________________
निमित्तशास्त्रम
करूंगा।
२:- एवं बहुप्पयारं गुप्पायपरंपराय णाऊणं । हरिसिपुत्तेण मुणिणा सव्वप्पियं अप्पगंथेण ।।१८७||
अर्थ :- इसतरह अनेक प्रकार से उत्पातों का स्वरूप मुझा अषिपुत्र मुनि ने स्व-बुद्धि के अनुसार इस छोटे से ग्रन्थ में बताये है। ग्रन्थकर्ता इस ग्रन्थ का नाम दव्वणिमित्तं मानते हैं। यह तथ्य द्वितीय गाथा के वोच्छं दव्वणिमित्तं इस चरण से ज्ञात होता है। ग्रन्थप्राप्ति का इतिहास:
ब्यावर चातुर्मास काके दिसम्बर १३०१ में मैं अजमेर पहुँना ! * अजयमेरु नाम से प्रसिद्ध यह शहर सांस्कृतिक विरासतों का मुख्य केन्द्र है। यहाँ भद्दारक परम्परा की गद्दी भी थी । विशाल जैनमन्दिरो से सम्पन्न इस शहर में अनेक प्राचीन ग्रन्थभण्डारों का दर्शन करके मन अतिशय सन्तुष्ठ हुआ।
अजमेर गया हुआ कोई भी व्यक्ति सोनी जी की नसिया से अपरिचित नहीं रह सकता । चाहे जैन हो या अज्जैन, सोनी जी की नसिया में स्थित अयोध्या नगरी की रचना को देखने के लिए अवश्य आता है।
उसी विशाल नसिया में एक विशाल ग्रन्थभण्डार (श्री सिद्धकूट चैत्यालय सरस्वती भण्डार) है। उसमें आधुनिक युग में प्रकाशित किये। गये कृतियों का संकलन तो है ही, साथ में हस्तलिखित पाण्डुलिपियों का भी संकलन है। ग्रन्थभण्डार इतना व्यवस्थितरूप में सुसज्जित था। कि उसे देखकर मन व्यवस्थापकों की प्रशंसा करने का लोभ संवरण ही न कर पाया।
उससमय इन्दरचन्द जी पाटनी उस ग्रन्थभण्डार की देखभाल करते थे। उन्होंने हमारी इच्छा का आदर करते हुए हमें एक-एक करके : * भण्डार में स्थित सारी हस्तलिखित पाण्डुलिपियों का दर्शन कराया । उन ग्रन्थों में हमें निमित्तशास्त्रम् नामक ग्रन्थ उपलब्ध हुआ । उसे
देखकर हमें बहुत आश्चर्य हुआ, क्योंकि तबतक हमारे लिए आचार्य श्री ५ अषिपुत्र जी महाराज का नाम अश्रुतपूर्व था । हमने ग्रन्थ को आधोपान्त