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(निमितशास्त्रम
नहीं होती। उक्त नक्षत्र की वर्षा बीमारियों को फैलाती है ।
यदि भरणी नक्षत्र का क्षय हो और कृत्तिका नक्षत्र में वर्षा हो तो उत्तम है। भरणी प्रथम और तृतीय चरण की वर्षा उत्तम है। जनता में शान्ति रहती है और फसल भी अच्छी रहती है। भरणी नक्षत्र में व्दितीय और चतुर्थ चरण में वर्षा होने पर वर्षा का अभाव और फसल का अभाव रहता है। सभी वस्तुयें प्रायः महँगी हो जाती हैं, व्यापारियों के लिए उक्त वर्षा से साधारण लाभ होता है। इस वर्षा से अनेक प्रकार की व्याधियाँ फैलती है।
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३ = कृत्तिका :- कृत्तिका नक्षत्र में वर्ष की प्रथम वर्षा होने पर अनाज की हानि होती है। अतिवृष्टि या अनावृष्टि में से किसी एक का योग उस वर्ष हो सकता है। १४ - रोहिणी :
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इस नक्षत्र में वर्षा का आरम्भ होने पर असमय में वर्षा
होती है। देश की हानि होती है । अनेक प्रकार की व्याधियाँ और अनाज की महँगाई फैलने का नय सतत अा रहता है। परस्पर में कलह और विसंवाद होता है । ५ = मृगशिर मृगशिर नक्षत्र में प्रथम वर्षा होने पर सर्वत्र सुभिक्ष 'होता है। फसल की उत्पत्ति ठीक मात्रा में होती है ।
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यदि सूर्यनक्षत्र मृगशिर हो तो खण्डवृष्टि का योग होता है. कृषि में अनेक प्रकार के रोग लगते हैं। यह वर्षा व्यापारियों के लिए शुभ नहीं है। राजा को भी यह वर्षा कष्टप्रद है ।
६ = आर्द्रा :- आर्द्रा नक्षत्र में वर्ष की प्रथम वर्षा होने पर खण्डवृष्टि का योग रहता है। फसल प्रमाण से आधी होती है। चीनी और गुड़ का भाव 'सस्ता हो जायेगा। श्वेतवर्ण की वस्तुयें महँगी हो जायेगी । ७ = पुनर्वसु :- पुनर्वसु नक्षत्र में यदि वर्ष की प्रथम वर्षा होती है तो एक माहतक लगातार वर्षा होती है। अतिवृष्टि से फसल की हानि होती है। सर्वत्र अशान्ति और असन्तोष फैलता है। जनता धर्म की ओर उन्मुख होती है ।
८ = पुष्य :- पुष्य नक्षत्र में प्रथम जलवर्षा होने पर एक वर्षपर्यन्त 'समयानुकूल जल की वर्षा होती है। कृषि उत्तम होती है। खाद्यान्नों के 'अतिरिक्त फल और मेवों की उत्पत्ति अधिक मात्रा में होती है । समस्त
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