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--निमितशास्त्रम् -- -
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(भद्रबाहु संहिता :- १४/२) 'अर्थात् :- प्रकृति के विपर्यास (विपरीत कार्य के होने) को उत्पात कहते हैं।
भट्टारक श्री कुन्दकुन्द जी लिखते हैं - प्रकृतस्यान्याभाय, उत्पातः सत्वनकधा स यत्र तत्र दुर्भिक्षं, देश-राष्ट्र-प्रजाक्षयः॥
(कुन्दकुन्द श्रावकाचार :-८/६) अर्थात् :- वस्तु या देश आदि के स्वाभाविक स्वरूप का अन्यथा होना उत्पात । - कहलाता है। वह उत्पात अनेक प्रकार होता है । वह उत्पात जहाँ पर होता है, वहाँ । पर दुर्भिक्ष, देश का विनाश, राष्ट्र और प्रजा का क्षय होता है।
महारक श्री कुन्दकुन्द जी के मतानुसार जहाँ पर देवों का आकार विकृत हो जाय, चित्रों में और धर्मस्थानों में देव-मूर्तियाँ भंग को प्राप्त होवे और जहाँ पर फहरती हुई ध्वजा ऊर्ध्वमुखी होकर उड़ने लगे, वहाँ
पर राष्ट्र आदि का विप्लव होता है । जलभाग, स्थलभाग, नगर और। । वन में अन्य स्थान के जीवों का दर्शन हो तथा श्रृगालिनी, काकादि है में आक्रन्दन नगर के मध्य में हो तो वे नगरविच्छेद के सूचक उत्यात हैं।
जिस देश में राजछत्र, नगर-प्राकार (परकोटा) और सेना आदि। का दाह हो तथा शस्त्रों का जलना और म्यान से खड्ग का स्वयं निर्गमन हो, अन्याय और दुराचार का प्रचार हो, लोगों में पाखण्ड की अधिकता हो और सभी वस्तुयें अकस्मात् विकृत हो जावें, उस देश का नाश अवश्य होता है।
इन्द्रधनुष दोषयुक्त दिखे, अग्नि सूर्य के सम्मुख हो, रात्रि में 9 और प्रदोष काल में सदा ढुष्ट जीवों का संचार हो तो वर्णव्यवस्था के है कारण से उपद्रव होता है।
यदि वृक्ष अकाल में फूलें और फलें तो अन्य राजा के साथ महान् युद्ध होता है । पीपल, उदुम्बर, वट और प्लक्ष (पिलखन) वृक्ष यदि । अकाल में फूलें और फलें तो क्रम से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण । के लोगों को भय होता है।
यदि वृक्ष में, पत्र में, फल में, और पुष्प में, क्रम से अन्य वृक्ष , अन्य पत्र, अन्य फल और अन्य पुष्प उत्पन्न हो तो लोक में दुर्भिक्ष आदि
का महाभय होता है।