के अन्न के भावों में वृद्धि होगी । श्रावण के महिने में गन्धर्वनगर यदि गुरुवार के दिन दिखलाई पड़े तो वर्षा अच्छी होगी और जनसामान्य के आनन्द में वृद्धि । होगी । श्रावण के महिने में गन्धर्वनगर यदि शुक्रवार के दिन दिखलाई पड़े तो व्यापार में हानि और जनता की कष्ट होगा। श्रावण के महिने में * गन्धर्वनगर यदि शनिवार के दिन दिखलाई पड़े तो घोर दुर्भिक्ष होगा ऐसा जानना चाहिये। भाद्रपद माह में गन्धर्वनगर मंगलवार के दिन दिखाई देने पर अल्पवर्षा के कारण जनता को कष्ट और आर्थिक हाजि का सामना Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --लिमित्तशास्त्रम - * करना पड़ता है । भाद्रपद माह में गन्धर्वनगर बुधवार के दिन दिखाई। देने पर सुभिक्षता का विस्तार होता है, व्यापार में लाभ बहुत होता है। से परन्तु पशुओं में रोग फैलने की सम्भावना बढ़ जाती है। भाद्रपद माह में * गन्धर्वनगर गुरुवार के दिन दिखाई देने पर अतिवृष्टि, राजा की मृत्यु । और नागरिकों में अशान्ति होती है। भाद्रपद माह में गन्धर्वनगर शुक्रवार के दिन दिखाई देने पर जनता को विपदा, व्यापार में हानि और अनेक * प्रकार के उपद्रव होते हैं । भाद्रपद माह में गन्धर्वनगर शनिवार के दिन । दिखाई देने पर वर्षा कम होने के कारण धान्य महँगा हो जायेगा। आश्विन माह में संगालवार को गन्धर्वनगर दृष्टिगोचर होने पर शीत का प्रकोप बढ़ेगा, देश का विकास और खनिज पदार्थों में बहुलता। होती है । आश्विन माह में बुधवार को गन्धर्वनगर दृष्टिगोचर होने पर अच्छी वर्षा होगी परन्तु धान्य महँगा होगा । आश्विन माह में गुरुवार * को गन्धर्वनगर दृष्टिगोचर होने पर उससे आठवें दिन घोर वर्षा होगी । व्यापारी वर्ग के लिए उसदिन गन्धर्वनगर देखना शुभ माना गया है । आश्विन माह में शुक्रवार को गन्धर्वनगर दष्टिगोचर होजे पर धन और जन की वृद्धि होकर नागरिकों में आनन्द विकसित होता है । आश्विन माह में शनिवार को गन्धर्वजगर दृष्टिगोचर होने पर जनता को साधारण कष्ट होता है । वर्षा अच्छी होती है। कार्तिक मास में मंगलवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो अग्नि का प्रकोप, व्यापार में हानि और देश में अशान्ति होती है। कार्तिक मास में बुधवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो शीत के प्रकोप से मनुष्य और प्राणियों को अपार कष्ट होता है। कार्तिक मास में गुरुवार को. गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो जनता को अपार कष्ट होता है । कुछ ज्योतिर्विदों के मतानुसार ऐसा गन्धर्वजगर देखना औद्योगिक विकास के लिए उत्तम है । कार्तिक मास में शुक्रवार को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो जनता में सहयोगभावना की वृद्धि होती है। कार्तिक मास में शनिवार, को गन्धर्वनगर दिखलाई पड़े तो हिंसपशुओं के द्वारा मनुष्यों को कष्ट ६ होगा। ऐसे गन्धर्वनगर का दिखना व्यापार के लिए भी शुभ नहीं है। . मार्गशीर्ष के महिने में मंगलवार को गन्धर्वनगर देखने से अच्छी' ६ वर्षा के कारण फसल उत्तम होती है। मार्गशीर्ष के महिने में बुधवार को Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ----निर्मितशास्त्रम - ६७ गन्धर्वनगर देखने से जनता को कष्ट होता है । मार्गशीर्ष के महिने में। गुरुवार को गन्धर्वनगर देखने से देश का सर्वांगीण विकास होता है । मार्गशीर्ष के महिने में शुक्रवार को गन्धर्वनगर देखने से सुख और आरोग्य का वर्द्धन होता है । मार्गशीर्ष के महिने में शनिवार को , गन्धर्वनगर देखने से सुख और आरोग्य की हानि होती है। यदि उसदिन सायंकाल में पश्चिम दिशा में गन्धर्वनगर दिखें तो मारकाट और लूटपाट, की स्थिति बनने की पूर्ण सम्भावना होती है। पौष मास में मंगलवार के दिन दिखाई देने वाला गन्धर्वनगर में जनता को कष्ट पहुँचाता है । पौष मास में बुधवार के दिन दिखाई देने वाला गन्धर्वनगर धान्य के भाव में सस्तापन और सोने-चांदी के भाव में वृद्धि का संकेत देता है । पौष मास में गुरुवार के दिन दिखाई देने वाला मन्धर्वनगर जनता के सौख्य का वर्द्धन करता है। पौष मास में शुक्रवार के दिन दिखाई देने वाला गन्धर्वनगर घनघोर वर्षा और आर्थिक कष्ट को सूचित करता है । पौष मास में शनिवार के दिन दिखाई देने । वाला गन्धर्वनगर राजा और प्रजा के लिए अपार हानिकारक है। माघ मास में गन्धर्वनगर यदि मंगलवार को दिखाई दे तो चैत्रीय फसल अति उत्तम होगी, लौहव्यापार में लाभ होगा , रबर या । गोंद के व्यापार में हानि होगी, राजनीतिक उपद्रव होंगे और देश में ॐ अशान्ति फैलेगी । माघ मास में गन्धर्वनगर यदि बुधवार को दिखाई देवें तो उत्तम वर्षा, आर्थिक विकास और शान्ति की वृद्धि को प्रकट करता है। माघ मास में गन्धर्वनगर यदि गुरुवार को दिखाई देवें तो * सुभिक्षता और प्रसन्नता का कारण समझना चाहिये । माघ मास में गन्धर्वनगर यदि शुक्रवार को दिखाई देखें तो शान्ति, लाभ और आनन्द के विकास का सूचक है । माघ मास में गन्धर्वजगर यदि शनिवार को दिखाई दे तो अपार कष्ट होगा । लेकिन उस दिन प्रातःकाल गन्धर्वनगर का दिखना शुभ है। फाल्गुन मास में मंगलवार के दिन गन्धर्वनगर का दिखाई देना। गेहूँ, धान, ज्वार, जौ, गन्ना आदि के भावों के बढ़ने का संकेतकारी - माना गया है। ऐसा गन्धर्वनगर व्यापारियों , राजनेताओं एवं कलाकारों " की दृष्टि से उत्तम माना गया है । फाल्गुन मास में बुधवार के दिन Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --निमिनशास्त्रम -- गन्धर्वनगर का दिखाई देना फसल की कमी, राजा या शासकीय अधिकारी का विनाश, पंचायत में मतभेद और सोने-चांदी के व्यापार में लाभ का गुजार में गुरुवार के दिन गन्धर्वनगर का दिखाई देना पीले वस्तुओं के भाव का गिरने का संकेत करता है। इससे यह भी जाना जाता है कि लाल रंग की वस्तुओं के भाव बढ़ेंगे । फाल्गुन . मास में शुक्रवार के दिन गन्धर्वनगर का दिखाई देना वर्षा के समय पर पड़ने की सम्भावना को अभिव्यक्त करता है। ऐसे गन्धर्वनगर से पत्थर और चूने के व्यापार में विशेष लाभ होता है परन्तु जूट आदि के व्यापार: में घाटा होता है । फाल्गुन मास में शनिवार के दिन गन्धर्वनगर का दिखाई देना शुभ वर्षा और अच्छी फसल का संकेत करता है। गन्धर्वनगर के विषय में इतना विशेष जानना चाहिये कि उसका फलादेश अवगत करते समय उसकी आकृति, रंग, सौम्यता अथवा कुरूपता पर भी ध्यान देना पड़ता है। - जो गन्धर्वनगर जितना अधिक स्वच्छ होगा उसका फल उतना ही अच्छा और पूर्ण होगा। कुरुप और अस्पष्ट दिखने वाले गन्धर्वनगर तुका फल अतिशय अल्प होता है । पूर्वाह्नादि काल के कारण से फल में भी १ अन्तर होता है। ग्रन्थकर्ता ने दिशा, ऋतु और रंग के आधार से गन्धर्वनगर के फल का वर्णन विस्तार से किया ही है। व वराहमिहिर ने उत्तर, पूर्व, दक्षिण और पश्चिम दिशा के गन्धर्व -नगर का फल क्रमशः पुरोहित, राजा, सेनापति और युवराज को विघ्नकारक माना है। श्वेत, रक्त, पीत और कृष्णवर्ण के गन्धर्वनगर को क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शुद्रों के नाश का कारण माना है। यदि सभी दिशाओं में गन्धर्वनगर दिखाई देवें ती राजा और राज्य इन दोनों के लिए अत्यन्त भयप्रद है। यदि गन्धर्वनगर धूम, अग्नि या इन्द्रधनुष के समान हो तो चोर और वनवासियों के लिए महान कष्टकारक है। पाण्डुरंग का गन्धर्वनगर वज्रपात का सूचक है। अनेक वर्णो की पताका से युक्त गन्धर्वनगर मुख्यरूप से महाभयंकर युद्ध होने की सूचना देता है। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पलपतन प्रकरण उप्पलयाणय पडणं उप्पाय णिमित्तकारणं छाणं । जइ उपलया पडता बहुविहरूवेहि सव्वत्य ॥१४८॥ अर्थ : निमित्तशास्त्रम् पत्थरों का पड़ना कई तरह से होता है और पत्थर भी अनेक तरह के होते हैं। इसलिए उनका निमित्त बताता हूँ । ६९ माला सरिच्छसरिसं खज्जूरीफलसमाणरूवाव । जय णिवर्डतियकरया तत्थ सुभिक्खंति णायव्वं ॥ १४९ ॥ अर्थ : जहाँ पर चावल, गिरें, वहाँ पर सुभिक्ष होगा । सरसों अथवा खजूर के फल के समान पत्थर वाधीफलसरिसावा मंजूसावारसरिस रूवाव । जय निवडंतिय करया तत्थ सुभिक्खंति णायव्यं ॥ १५०॥ अर्थ : बेर, मूंग और अरहर के समान पत्थरों का पड़ना सुभिक्ष को करने वाला है ऐसा जानना चाहिये । संबुक्क सुत्तिसरिसा घोरं वरिसंकरं णिवेइत्ति । जइ विडंति रसाणां वभूद वरिसागमा भणिया ॥ १५१ ॥ अर्थ : शंख और शुक्ति के समान शुभ व छोटे अथवा मसूर के समान पत्थर गिरे तो वे पानी बरसने की सूचना देते हैं । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रम् मंडुक्क कुंभसरिसा गजदंतसमाण रूवसे कासा । जइ दीसंत पडता देसविणासं तु णायव्वं ॥ १५२ ॥ अर्थ : ७० मेंढक, घड़े या हाथी के हाँत के समान पत्थर बरसने पर देश का ' अवश्य नाश होगा । करिकुंभछत्तसरिसा थाली वज्जोयमा जइ पडंति । कुव्वंति देसणासं रायाणं सव्वा विणासंति ॥१५३॥ अर्थ : घड़ा, हाथी, छत्र, थाली और वज्र के आकार को धारण करने वाले पत्थर गिरने पर देश का नाश होता है व राजा की मृत्यु होती है । प्रकरण का विशेषार्थं आकाश से अकस्मात् पत्थरों की वर्षा होती है। उनके कारण से प्राप्त होने वाले शुभ और अशुभ फलों का वर्णन इस उपलपतन नामक प्रकरण में किया गया है। जिस क्षेत्र में चावल के समान आकार वाले पत्थर बरसते हैं, उस देश में सुभिक्ष फैलेगा । यही फल सरसों के समान, खजूर के समान, बेर के समान, मूंग के समान और अरहर के समान पत्थरों के पड़ने पर होता है। जिस क्षेत्र में शंख और शुक्ति के समान आकार वाले अथवा मसूर के समान पत्थर बरसते हैं, उस देश में निकट भविष्य में अच्छी वर्षा होने 'वाली है ऐसा जानना चाहिये । .. जिस क्षेत्र में मेंढक, घड़े और हाथियों के दाँतों के समान आकार, वाले पत्थर बरसते हैं, उस देश का नाश अवश्य ही होगा । जिस क्षेत्र में हाथी, छत्र, थाली और वज्र के समान आकार वाले 'पत्थर बरसते हैं, उस देश का नाश तो अवश्य होगा, साथ में राजा की मृत्यु भी हो जायेगी । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमितशास्त्रम ल्लताप्रकरण इंदम्मि दिसाभाएजइ विज्जसंपयासएजस्था। वाउम्मासियवरिसंतस्थय होहिंतणायव्वं॥१५४॥ अर्थ : यदि उत्तरदिशा की ओर बिजली चमके तो हवा चलकर पानी । पड़ेगा। अग्गीयेजइ दीसइवाही मरणंचतत्थको वेदि। तयमासियंचवरिसंमासंतुणवरसएदेवो॥१५५|| अर्थ : अग्नेयकोण में बिजली चमके तो व्याधि व मृत्यु की सूचक है। तथा तीन माह तक पानी बरसेगा ऐसा वह बताती है। है विसएगामेणयरेतस्स विणासोहवइणिहिछो। र अहिदंसमसयमूसय उपत्तीणस्थिसंदेहो||१५६॥ अर्थ :व उससे शहर अथवा गाँव का अवश्य नुकसान होगा और सर्वत्र डांस, मच्छर व चूहों की उत्पत्ति होगी। इसमें किसीप्रकार का सन्देह नहीं है। व जम्मादुपुणो दिवो सुभिक्ख अरोगियाहवइ विज्जू। साकुणइगभणासंबालविणासंचणियमेण॥१५७|| अर्थ : दक्षिणदिशा में बिजली चमकने पर सुभिक्ष और निरोगता की। सूचना देती है, परन्तु गर्भ का नाश व बच्चों को दुःख भी होता है। वाउम्मासिय वरिसंकालेकालेयवारिसयेदेवो। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशारश्रम जइणेरइइदिसायेविज्जलवंतीयदीसिज्ज॥१५८॥ अर्थ :की यदि नैऋत्यकोण में बिजली चमके तो हवा अधिक चलेगी तथा समय पर पानी बरसेगा। अह क्यच्छ दिसाय बायदिवाई विणासए वरिसं। चोरा हंतिय बहुयादंसविणासं कुणइराया॥१५९॥ अर्थ : यदि वायव्यकोण में बिजली चमकें तो हवा अधिक चलेगी परन्तु पानी कम पड़ेगा। चोर अधिक होंगे व राज्य व देश का नाश होगा। अहवारुणीय दिलबहुवरिसइ कुणइखेम सुभिक्खं। वायव्वेरोगभयं विप्पाण भयंकरोविज्जू॥१६०|| अर्थ :ए वरुणदिशा में चमकती हुई बिजली कुशल और सुभिक्ष का कारण है। वायव्यदिशा की बिजली रोग का भय और ब्राह्मणों को भय का "कारण है। बहुपरिसइजइइंदोसस्साणयतस्स होइणिप्पत्ती। सोमाएजइदीसइसीयलवायुव्व विज्जू॥१६१॥ अर्थ : यदि बिजली पश्चिमदिशा में चमक रही हो तो वर्षा बहुत अच्छी अहोगी । उस नगर में अच्छा अनाज होगा और हवा ठण्डी चलेगी। अहवारायविणासंचोराणभयंअहणिवेदेइ। ईसाणीणुसुभिक्खंरोगोहाणीयवाहिणासयरी॥१६२।। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रम् अर्थ : ईशानकोण की बिजली राजमृत्यु, चोरभय, सुभिक्ष व रोगहानि । को बतलाती है। प्रकरण का विशेषार्थ बिजली के चमकने को विद्युल्लता योग कहते हैं। पूर्वदिशा में श्वेत या पीतवर्ण की बिजली कड़के तो वर्षा नियम से होगी । पूर्व दिशा में रक्तवर्णीय बिजली कड़कने पर वायु चलेगी पर। मन्द वर्षा होगी । मन्द-मन्द चमकने के साथ जोर-जोर से बिजली कइके और एकाएक आकाश से बादल हट जावें तो वर्षा के साथ ओले पड़ेंगे । पूर्वदिशा में केशरिया रंभ की बिजली चमकने पर अगले दिन । तेज धूप पड़ेगी व मध्याह्नोत्तर काल में अत्यधिक वर्षा होगी। यदि पश्चिमदिशा में साधारणरूप से मध्यरात्रि में बिजली चमकती है तो तेज धूप पड़ेलो । स्निग्ध विघुत यादे पश्चिमदिशा में । , कड़ाके के शब्द के साथ चमकती है तो धूप होने के बाद जल की वर्षा होती है । यहाँ पर इतनी बात और समझ लेना चाहिये कि जल की वर्षा है है के साथ-साथ तूफान भी रहता है । अनेकों वृक्ष धराशायी हो जाते हैं, और पशु-पक्षियों को अनेक प्रकार के कष्ट भी होते हैं। जिस समय आकाश बादलों से आच्छादित हो, चारों ओर अन्धकार छाया हुआ हो, उस समय नीले रंग का प्रकाश करती हुई बिजली चमके, साथ ही भयंकर शब्दों की आवाज भी हो तो अगले दिन तीन वायु बहने की सूचना समझानी चाहिये और वर्षा भी तीन दिनों के बाद होती है ऐसा इस निमित्त से समझना चाहिये । फसल के लिए इस प्रकार । है की बिजली विनाशकारी मानी गई है। यदि पश्चिमदिशा की ओर से विचित्रवर्ण की बिजली निकलकर चारों ओर घूमती हुई चमकती हो तो अगले तीन दिनों में वर्षा होगी। इस प्रकार की बिजली फसल में भी वृद्धि करने वाली होती है। गेहूँ, जौ, धान और ईख की वृद्धि विशेषरूप से होती है। यदि पश्चिमदिशा में रक्तवर्ण की प्रभावयुक्त बिजली धीमे-धीमे शब्द के साथ उत्तरदिशा की। ओर गमन करती हुई दिखाई पड़े तो अगले दिन तेज हवा चलती है और * बहुत तेज धूप पड़ती है। इसप्रकार की बिजली दो दिनों में वर्षा होने की Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ निमित्तशास्त्रम सूचना देती है। जिस बिजली से रश्मियाँ निकलती हो, ऐसी बिजली पश्चिमदिशा में गड़गड़ाहट शब्द के साथ चमके तो निश्चित रूप से अगले तीन दिनों तक वर्षा का अवरोध होता है । आकाश में बादल तो छाये। रहते हैं, परन्तु वर्षा नहीं होती। काले रंग के बादलों में पश्चिमदिशा से पीले रंग की विद्युत् धारा । प्रवाहित हो और यह अपने तेज प्रकाश के द्वारा आँखों में चकाचौंध उत्पन्न कर दे तो वर्षा कम होगी ऐसा समझना चाहिये । हवा के साथ। बूंदा-बाँदी ही होकर रह जाती है । धूप भी इतनी तेज पड़ती है कि इस बूंदा-बाँदी का भी कुछ प्रभाव नहीं होता । पश्चिम दिशा की ओर से बिजली निकलकर पूर्व दिशा की ओर जाये तो प्रातः में कुछ वर्षा होती है। और इस वर्षा का जल फसल के लिए अत्यधिक लाभयुक्त सिद्ध होता है। अतः फसल के लिए इसप्रकार की बिजली उत्तम मानी गई है। उत्तरदिशा में बिजली चमके तो नियम से वर्षा होती है । उत्तर दिशा में कड़कड़ाहट के साथ बिजली चमके और आकाश में मेघ छाये हुए हैं हो तो प्रातःकाल में बहुत तेज वर्षा होती है। जब गगन में नीले रंग के में बादल छाये हो और उसमे पीले रंग की बिजली चमकती हो तो साधारण । वर्षा के साथ हवा का भी प्रकोप समझना चाहिये । से जब उत्तरदिशा में मन्द-मन्द शब्द करती हुई बिजली कड़कती है, उस समय हवा चलने की ही सूचना समझनी चाहिये । हरे और पीले रंग के बादल आकाश में हों तथा उत्तरदिशा में रह-रहकर बिजली चमकती हो तो वर्षा का योग विशेषरूप से समझना चाहिये । यह वृष्टि स्थान से । सौ कोस की दूरी तक होती है तथा पृथ्वी जल से पूरित हो जाती है। * लालरंग के बादल जब आकाश में हो, उस समय यदि दिन में बिजली का प्रकाश दिखाई पड़े तो वर्षा के अभाव की सूचना समझनी। चाहिये । इसप्रकार की बिजली दुष्काल पड़ने की भी सूचना देती है । यदि इसी प्रकार की बिजली आषाढ माह के प्रारम्भ में दिखाई पड़े तो उस वर्ष में दुष्काल का योग समझ लेना चाहिये। प्र वायव्यकोण में बिजली गड़गड़ शब्द के साथ चमके तो अल्प जल की वर्षा समझनी चाहिये । वर्षा के काल में ही उक्तप्रकार की बिजली, का निमित्त घटित होता है। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रम [७५ ] * ईशानकोण में तिरछी चमकती हुई बिजली पूर्व दिशा की ओर गमन करे तो जल की वर्षा होती है। यदि इस कोण की बिजली गर्जना के साथ चमके तो उसे तूफान की सूचना समझनी चाहिये । आषाढ़ और श्रावण माह में उत्तम प्रकार की विधुत का यह फल धाटत होता है। दक्षिणदिशा में बिजली का प्रकाश उत्पन्न हो और सफेद रंग । है की चमक दिखाई पड़े तो सात दिनों तक लगातार जल की वर्षा हो सकती है। दक्षिण दिशा में यदि मात्र बिजली की ही चमक दिखाई पड़े। तो धूप होने की सूचना समझनी चाहिये । जब लाल और काले रंग के बादल आकाश में छाए हुए हो और बार-बार तेजी से बिजली चमकती हो । तो साधारणतया पूरे दिन धूप रहने के पश्चात् रात में वर्षा होती है। दक्षिणदिशा से पूर्व दिशा में गमन करती हुई बिजली चमके और उत्तर दिशा में इसका तेज प्रकाश भर जाये तो तीन दिनों तक सतत जल की वर्षा होती है। यहाँ इतना और विशेषरूप से समझा लेना चाहिये कि वर्षा । है के साथ-साथ ओले भी पड़ते हैं। यदि इसप्रकार की बिजली शरदऋतु में । चमकती है तो जियम से ओले ही पइते हैं, जल की वर्षा नहीं होती। ग्रीष्म ऋतु में उक्त प्रकार की बिजली चमकती है तो वायु के साथ तेज धूप पड़ती है परन्तु वर्षा नहीं होती। गोल आकार के रूप में दक्षिणदिशा में बिजली चमके तो आगे आने वाले ग्यारह दिनों तक जल की अखंडित वर्षा होती है। इस प्रकार की बिजली अतिवृष्टि की सूचना देती है। आषाढ़ वढी प्रतिपदा को दक्षिणदिशा में आवाजरहित बिजली १ चमकती है तो आगामी वर्ष में फसल निकृष्ट होती है । उत्तरदिशा में * आवाजरहित बिजली चमकती है तो फसल साधारण होती है । पश्चिम दिशा में आवाजरहित बिजली चमकती है तो फसल मध्यम होती है और पूर्वदिशा में शब्दरहित बिजली चमकती है तो उस वर्ष में फसल बहुत अच्छी होती है। यदि इन्हीं दिशाओं में शब्दसहित बिजली चमके तो क्रम से आधी, तिहाई, साधारणतः पूर्ण और सवाई फसल उत्पन्न होती है। यदि आषाढ वदी व्दितीया चतुर्थी से विद्ध हो और उसमें दक्षिण दिशा से निकलती हुई बिजली उत्तरदिशा की ओर जाटो तथा इसकी चमक बहुत तेज हो तो उसे घोर दुर्भिक्ष की सूचना समझनी चाहिये। इस Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RKETAH [७६ में प्रकार की बिजली से वर्षा भी अवरुद्ध होती है । तेज चमचमाहट करती। हुई चमकने वाली बिजली को वर्षा का अभाव और घोर उपद्रव की सूचना समझनी चाहिये। र ऋतुओं के अनुसार भी विद्युत् के चमकने से प्राप्त होने वाले फल में परिवर्ततन होते रहते हैं। यथा - ईशिशिरक्रतु :- माय और फाल्गुन मास में आने वाले ऋतु को शिशिर , । कहा जाता है । इस ऋतु में नीले या पीले वर्ण की बिजली चमके तथा । आकाश सफेद वर्ण का दिखाई पड़े तो डोलों के साथ-साथ जलवर्षा र होती है । यह वर्षा कृषि के लिए हानिकारक होती है। माघ कृष्णा प्रतिपदा को बिजली चमकती है तो गुड़, चीनी. मिश्री है, आदि वस्तुयें महँगी होती हैं तथा कपड़ा, सूत, कपास, रुई आदि वस्तुयें । सस्ती हो जाती हैं। शेष वस्तुओं का मूल्य सामान्य रहता है। इस दिन में बिजली का मरजना बीमारियों की सूचना भी देता है। * माघ कृष्णा द्वितीया, षष्ठी और अष्टमी को यदि पूर्वदिशा में * बिजली दिखाई पड़े तो आने वाले वर्ष में अधिक व्यक्तियों के अकाल * मरण होने की सूचना समझनी चाहिये । यदि चन्द्रबिम्ब के चारों ओर है परिवेष होने पर उस परिवेष के समीप ही बिजली चमकती हुई दिखाई। पड़े तो आगामी आषाढ़ माह में अच्छी वर्षा होती है। माघ कृष्णा द्वितीया । को गर्जना के साथ बिजली दिखाई पड़े तो आने वाले वर्ष में फसलर साधारण तथा वर्षा की कमी होती है। माघ माह की पूर्णिमा को मध्यरात्रि में उत्तर और दक्षिणदिशा में चमकती हुई बिजली दिखाई पड़े तो आने वाला वर्ष राष्ट्र के लिए उत्तम * होता है । व्यापारियों को भी सभी वस्तुओं के व्यापार में लाभ होता है। यदि दूसरी रात्रि में चन्द्रोदय के समय ही अडतालिस मिनट तक बिजली चमकती है तो आने वाले वर्ष में उस राष्ट्र में अनेक प्रकार की विपत्तियों का सामना करना पड़ेगा । फाल्गुन माह की कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा, द्वितीया और तृतीया *को मेघ आकाश में छाए हुए हो और उसमें पश्चिमदिशा की ओर बिजली चमकती हुई दिखाई पड़े तो आने वाले वर्ष में फसल अच्छी होती है और तत्काल ओलों के साथ-साथ जल वृष्टि होती है । यदि होली की रात्रि में । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रम् (७७) र पूर्वदिशा में बिजली चमके तो आने वाले वर्ष में अकाल, वर्षा का अभाव, बीमारियों की वृद्धि एवं धन-धान्य की हानि होती है। दक्षिण दिशा में र बिजली चमके तो आने वाले वर्ष में साधारण वर्षा, चेतक का विशेष प्रकोप, अन्न एवं खनिज पदार्थ सामान्यरूप से महँगे होते हैं। पश्चिम दिशा की ओर से निकली सके तो उपहा. हागडे, ... Pi.बरी. हत्यायें एवं आने वाले वर्ष में अनेक प्रकार की विपत्तियों का आगमन होगा। उत्तरदिशा में बिजली चमके तो अग्नि का भय, आपसी विरोध, नेताओं में मतभेद, आरम्भ में वस्तुयें सस्ती बाद में महंगी होगी एवं आकरिमक दुर्घटनाओं में वृद्धि हो जायेगी । होली के दिन आकाश में बादलों का छाना और बिजली का चमकना अशुभ है। वसन्तक्रतु :- चैत्र और वैशाख माह में आने वाले ऋतु को तसन्तऋतु कहा जाता है। इस ऋतु में बिजली का चमकना प्रायः निरर्थक होता है। चैत्र कृष्णा प्रतिपदा को आकाश में बादल व्याप्त हो और बूंदाबाँदी के साथ-साथ बिजली चमके तो आने वाले वर्ष के लिए अत्यन्त अशुभ होता है। फसल तो नष्ट होती ही है मगर साथ ही मोती, माणिक्य आदि जवाहरात भी नष्ट होते हैं। यदि उस दिन देवसिक काल में बादल में छा जाये और वर्षा के साथ बिजली चमके तो अत्यन्त अशुभ होता है। आगामी वर्ष के लिए उक्त प्रकार का निमित्त विशेषरूप से अशुभ की सूचना देता है । चैत्र कृष्ण प्रतिपदा तृतीया से विद्ध हो तथा उस दिन भरणी नक्षत्र हो तो इस दिन चमकने वाली बिजली आने वाले वर्ष में मनुष्य और पशुओं के लिए नाना प्रकार के अरिष्टों की सूचना देती है। 8 पशुओं में आगामी आश्विन, कार्तिक, माघ और चैत्र माह में भयानक ! रोग फैलता है तथा मनुष्यों को भी इन्हीं माहों में बीमारियाँ होती हैं। इसके बिजली को भूकम्प की सूचना भी समझनी चाहिये। चैत्र माह की पूर्णिमा को अचानक आकाश में बादल छा जायें और पूर्व और पश्चिम दिशा में बिजली गरजे तो आने वाला वर्ष उत्तम रहता है और वर्षा भी अच्छी होती है। फसल के लिए यह निमित्त बहुत अच्छा है । इसप्रकार के निमित्त से सभी वस्तुओं का मूल्य घट जाता है। वैशाख माह की पूर्णिमा को दिन में तेज धूप हो और रात्रि में १ बिजली चमके तो आने वाले वर्ष में वर्षा अच्छी होती है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CREE: में ग्रीष्मऋतु:- ज्येष्ठ और आषाढ़ माह में आने वाले ऋतु को ग्रीष्मऋतु । कहा जाता है। इस ऋतु में साधारणतः बिजली चमके तो वर्षा नहीं होती है। ज्येष्ठ माह में बिजली चमकने का फल मात्र तीन दिन घटित होता है. शेष दिनों में कुछ भी फल नहीं मिलता । ज्येष्ठ कृष्णा प्रतिपदा, ज्येष्ठ । कृष्णा अमावस्या और पूर्णिमा इन तीन दिनों में बिजली चमकने पर। ईविशेष फल की प्राप्ति होती है । यदि प्रतिपदा को मध्यरात्रि के बाद निरभ्र आकाश में दक्षिण और उत्तरदिशा की ओर गमन करती हुई बिजली दिखाई पड़े तो आने । वाले वर्ष के लिए अनिष्टकारक फल होता है। पूर्व और पश्चिमदिशा संध्याकाल के दो घंटे बाद तड्-तड् करती हुई बिजली इसी दिन दिखाई पड़े तो घोर दुर्भिक्ष और शब्दरहित बिजली दिखाई पडे तो समयानुसार, वर्षा होती है। अमावस्या के दिन बूंदा-बाँदी के साथ बिजली वमके तो जंगली जानवरों को कष्ट, धातुओं की उत्पत्ति में कमी एवं नागरिकों में परस्पर कलह होता है। ज्येष्ठ माह की पूर्णिमा को आकाश में बिजली तड्-तइ शब्द के र * साथ चमके तो वह आने वाले वर्ष के लिए शुभ होती है। उस वर्ष समय के अनुसार वर्षा होगी। उस समय में धन-धान्य की उत्पत्ति अधिक परिमाण में होती है। वर्षाक्रतु:- श्रावण और भाद्रपद में आने वाले ऋतु को वर्षाऋतु कहते हैं। इस ऋतु में ताम्म्रवर्ण की बिजली चमकती है तो वर्षा का अवरोध अवश्य होता है। श्रावण माह में कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा, द्वितीया, सप्तमी, एकादशी, चतुर्दशी और अमावस्या आदि तिथियों में तथा श्रावण माह में शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा, पंचमी, अष्टमी. दाइशी और पूर्णिमा इन ! तिथियों में विद्युत् के निमित्त को अवगत कर लेना विशेषरूप से महत्वपूर्ण माना गया है। शेष रही तिथियों में लाल और सफेद रंग की बिजली चमकने से वर्षा का संकेत प्राप्त होता है और अन्य रंग की बिजली चमकने । कसे वर्षा के अभाव का स्सन होता है। श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को रात में लगातार दो घण्टे तक बिजली चमकती रहे तो श्रावण माह में वर्षा की कमी होती है। द्वितीया को रह Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -निर्मितशास्त्रम् - रहकर बिजली चमके तथा गर्जन भी होता हो तो भाद्रपद में कम वर्षा होती है और श्रावण माह में साधारण वर्षा होती है। श्रावण कृष्णा सप्तमी को पीले रंग की बिजली चमके तथा 1 *आकाश में नाना रंग के बादल एकत्रित हो तो सामान्यरूप से वर्षा होती है। एकादशी को निरभ गगन में बिजली चमके तो फसल में कमी और अनेक प्रकार से अशान्ति की सूचना समझानी चाहिये। चतुर्दशी के दिन यदि दिन में बिजली चमके तो उत्तम वर्षा होती। है और रात में चमके तो साधारण वर्षा होती है। अमावस्या के द्विज यढि हरित, जील और तामवर्ण की बिजली चमकती रहे तो वर्षा का अवरोध होता है। भाद्रपद माह में कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को निरभ गगन में बिजली चमके तो अकाल की सूचना और बादलों से आच्छादित । गगन में बिजली चमकती हुई दिखाई पड़े तो सुभिक्ष की सूचना समझनी । चाहिये । कृष्णपक्ष की सप्तमी और एकादशी को गर्जना के साथ-साथ । स्निग्ध और रश्मि से युक्त बिजली चमके तो परम सुभिक्ष का विस्तार होगा । समयानुसार वर्षा होगी और सभी प्रकार के वर्षों में सन्तोष होगा। एवं सभी वस्तुयें सस्ती होती हैं। पूर्णिमा और अमावस्या को बूंदा-बूंदी के साथ-साथ बिजली आवाज करती हुई चमके तो वर्षा अच्छी होती है । तथा फसल भी अच्छी होती है। शरक्क्रनु :- आश्विन और कार्तिक माह में आने वाले ऋतु को में - बिजली का चमकना निरर्थक होता है । केवल दशहरे के दिन बिजली चमके तो आने वाले वर्ष के लिए अशुभ सूचना समझनी चाहिये। कार्तिक माह में भी बिजली चमकने का फल अमावस्या और पूर्णिमा के अतिरिक्त अन्य तिथियों में नहीं होता है । अमावस्या को बिजली चमकने से खाधपदार्थ महँगे और पूर्णिमा को बिजली चमकने र से रासायनिक पदार्थ महँगे होते हैं। हेमन्तक्रतु :- मार्गशीर्ष और पौष माह में आने वाले ऋतु को हेमन्त * ऋतु कहा जाता है। इस ऋतु में काली और ताम्रवर्ण की बिजली चमकने से वर्षा का अभाव तथा लाल, हरी, पीली और रंग-बिरंगे वर्ण की बिजली १ चमकने से वर्षा होती है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रम ---- ८० मेघयोगप्रकरण अहमग्गासिर देवेवरसइजत्थेय देस णयरम्मि। सोमुयइजिट्टमासेसलिलंणियमेणतत्थय।।१६३॥ अर्थ : यदि मार्गशीर्ष माह में पानी बरसे तो जेठ माह में पानी का अवश्य नाश होगा। अहपोसमास वरिसइ विज्जलउणहयलम्मिजइ देवो। छट्टेमासे वरिसइ बहुयंचवपुचएतत्थ||१६४|| अर्थ : यदि पौष मास में बिजली चमकते हुए पानी बरसे तो आषाढ़ माह र से में अच्छी बरसात होगी। अहमाहफम्गुणेसुयदीतीणभियाउअभाउ। ई छ उणवउ मासे वरिसइदेमुत्तिणायव्वो॥१६५॥ अर्थ : माघ और फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष में यदि लगातार तीन दिन वर्षा हो तो छठे माह या नौवें माह में पानी अवश्य बरसेगा। अब्भाणेमेहपत्तीकालेकालेजहापयासिज्ज। में तोहोहदिवाहिभयं वासररत्तेण संदेहो॥१६६॥ अर्थ : यदि आकाश में बादल छाये रहे और प्रति समय बरसते रहे तो वहाँ पर रात-दिन व्याधि रहेगी । इसमें किसीप्रकार का सन्देह नहीं है। अह कित्तियाहिवरसइ सरसाणविणासणोहवइ देवो। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमितशास्त्रम [८१ । रोहिणि सुशुपत्ती देएसविणशि संदेहो|१६|| अर्थ : कृतिकानक्षत्र में यदि वर्षा होवे तो अनाज की हानि होती है। यदि रोहिणीनक्षत्र में वर्षा होती है तो देश की हानि होती है। जइमयसिरम्मिवरसइतत्थ सुभिक्खं तिहोइणायव्वो। अदाए चित्तलवो पुणव्वसेमास वरिसंति॥१६८|| अर्थ : मृगशिर नक्षत्र में पानी बरसने घर अवश्य सुभिक्षा होगा । यदि आर्द्रा नक्षत्र में वर्षा होवे तो खण्डवृष्टि होगी । यदि पुनर्वसु नक्षत्र में पानी गिरे तो एक माह तक वर्षा होगी । पुस्से वाउम्मासं सस्साणयउच्छहोइसंपत्ति। असलेसेबहुउदयं सस्साण विणासणंहोई॥१६९॥ अर्थ : यदि पुष्य नक्षत्र में पानी बरसे तो श्रेष्ठ वर्षा होगी और अनाज अच्छा होगा। यदि आश्लेषा नक्षत्र में पानी बरसे तो अनाज की हानि होगी। __ मह फागुणी हिवरसइखेम सुभिक्खं हवेइणायव्वं। है उत्तरफागुणि हत्थेखेम सुभिक्खं वियाणाहि॥१७०|| अर्थ : यदि मघा व पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में पानी बरसे तो कुशल और सुभिक्ष होता है। यदि उत्तराफाल्गुनी और हस्त नक्षत्र में पानी बरसे तो में भी यही फल जानना चाहिये। ___चित्ता हिमंदवरिसं साइहिमिह वइवादि परिखेऊ। बहुवरिसंचविसाहाअणुहाहेणाविबहुवरिसं॥१७१|| Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -निमित्तशार्यरत ..... अर्थ :ॐ चित्रा नक्षत्र में पानी बरसने पर वर्षा मन्द होगी । यदि स्वाती नक्षत्र में पानी पड़े तो वर्षा अल्प होगी । विशाखा या अनुराधा नक्षत्र में वर्षा होने पर उस वर्ष पानी खूब बरसेगा । जिट्ठिसुअण्णादिठ्ठीमूलेणुदयं णिरंतरं देइ। तइहोइ वाइवरिसंउत्तरपुट्वेण संदेहो॥१७२|| अर्थ : यदि जेष्ठा नक्षत्र में पानी बरसे तो पानी की कमी होगी । मूल नक्षत्र में वर्षा होने पर पानी अच्छा गिरेगा । पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ाई नक्षत्र में पानी बरसे तो पानी अच्छा बरसेगा व हवा भी चलेगी। इसमें । किसीप्रकार का सन्देह नहीं है । है सवणे कत्तियमासे वरिसंणासेइणस्थिसंदेहो। उदये हवइधणाए वरिसइदेऊणसंदेहो॥१७३॥ अर्थ :ॐ श्रवण नक्षत्र में यदि वर्षा हो तो कार्तिक माह में पानी का नाश होगा और यदि घनिष्ठा नक्षत्र में पानी बरसे तो वर्षा खूब होगी। सयभिसुभद्दव आऊ पुव्युत्तरया वि बहुजलदीति। रेवईअस्सिणि भरणी वासारत्तेसुहिदित्ति॥१७४|| अर्थ :३ शतभिषा, पूर्वभाद्रपदा और उत्तर भाद्रपदा इन तीन नक्षत्रों में वर्षा होने पर बहुत वर्षा होगी । रेवती, अश्विनी अथवा भरणी इन तीन नक्षत्रों में वर्षा होना सुखदायक है। एएरिक्खवयोगा वासासरसगडभकालम्मि। o णिच्चवचिंतयंतोणाणविदगसोहणोहोदी॥१७५|| Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CENSED निमित्तशास्त्रम ८३ अर्थ : जो नक्षत्रों के योग कहे गये हैं, उन्हें गर्भकाल कहा गया है। जो ' ज्ञानीजन इनके अनुसार कार्य करते हैं उनको निश्चित ही फल मिलता है । प्रकरण का विशेषार्थ - सत्ताईस नक्षत्र हैं । ग्रन्थकर्त्ता ने किस नक्षत्र पर वर्ष की प्रथम वर्षा होने पर क्या फल होता है? इसका वर्णन किया ही है। अन्य संहिता' ग्रन्थों में प्रथम वर्षांनक्षत्र के फल निम्नांकित हैं१ = अश्विनी :- अश्विनी नक्षत्र के प्रथम चरण में वर्षा का आरम्भ होने से चातुर्मास में अच्छी वर्षा होती है और फसल भी अच्छी होती है। विशेषतः चैत्रीय फसल अच्छी होती है। मनुष्य और पशुओं को सुखशान्ति प्राप्त होती है। यद्यपि इस वर्ष वायु और अग्नि का अधिक प्रकोप होता है, फिर भी किसी प्रकार की बड़ी क्षति नहीं होती है। ग्रीष्म ऋतु में लू अधिक चलती है तथा गर्मी में भीषणता होती है। देश के नेताओं में मतभेद और उपद्रव होते हैं। व्यापारियों के लिए यह वर्षा लाभदायक होती है । अश्विनी नक्षत्र का प्रथम चरण लगते ही वर्षा का आरम्भ हो और समस्त नक्षत्र के अन्त तक वर्षा होती रहे तो वह वर्ष उत्तम नहीं। रहता है। चातुर्मास के उपरान्त जल नही बरसता, फसल भी अच्छी नहीं होती । अश्विनी नक्षत्र के अन्तिम चरण में वर्षा होने पर पौष में वर्षा का अभाव तथा फाल्गुन में वर्षा का बोध होता है। इस चरण में वर्षा का आरम्भ होना साधारण होता है। वस्तुओं के भाव नीचे रहते है। आश्विन मास से वस्तुओं के भावों में उन्नति होती है। व्यापारिओं में अशान्ति रहती है। प्रायः बाजारभाव अस्थिर रहता है। अश्विनी नक्षत्र के चतुर्थ चरण में वर्षा का आरम्भ होने पर उत्तम वर्षा और अच्छी फसल होती है। २= भरणी :- भरणी नक्षत्र में वर्षा का आरम्भ होने पर वर्षा का अभाव रहता है अथवा अल्पवर्षा होती है। फसल के लिए उक्त वर्षा अच्छी : Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (निमितशास्त्रम नहीं होती। उक्त नक्षत्र की वर्षा बीमारियों को फैलाती है । यदि भरणी नक्षत्र का क्षय हो और कृत्तिका नक्षत्र में वर्षा हो तो उत्तम है। भरणी प्रथम और तृतीय चरण की वर्षा उत्तम है। जनता में शान्ति रहती है और फसल भी अच्छी रहती है। भरणी नक्षत्र में व्दितीय और चतुर्थ चरण में वर्षा होने पर वर्षा का अभाव और फसल का अभाव रहता है। सभी वस्तुयें प्रायः महँगी हो जाती हैं, व्यापारियों के लिए उक्त वर्षा से साधारण लाभ होता है। इस वर्षा से अनेक प्रकार की व्याधियाँ फैलती है। ८४ ३ = कृत्तिका :- कृत्तिका नक्षत्र में वर्ष की प्रथम वर्षा होने पर अनाज की हानि होती है। अतिवृष्टि या अनावृष्टि में से किसी एक का योग उस वर्ष हो सकता है। १४ - रोहिणी : = इस नक्षत्र में वर्षा का आरम्भ होने पर असमय में वर्षा होती है। देश की हानि होती है । अनेक प्रकार की व्याधियाँ और अनाज की महँगाई फैलने का नय सतत अा रहता है। परस्पर में कलह और विसंवाद होता है । ५ = मृगशिर मृगशिर नक्षत्र में प्रथम वर्षा होने पर सर्वत्र सुभिक्ष 'होता है। फसल की उत्पत्ति ठीक मात्रा में होती है । :" यदि सूर्यनक्षत्र मृगशिर हो तो खण्डवृष्टि का योग होता है. कृषि में अनेक प्रकार के रोग लगते हैं। यह वर्षा व्यापारियों के लिए शुभ नहीं है। राजा को भी यह वर्षा कष्टप्रद है । ६ = आर्द्रा :- आर्द्रा नक्षत्र में वर्ष की प्रथम वर्षा होने पर खण्डवृष्टि का योग रहता है। फसल प्रमाण से आधी होती है। चीनी और गुड़ का भाव 'सस्ता हो जायेगा। श्वेतवर्ण की वस्तुयें महँगी हो जायेगी । ७ = पुनर्वसु :- पुनर्वसु नक्षत्र में यदि वर्ष की प्रथम वर्षा होती है तो एक माहतक लगातार वर्षा होती है। अतिवृष्टि से फसल की हानि होती है। सर्वत्र अशान्ति और असन्तोष फैलता है। जनता धर्म की ओर उन्मुख होती है । ८ = पुष्य :- पुष्य नक्षत्र में प्रथम जलवर्षा होने पर एक वर्षपर्यन्त 'समयानुकूल जल की वर्षा होती है। कृषि उत्तम होती है। खाद्यान्नों के 'अतिरिक्त फल और मेवों की उत्पत्ति अधिक मात्रा में होती है । समस्त 190451 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -निमितशास्त्रम् - [८५ वस्तुओं के भाव गिरते हैं । जनता में शान्ति रहती है। प्रशासक वर्ग में समृद्धि बढ़ती है। जन साधारण में परस्पर विश्वास और सहयोग की संभावना का विकास होता है। ९. आश्लेषा :- आश्लेषा नक्षत्र में प्रथम वर्षा होने पर वर्षा उत्तम नहीं होती। जनता म असन्तोष और अशान्ति फैलता है। सर्वत्र अनाज, की कमी सताती है। अग्निभय और शस्त्रभय से जनता आतंकित रहती ॐ है। अराजकता की वृद्धि होती है। क इस नक्षत्र में तेज वायु के साथ वर्षा होने पर उक्त प्रदेश में कष्ट होता है। धूल और कंकड़-पत्थरों के साथ वर्षा हो तो उस प्रदेश में अवश्य ही अकाल पड़ेगा। ऐसी वर्षा प्रशासकों के लिए कष्टकारक होती 10 = मधा :- यदि प्रथम वर्षा मघा नक्षत्र में होती है तो शेष वर्षा समयानुकूल होगी, उससे फसल भी अच्छी होगी। जनता में सर्वतोमुखेन * अमनचैन व्याप्त होगा। उक्त नक्षत्र की वर्षा कलाकार और शिल्पकारों । के लिए कष्टप्रद है, मनोरंजक साधनों में कमी आयेगी । राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से यह वर्षा सामान्य फलदायक है। ११ = पूर्वाफाल्गुनी :- इस नक्षत्र की वर्षा का फल मघानक्षत्र में होने वाली वर्षा के फल के समान जानना चाहिये। ५२ = उत्तरा फाल्गुनी:- यदि उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में प्रथम वर्षा होती है तो सुभिक्ष और आजन्द का विस्तार होता है । वर्षा का प्रमाण * अच्छा होगा, फसल अच्छी होगी । खासकर धान की फसल बहुत अच्छी होगी । इस वर्षा का फल पशु-पक्षियों के लिए भी लाभप्रद है। उक्त ६ नक्षत्र की वर्षा आर्थिक विकास में सहयोगिनी होती है। देश में कल कारखानों और व्यापार की वृद्धि होगी। *१३ = हस्त :- इस नक्षत्र की वर्षा का फल उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में होने वाली वर्षा के फल के समाज जानना चाहिये। *१४ = चित्रा:- चित्रा नक्षत्र में प्रथम वर्षा होने से उस वर्ष वर्षा बहुत कम होती है, फिर भी भाद्रपद और आश्विन माह में वर्षा अच्छी होती है। १५ - स्वाती:- स्वाती नक्षत्र में प्रथम वर्षा होजे से उस वर्ष वर्षा बहुत कम होती है परन्तु यह वर्षा आश्विन माह में समाधानकारक जलवर्षा । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमितशास्त्रम का संकेत करती है। e- विशाखा:- विशाखा नक्षत्र में प्रथम वर्षा होने पर उस वर्ष में से बहुत जलवाछ होती है। प्रथम वर्षा में ही तालाब और पोखरे भर जायेंगे। धान, गेहूँ, जूट और तिलहन आदि की फसल अपेक्षाकृत बहुत अच्छी होती है। व्यापार की दृष्टि से वह वर्ष अच्छा माना गया है। १७ = अनुराधा :- अनुराधा नक्षत्र में प्रथम वर्षा होने से जलवृष्टि तो. अत्यधिक होगी परन्तु इसके प्रभाव से गेहूँ पर रोग का आक्रमण होगा। गन्ने की फसल बहुत अच्छी होगी । यह वर्षा व्यपार की दृष्टि से शुभ संकेत है। देश के आर्थिक विकास तथा कला-कौशल की उन्नति में यह वर्षा सहयोगिनी मानी गयी है। *१८ = जेष्ठा:- इस नक्षत्र की प्रथम वर्षा उस वर्ष में अल्पवर्षा होने का संकेत करती है। इससे पशुयों को कष्ट होता है। नाग के अभाव से मवेशियों का मूल्य सस्ता हो जाता है । दूध की उत्पत्ति कम होगी। उक्त वर्षा से देश को आर्थिक हानि होगी । चेचक आदि संक्रामक रोगों की वृद्धि होगी। सेना में विरोध और जनता में उपद्रव होंगे। यह वर्षा भाद्रपद और आश्विन के माह में केवल सात दिनों की वर्षा को प्रकट करती है। इस वर्षा से फाल्गुन माह में घनघोर वर्षा की सूचना देते है. जिससे फसल की हानि होती है। १९ = मूल :- मूल नक्षत्र में वर्ष की प्रथम वर्षा होने से उस वर्ष वर्षा अच्छी होती है; फसल बहुत अच्छी होती है। विशेषरूप से भाद्रपद और आचिन माह में उचित समय पर उचित मात्रा में वर्षारती है। व्यापारिक दृष्टि से यह वर्षा लाभदायक है। यह वर्षा खनिज पदार्थ और वनसम्पत्ति है * की वृद्धि में कारण होती है। मूल नक्षत्र में यदि गर्जना के साथ बर्षा हो तो माघ में भी जलवर्षा होती है। यदि बिजली अधिक कड़के तो फसल में कमी आती है। शान्त एक और मन्दवायु के साथ वर्षा होने पर फसल अत्युत्तम होगी । चना अन्य अनाजों की अपेक्षा से महँगा रहेगा। २० = पूर्वाषाढ़ा :- इस नक्षत्र में प्रथम वर्षा होने पर अधिकांश मूल नक्षत्र में वर्षा के होने से प्राप्त होने वाले फलों के समान ही फल प्राप्त १ होते हैं। . Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रम ---निमित्तशास्त्रम् - [८७ २१ = उत्तराषाढ़ा :- उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में प्रथम वर्षा होती है तथा हवा में भी तेजी हो तो चैत्रीय फसल बहुत अच्छी होगी । अगहनी धाम भी का अच्छा होगा परन्तु कार्तिकी अनाज में कमी आयेगी । नदियों में बाढ़ आने से जनजीवन अस्ताव्यस्त होगा । भाद्रपद और पौष माह में हवा चलती है, जिससे फसल को क्षति पहुंचती है।। २२ = श्रवण :- श्रवण नक्षत्र में वर्ष की प्रथम वर्षा होने पर कार्तिक माह में जलाभाव होगा परन्तु शेष माह में जलवर्षा अच्छी होगी । भाद्रपद । * माह में अपेक्षाकृत अच्छी वर्षा होगी और उससे धान, मकई, ज्वार और र बाजरा की फसलें बहुत अच्छी होगी। अश्विन माह के शुक्लपक्ष में भी अच्छी वर्षा होगी. जिससे लोर पर कीड़ा लनाकर शास फसल की हानि होती है। उक्त नक्षत्र की वर्षा आश्विन,कार्तिक और चैत्र के माह में रोग की सूचना देती है। स्त्रियों की दृष्टि से यह वर्षा लाभदायक है। २३ = धनिष्ठा :- धनिष्ठा नक्षत्र की प्रथम वर्षा श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, माघ और वैशाख माह में घनघोर वर्षा की सूचना । देती है। अतिवृष्टि के कारण किसी-किसी स्थान पर फसल की हामि । होगी। आर्थिक दृष्टि से उक्त वर्षा लाभदायक होती है। देश के वैभव की भी वृद्धि होती है। यदि यह वर्षा गर्जन और तर्जन के साथ होती है उक्त फल का चतुर्थांश ही प्राप्त होता है। व्यापार के लिए ऐसी वर्षा मध्यम फलदायक है। विदेशों से व्यापारिक सम्बन्ध बढ़ता है। धनिष्ठा नक्षत्र की प्रथम घटिका में वर्षा हो तोपः प्राप्ति पूर्णरुप से होती है परन्तु अन्तिम तीन घटिका में वर्षा होने पर फल साधारण ही होता है। २४ = शतभिषा :- शतभिषा नक्षत्र में वर्ष की प्रथम वर्षा होने पर पाली बहुत बरसता है । अगहनी फसल मध्यम होती है परन्तु क्षेत्रीय फसल अच्छी होती है। यधपि व्यापार में हानि होती है, मगर जूट और चीनी के व्यापार में साधारण लाभ होता है। २२५ = पूर्वाभाद्रपदा :- यदि वर्ष की प्रथम वर्षा पूर्वभाद्रपदा नक्षत्र के प्रथम पाँच घटिकाओं में होती है तो वर्षा और फसल मध्यम होती है। माघ माह में वर्षा का अभाव हो जाने से चैत्रीय फसल में कमी होती है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --निमित्तशास्त्रम् - [८८ यद्यपि चातुर्मास में वर्षा अच्छी होती है फिर भी फसल में न्यूनता ही पायी जाती है। पूर्वभाद्रपदा नक्षत्र के अन्तिम घटिकाओं में जलवर्षा होने पर अगहन में अच्छी वर्षा होती है, फसल भी अच्छी होती है। म यदि उक्त नक्षत्र के मध्यभाग में वर्षा होती है तो अवश्यकतानुसार जल बरसने से फसल अच्छी होती है ! उक्त वर्षा व्यापारियों के लिए हानिकरक होती है। र यदि उत्तराभाद्रपदा नक्षत्र से विद्ध होकर पूर्वाभाद्रपदा नक्षत्र में वर्षा होना शासकों के लिए अशुभकारक है। इससे देश की समृद्धि में कमी आती है। १२६ - उतराभाद्रपदा :- उत्तराभाद्रपदा नक्षत्र में प्रथम वर्षा हो तो चातुर्मास में वर्षा अच्छी होती है। अधिक वृष्टि के कारण फसल नष्ट होने के की पूर्ण सम्भावना रहती है। कार्तिकी फसल में कमी आती है परन्तु क्षेत्रीय फसल अच्छी होती है। ज्वार और बाजरा की फसल अत्यल्प होती। Nagar उत्तराभाद्रपदा नक्षत्र के प्रथम चरण में वर्षा आरम्भ होकर बन्द हो जावे तो कार्तिक माह में पानी नहीं बरसता परन्तु शेष माह में वर्षा है होती है और फसल अच्छी होती है। विद्वतीय चरण में वर्षा होकर तृतीय। चरण में समाप्त होने पर वर्षा समयानुकूल होगी । तृतीय चरण में वर्षा होने पर चातुर्मास में वर्षा होने के साथ-साथ मार्गशीर्ष और माघ माह में भी पर्याप्त वर्षा होती है । चतुर्थ चरण में वर्षा आरम्भ होने पर भाद्रपद । माह में अत्यल्प पानी बरसता है। आश्विन माह में अति-साधारण वर्षा । होती है। माघ मास में वर्षा के कारण गेहूँ और चने की फसल अच्छी होती २२७. रेवती :- वर्ष की प्रथम वर्षा रेवती नक्षत्र में होने पर सारे अनाजों । का भाव ऊँचा-नीचा हो जाता है । वर्षा साधारणतः अच्छी होती है। इस वर्षा में श्रावण मास के शुक्लपक्ष में केवल पाँच दिन ही वर्षा होगी। भाद्रपद और आश्विन मास में यथेष्ट जल बरसता है । भाद्रपद मास में वस्त्र और सारे अनाज महँगे हो जायेंगे। कर्तिक मास के अन्त में भी वर्षा होगी। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 綾 निमित्तशास्त्रम ८९ रेवती नक्षत्र के प्रथम चरण में वर्षा होने पर चातुर्मास में अच्छी क्षत्री वर्षा का 'वर्षा होगी। पौष और माघ मास में भी वर्षा का योग होगा। वस्तुओं के भाव अच्छे रहते हैं। गुड़ के व्यापार में अच्छा लाभ होगा। देश में सुभिक्ष और शान्ति रहती है । यदि जाता है तो फसल, मध्यम होती है, क्योंकि अतिवृष्टि फसल को हानि पहुँचाती है। चैत्रीय फसल उत्तम होती है। अगहनी फसल में कमी नहीं आती केवल कार्तिकीय फसल में कमी आती है। मोटे अनाजों की उत्पत्ति कम होती है। श्रावण मास में प्रत्येक वस्तु महँगी हो जाती है । यदि रेवती नक्षत्र के तृतीय चरण में वर्षा हो तो भाद्रपद मास सूखा जाता है, केवल हल्की वर्षा होकर रुक जाती है। आश्विन मास में अच्छी वर्षा होती है, जिससे फसल अच्छी होती है। श्रावण से आश्विन मास तक सभी प्रकार का अनाज महँगा रहता है। अन्य वस्तुओं में साधारण लाभ होता है। घी का भाव अधिक ऊँचा रहता है। रोगों के. कारण मवेशियों की क्षति होती है। गेहूं, चना और गुड़ का भाव सस्ता रहता है। मूल्यवान धातुओं के मूल्य की वृद्धि होती है। रेवती नक्षत्र के चतुर्थ चरण में वर्षा होने पर समयानुकूल पानी बरसता है। फसल भी अच्छी होती है। उक्त वर्षा व्यपारियों के लिए लाभदायक है । यदि रेवती नक्षत्र का क्षय हो और अश्विनी नक्षत्र में वर्षा का आरम्भ हो तो वर्षा अच्छी होगी परन्तु शीत के कारण मनुष्य और पशुओं, को कष्ट होगा । यहाँ वर्षा का प्रभाव श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को मानना चाहिये तथा उसके बाद ही नक्षत्र फलानुसार वर्षा का प्रभाव जानना चाहिये । मेघों की आकृति, उनका काल, वर्ण और दिशा आदि के कारण भी वर्षा के प्रमाण और फल में अन्तर आता है। मेघों के गर्जन और तर्जन से भी शुभ और अशुभ फलों का बोध होता है। मुख्य बात यह है, कि मधुर स्वर वाले, सुन्दर वर्ण वाले, शुभ आकृति वाले और बिजली से सहित मेघों को शुभ मेघ माना जाता है। ऐसे मेघ देश में न केवल सुभिक्ष की सूचना देते हैं, अपितु साथ में राज्य में शान्ति, आर्थिक लाभ और रोगों से मुक्ति की सूचना भी देते हैं। R 2as002091 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रम सागत धूमकेतु प्रकरण अहकालपुत्तचरिय केतुस्स हाणिदु ........। ........दिचत्तारिणियमेण ॥१७६|| अर्थ : अब कालपुत्र जो कि धूमकेतु के नाम से प्रसिद्ध है, उसके सुखदुःखरूप फल को कहते हैं। केउस्स सुहाणिपुणो सयमिक्कंहोइअसुहरूवेण। है जत्थेणजत्थ केऊतंदिसणिसासयाहोई।।१७७|| अर्थ : धूमकेतु प्रायः अशुभरूप होता है और जिस दिशा में उत्पन्न होता है. उस दिशा के जाश में हेतु बनता है। अहपच्छिमेण भागेणउछिदोपुव्वदोविणासेई। पुव्वेणपच्छिमेणय इणुविचरीयचारेणं॥१७८॥ अर्थ : * यदि उसका उदय पूर्वदिशा में होवे तो वह पश्चिमदिशा का और में यदि उसका उदय पश्चिमदिशा में होवे तो वह पूर्वदिशा का नाश करता जइ पुच्छंतत्थभयंजत्थसिरोतत्थणिन्भऊहोई। सिरपुच्छमज्झऐसे पमुदीदोणत्थिसंदेहो॥१७९|| अर्थ : धूमकेतु की पूंछ जिधर की ओर होती है, उधर दह भयकर्ता होता है है। जिधर धूमकेतु का मस्तक हो , उधर वह संश्यामकर्ता होता है। जिधर धूमकेतु की पूंछ तथा मस्तिष्क के बीच का भाग होता है, वहाँ वह Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ----निमित्तशास्त्रम् -- -- आनन्ददायक है। जइ सुरगुरूणासहिओदीसइ केऊण हम्मिउम्गमिदो। 8 अक्खइविप्पविणासदिमासचउत्थेणसंदेहो॥१८०॥ अर्थ : यदि केतु गुरु के पास उगता हुआ दिखाई देवे तो चौथे माह में * ब्राह्मणों की आश होता है। ___ भुवि लोएदेसरिसंसस्साण विणासणो हवइ केऊ। सुक्केण खत्तिणासंसोमेणयबालघादोय॥१८१|| अर्थ : गुरु के साथ उदित होने वाला केतु अल्पवृष्टि करता है व अनाज * का नाश करता है । यदि केतु का उदय शुक्र के साथ हो तो वह क्षत्रियों का नाश करता है तथा यदि केतु चन्द्रमा के साथ उदित हो तो वह * बालकों का घात करता है। ससिणा रायविणासंराऊमज्झम्मिसव्वलोयस्स। बुह सहिओसुहकरणोदेसविणासोय सूरेण॥१८॥ अर्थ : चन्द्रमा के साथ उदित हुआ केतु राजमृत्यु का सूचक है। बुध के साथ उदय को प्राप्त केतु अच्छा है। सूर्य के साथ उदयगत केतु देशनाशक आइव्वा पणदीसडणवि किंविदितत्थ काहदेकेका अह रिक्खमग्गदीसइतस्स विणासंतिपुच्छेण॥१८३॥ अर्थ : यदि केतु सन्ध्याकाल में दिखाई देवे अथवा सुकुमार चक्र में है। दिखाई देवे तो महान अशुभ का कारण है। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -निमित्तशास्त्रम [९२ जइधुवमझेदीसइ केऊसयलंविणासए पुहवी। सवणगणाणंअचलंचलणंच करेदिसत्ताणं॥१८४|| अर्थ : यदि केतु ध्रुव के भीतर दिखाई देवे तो पृथ्वी पर वह चल को अचल व अचल को चल कर देता है। पुहवी सव्वविणासोणायव्वाजत्थदीसएका तम्हातंपुण देसेपरिहरियव्वंपयत्तेण॥१८५|| अर्थ : जहाँ पर ऐसा केतु दिखाई देता है, वहाँ वह सर्व पृथ्वी के नाश का कारण है। इसलिये ज्ञानियों को चाहिये कि वे उस देश का त्याग करें। प्रकरण का विशेषार्थ मध्यरात्रि में आकाश के पूर्वभाग में दक्षिण के आगे जो केतु दिखाई ४ पड़ता है, उसे धूमकेतु कहते हैं। यह केतु धूम्रवर्ण का है। वैसे ज्योतिषशास्त्र में केतुओं के अनेक भेद किये गये हैं। उनमें धूमकेतु अतिशय प्रभावकारी है। उसके अशुभ प्रभाव की बलवत्ता के कारण ही इस ग्रन्थ में उसे कालपुत्र की संज्ञा दी गयी है। धूमकेतु प्रायः अशुभरूप ही होता है । वह जिस दिशा में उत्पन्न के होता है, उस दिशा में स्थित देशों के लिए हानिकारक है । उस दिशा में रोग और क्षुधा आदि की महाभयंकर पीड़ा होती है । विशेष यह है कि यदि धूमकेतु का उदय पूर्वदिशा में हो तो वह पश्चिमी देशों में स्थित जगरों का विनाश करता है और यदि धूमकेतु का उदय पश्चिमदिशा में हो तो वह पूर्वी देशों में स्थित नगरों का विनाश करता है। जिधर धूमकेतु की पूँछ होती है, उधर वह सर्वत्र भय को उत्पन्न करता है। जिधर धूमकेतु का मस्तक होता है, उधर वह युद्ध के भय को है Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रम् संसूचित करता है। जिधर धूमकेतु का मध्यवर्ती भाग होता है, उधर वह आनन्द को विस्तारित करने वाला होता है। र यदि केतु का उदय गुरु के पास होवे तो वह ब्राह्मणों का विनाशकार है। ऐसा केतु अल्पवृष्टि और धान्यविनाशक भी होता है। यह केतु वृद्ध के विद्वान और विशिष्ट राजाओं का भी विनाश करता है। याद केतु का उदय शुक्र के पास हो तो वह नियों का विनाशक है। इतना ही नहीं, अपितु वह धाज्य, राजा, जाग, दैत्य और शूरवीरों को पीड़ा देने वाला होता है। यदि केतु का उदय चन्द्रमा के पास होवे तो वह बालकों का घातक माना गया है। ऐसा केतु राजमृत्यु को भी सूचित करता है। यदि केतु का उदय सूर्य के साथ होवे तो वह देशनाशक है। यदि केतु का उदय बुध के साथ होवे तो वह शान्तिकारक है। यदि केतु के दर्शन ध्रुव के मध्य में होते हैं तो वह पृथ्वी के चंचल वस्तुओं को अचल और अचल वस्तुओं को चंचल करेगा ऐसा निश्चरातः । जानना चाहिये। यदि केतु सप्तऋषियों में से किसी एक को भी प्रधूमित करे, तो ब्राह्मणों को समस्त प्रकार के क्लेशों का सामना करना पड़ेगा । ऐसा 5 आचार्य श्री भद्रबाहु जी का मत है। यदि केतु सन्ध्याकाल में दिखाई पड़ता है अथवा सुकुमारचक्र में अदिखाई पड़ता है तो वह महान अशुभकारक है । उसके कारण जलचर जीव, जल और वृद्ध वृक्षों का घात होगा। प्र केतु के अशुभ फल को जानकर उसका दर्शन होने पर उस देश का त्याग कर देना ही उचित है। पापकारी केतु की शान्ति के लिए क्या करना चाहिये ? इस *प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य श्री भद्रबाहु जी ने लिखा है - दीक्षितान् अर्हदेवांश्च, आचार्याश्च तथा गुरून् । पूजयेच्छान्तिपुष्ट्यर्थ, पापकेतुसमुत्थिते ।। (भद्रबाहुसंहिता :- 11/41) अर्थात् :- पापकेतुओं की शान्ति के लिए मुनि, आचार्य, गुरु, दीक्षितसाधु और तीर्थंकरों । की पूजा करनी चाहिये। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ----निमित्त निमित्तशारंभ्रम संखेवेण विकहियंतणुप्पायाणंतुलक्खणंथोवं। इत्तोजोआहिरित्तंतंपुणअण्णंतुजाणिज्जा।। १८६|| अर्थ : इस प्रकार यह उत्पातों का स्वरूप मैंने संक्षेप से कहा है। जिनको अधिक जानने की इच्छा हो वे ग्रन्थान्तरों से जान लेवें। भावार्थ:थका करते हुए कहते हैं कि निमित्तशास्त्र । के आधार से उत्पातों का वर्णन मैंने किया है, जो संक्षिप्त है । जो भव्य है ॐ इसकी विस्तृत जानकारी प्राप्त करने का अभिलाषी है, उसे अन्य ग्रन्थों में का स्वाध्याय करना चाहिये । एवं बहुप्पयारंणुप्पायपरंपराय णाऊगं। रिसिपुत्तेण मुणिणासव्वप्पियंअप्पगंथेण॥१८७।। अर्थ : इसतरह अनेक प्रकार से उत्पातों का स्वरूप मुझ ऋषिपुत्र मुनि ने स्व-बुद्धि के अनुसार इस छोटे से ग्रन्ध में बताया है। भावार्थ: अन्धकार ने अन्तिम मंगल करते हुए इस कारिका में अपना जामोल्लेख व लघुता का प्रदर्शन किया है। निवेदन श्रुतभक्ति से प्रेरित होकर मैंने इस अजुवाद को करने का प्रयत्न किया है। ज्योतिष विषयक ज्ञान मुझमें नहीं है। इस अनुवाद में हुई तृटियों के लिए गुरुजन मुझे क्षमा करें। विन्दगण इस अनुवाद में हुई भूलों का संशोधन प्रस्तुत करके मुझे सहयोग प्रदान करें । मुनिसुविधिसागर Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ またOR 炭焼 निमित्तशास्त्रम् निमित्तशास्त्रम् ( अज्ञातकर्तृक भाषानुवाद) [ ९५ मंगलाचरण दोहा ऋषभ जिनेश्वर को नमूं, करन शुद्ध सम्यक्त्व | तीर्थंकर के न्हयनसों, पावत सुख अव्यक्त ॥ सोरठा वन्दौ गुरु पदपद्म, कृपायतन भवदु:खहर | महाकर्मतम पुंज, जासु वचन रवि उदयसम ॥ दोहा सरस्वति को नमन करि, प्राकृत गहन विचार । भाषा शास्त्र निमित्त की, कथं बुद्धि अनुसार ॥ वह ऋषभदेव स्वामी कि जिन्होंने इस अनंत संसार को इन्द्रिय COOK १. २. दमन का उपदेश देकर ध्यान में मग्न हो गये, सदाकाल जयवंते रहो। अब मैं ऋषिपुत्र नामका वर्द्धमान तीर्थंकर जो केवलज्ञान रूपी, लब्धि करके युक्त है, उनको नमस्कार करके निमित्तशास्त्र को प्ररूपण करता हूं । ३. यह निश्चय है निमित्तशास्त्र तीन प्रकार से जैसा कि ज्ञानियों ने निरूपण किया है में ऋषिपुत्र कहता हूं । ४. जो पृथ्वीपर देखा जावै, आकाश मैं दिखाई दे और जिसका शब्द ही सुनाई दे । इस तरह से निमित्तशास्त्र के तीन भेद है यह ज्ञानबुद्धि से जानना चाहिए । 190/98090136 ५. जी चारण मुनियों नैं देखा और ज्ञान से शुभाशुभ वर्णन किया, और पंडितों नैं भी वैसा ही वर्णन किया। उसी ही निमित्तज्ञान को तीन प्रकार जो उपर बतला चुके हैं, कहता हूँ । ६. सूर्योदय पहले समय आकाशसंबंधी निमित्त बतलाते है। सूर्य उदय के पहले और सूर्य अस्त के पश्चात जो चंद्र ग्रहों वगैरह काराता है, Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -निमितशास्त्रम ---- - निमित्तान वाले को उस रास्ते की तरफ देखकर सब हाल मालूम करना चाहिये। ७. सूर्योदय समय सम्म दिशाएं एकदम लाल मूंगे की मिसाल हो जावे तो जानों इस देश के राजा या शिवाजा लडका मृत्यु को प्रणा होला ! १८. अगर मानक या खून के मानिंद सूर्योदय समय दिशायें हो जावें । तो जान लो कि यहाँ घोर युद्ध होगा और खूब तलवारे चलैंगी। ९. अगर सूर्य से हेमंत ऋतु में गर्मी और ग्रीष्म ऋतु में सरदी हो तौ। जानौं कि मनुष्य बार-बार बीमारी से दु:ख उठागे । १०. सूर्योदय और अस्त होने के समय ऐसा मालूम हो कि सूर्य के अंदर से आगकी चिनगारियाँ निकलती है तो जानौं कि इस देश में हर सूरत से। , नुकसान पैदा होंगे। ११. सूर्यास्त समय ऐसा मालूम हो कि सूर्य से धुंआ-धूल निकल रहा। में है तो एक साल के अंदर राजा का मरण होगा। १२. सूर्योदय और अस्त समय यदि सूर्य वक्रगति मालूम हो तो जानो। कि अवश्य राजा या मंत्री का मरण होगा। १३. अब सूर्य के चिन्ह फल कहते हैं। अगर सूर्यास्त समय सूर्य के अंदर से जाज्वल्यमाज मच्छी के रे आकार उठता हुआ चिन्ह मालूम दे तो वो मनुष्यों को भय का कारण होता है। १४. सूर्य से लम्बी ज्वाला उठती हुई दिखाई दे तो छह महीने के अंदर देश तबाह हो जावे। १५. सूर्यास्त समय यदि सूर्य के पास ही दूसरा सूर्य उधोतवंत दिखाई। दे तो यह जान लो कि एक माह मैं राजा और प्रजा को व्याधि से कष्ट होगा। १६. अगर सूर्य के टूकडे-टुकडे नजर आने लगें और उसमें धूल-धुआँge उठता दिखाई दे तो यह बतलाता है कि व्याधि से देश पीडित और दुष्काल से प्रजा को कष्ट होगा। ११७. सूर्यास्त समय यदि सूर्य के इर्द-गिर्द बैंगनी पीला मजीठी और *काला मंडल दिखाई दे तो पांचवै रोज अवश्य नव रसों में खराबी पैदा होगी। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --निमित्तशास्त्रम - १८. अगर सर्प और हस्ती के सदृश सूर्य जाज्वल्यमान दिखाई देवे। तो जान लो कि छठे दिन राजा का मरण अवश्य होगा। १९. सूर्य अस्त होता सा दिखाई दे कि उसमें बहुत पुरुषाकृति शाखाएं जाज्वल्यमान निकल रही है तो जान लो कि पांचवे महीने बहुत से आदमी हर एक सूरत में रोएंगे। २०. सूर्य उदय और अस्त समय मैं सूर्य मैं छेद दिखाई दें तो वहाँ पर १९ ऐसी तलवार चलैंगी कि जिससे बहुत से मनुष्य छेदे जावेंगे। २१. सूर्यास्त समय यदि सूर्य के अंदर से ऐसा मालूम हो कि धुएं के । गोले निकल रहे हैं तो जान लो कि तेरहैं दिन यहाँ युद्ध होगा। २२. अब मेघ चिन्ह कहते है। यदि सूर्य के गिर्द मंडल कमलाकार नजर आवै तो पांच दिन *हवा चलके पानी बरसैगा। * २३. अगर सूर्य के गिर्द मूशल के आकार मंडल नजर आवे तो जान लो कि सातवें रोज अवश्य पानी बरसेगा। २४. सूर्य उदय और अस्त समय यदि गोलमंडल इर्द-गिर्द नजर आवै तो तिसरे दिवस पानी अवश्य बरसैगा। * २५. हेमंत ऋतु मैं सदी मिली हुई हवा दक्षित की चलै तौ जान लो वर्षा करीब है। २६. सूर्योदय और अस्त समय यदि जल ओस के माफिक पडै तौ कह दो कि इससे तीसरे रोज अवश्य पानी पडेगा । २७. यदि प्रचंड हवा चलै और बीच-बीच मैं फिर धीमी हवा चलै तो जान लो कि पांचवे दिन अवश्य पानी बरसैगा। ४२८. अचानक कोई पूछे कि क्यों साहब मकान छा लिया? और कपड़ों में सर्दी मालूम होने लगे, जल की कलशों का जल गर्म रहै तो जान लो । कि आजकल में जरूर पानी आवैगा। २९. अगर सूर्यास्त या उदय समय आकाश पीला, मंजीठ, नारंगी समान मालूम हो तो यह सूचित करता है कि हवा चलके पानी बरसैगा। ३०, तमाखू रंग का संध्यासमय बादल हो या खाखी रंग का हावे या से बादल में छेद से हों तो जान लो कि पानी का अन्त हुआ। ३१. बादल खंड-खंड और गोमूत्र ऐसी आकृति कृष्णवर्ण सूर्यास्त । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्त शास्त्रम [९८ ३२. या उदय समय नजर आवै तौ राजा मरण और अल्पवृष्टि सूचित करता है। सूर्यास्त और उदय समय यदि बादल टुकडे टुकडे कई रंग के मालूम दें तो निश्चय बच्चों की मृत्यू और पानी की ना उमेदी सूचित . करता है। - - ३३. अब आगें चन्द्र चिन्ह कहते हैं । चंद्रमा का रूप देखकर शुभाशुभ फल कहनें का ज्ञान बतलाते हैं। ३४... बालक चंद्रानं होता प्रतिपदा या व्दितीया का • धनुषाकार दक्षिण-उत्तर समान हो तो सुभिक्ष करता है । ३५. शुभ स्वच्छ सम चंद्रमां अच्छा पानी बरषानें वाला और सुभिक्ष करता है । ३६. दक्षिणदिशा जिसकी किनारी उंची हो, वह आरोग्यता करता है। समान किनारेवाला संपत्ति करता है। सपाट लकड़ी के आकार चंद्र हो तौ मनुष्यों को हर तरह से दंड देता है। धनुषाकार चंद्रमां सम होता है। ३७. (हस्तलिखित प्रति में यह गाथा और उसका अर्थ छूट गया है 1 ) ३८. अगर चंद्रमां लालरंग का दिखाई दे तो ब्राह्मणों को भय का कारण होगा। पीला क्षत्रियों का नाश करता है। खाखी वैश्यों को भय करता है। ३९. काला चंद्रमां शूद्रों को विनाश करता है। पचरंगा, दही के रंगवाला, दूध के रंगवाला चंद्रमां कुल दूध के देनेवाले पशुओं का नाश 'करता है। १०१५-२०१३ ४०. चंद्रमां के गिर्द खंडित मंडलाकार दिखाई दे तो पांचवें महीनें, जरूर दूध का नाश होगा | ४१. जो-जो चिन्ह मंडल वगेरह के सूर्य-चंद्र के पीछे कहे गये हैं, वह 'निमित्त अवश्य होते हैं । ४४. .४२. जो चंद्रमां पर्वरहित हो परंतु राहु ग्रसा जैसा मालुम दे तो ऐसा चंद्रमां देशपीडा और भय का सूचक है। ४३. वर्षा के लिए जो चिन्ह सूर्य के पहले कह आये हैं, उन्ही चिन्हों से, चंद्रमां से भी काम लेना चाहिये । उत्पात वर्णन अब उत्पातों का वर्णन करते हैं। जहाँ पर बहुत से आदमियों की आवाज सुनाई दे और वह नजर 1790020 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --लिपित्तशास्त्रम - से नहीं आवै तो जान लो कि यहाँ पांचवें महीने मरी की बेमारी होगी। ४५. जहाँपर बहुत से मनुष्यों के दौडने की और लड़ने की आवाज मालुम हों और रुदन करते हुए शब्द सुनाई दें तो जानलो कि यहाँ हजारौं 12 मनुष्यों का नाश होगा। ४६. संध्या समय यदि शिवा (लोमडी विशेष) चौफेर गांव के रोवै तो । जानलो कि राजा का मरण होगा | ४७. अर्द्धरात्रि को परचक्र भयकर्ता, श्याम के वक्त रोग-व्याधि भय करती है और बाकी सिरः बता दै कोई नुकसान नहीं। ४८. जिस देश में कोलाहल शब्द सुनाई दिया करे, उस देश मैं घोर युद्ध अवश्य होगा। ४९. जहाँपर ध्रुव चीजें चलायमान हो जावें और चलायमान चीजें अचल हो जावे तो उस गाँव का तीसरे महीने में नाश हो जावेगा। * ५०. जिस गांव के ईर्द-गिर्द कई किश्म के बाजों की आवाजें सुनाई। दें तो उस पुरी का नाश हो जावेगा। ५१. सर्प जुते हुवे हैं जिसमें ऐसी गाडी गांव की तरफ आती हुई दिखाई दे तो जान लो इस ब्राम के खोटे भाग आये। ५२. विना बैलों का हल आपसे आप खेत में खड़ा होकर नाचने लतो जाजलो कि परचक्र का भय होगा। ५३. विना हवा वगेरा के कोई पेड गिर पड़े तो वहाँ पर मरी की की बीमारी जरूरी होगी। ५४. शहर के मध्य मैं अगर कुत्ते उंचा मुंह करके रोबैं तो यह बतलाते । है कि परचक्र से राजा का नाश होगा। ५५. शहर में पुरुष कंकाल (हड्डियों का पुरुषाकार) जैसैं मालुम देई तो जानलो कि परचक्र से राजा का नाश होगा। ५६. आमिषभक्षी पक्षी विना कारण जहाँ बहुतायत से उडते हुवे नजर आवै तो वहाँ जरुर परचक्र से नगर का नाश होगा। ५७. जहाँ पर बच्चे खेलते-खेलते आपस में लडाई शुरू करके क्रोध से भिडे तो जान लो कि यहाँ जरुर युद्ध होगा। ५८. बच्चे घरों से खेलने के लिए आग ले-लेकर आवें और उसमें खेलैंड १ तो पांचवे दिन जरुर उस गांव में आग लगैंगी। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --जिमित्तशास्त्रम [१001 ५९, जहाँ पर बच्चे खेलते-खेलते यह चोर आया पकड़ों वगेरह शब्द मुंहसे निकालें तो तीसरे दिन चोरभय होगा। ६० जहाँपर मनुष्य गाते हों वा गाना सुनने को घोडी, हथिनी और कुतिया आकर सुनने लगे तो समझो कि उस देश का नाश होगा। ६१. जहाँ पर पंद्रह दिन घोडी या हथिनी गाना सुना करें तो छह । महीना मैं घोडी और एक साल मैं हथिनी देश नाश करेगी। ६२. अगर पांच महीने तक यह दोनों पशु गाना सुनते रहैं तो छठे महीनें जरूर ग्राम का नाश होगा। ६६३. जहाँ गीदड कुत्ते को और चूहा बिल्ली को मार लगा दे, वहाँ के देश का जरूर नाश होगा। १६४. जहाँ सुखा पेड उखड़ता दिखाई दे, तो उस ग्राम का, पुर का । अवश्य नाश होगा। *६५. मगर मैं जहाँ वसन्नी उदय हेते है जैसे लोह की वर्षा, मांस की वर्षा, घी की वर्षा, तेल की वर्षा | उनके फलों को कहते हैं। ६६. जहाँ उपर कही हुई वर्षायें हों, वहाँ घोर मारी की बीमारी होती है। ६७. (आगै इसकी अवधि बतलाते हैं।) अगर मांस की वर्षा हो तो एक मांस मैं और खून की वर्षा हो तो है दो मास में, विष्ठा की वर्षा हो तो छह मास मैं और यदि घी-तेल की वर्षा * हो तो सात दिन मैं फल करती है। ६८. यह उत्पात परचक्र भय या घोर मरी या राजा की मृत्यु या देशनाशादि भय करते हैं। ६९. अकाल समय लताएं फूलै और वृक्षों से खून की धारा निकलती दिखाई दें, तो अवश्य देश का नाश होगा । (उत्पात योग समाप्त) ७०, (इस गाथा का अनुवाद नहीं किया गया है) ७१. और वह जिस देश-नगर मैं प्रतिमा जी स्थिर या चलते भंग हो - जावें, उनके शुभाशुभ फलों को कहता हूँ। ७२. छत्रभंग होने से राजा का नुकसान हो । रथ के टूटने से राजा का मरण हो और छठे महीने शहर का नाश होगा। ७३. भामंडल के भंग होने से राजा को तीसरे या पांचवें महीने मरणांत कष्ट होगा। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रम् - (१०१ ७४. प्रतिमा जी का हाथ टूट से तीसर नहाने राजकुमार की मृत्यू होगी । और पांव के टूटने से सातवें महीने मनुष्यों को कष्ट होगा। ६७५. अगर प्रतिमा जी आपसे आप चलायमान हो जावै तौ मजुष्यों " को और राजा को अचानक कष्ट होगा तीसरे महीनें। * ७६. यदि प्रतिमा जी का मस्तकभंग हो जावे तो सातवै महीने राजा के प्रधान की मृत्यु होगी। भुजा के टूटने से मनुष्यों को घोर पीडा होगी। ७७. प्रतिमाजी से आग निकलै था सिंहासन से गिर पड़े तो जान लो कि तीसरे महीने राजा की मृत्यु, अग्नि और चोरभय होगा। ७८. जो ऊपर बतलाये हुओ उत्पात पक्ष (पन्द्रह दिन) तक बराबर होते रहे तो जरूर बहत जल्दी दकाल का भय होगा। ७९. यदि देव प्रतिमां नाचने लगे, जीभ निकालै या रोवने लौ, घूमने । लगै, चलने लौं, हंसने लगे और कई प्रकार के भाव दिखावै तो८०. जान लो कि मनुष्यों को मरी का रोग, दुष्काल, शहर के लोगों * को और राजा को कई तरह से कष्ट होगा। ८१. प्रतिमा का रोना राजा की मृत्यु का सूचक है । हंसने से देश में विद्वेष होगा । प्रतिमा का चलना और कांपना बतलाता है कि यहाँ । संग्राम होगा। ८२. प्रतिमा से धूएं युक्त पसीने का निकलना कई तरह से फल बतलाता है। यदि शिव की प्रतिमा से ऐसा हो तो ब्राह्मणों का नाश होगा! ८३. कुबेर की प्रतिमा से धूआं युक्त पसीनां निकलै तौ भाइयों में , तबाही आजायगी और हाथों में धूआँ निकले तो कायस्थों में कट होगा। है इंद्र की प्रतिमा से ऐसा हो तो राजा का नाश होगा। ८४. कामदेव की प्रतिमा से धूआं निकलैं तो आगम बातों का नुकसान र होगा और योद कृष्ण की प्रतिमा से ऐसा हो तो संपूर्ण जाति के मनुष्यों । का नुकसान हो । यदि अरिहन्त, सिद्ध और बौद्ध की प्रतिमा से ऐसा हो तो जातियों का नाश होगा। ८५. चंडिका देवी के बालों से यदि ऐसा हो तो स्त्रियों के नाश होने से का हेतु है। और वाराहीदेवी हाथियों का नाश करती है। ४८६. जागनी देवी से धूम निकलै तौ गर्भनाश और महानाशदोष करती र है। यह जो जो बातें बतलाई है निश्चै अशुभ करती है। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिमितशास्त्रम - १० ८७. यदि शिव का लिंग फूटै और उसके अंदर अग्नि की ज्वाला उठे या खून की धारा निकलै उसका फल बतलाते हैं। ८८. शिवलिंग फूटने से आपस मैं फूट फैल जावै और अग्नि की ज्वाला से देश का नाश हो जावेगा । खून की धारा से घर-घर रोना होगा। १८९. ऐसे उत्पातों के होते ही मनुष्यों को चाहिये कि तीन मास तक भक्तिसंयुक्त देवों की पूजा करें। ९०. देवों का अपमान नुकसान का हेतु है । इसलिए देवों को कभी अपूज्य नहीं रक्रदै । और रोजाना पूजन करै, इस ही मैं भलाई है। ३९१. पुष्प, गंध, धूप, दीप, नैवैद्य । ९२. देवों को संतुष्ठ हुए वह विनाश नहीं करते और दुःख संताप वगेरह भी नहीं देते। १९३. छत्र, चमर टूटकर आपसे आप राजा के पास पडै तो पांचवे दिन *जरुर राजा की मृत्यु होगी। १.९४. जहाँ ढोलक तुरंग. तुरई शंख के बजने की आवाजें कान मैं सुनाई देती हों तो वही जरुर पाचवें महीने राजा की मृत्यु होगी । १९५. जहाँ मूसे से लडते जम दिखाई दें वहाँ जरुर पांचवें महीने राजा की मृत्यु होगी। १६. यदि नगरकोट पर या नगर के दरवाजे पर, देवमंदिर पर या चौराहे पर या राजमहल पर यक्षों को लड़ते-नाचते देखें तो निम्नोक्त फल्न जाना १.९७. कोटपर नाचने से बच्चों को नुकसान, दरवाजे से स्त्रिया जो गर्भवती में है उनको नुकसान, गऊशाला या धुडशाल से साहूकारों को नुकसान होगा। १९८. देव मंदिर से ब्राह्मणों को तकलीफ हो, राजमन्दिर से राजा का मरण हो और चौराहे से शहर का नाश होता है। 1.९९. सूर्य में छेद से मालूम होने ल. और सूर्य के मध्य में कुंजाकृतिक मनुष्य वगेरह मालुम हों तो भी एक साल में राजा की मृत्यु और संग्राम । होगा। १००. दिन को उल्लू और रात को कौवे रोवै तो शहरनाश भय होगा। अब इंद्रधनुषे स्वरूप प्रारंभ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमितशास्त्रम् -- (१०३) १०१. अब इंद्रधनुष का स्वरूप कहते है। * अगर रात के वक्त श्वेत धनुष नजर आवै तो जान लो कि यहाँ पर संग्राम में रथभंग होंगे और मनुष्यों में कष्ट होगा। १०२. यदि दिन को इंद्रधनुष पूर्व से दक्षिण को टेढा मालुम होतो जान लो कि खूब हवा चलैगी और पानी नहीं बरसैगा। १०३. यदि पूर्व से पश्चिम को मालुम दे तो जामलो कि पानी खूब पड़ेगा। पूर्व से उत्तर को अगर धनुष दीखै तो भी अच्छा है। १०४. (इसका अर्थ प्रति में छूट गया है) १०५. जो ऊपर धनुष के दोष बतलाये हैं वह वहाँ ही समझो कि जिस । नगर मैं या जिस राजा के राज मैं आते हैं। इनकी अवधि दो साल तक है। ११०६. जो धनुष उठता हुआ कांपता दिखाई देकर कभी लंबा, कभी है चौडा सा दिखाई दे तो जानली कि राज्य-भय होगा। १०७. अगर सीधा खडा मालुम ढे तो मंत्री और राजा मैं विरोध हो । * अगर धनुष उठता हुआ दिखाई देता उसी वक्त गिर पडै तो राजा का राजभंग हौ। ४ १०८. अगर धनुष टूटता हुआ दिखाई दे तो राजा की मृत्यु है । यदि + बिखरता दिखाई दे तो रोग-पीडा होगी और यदि अग्नि निकलती ई दिखाई दे तो जानलो कि संग्राम होगा। १०९. यदि धनुष से धूआं उठता हुआ और चारों तरफ से आग की चिनगारियां उठती दिखाई दे तो यह बतलाता है कि राजा की मृत्यु और बाद मैं देश का नाश होगा। ११०. मधुके छत्ते की तरह अगर नगर को धनुष वेष्टित कर लो तो। जानलो कि घोर महामारी होगी, जिससे मनुष्य कष्ट उठावैगे और दुष्काल पड़ेगा। १११. अगर एक के उपर एक इस तरह से दो इंद्रधनुष नजर आवै तो जानलो कि मनुष्यों को हर तरह से खराबी है और शहर का माश भी करेगा। ११२. यह इंद्रधनुष संबंधी उत्पात पांचवै रोज या सात रोज अथवा एक साल (वर्ष) के अंदर फल देते है। ११३. यदि उत्पात दोष वर्जित हो तौ नृपति को शांति करने से देश मैं Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रमा १०४ शांति हो जाती है। ११४. उत्तमपुरुष उत्पातों को विचार कर देश विनाशक हेतु कहते है । ११५. जहाँपर बच्चे खेलते-खेलते रोने लगें और मुंह से कहें कि भीख * दो तो जानली कि अवश्य कुष्काल पड़ेगा । ११६. अब उल्कापात का बखान करते हैं। * उल्कापात उसे कहते हैं जो कि आकाश मैं चमकती हुई चिनगारियों की लंबी शिखा बन जावे । पूर्व और उत्तर दिशा में अगर उल्का नजर आवे तो उस नगर का अवश्य ही नाश होगा। ११७. जहाँ पर हर महीने उल्का नजर आवे, इस तरह यदि छह माह तक उल्का दिखै तो अवश्य उस जगह के मजुष्यों के प्राण जायेंगे। ११८-११९. सफेद उल्का ब्राह्मणों का नाश करती है और लाल उल्का त्रियों को देती है। परिवी उर का वैश्यों का नाश करती है। और काली उल्का शूढ़ों का संहार करती है। १२०. पंचरंगी उल्का मरी की बीमारी करती है । और जो इधर-उधर से है टकारा है वह प्राणनाश करती है। ६१२१. संध्या समय की और अर्धरात्रि की उल्का हवा और अग्निभय करती है और सूर्य उदय की पहली उल्का नृपतिनाश करती है। १२२. जो उल्का पडती हुई नजर आवे तो सुवर्ण का नाश करती है। और जो उल्का अंगारे लिये हुवे गिरै तो अग्निदाह करती है। १२३. शुक्रोदय में उल्का जलती हुई नजर पडै तौ रस के भांडों का नाश करती है और खुजली की बीमारी पैदा करती है। १२४. राहू के उदय में उल्का गिरै तो पानी का नाश करती है। ११२५. पश्चिम दिशा में पड़ी हुई उल्का घोर पीडा करती है और उत्तर दिशा मैं पड़ी हुई कुशल और सुभिक्ष करती है। १२६. अविनकौंण मैं अगर उल्कापडै तौ अग्निभय करती है और दक्षिण दिशा मैं पडी हुई उल्का पीडा संताप पैदा करती है। नैऋत्य कोण मैं पड़ी। हुई उल्का द्रव्यनाश करती है। ११२७. नीची या ऊर्ध्व चलती हुई उल्का पानी की वर्षा और हवा लाती है। वायव्य कोण की उल्का रोग-भय करती है। परंतु अगर उल्का वायव्यकीण की हों तो शुभ है। R Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -निमित्तशास्त्रम् - १०५) १२८. ईशान कौंन की पड़ी हुई उल्का स्त्रियों का गर्भ नाश करती है। और अगर पूर्व में उल्का पडे तो घोर भय उत्पन्न करती है। १२९. यदि उल्का आदित्यवार को पडै तौ पृथ्वीपर गरमी संबंधी आदिक पीड़ा होते । और अगर चंद्रवार को गिरै तो कुशल सुभिक्ष करती। १३०. जो उल्कापात जहाँ से उठा हो और वहीं वापिस लौट जावै तो अच्छा है । वरना अवश्य बार-बार तकलीफ देता है। १३१. कृतिका और राहिणी नक्षत्र मैं अगर उल्का पडै तो पृथ्वी को संताप देती है और शहर या ग्राम पर राज्य-महल को नष्ट करती है। १३२. और चौरौं का जोर जमीन पर ज्यादा हो जायेगा, ठग बढ जावेंगे। माता पुत्र को और स्त्री पति को त्याग देगी। * १३३. पानी कम पढेजा। नाज वगेरह सरसों का नाश होगा | यह उत्पात इस तरह की उल्का पड़ने से होता है। अब गंधर्वनगर फल कहते हैं। १३; संधर्वजगर उसे कहत हा आकाश में पुदगलाकार नगर के स्वरूप बनैं । अगर पूर्व दिशा मैं गंधर्वनगर दीरौ तौ पश्चिम देश का नाश होगा 1 १३५. यदि दक्षिण दिशा में गंधर्वनगर दिखे तो राजा का नाश कहै । *और यदि पश्चिम दिशा में दिखाई दे तो पूर्व दिशा का नाश जल्दी होगा। १३६. उत्तरदिशा में दिखाई दे तो उत्तर ही दिशावालों का नाश करता। है और यदि हेमंत ऋतु में दिखाई दे तौ रोगभय करता है। वसन्तऋतु का देखा गंधर्वनगर सुकाल करता है। १३७. गीषम ऋतु का देखा हुआ नगर नाश करता है और वर्षाकाल में गंधर्वनगर दीदै तौ पानी कम होगा और दुष्काल होगा । यदि शरद * ऋतु में देखा जावै तो मनुष्यों को पीडा करता है। १३८. बाकी ऋतुकाल में अगर ऐसा हो या गंधर्वनगर दिखाई दे तौर * उनका फल छह महीने भीतर राजा का नाश होगा | १३९. रात्रि को नजर आवै तौ देश नाश करेगा । कुछ रात्रि रहते नजर र आवै तौ चोरभय और राजा का नाश करता है। ११४०. यह ऊपर जो कालनियत करे है उनके सिवाय अगर कोई काल Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिपिजशारत्राम (१०६ मैं गंधर्वनगर नजर आवै तो सुभिक्ष करता है और रोगहरता होती है। . अब जिस वर्ण का गंधर्वनगर फसल का नाश करता है यह बतलाते हैं - १४१. पंचरंगा गंधर्वनगर भयकर्ता और रोगभय करता है। श्वेत रंग का घी-तेल-दूध का नाश करता है। १४२. काले रंग का वस्त्रनाश करता है। अतिकाल तक लाल रंग का गंधर्वनगर दिखाई दे तो ज्यादा अशुभ होता है। १४३. यह गंधर्वनगर जिस शहर में नजर आवै तौ उस ही मैं अशुभ होता। है। और जिस दिशा में दिखाई दे तो उस ही दिशा मैं नुकसान करता है। १४४. यदि बीच मैं आकाश के तारों की तरह गंधर्वनगर छाया हुआ नजर आवे तो मध्य देश को अवश्य नाश करता है। ११४५. जितनी दूर तक फैला हुआ गंधर्वनगर नजर आवै तौ उत्तनी दूर तक देश नाश अवश्य करेगा। १४६. इंद्रधनुषाकार नगर या..... के आकार यदि गंधर्वनगर नजर आवै । तो देशनाश, व्याधि से मरण और दुर्भिक्ष अवश्य करेगा। १४७. अगर शहर के ऊपर नगर गांव के आकार मंधर्वनगर बन जावे 8 और उसके चौफेर कोट दिखाई दे तो निश्चय राजा की मृत्यु होइ। १४८. पत्थरों का पड़ना कई तरह से होता है और कई प्रकार के पडते हैं। इसलिए इनका निमित्त कहते हैं। १४९. चांवल, सरसों या खजूर फल जैसे जहाँ पत्थर गिरे वहां सुभिक्षर होगा। १५०. बहरीफल जैसे, मूंग जैसे, अरहड जैसे पत्थर का पडना भी सुमिक्ष करता है। १५१. शंख जैसे सफेद छोटे-छोटे मसूर जैसे पत्थर गिरे तो पानी बरसमें की खबर देते है। १५२. मेंडक, घडे, हाथीदांत जैसे अगर पत्थर पडै तो जरूर देशनाशर करता है। १५३. मटके जैसे, हाथी जैसे, छत्र जैसे, थाली जैसे या वजाकार मैं पत्थर पडें तो देशमाश करते है और राजा को भी मृत्यु का सूचक है। अथ विद्युल्लता रूपम् ११५४. यदि उत्तर दिशा को बीजली चमकै तौ हवा चलै या अवश्य पानी । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमितशास्त्रम - [१०७) बरसैगा। १५५. यदि अग्निकौंण मैं नजर आवै तो व्याधि से मृत्युसूचक है और तीन माहतक अवश्यमेव पानी बरसैगा। १५६. और शहर या गांवनाश होगा । सांप, इंस, मच्छर, चूहे इनकी ज्यादा पैदा होगी। १५७. यदि दक्षिण दिशा को नजर आवै तो सुभिक्ष और आरोग्य करती है। परंतु गर्भनाश और बच्चों को तकलीफ ज्यादा पहुंचाती है। १५८. अगर जैऋत्यकोण में नजर आवै तो हवा ज्यादा चलै और मौकेमौके पर पानी बरसैमा । ६ १५९. यदि वायव्यकोण मैं चमकै तौ हवा ज्यादा चलै. पानी कम पडै, चोर ज्यादा हों । राजा का देश नाश हों। १६०. (इस गाथा का अर्थ छूट गया है।) १६१. यदि पश्चिम को नजर आवै तौ घानी खूब बरसै, नाज अच्छा। हो. ठंडी हवा चलैगी। १६२. ईशानकोण की बिजली राजा की मृत्यु, चोरभय, सुभिक्षा * रोगहानि बतलाती है। में १६३. (इस गाथा का अर्थ छूट गया है।) १६४. यदि मार्गशीर्ष महिने में पानी बरसै तौ अवश्य ज्येष्ठ महीनें मैं पानी का नाश होगा। १६५. अगर पौष मास में बिजली चमक के पानी बरसै तौ अषाढ महीने में अच्छी वर्षा हो। ११६६. अगर माघ और फाल्गुन में शुक्ल पक्ष मैं तीन दिन पानी बरसे तौ छहे और नवें महीने में जरुर पानी पड़ेगा। । १६७. अगर आकाश में बादल छाये रहैं और हर वक्त बरसते रहैं तो * यहाँ पर जरूर व्याधि रात-दिन शुरू रहेगी। १६८. अर कतिका नक्षत्रको पानी बरसै तौ देश का नुकसान करता है। १६९. यदि मृगशिर नक्षत्र को पानी बरसै तौ अवश्य सुभिक्ष होगा। आर्द्रा को बरसै तौ खंडवृष्टि हो और पुनर्वसु को बरसै तौ एक मासपर्यंत वर्षा रहेगी। १ १७०. पुष्य नक्षत्र को बरसै तौ श्रेष्ठ वर्षा होगी और नाज अच्छा होगा। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -लिपिनशास्त्रम बन्दा और अश्लेषा को यदि पानी बरसेगा तो नाज का नुकसान होगा। १७१. मघा और पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र को यदि पानी बरसै तो कुशल और सुभिक्ष होता है। उत्तरा फाल्गुनी और हस्त को पानी बरसै तौ भी सुभिक्ष और आनंद होता है। ११७२. चित्रा नक्षत्र को पानी बरसै तौ वर्षा मंद होगी । स्वाती की बरसै तो मामूली पानी पड़ेगा । विशाखा और अनुराधा नक्षत्र को पानी बरसे तौ खूब मेह होगा। १७३. ज्येष्ठा नक्षत्र को पानी बरसै तौ पानी की कमी रहै । और मूल । नक्षत्र को पानी बरसैतौ अच्छा पानी गिरेगा । पूर्वा और उत्तराषाढ नक्षत्र को पानी बरसै तौ पानी अच्छा पड़ेगा और पवन चलैगी, इसमें सन्देह नहीं। १७४. श्रवण नक्षत्र को पानी पडै ती कार्तिक मास मैं पानी का नाश होगा । घनिष्टा नक्षत्र में पानी बरसै तौ खूब वर्षा होगी। १७५. शतभिषा, पूर्वभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद इन नक्षत्रों में पानी पडै तौ । *बहत वर्षा होगी। और रेवती, अश्विनी तथा भरणी इन नक्षत्रों में पानी पडै तौ भाव श्रेष्ठ होता है। ₹१७६. यह जो नक्षत्र योग कहे गये है, इनको गर्भकाल कहते हैं। और, ज्ञानीजन इनपर अमल करते है, उनके निश्चय ही फल होता है। अथ केतुस्वरूप प्रारंभ १७७. केतु स्वरूप से इहाँ, दुमवाला तारा लेना चाहिये । अब कालपुत्र जो धूमकेतू नाम से प्रसिद्ध है, उसके सुख-दुख के फल कहते हैं। ६१७८. धूमकेतु अशुभरूप होता है और जिस दिशा में यह पैदा होता है खासकर उस ही दिशा को नाश का हेतु होता है। १७९. यदि यह पूर्वदिशा में उदय हो तो पश्चिम दिशा को और पश्चिम मैं उदय हो तो पूर्व दिशा को नाश करता है। १८०. जिधर पूंछ हो उधर भय कर्ता और जिधर मस्तक हो उधर संग्रामकर्ता है। जहाँ पूँछ और मस्तक का बीच होता है, वहाँ आनंदकर्ता १८१. अगर गुरु के साथ उगता हुआ केतु दिखाई दे तो चौथे महीने में ब्राह्मणों का नाश करता है। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रम [१०९३ ८२. और अपलिया नाज का जाच करता है। केतु शुक्र के साथ। उदय हो तो क्षत्रियों का नाश करता है। चंद्रमा के साथ बच्चों का घात करता है। १८३. और राजा को मृत्युसूचक है । यदि सूर्य के साथ नजर आवै तौ । देश नाश करता है। १८४. अथवा धुन के भीतर जजर आवै तौ तमाम पृथ्वी चल को अचल करै । अचल को चल करके तबाह कर दे। १८४. सायंकाल को नजर आवै तौ अथावा शिशुमार चक्र में दिखाई दे तो महा-अशुभ है । १८५. जहाँ पर केतु नजर आता है वहाँ पर सकल पृथ्वी का नाश करता है। इसलिये ब्लानियों को चाहिये कि जिस देश में यह दिखाई दे उस देश * का त्याग कर दे। १८६. इस प्रकार संक्षेप से उत्पातौं का स्वरूप कहा । अगर किसी महाशय के अधिक जानने की इच्छा होय तो अन्य ग्रंथनि मैं देख ले। १८७. इस प्रकार कितने ही उत्पातौं का स्वरूप अल्पग्रन्थ में मुझ ४ ऋषिपुत्र मुनि. यथामति वर्णन कीया।। इति श्री प्राषिपुत्र प्रणीत निमित्तशास्त्रं समाप्तम् । श्री सं १९८९ कार्तिक कृष्णा ७ भृगु वासरे लि. शंकरलाल शर्मा गौड। शुभं भूयात् । श्री Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रम ३५ १८३ श्लोकानुक्रमणिका क्र. श्लोकांश श्लोक क्र. श्लोकांश श्लोक १ अग्गीये जब दीसह १५५ ३१ अह माह फग्गुणेसुय १६५ ॐ२ अम्गेई अग्निभयं १२६ ३२ अह मेहोणइयलये २२ ३ अण्णह काले वल्ली ६९ ३३ अह रिवरखमज्झ वच्चह १४४ अणकालम्मि दिळे १४० ३४ अहवायब दिसाए १५९ र ५ सब्भाणे मेहपत्ती १६६ ३५ अहवा रायविणासं १६२ ६ अबलं वियसी सधरो ३६ अह बारुणीय दिहा १६० ७ अवमाणिया विणासं ९१ ३७ अह वारुणीय पडिया १२७ .. अर, संजीक : साहो ८ अह सुक्केणयजुत्ता १२३ ९ अह उत्तमेहि णीया ११४ ___ ३९ अह सूरपास उइवी १५ १० अह कालपुत्त चरियं १७६ ४० अह हत्थिसरिस मेहो १८ ११ अह कित्तियाहि वरसह १६७ ४१ अहि जुत्ताविय सपड़ा ५१ १२ अह कीलमाणचोरं ५९ ४२ आइच्चो जई छिद्दो १३ अह खंड भिण्णभिपणा ३१ ४३ आइब्वा पुण दीसह १४ अह खलुमारिसिपुत्तिय ३ ४४ आमिगपक्खी गामे १५ अह जत्थ धुवो चलदी ४९ ४५ आरोगं दविखनवो ३६ ६.१६ अह जिप्पहोव दीसह ११ ४६ इंदध्यमारूढो १७ अहणच्चंता दीसह १७ इंदपुरणयर सहिऊ १८ अहणंदि तूर सक्खा ४८ इंदम्मि दिसाभाए १५४ क. १९ अह तूरवो सुबह ४८ ४९, इंदो कीलविणासं १०७ २० अह दीसह जइ खंडो ५० इंदो वरसइ मंद २१ अहदीसइपरधीओ २४ ५१ इंदुहवणेय पुणो १०५ है २२ अह धूमो अच्छयणे २१ ५२ ईसाणाए पडिया २२३ अह पच्छिमेण भागे १७८ ५३ उक्का यत्थ जलंती २४ अह पौसमास वरिसइ १६४ ५४ उछतीजह कंपह। २५ अह बहु सति धावति ४५ ५५ उदयच्छमणे सूरो २६ अह बाला कीलंता ५७ ५६ उदयच्छमणो सूरी २७ अहमउगासिर देवे ५७ उदयच्छमणो सूरो २८ अह मंडलेण णुद्धं ५८ उप्पलयाणय पड़णं १४८ २९ अह माणसीएमास ६१ ५९ एए दरसण णूवा १४३ ३० अह माणुसीय गाएय ६० ६० एए देसरस पुणो ७१ १११ १४६ १३३ १२८ ११७ १०६ १६३ २० १७ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रम १५७ FFrNE १११) ६१ एए रिक्खव योगा १७५ ५३ जइ मयरिसम्मि वरसह १६८ ६२ एकइसे चलिए ७५ ९४ जइ मुंचइ धूमं वा १०९ ६३ एढे पुण उप्पादा ११२ १५ जइ सिवलिंगं फुटव ८७ ६४ एयंतेणउववाह १४५ ९६ जइ सुक्खो विश रुक्खो ६५ एवं बहुप्पयारं __ १८७ २.७ जइ सुरगुरुणा सहिओ १८० ६६ कच्छाइ णदो सियचडि ८५ ९८ जदि चंडवायु वायदि २७ ६७ करिकुंभछत्तसरिसा १५३ ९९ जम्मा दु पुणो दिवो ६८ का इच्छंता दासई ३२ १०६.अस्सपरिवरं पडिदा १३० ६५ किण्णो सुद्द विणासो ३९ १०१ जिडिसु अण्णादिही ७० किण्हो वच्छविणासो १४२ १८२ जूवी हलो विदीसइ ७१ कित्तिय रोहिणिमज्झे १३१ १०३ जे चारणेण दिहा ७२ केउरस सुहानिपुण्ये १७७ १०४ जे दिह भुविरसण्ण ७३ कोट जयरस्सहोर ९६ १०५ जे मंडलाय प्रछिया ७४ गामे वा णयरे वा ६५ १०६ णमिऊण वद्यमाणं ७५ मिम्मेण णयरधादी १३७ १०७ णम्मि यदि तं कंकाल ५५ ७६ गेहोणि ते कुणंतं ५८ १०८ णय कुव्वंति विणासं ७५ चंदो सरूपसरिसो ३३ १०६ णयररस रच्छमझे ३ ७८ चावं मुसली सत्ती ९५ ११० गरणूवेणश्रेणं गीढो १४ ७९ चित्तलयंत्तिल्लाणं १२० १११ परवइपहाणमरणं ८० चित्तलबोभयजणणी १४१ ११२ णाइणि गब्भविणासं ८१ चित्ता हि मंदवरिसं १७१ ११३ णाणा दुमउग्रणीयदि ८२ चोरा लुपंति मही १३२ ११४ णाणा बहत्तमणा ८३ छत्तस्स पुणो भंगो ७२ ११, णावालंगलसरिसो ८४ छत्तोनुज्जलदंतो ९३ ११६ गुत्तरणुत्तरियाणं ८५ छाइज्जइ महेणं १४७ ११७ गुप्पयवण्णसरिच्छा ३० ८६ छित्तेण कोई पुच्छ २८ ११८ तसं सोणासदि ८७ जइ छलएहि गीढ़ो ६३ ११९ तित्वयरछत्तभंगे ८८ जइ धुवमज्हो हींसह १८४ १२० दक्षिणदिसम्मि दिहो ८९ जइ पुण एए सव्वे ७८ १२१ दिवसे उलूट हिंडति ९० जइ पुच्छं तत्थ भयं १७९ १२२ दिवहे दीसइ धणुओ ९१ जइ बाला हिंडता ११५ १२३ देवा णवंती जिहं ९२ जड़ मच्छासरिमेणं १३ १२४ देवणुले विप्पभओ १३ tvo १०० Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रमा १०१ १३८ ३८ ११० ३७ १७४ १७3 १२ १२५ धणियं णहएवित्ता १०४ १५६ रत्तिम्मिय इंदधणु १२६ पच्छिमभाये पुणओ १०३ १५७ रिउकाल मऊ एसो १२७ पडमाणी णिदिहा १२२ १५८ रिक्खम्मि पास वछहरो ५० १२८ पडिमा विणिगामेण य ७७ १५९, सइयेण राइमरणं ८१ १२९ परकमि जस्स पडिया १२५ १६० लोरास्स दित्ति मारी ८० 1. चक्कासी छोरे ६१ वशिाच्च कुबेर *१३१ पव्वणि रहिओ चंदो ४२ १६२ ववरूवसुररसुदयच्छमणे २६ १३२ परिसणे तह वाही ८२ १६३ वाउम्मासिय वरिसं १५८ १३३ पायारबालवहो ९७ १६४ वाधीफलसरिसावा १५० & १३४ पुग्वे उत्तरमुण्णानुक्का ११६ १६५ विप्पाणं देइ भयं * १३५ पुजदिरसम्मिन १३४ १६६ बिसए गामे गरारे । १५६ *१३६ पुस्से वाउम्मासं १६९ १६७ वेठिज्जइएहिज्ज। १३७ पुहवी सव्वविणासो १८५.१६८ समचलणो समवण्णं १३८ फुडिए णयंति भेऊ ८८ १६९ सयभिसु भइव आऊ १३९ बहु बरिसइजह १६१ १७० सवणे कातियमासे १४० भंगे णरवव भंग १०८ १७१ ससलोहिवण्णहोवरि १४१ भल्लेहि गंध धूवेहि ९० १७२ ससिणा रायविणासं १४२ भामंडलस्स भंगे ७३ १७३ संखेवेण विकहियं १४३ भुवि लोए देसरिसं १८१ १७४ संवावेलासमये १४४ भोगवइण फामी ८४ १७५ संवेक्कसुत्तिसरिसा १४५ मज्झणिए संज्झाए १२१ १७६ सुक्का हणेह विप्पा ११९ १४६ माण्णे परचक्कं ४७ १७७ सुक्किदवा घमाभा १४७ मंडुक्क कुम्भसरिसा १५२ १७८८ सुणहीपणमासेहि १४८ मह फग्गुणी हि १७० १७९, सूरोदय अच्छमणे १४९ माला सरिच्छसरिसं १४९ १८० सूरम्मि तावयंती १५० मारी हाही घोरा जत्थे ६६ १८१ सूरोय उयव्वमणो १५१ मासेऊ मासेणं दोमासे ६७ १८२ सूहा पीययवण्णा १५२ मासे हि तीइयेहि ८९ १८३ सो जयउ जयउ र १५३ मुसलसरिच्छो मेहो २३ १८४ हत्थत्त पूणो भंगे। मेहाणय जेणूना ४३ १८५ हेमंतकतुणकगिण्हे यदि सो मोणिसुद्दो ११३ १८६ हेमंतम्मिय उण्णं गाथा क्रमांक १२४ का पूर्वार्थ नहीं है। १८२ १८६ ४६ १५० ११८ * * * * * * Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --लिमितशास्त्रम् ---- (११३] पलब्ध प्रकाशन ढीका ग्रन्थ १. रत्नमाला : यह आचार्य श्री शिवकोटि जी का ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ में संक्षिप्त पध्दति से श्रावकाचार का वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ में कुल ६७ श्लोक हैं । बारह व्रत, ग्यारह प्रतिमा, जलप्रयोग की विधि, नित्यनैमित्तिक क्रिया की विधि आदि अनेक विषय इस ग्रन्थ में वर्णित हैं। परम पूज्य श्री सुविधिसागर जी महाराज की जादूभरी लेखनी से अनुवादित यह ग्रन्थ ज्ञानवर्धक है। सहयोग राशि :- २५ रुपय २. प्रमाणप्रमेय कलिका: न्यायशास्त्र के महाभवन का दार उद्घाटित करने के लिए सहायकरूप यह ग्रन्थ आचार्य श्री नरेन्द्रसेन जी के द्वारा रचित और परम पूज्य सुविधिसागर जी महाराज के द्वारा अनुवादित है । इस ग्रन्थ । का मूल प्रकाशन १९६१ में हुआ था। परन्तु पहली बार अनुवादित । होकर यह २००० में प्रकाशित हो पाया। इस ग्रन्थ में प्रमाणाधिकार व प्रमेयाधिकार ये दो अधिकार हैं तथा कुल ५१ परिच्छेद हैं। । सहयोग राशि:- २१ रुपये १३. संबोहपंचासिया: यह कवि गौतम का अनुपम ग्रन्थ है। इस प्रति में अज्ञात लेखक । की संस्कृत टीका भी है। मूल ग्रन्थ प्राकृत भाषा में है। ग्रन्थ अत्यन्त सरल है। इस ग्रन्थ में कुल ५१ गाथायें हैं। वैराग्योत्पादन करने वाले इस ग्रन्थ का एक बार स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये। परम पूज्य युवामुनि श्री सुविधिसागर जी महाराज ने इस ग्रन्थ का अनुवाद किया है। सहयोग राशि:-२० रूपये Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रमा ४. दटवसंग्गह: यह सिद्धान्त चक्रवर्ती आचार्य श्री नेमिचन्द्र जी की अमरकृति। है। आचार्य श्री प्रभाचन्द्र जी की प्रामाणिक टीका इस कृति का श्रेष्ठ अलंकरण है। इस ग्रन्थ की मुख्य विशेषता अनेक पाठान्तरों का प्रयोग है। प्राथमिक शिष्यों के लिए यह ग्रन्थ कुंजी के समान है। इसका अनुवाद पूज्य आर्यिका श्री सुविधिमती माताजी ने किया है। र परम पूज्य युवामुनिश्री सुविधिसागर जी महाराज ने इस कृति की महत्वपूर्ण भूमिका लिखी है । सहयोग राशि :-३० रुपये ६५. वैराग्यसार (वेरग्गसारो): यह सतहत्तर दोहों में लिखा गया लघुकाय ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ * के रचयिता आचार्य श्री सुप्रभ जी चौदहवीं सदी के धरतीभूषण थे। यह अन्य अशातकर्तुक संस्कृत टीका से सयुक्त है। ग्रन्थ की । शैली अत्यन्त सरल व पारिभाषिक शब्दों की कठिनता से रहित है। इस शुन्य का अनुवाद हस्तलिखित प्रति से पूज्य आर्यिका श्री सुयोगमती : माताजी ने किया है। परमपूज्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ने इस कृति की मार्मिक भूमिका लिखी है। ___ सहयोग राशि:- १५ रुपये २६. कषाय अय भावना : दृष्टान्त शैली से भरपूर, अनेक छन्दों से अलंकृत, भाषा की। दृष्टि से अत्यन्त सरल, देवनागरी भाषा में मात्र ४१ छन्दो में लिखा गया । यह ग्रन्थ अत्यन्त श्रेष्ठ है। "यथा नाम तथा गुण " इस उक्ति को चरितार्थ । करने वाला यह ग्रन्थ साधकशिष्यों का अच्छा मार्गदर्शन करता है। इसके रचयिता श्री कनककीर्ति जी महाराज है। परम पूज्य युवामुनि श्री सुविधिसागर जी महाराज ने इस ग्रन्थ का अतिशय सुन्दर अनुवाद किया है। सहयोग राशि:- १०रुपये Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ------ तशास्त्रमा (११) ७. सज्जनचित्तवल्लभ: कौन जैनसाहित्यप्रेमी आचार्य श्री मल्लिषेण जी के नाम से अपरिचित होगा ? आचार्य श्री मल्लिषेण का समय ईसवी सन् १०४७ का है। आचार्यदेव की यह प्रेरणादायक लघुकृति है। इस कृति में मात्र २५ पद्य हैं। एक-एक पद्य में अर्थगाम्भीर्य व उपदेश शैली का पूट है। एक-एक पद्य शिथिलाचार का विरोध व साधक शिष्य के लिए सन्मार्गदर्शन करने वाला है। इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद परम पूज्य युवाम् नि श्री सुविधिसागर जी महाराज ने किया है। सहयोग राशि :-- ११ रुपये १८. ज्ञानांकुशम्: परम पूज्य, योगीसम्राट श्री योगीन्द्रदेव आचार्य अध्यात्मपिपासु भव्यों के लिए महान मार्गदर्शक हैं। आचार्य श्री के करकमलों से अक्षर विन्यासित यह लघुकाय कृति है। इस ग्रन्ध में मात्र ४४ श्लोक हैं। ध्यान के विषय में अत्यन्त उपयोगी सामग्री इस ग्रन्थ में पायी जाती है। ___ परम पूज्य जिनवाणी कण्ठाभरण, मुनिश्री सुविधिसागर जी महाराज ने अनेक आगम, मनोविज्ञान, ध्यानविज्ञान और शरीरविज्ञान का सहयोग लेकर इस कृति का अनुवाद किया है। सहयोग राशि:- ३० रुपये. ९. वैराग्यमणिमाला: वैराग्य को परिपुष्ट करने के इच्छुक भव्य को इस ग्रन्थ का स्वाध्याय करना चाहिये । इस ग्रन्थ के रचयिता परम पूज्य आचार्य श्री विशालकीर्ति जी महाराज हैं । ग्रन्ध की भाषा अलंकारिक है। ग्रन्थ में कुल ३३ श्लोक हैं। परम पूज्य जिनवाणी के अनन्य उपासक, मुनिश्री सुविधिसागर जी महाराज ने इस कृति का अनुवाद किया है। .. सहयोग राशि :- १५ रूपये. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -----निमित्तशास्त्रम (११६) विधान साहिल्य १. कल्याणमन्दिर विधान: आचार्य श्री कुमुदचन्द्र जी विरचित कल्याणमन्दिर स्तोत्र को जैनों के प्रमुख पाँच स्तोत्रों में स्थान दिया गया है । उसके आधार पर इस विधान की रचना हुई है । संस्कृत भाषा में इस विधान की रचना भहारक श्री देवेन्द्रकीर्ति जी ने की है। संस्कृत विधान को आधार बनाकर परम पज्य काव्यविधाता मुनि श्री सुविधिसागर जी ने हिन्दी भाषा में विधान रचना की है। विधान के साथ-साथ स्तोत्र का अर्थ, इतिहास, व्रत की विधि. व्रतजाप्य, विधान का आकर्षक नक्शा आदि का समावेश इस ग्रन्थ की। विशेषता है। सहयोग राशि:- १७ रुपये. २. भक्तामर विधान: आचार्य श्री मानतुंग जी की भक्तिपूर्ण रचना भक्तामर स्तोत्र के आधार पर इस विधान की रचना भट्टारक श्री सोमसेन जी ने की है। इस पुस्तक में परम पूज्य कविरुदय मुनि श्री सुविधिसागर जी महाराज की हिन्दी रचना भी संलग्न है। . इस कृति में भक्तामर स्तोत्र के उत्पत्ति के विषय में प्रचलित कथायें, स्तोत्र का अर्थ, व्रतविधि, जाप्य, ऋद्धिमन्त्र, विधान का नक्शा आदि समस्त आवश्यक अंगों का समावेश है। सहयोग राशि:-२० रुपये. ३. रविव्रत विधान: परम पूज्य लेखनी के जादूगर , मुनिश्री सुविधिसागर जी महाराज की यह सुमधुर रचना है। रविव्रतविधान की विधि, व्रतकथा, व्रतजाप्य, मण्डलविधान २. का नक्शा आदि अंगों की पूर्णता से कृति अतिशय मनोहर बनी है। सहयोग राशि:- १५ रुपये. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रम ४. जिनगुणसम्पत्ति व्रतविधान: आदिपुराण जैसे महान ग्रन्थों मे महिमा को प्राप्त इस विधान की रचना परम पूज्य जिनवाणी के लाडले सुपुत्र मुनि श्री सुविधिसागर जी महाराज ने की है। इस कृति में व्रतकथा, व्रतजाप्य, व्रतविधि, विधान का नशा अदिति समाहित है । सहयोग राशि:-२०रुपये. ५. रोटतीज विधान: परम पूज्य युवासन्त श्री सुविधिसागर जी महाराज की जादुई , लेखनी से नि:सृत यह अनुपम रचना है। साथ में व्रतविधि, व्रतजाप्य है है व्रतकथा और विधान का नक्शा भी है। सहयोग राशि :- ११ रुपये. ६. श्रुतस्कन्धविधान:S अज्ञातकर्तुक लेखक प्रणीत संस्कृत रचना तथा परम पूज्य के युवामुनि श्री सुविधिसागर जी महाराज द्वारा रचित हिन्दी रचना इस प्रकृति का वैशिष्ट्य है । साथ में सरस्वती स्तोत्र, व्रतकथा, व्रतविधि, ततजाप्य, सरस्वती मन्त्र और विधान का नक्शा भी इस कृति में १ सम्मिलित है। . सहयोग राशि:- १५ रुपये. ७. सुगन्धदशमीव्रतविधान : यह रचना परम पूज्य श्री सुविधिसागर जी महाराज के पुनीत करकमलों से हुई है। व्रतकथा, व्रतजाप्य, व्रतविधि और विधान का नक्शा भी इस कृति में प्रस्तुत है। सहयोग राशि :- १० रुपये. ८. निर्वःखसप्तमीग्रात विधान: ___यह रचना परम पूज्य श्री सुविधिसागर जी महाराज के पुनीत करकमलों से हुई है । व्रतकथा, व्रतजाप्य, व्रतविधि और विधान का नक्शा भी इस कृति में प्रस्तुत है। सहयोग राशि :- १० रुपये, Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -निमित्तशास्त्रम - - - ভা, কিন্তু -- - -- - - - - १.धर्म और संस्कृति: उदात्त चिन्तन से भरपूर तथा राष्ट्रभक्ति को जगाने वाला यह प्रवचन है । प्रवचनकर्ता परम पूज्य प्रखरवक्ता मुनि श्री सुविधिसागर जी महाराज हैं। सहयोग राशि:--५ रुपये. २.कैद मे फंसी हैआत्मा: परम पूज्य आगमनिष्ठ मुनि श्री सुविधिसागर जी महाराज का यह मंगल प्रवचन है। इसमें चतुर्गति के दुःखों का भावप्रवण वर्णन है। * परिशिष्ट के रूप में आगम से महान जानकारियाँ दी गई हैं। सहयोग राशि:-६ रुपये. ३.एबे - लगाम के घोडे सावधान! : परम पूज्य मुनि श्री सुविधिसागर जी महाराज के द्वारा लिखित 8 ३२ पत्र इस महाकृति में हैं। जिसने भी इस कृति को अबतक पढ़ा, उसने एक ही बात कही है कि तुमसा नहीं देखा। सहयोग राशि:-७५ रुपये. 4. स्मरणशक्तिका विकास कैसे करें?: परम पूज्य अचिन्त्य प्रजाशक्ति युधामुनि श्री सुविधिसागर जी महाराज की यह कालजयी कृति है। स्मरणशक्ति का विकास कैसे किया जाय ? इस विषय पर आयुर्वेद, मन्त्र, ध्यान, आसन, मुद्रा, एक्युप्रेशर, प्राकृतिक चिकित्सा, होमियोपैथी, चुम्बक चिकित्सा, आहारविज्ञान आदि के माध्यम से स्पष्ट किया गया है । स्मरणशक्ति के प्रकार विस्मरण के कारण और याद करने की विधि को इस कृति में अच्छी तरह स्पष्ट किया गया है। सहयोग राशि:- १० रुपये. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रम . (११९) कीड़ा विश्व १. आध्यात्मिकक्रीडालय: खेल-खेल में गहन ज्ञान की प्राप्ति का उपाय यह क्रीड़ालय है। ६ इसमें तोल मोल के बोल, चौबीस तीर्थंकर, बारह भावना, णमोकार मन्त्र, एक दिवसीय क्रिकेट और साँपसीढ़ी है। छह खेलों के क्रीडापट के साथ छह सौ प्रश्नों वाली पुस्तक और सम्पूर्ण आवश्यक सामग्री भी है। सहयोग राशि:- ५० रुपये. 2.ज्ञाननिधिक्रीडालय:व यथा नाम तथा गुण इस उक्ति को सार्थक करने वाली यह पावन है प्रकृति है। बालकों को सहजरूप से धार्मिक ज्ञान प्रदान कराने वाली यह कृति समाज में अबतक इकलौती है। नौ सौ नब्बे प्रश्नों वाली पुस्तक, ॐ क्रीडापट और सम्पूर्ण आवश्यक सामग्री प्रदान की जाती है। सहयोग राशि:- ५० रुपये, ३. ज्ञानार्जन क्रीड़ा मन्दिर : दूरदर्शन पर कौन बनेगा करोड़पति ? नामक एक क्रीड़ालय का । प्रसारण हो रहा था। उसी के आधार पर १० धार्मिक व 90 सामाजिक प्रश्न लेकर बनाया हुआ यह क्रीड़ा मन्दिर है। धार्मिक प्रश्न हो अथवा सामाजिक । अनेक विषयों के आधार से प्रश्नों का संकलन किया गया है। इसतरह का कीड़ालय जैन समाज में प्रथम बार ही प्रकाशित हुआ है। सहयोग राशि :- ३५ रुपये. १४. सन्मति क्रीडालय: ताश के ५२ पत्तों के माध्यम से जैनधर्म की शिक्षा देने वाला यह अनुपम क्रीड़ालय है । अनोखे प्रश्नों से युक्त जैन समाज में प्रकाशित हुआ इसतरह का अद्वितीय क्रीड़ालय लेने प्रमाढ मत कीजियेगा। सहयोग राशि :- ५०रुपये. Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्तशास्त्रमा मुक्कक साहित्य १.सुविधिमुक्तकमणिमाला -भाग 1 इस कृति में 108 मुक्तकों का संकलन किया गया है। सहयोग राशि:-५ रूपये. सूचना :- अन्तिम पाँच कृतियों के कुशल सर्जक परम पूज्य मुनि श्री सुविधिसागर जी महाराज हैं / "कैसैट 1-2. स्तोत्रपाठपुंज - भाग 1 वर इस ओडिओ कैसेट में भक्तामर, कल्याणमन्दिर, एकीभाव, विषापहार और चतुर्विंशतिका स्तोत्र का संकलन है / 10/10 मीनटों वाली इन दो कैसेटों में मुनिश्री की सुमधुर आवाज है / नागपुर रेडिओ ल स्टेशन की उद्घोषिका श्रीमती श्रद्धा भारव्दाज की आवाज में स्तोत्रार्थ है। ती विदर्भ के सुप्रसिद्ध संगीतकार श्री अनिल अगरकर के संगीत से यह कैसेट सुसज्जित है। सहयोग राशि:- प्रत्येकी 50 रुपये. ..गीतगंजन इस कैसेट में मुनिश्री के व्दारा रचित और उनकी ही सुमधुर स्वरलहरियों में निबद्ध भजनों का संकलन किया गया है। इस 704 मीनट की कैसेट को अनिल अगरकर ने संगीत दिया है। सहयोग राशि:-५० रुपये. 4. काल्यकुंज इस कैसेट में मुनिश्री के व्दारा रचित और उनकी ही सुमधुर ॐ स्वरलहरियों में निबद्ध ओजस्वी कविताओं का संकलन किया गया है। इस 60 मीनट की कैसेट को अनिल अगरकर ने संगीत दिया है। सहयोग राशि:-५० रूपये.