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निमित्तशास्त्रम
निमितशास्त्रामा
सो जयउ जयउ उसहो अणंतसंसारसायणुत्तिण्णो।
झाणेणलेण जेयणलीला इविनि जिययमणो ॥१॥ अर्थ :
___ अनन्त संसार को इन्द्रियों के दमन का उपदेश देकर जो ध्यान * में लीन हुए, वे भगवान आदिनाथ जयवन्त हो-जयवन्त हो। भावार्थ:
ग्रन्थ के आरम्भ में ग्रन्थकार श्री ऋषिपुत्राचार्य आदिनाथ भगवान का जयघोष कर रहे हैं। कैसे हैं वे आदिनाथ ? संसार में संसरण करने वाले अजन्तानन्त भव्यजीवों को संसार के कारणभूत इन्द्रियों के व्यापार का दमन करने की शिक्षा देने वाले हैं तथा ध्यान में मन्न हैं। ₹ णमिऊण वड्डमाणं णवकेवललद्धिमंडियं विमलं।
वोच्छं दव्वणिमित्तंरिसिपुत्तयणामदो तत्थ ॥सा अर्थ :
नौ केवललब्धियों से मण्डित, अत्यन्त विमल श्री वर्धमान स्वामी । को नमस्कार करके मैं (ऋषिपुत्र) दव्वणिमित्तं अर्थात् निमित्तशास्त्र नामक ग्रन्थ का कथन करता हूँ । भावार्थ:
क्षायिक भाव के नौ भेद हैं । यथा - केवलदर्शन, केवलज्ञान, क्षायिक सम्यग्दर्शन, क्षायिक सम्यक्चारित्र तथा पाँच क्षायिक लब्धियाँ (दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य) । इन्हीं नौ भावों को आगम में * केवललब्धि इस संझा से अलंकृत किया गया है।
श्री दर्दमान स्वामी हुन लब्धियों से मण्डित हैं। ग्रन्थकार चरम तीर्थकर श्री वर्द्धमान भगवान को नमस्कार करके प्रतिक्षा करते हैं कि