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----निमित्तशास्त्रम् - प्रतिदिन सूर्य के अर्धास्त हो जाने के समय को लेकर जब तक आकाश में नक्षत्र अच्छीतरह दिखाई न पड़े तब तक संध्या काल रहता है, उसी प्रकार अर्धोदित सूर्योदय से पूर्व तारादर्शन तक संध्या काल माना जाता है।
टूटी-फूटी. क्षीण विध्वस्त, विकराल, कुटिल, बाई ओर को झुकी हुई छोटी-छोटी तथा मलिन सूर्यकिरणें सायंकाल में हो तो उपद्रव है या युद्ध होने की सूचना समझनी चाहिये । ऐसी सन्ध्या वर्षा का रोधन भी किया करती है।
यदि काला, पीला, कपिश, लाल, हरा आदि विभिन्न वर्गों की किरणें आकाश में फैल जाये तो अच्छी वर्षा होती है तथा सात दिन तक भय भी बना रहता है। यदि संध्या के समय में सूर्य की किरणें श्वेत वर्ण की हो तो मानव का अभ्युदय होगा और उसे शान्ति प्राप्त होगी।
सन्ध्या के समय में सूर्य किरणे तामरंग की हो तो सेनापति की। मृत्यु होती है । सन्ध्या के समय में सूर्य किरणें पीले या लाल रंग की हो । तो सेनापति को दुःख पहुँचता है। सन्ध्या के समय में सूर्य किरणें हरित वर्ण की हो तो पशु और धान्य का नाश होता है। सन्ध्या के समय में सूर्य किरणें धूम वर्ण की हो तो गायों का विनाश होता है। सन्ध्या के समय में सूर्य किरणें मंजीठ के समान आभा और रंग वाली हो तो शस्त्र और अग्निकृत भय होता है। सन्ध्या के समय में सूर्य किरणे भरम के समान रंग वाली हो तो अनावृष्टि का योग समझाना चाहिये। सन्ध्या के समय में सूर्य किरणें मिश्रित एवं कल्माष रंग की हो तो वृष्टि का क्षीणभाव होता है । सन्ध्याकालीन सूर्यकिरणों का स्वच्छ और शुभ होना मंगलकारक माना गया है।
सूर्य की किरणें सन्ध्याकाल में जल और दायु से मिलकर दण्ड के आकार को धारण करें तो उसे दण्ड कहते हैं। तब यह दण्ड विदिशााओं में स्थिर होता है तब वह राजाओं के लिए अनिष्टकारी होता है और जब वह दण्ड दिशाओं में स्थित होता है, तब वह छिजातियों के लिए अनिष्टकारी होता है। दिन निकलने से पहले और मध्यसन्धि में दण्ड दिखने पर शस्त्र और रोगासे से भय उत्पन्न होता है
आकाश में सूर्य के ढकने वाले दही के समान किनारेदार नीले