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निमितशास्त्रम
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गुरु के साथ सिद्धक्षेत्र मांगीतुंगी के दर्शन किये तथा सोनज (मालेगाँव) से आपने अलग विचरण करना प्रारंभ किया।
विहार करते-करते आप अपने दादागुरु परमपूज्य आचार्य श्री सन्मतिसागर जी महाराज के चरमों में पहुँचे । अतिशमन या जि. डूंगरपुर) में आपने दादागुरु के करकमलों से ११-४-१९८१ को मुनिदीक्षा । ग्रहण की। मुनिदीक्षा का प्रथम चातुर्मास गुरुदेव के साथ सम्पन्न करके में आपने अलग विहार कर दिया । आत्मसाधना आपका ध्येय था तो सारा समाज प्रबोधित हो यह आपकी पवित्र इच्छा थी । इन दोनों ही लक्ष्यों ने को सिद्ध करते हुए आपने अनेक गाँवों और शहरों को अपनी चरणरज से पवित्र किया।
अापकी प्रवचनशैली बे-जोड़ है। आपके प्रवचन में केवल ओज ही नहीं, अपितु साथ में आगम की धाराप्रवाहिकता भी है | विषय की सर्वांगिनता, दृष्टान्त की सहजता और शैली में नयविवक्षा का होना आपके प्रवचनों का वैशिष्ट्य है । प्रवचनशैली की तरह ही आपकी अध्यापनशैली अनुपम है । प्रत्येक चातुर्मास में आप नवयुवकों को धार्मिक शिक्षण कराते हैं । फिजुलखर्चीपना आपको रुचिकर नहीं है तथा समय * की पाबन्दी में आप सबके लिए एक आदर्श उदाहरण हैं। : आप अनेक विशेषताओं से सम्पन्न हैं और अनेक सदगुणों के समाधार भी। आपकी समस्त विशेषताओं को विलोक कर दूरदृष्टिवान गुरुदेव ने १९५५ में आपको आचार्यपद प्रदान करने की घोषणा की । पदों के प्रति निरासक्त रहते हुए आपने गुरुदेव से निवेदन किया कि हे गुरुदेव ! आप मुइन पर प्रसन्न हैं तो आचार्यपद नहीं , अपितु अपने दो पद (चरणयुगल) प्रदान कीजिये ताकि चारित्रपथ का अनुगमन करते हुए मैं कभी थकावट का अनुभव म कसं । बालयोगी, शब्दशिल्पी जैसे कितने ही पढ़ों को है
आपने ग्रहण नहीं किया। S आपकी रुचि प्राचीन शास्त्रों की सुरक्षा में है। आप जहाँ भी जाते हैं,
वहाँ के हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के ग्रन्थागार का अवलोकन अवश्य करते हैं। अप्रकाशित ग्रन्थों का प्रकाशन कराना आपका ध्येय है। अबतक संघ से वेरखनसार, दव्वसंग्गह आदि ग्रन्थों का प्रकाशन हो चुका है जो कि मात्र पाण्डुलिपि में ही उपलब्ध थे । मिथ्यात्वनिषेध, श्रीपुराण,