________________
निमित्तशास्त्रमा
४. दटवसंग्गह:
यह सिद्धान्त चक्रवर्ती आचार्य श्री नेमिचन्द्र जी की अमरकृति। है। आचार्य श्री प्रभाचन्द्र जी की प्रामाणिक टीका इस कृति का श्रेष्ठ अलंकरण है। इस ग्रन्थ की मुख्य विशेषता अनेक पाठान्तरों का प्रयोग है। प्राथमिक शिष्यों के लिए यह ग्रन्थ कुंजी के समान है। इसका अनुवाद पूज्य आर्यिका श्री सुविधिमती माताजी ने किया है। र परम पूज्य युवामुनिश्री सुविधिसागर जी महाराज ने इस कृति की महत्वपूर्ण भूमिका लिखी है ।
सहयोग राशि :-३० रुपये ६५. वैराग्यसार (वेरग्गसारो):
यह सतहत्तर दोहों में लिखा गया लघुकाय ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ * के रचयिता आचार्य श्री सुप्रभ जी चौदहवीं सदी के धरतीभूषण थे।
यह अन्य अशातकर्तुक संस्कृत टीका से सयुक्त है। ग्रन्थ की । शैली अत्यन्त सरल व पारिभाषिक शब्दों की कठिनता से रहित है। इस शुन्य का अनुवाद हस्तलिखित प्रति से पूज्य आर्यिका श्री सुयोगमती : माताजी ने किया है।
परमपूज्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ने इस कृति की मार्मिक भूमिका लिखी है।
___ सहयोग राशि:- १५ रुपये २६. कषाय अय भावना :
दृष्टान्त शैली से भरपूर, अनेक छन्दों से अलंकृत, भाषा की। दृष्टि से अत्यन्त सरल, देवनागरी भाषा में मात्र ४१ छन्दो में लिखा गया । यह ग्रन्थ अत्यन्त श्रेष्ठ है। "यथा नाम तथा गुण " इस उक्ति को चरितार्थ । करने वाला यह ग्रन्थ साधकशिष्यों का अच्छा मार्गदर्शन करता है। इसके रचयिता श्री कनककीर्ति जी महाराज है।
परम पूज्य युवामुनि श्री सुविधिसागर जी महाराज ने इस ग्रन्थ का अतिशय सुन्दर अनुवाद किया है।
सहयोग राशि:- १०रुपये