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निमित्तशास्त्रम्
[३१ यदि मांस की वर्षा हो, तो वह एक माह में अपना फल देती है। र रक्तवर्षा दो माह में अपना फल देती है। विष्ठा की वर्षा छह माह में से अपना फल देती है तथा घी अथवा तेल की वर्षा होने पर वह वर्षा सात * दिनों में ही अपना फल देती है।
परचक्कभवोघोरोमारी वातस्थ होइ देसम्मि। S णयरस्स विणासोका देसविणासोयणियमेण॥६८॥
अर्थ :म यह सम्पूर्ण उत्पात परचक्र का भय, घोर मारी, राजमृत्यु, नगर
का नाश अथवा देश का नाश अवश्य करते हैं। भावार्थ:
गाथा ६६ में बताया गया था कि जहाँ पर वर्षा होती है, वहाँ पर भारी रोग फैलता है।
इस गाथा में वर्षा के अन्य दुष्परिणाम बताते हुए कहते हैं कि म उससे परचक्र का भय, भयंकर मारी रोग, राजा की मृत्यु, नगर विनाश अथवा देश का विनाश होगा।
अण्णह काले वल्ली फुलंती महणुव्व सुरोयाणं।
सेठव्वा असदीसइदेसविणासोणसंदेहो॥६९॥ अर्थ :
यदि अकाल में लतओं, फूल और वृक्षों से खून की धारा निकलती हुई दिखाई पड़े, तो उस देश का अवश्य नाश होगा।
प्रकरण का विशेषार्थ यद्यपि मेघयोग आदि में वर्षाविषयक चर्चा की जा चुकी है, परन्तु यदा-कदा कुवर्षायें भी हुआ करती हैं । रक्तवर्षा, मांसवर्षा, घी की वर्षा, तेलवर्षा आदि वर्षाओं को कुवर्षा कहा जाता है। जिस जगर में उपर्युक्त वर्षायें होती हैं, उस नगर में महामारी फैलती है । परचक्रभय, राजमृत्यु, जगर या देश का विनाश और अराजकता का विस्तार ये सज