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-निमितशारभा---- उन्हीं कुवर्षाओं के फल हैं। प मांस की वर्षा अपना फल एक माह में प्रकट करती है। रक्त की वर्षा अपना फल दो माह में प्रकट करती है । विष्ठा की वर्षा अपना फल
छह माह में प्रकट करती है। घी की वर्षा अपना फल सात दिनों में प्रकट हैकरती है । तेल की वर्षा अपना फल गत दिनों में प्रस्ट करती है।
कुवर्षाओं के विषय में आचार्य श्री भद्रबाहु लिखते हैं -
मद्यानि रूधिरास्थीनि, धान्यङ्गारवसास्तथा। मघावान् वर्षते यत्र, तत्र विन्दद्यात्महद्भयम्॥
सरीसृपा जलचराः, पक्षिणो व्दिपदास्तथा। वर्षमाणा जलधरात्, तदाख्यान्ति महाभयम् ।।
(भद्रबाहु संहिता :- १४/१३-१४) अर्थात् :- जहाँ मेघ मद्य, रुधिर, अस्थि, अग्नि की चिनगारियाँ और चर्बी की वर्षा : ए करते हैं, वहाँ चार प्रकार का मग्य होता है। * जहाँ मंघों से सरीसृप जन्तु, जलचर जीव एवं ब्दिपद पक्षियों की वर्षा । होती हो, वहीं घोर भय की सूचना समझनी चाहिये।
इसके अतिरिक्त अकाल में लतायें फूलें या वृक्षों से खून की धारा से निकलती हुई दिखाई पड़े तो जान लेना चाहिये कि अतिशीघ्र उस नगर । का विनाश होना है।
भट्टारक श्री कुन्दकुन्ददेव का मत है - अकाले पुष्पिता वृक्षाः, फलिताश्चान्यभूभुजः । अन्योन्यं महती प्राज्यं, दुर्निमित्तफलं वदेत्॥
(कुन्दकुन्द श्रावकाचार :- ८/१३) अर्थात् :- यदि वृक्ष अकाल में फूलें और फलें नो अन्य राजा के साथ महान युद्ध । होगा ऐसा उक्त दुर्निमित्त का फल कहना चाहिये । 1 अकाल में पीपल, उदुम्बर, वटवृक्ष और प्लक्ष के वृक्ष का फलना
और फूलना क्रम से ब्राह्मणवर्ण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्रवंश वाले मनुष्यों । की अपार हानि को प्रकट करता है। - एक वृक्ष में अन्य वृक्षादिकों का फलना और फूलना भी हानिकारक है । ऐसा उत्पात भयंकर अकाल की सूचना देता है।