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----निमित्तशास्त्रम --
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(देवोत्पातप्रकरण तित्थयरछत्तभंगेरथभंगेपायहत्थसिरभंगे।
भामण्डलस्सभंगेसरीरभंगेतहच्चेव॥७०|| अर्थ :
यदि तीर्थंकर के छत्र का भंग हो, रथ का भंग हो अथवा हाथ,पाँव, मस्तक, भामण्डल या शरीर का भंग हो। भावार्थ :
अब तीर्थकर की प्रतिमा से जो उत्पात होते हैं, उनको आचार्य भगवन्त बताते हैं। तीर्थंकर की प्रतिमा का छत्रभंग, रथभंग, हाथ में पाँव, मस्तक या शरीर के किसी भी अंग का भंग हो जावे या भामण्डल का भंग हो जावे, तो उसका क्या फल होगा ? इसका वर्णन आगे आने वाली गाथाओं में बतायेंगे ।
एए देसस्स पुणोचलणेतहणच्चणेय णिग्गमणे।।
जेत्तियतदोसा तेसव्वेकत्तइस्सामि॥७१। अर्थ :
जिस देश अथवा नगर में प्रतिमा जी स्थिर या चलते हुए भंग हो। से जाये, उनके शुभाशुभ फलों को कहता हूँ। भावार्थ :
जिस देश में अथवा जिस नगर में चल प्रतिमा भंग हो जाये अथवा अचल प्रतिमा भंग हो जाये, तो उसका क्या फल होता है ? प्रतिमा के भंग हो जाने पर प्राप्त होने वाले शुभ और अशुभ फल का वर्णन मैं करुंगा। ऐसी प्रतिज्ञा ग्रन्थकर्ता ने की है।
छत्तस्स पुणोभंगोणरवइभंगोरहस्सभंगेण । होहइणरवइमरणंछठे मासे पुरविणासो॥७२||