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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९)
अनुसन्धान – ७२
श्री हेमचन्द्राचार्य
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि
MARATodatcame Joranवितावालाबीवनपालावतारितश्रीशजयपासादवामत्तागविवाताहिकाषट्कमासिकाव्यानियथालिनीताडवमंडापदिसदाबियापकारिखताब | चाण किलाशमात पिकलयमागावीaraविचायत्मवत्समितीतगायनरकीयारिवानमिर्जगताविख्यातासनिरसचदमतमादावासादावाजिनः॥पापानाववाचकतन्नितिबाजाना शालिगेसीरतावापानमराती परिचय यायाश्त्यावयातादवारनकदेबकानिसमनापीतिसमानता /यनाशासियाज्ञातिरंबरतलदोडी विडिरिवाश्तवाजमिश्रवंटपा
यामिनदिवतमागणातिकमाइनिजकलकाविलासमनवडपसावतितम्मान समजानियवनयधीशमधमलीजालनंजीवा घराबातमस्पतस्पाजिमिषानांसारासामनामानोपनाबकतानवानिमावालाकानभातायामामपचरामस्यचानिन्नधणपनीतरीवनमालवचापाकपालीममवापत मीतयायस्पाविधिविश्वामध्यावायाजवंशवबाकलीनिनंदिनीविका।शारादिवविधारदाणातचयावराजाख्यामाध्यमविजयराविधालमिजणपालावाखवीवियत्रयी वातावमाकिमश्वराजपवित्रामविकानाधिकाकवायोनधिधनात्यवाश्रवणश्रवणबवावाधावयासवाजानरामामतनामावमा
अद्याप अवयवाथांचयनमधाजनिघुरामानंतनामानुमाप्तवानिरितिषशातचशिताम्मातबहाना । गाखतात त्सावासवदामनवासिनोमानानtaaसमत्वज्ञताधषणामतिराहामायधनपालनसपालामाहपालस्तस्पसनावाचवतालीकापचीकमाराठवा तिवरख्यातायामामखानाबशापवावधिविश्वकया विनीयासहाराजस्यता पामाबजावतमामाला2ऊमारावामितपीवचारसस्त्रनावामवनाकालोमोसांगार
काशवाटाबचाद्यानपामाशबाघलवानाणिकाशिधापतिकालाकालमनावावानदयरानाधावपालशनापारुषाववसातजीपाल श्रमनिक्षमहत्तीयवायति । अविनाममततावधारावलकावीर सपनीखवलस्पधरामाधानजालमा मायूचा नादवीसाहगावयन्न कारवयापाबालादबावधाकामादिमाममामादर्यशालालयानजनकोलामा "दव स्यमविणालाबनवा सुतायलसिसञ्चश्वापघडविधितिललितादवीयलातवस्यालसधिवस्याललितादिव्याजाता स्तनयनुजयतसिदारखावातमायालस्पक्षधाविनामावली पिया।अपात्यवकालावीणमिसावजीजनताशपवरघुवंशश्वामिनास्तालम्वतिपदमकिभखायवसीयतमिामासचिावद्धिारामलकापानिानाबिजायातपश्यातिवंशाधिकार : विक्रमश्यकालाबादमाज्ञानमित्तसमवन्तनिकाचतानामसाविकमासिका।दारस्पचुलायसन्यापुरनगश्यामहिलाधम्कामानिक्षार्मिक श्रीमाभाववानिवपाका विविधमानविक्ष मलामामा सामेशवजयगिरोसूचीमंत्रमंत्वसंज्ञितामाकलितिरकारीकारयामास की नामीबिकाबालाकमावाबनवान्नसाबानामसारवतताधीकारामांचित्यमन्तवयत
तंतनकातीनाथकावात्यतात्रेवकारिताका तमिलनायकनिनववीजामिनयमिजबंधानिजम्नतीमावतवाचितश्रीजयतलावव्याधीवारजपालमामानिजमाचीसवंगकनिय पालबममरचयावकारावामानमात्मानुजमध्य श्रेज विश्राणितश्राविदिवामिक्षामाधाममनीयाममयाशष्टयतिधपूर्तिघटयाचकारनिविवर्मविधचामासका बावर्णित
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
2017
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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू(ठाणंगसुत्त, ५२९)
'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
अनुसन्धान प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक सम्पादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
|| ७२
सम्पादक:
विजयशीलचन्द्रसूरि
HIRHIT H
AITRINA
6000D
श्रीहेमचन्द्राचार्य कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद २०१७
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अनुसन्धान - ७२ आद्य सम्पादक : डॉ. हरिवल्लभ भायाणी सम्पादक : विजयशीलचन्द्रसूरि सम्पर्क: _C/o. अतुल एच. कापडिया
A-9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ, अमदावाद-३८०००७ फोन : ०७९-२६५७४९८१
E-mail:s.samrat2005@gmail.com प्रकाशक : कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम
जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि,
अहमदाबाद प्राप्तिस्थान : (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्यायमन्दिर
१२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां, अमदावाद-३८०००७
फोन : ०७९-२६६२२४६५ (२) श्रीविजयनेमिसूरि ज्ञानशाला
शासनसम्राट् भवन, शेठ हठीभाईनी वाडी, • दिल्ही दरवाजा बहार, अमदावाद-३८०००४ (३) सरस्वती पुस्तक भण्डार
११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१
फोन : ०७९-२५३५६६९२ प्रति : 250 मूल्य : ₹130-00 मुद्रक : क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल
९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-३८००१३ (फोनः ०७९-२७४९४३९३)
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निवेदन
थोडा समय पहेलां एक दरखास्त उपस्थित थई : जैन इतिहास लखवो जोईए; तमे लखो; तमारा नेतृत्व हेठळ एक जूथ रचीने जैन इतिहासना प्रमाणभूत सो ग्रन्थो तैयार करो.
दरखास्त रजू करनारा लोकोनो आशय कांईक आवो हतो : बीजाओ तरफथी जैनोने अने जैन इतिहासने घणो अन्याय थयो छे; जैन इतिहासनी घणी बाबतोने ढांकी के दाटी देवाई छे, अने घणी बाबतो बीजाओना नाम पर चडी गई छे. आ बधानी खोजबीन करीने जैनोनी वातोने प्रकाशमां आणवी जोईए, जेथी जैन धर्मनुं गौरव वधे.
अलबत्त, आमां, जे सैकाओथी चाली आवती, परम्परागत मान्यताओ, भले ते जनश्रुतिमात्र होय के पछी इतिहासकारोनी दृष्टिए खोटी पुरवार थई के थती होय, तेने तो निर्विवाद के निःसन्दिग्ध इतिहास ज गणवानो. एमां पुरातत्त्व, शिलालेखो, भाषाशास्त्र, इतिहास - आ बधी दृष्टिए ते मान्यता खरी न ऊतरती होय तो पण तेने ऐतिहासिक अने प्रमाणभूत तथ्य तरीके स्वीकारीने ज चालवानु, ए पायो तो पाको ज हतो, एमना मनमां.
अने आपणे जाणीए छीए के दन्तकथाने कोई इतिहास नथी गणतुं, अने दन्तकथा-लेखकने कोई इतिहासकार नथी गणतुं.
· इतिहास आलेखवो होय तो पहेलां तो जे विषयनो इतिहास लखवो होय ते विषयने तेना कालानुक्रमे साङ्गोपाङ्ग जाणवो पडे. दा.त. जैन इतिहास लखवो छे, तो तेना अढी हजार वर्षनां अधिकृत अनेक शास्त्रो-ग्रन्थो, अभिलेखो, कथाओ अने दन्तकथाओ, पौराणिक तेमज ऐतिहासिक गणाता लोकोनां चरित्रोकथानको, तेमज आ बधांय विषे वीतेली सदीओमां के दायकाओमां, देशविदेशमां, विभिन्न दृष्टिकोणोथी, जे अध्ययन-संशोधनादि थयां होय ते बधांनो परिचय मेळववो पडे. पछी तेने अनुषङ्गे बौद्ध आदि धर्म तथा दर्शनना साहित्यअवगाहन करवू पडे. पछी देश-विदेशना अनेक इतिहासकारो तथा पुरातत्त्वविदोए पोताना ते ते विषयना अभ्यास दरमियान आ-जैन-विषय विषे जे पण तारणो-संशोधनो नोंध्यां होय, ग्रन्थो के शोधपत्रो व. लख्या होय, ते बधांनुं
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अवलोकन करवू पडे. अभिलेखो, मूर्तिलेखो पण उकेलवा पडे. आटलुं बधुं करीए त्यारे कदाच इतिहास लखवा जेटली भूमिका रचाय तो रचाय.
आटली मथामण कर्या पछी, तेनी - इतिहास लखवा मथनारनी दृष्टि उघड्या विना न रहे. तेनी श्रद्धा विशद जरूर बने, पण तेनी अन्धश्रद्धा तेम ज भ्रमणा तो खरी ज पडे. फलतः आवो मनुष्य ज्यारे इतिहास लखशे त्यारे तेमां परम्पराथी चाली आवती अनेक भ्रान्त मान्यताओ, चमत्कारिक कथाओ, कालव्यत्यय तथा नामो वगेरेना गोटाळा इत्यादि कारणोसर सर्जायेली गुंचो, आ बधुं ते टाळशे, तेणे टाळवू ज पडशे, अने ए रीते ए इतिहासनी फरते वीटळाई वळेला केटलांय आवरणोने ते हटावी देशे.
स्वाभाविक रीते ज, व्यापक समाजने अने तेना लोकप्रिय नेताओने आ मान्य न होय. भ्रमणाओने छोडवी ए तो धर्मने छोडी देवा जेवू विकट काम ! इतिहास जो 'जैन' होय, तो आ भ्रमणाओने पण 'जैन भ्रमणा' तरीके ज गणवानी रहे !
संशोधन हमेशां भ्रमणाओनो भांगीने भूको करनारो पदार्थ छे. 'जैन' भ्रमणा छे माटे तेने न तोडाय, तोडवाथी मिथ्यात्व चोंटे - एवा विकल्पने संशोधन स्वीकारतुं के पोषतुं नथी. परम्परावादी समाज तरफथी विरोध अने त्रास खमवो पडशे - एवा भयथी, संशोधन, भ्रमो साथे तडजोड करतुं नथी. जैन इतिहास ए जैन पांऊभाजी जेटलो सामान्य, सरल अने चटाकेदार पदार्थ नथी, तेनो तेने पूरो ख्याल होय छे.
आथी ज, जैन इतिहासमुं आलेखन ए कोई एक-बे व्यक्तिओना वशनी वात नथी. अभ्यासी, सुसज्ज अने इतिहासज्ञ व्यक्तिओनुं एक जूथ (Team) एकत्र मळे, अने निर्मम तटस्थभावे मूल्याङ्कन करतां जईने एक प्रामाणिक तथा प्रमाणभूत इतिहास सर्जे-आलेखे, आलेखवानी खेवना राखे, तो उपरोक्त दरखास्त सार्थक बने.
___ बाकी, दरखास्तो मूकवामां ज इतिहास रची दीधानो तथा इतिहासनी सेवा कर्यानो ख्याल जो प्रवर्ततो होय, तो भविष्यमां ज्यारे पण, जो इतिहास खरेखर लखाशे, तो, त्यारे तेनी नोंध अवश्य लेवाशे.
- शी.
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आवरणचित्र विषे प्रस्तुत अङ्कमां श्रीबालचन्द्रसूरि-विरचित वस्तुपालप्रशस्ति-काव्य प्रगट थयुं छे. ते काव्यनी प्रतिनुं पानुं प्रथम आवरण पर आप्युं छे. गिरनारतीर्थ परना, वस्तुपाल-तेजपालना देरासरमा छ प्रशस्ति लेखो उत्कीणित होवानुं अने आ प्रशस्तिकाव्यनी प्रति ते लेखोनी ज प्रतिलिपिरूप होवार्नु सम्पादकोए नोंध्युं छे. आ प्रति प्रण १५मा सैका जेटली पुरातन होय एम अनुमान थाय छे.
चोथा आवरण पर आवेल छबी, गिरनारना वस्तुपालनिर्मित जिनालयमा वर्तमानमां पण जे ते वखतना प्रशस्तिलेखो मोजूद छे, तेमांना एक लेखनी छे. त्रण-चार लेख-शिलाओ त्यां उपरनी दीवालोमां लागेली छे तेमांनी आ ओक छे. जो के ते लेखने अत्रे सम्पादित-प्रकाशित प्रशस्ति साथे कोई सम्बन्ध होय एम जणातुं नथी. बन्नेनी वाचना अलग अलग जणाई छे. ते लेख क्यांय प्रकाशित थयो होय तो बनवाजोग छे. त्यां अन्य पण, घसायेला तथा खण्डित थयेला लेखो छे, अने ते बधा वस्तुपालना समयना ज छे, ते बहु महत्त्वपूर्ण बाबत छे.
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सम्पादन
विज्ञप्तिका (अपूर्णा)
वस्तुपालसम्बन्धी २ प्राचीन ऐतिहासिक प्रशस्तिओ
स्वाध्याय
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तत्त्वबोधप्रवेशिका - ३ वेदों का अपौरुषेयत्व
ओक भ्रष्ट पाठे सर्जेली समस्या
विहंगावलोकन - अङ्क ७०
विहंगावलोकन-अङ्क ७१
माहिती :
अनुक्रम
- सं. मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय
गूढा - प्रहेलिका- समस्या - हरियाली
श्रीमानसागर - विरचित आषाढाभूति सतढाळियो
- सं. मुनि सुयशचन्द्रविजय गणि मुनि सुजसचन्द्रविजय - सं. उपा. भुवनचन्द्र
- सं. प्रा. अनिला दलाल
- मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय
- मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय
-
उपा. भुवनचन्द्र
उपा.
भुवनचन्द्र
डो. सागरमल जैनने 'हेमचन्द्राचार्य-चन्द्रक’
डो. भारतीबेन शेलतने 'श्रीपुण्यविजयजी - चन्द्रक'
3
१०
६५
८८
१०१
११५
११९
१२३
१३२
१३३
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विज्ञप्तिका (अपूर्णा)
- सं. मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय
देवेन्द्रसेवित... थी शरु थता वसन्ततिलका छन्दना एक ज श्लोकना विविध अर्थो द्वारा प्रभुनी विज्ञप्तिस्वरूप आ रचना छे. कर्ताए ए एक ज श्लोकना विभिन्न पदच्छेदो-अर्थो दर्शावीने सामान्य जिन अने वर्तमान चोवीशीना २४ जिन एम कुल २५ जिननी एक साथे स्तुति करी छे. कर्ता दरेक जिननुं नाम जे रीते श्लोकमांथी काढी आपे छे ते खरेखर रसप्रद छे. स्तुतिगत विशेषणोना अर्थो पण नवा नवा नीकळता ज रहे छे. समग्रपणे जोतां कृति आपणा मन पर कर्ताना वैदुष्यनी छाप अङ्कित करी आपे तेवी सक्षम छे.
कृतिना कर्ता, रचनासमय व. बाबतो पुष्पिकाना अभावे जाणी शकाई नथी. श्रीशीतलनाथनी स्तुति सुधीना कुल ११ अर्थो जेटली ज कृति (हस्तप्रतनां ४ पानां) उपलब्ध थई छे. हस्तप्रतनी वाचना घणी ज अशुद्ध छे.
___ हस्तप्रत श्रीवीरसूरीश्वरजी ज्ञानमन्दिरनी छे. जेनी Xerox सुश्रावक श्रीबाबुलाल सरेमल शाह - साबरमतीना सहयोगथी प्राप्त थई छे.
देवेन्द्रसेवित! विपापयुगाऽदिनाथ!,
विश्वारिभीरणभरैरपराजित! स्तात् । नेतः! श्रियां परपदाश्रय! शं भवान् मे,
श्रीवीतराग! शमितान्तिनिवारकाख्य! ॥ विज्ञप्तिकायामत्र ॐ नत्वा इति पूर्वं व्यावर्ण्यते । तत्र प्रथममिष्टदैवर्ते(देवतायै) नमस्कृतिरूपः अनन्तसङ्ख्यात्मकसर्वसाधारणश्रीजिनस्तुतिविशेषो खते(लिख्यते) यथा -
हे देवेन्द्रसेवित!, दीव्यन्ति- क्रीडन्ति अप्सरोभिः सह [इति] देवाः चतुर्विधाः, तेषामिन्द्राः- स्वामिनो महदैश्वर्यधराश्चतुःषष्टिसङ्ख्या वासवास्तैः, अथवा देवाश्च इन्द्राश्च देवेन्द्रास्तैः सेवित! । हे विपापयुग!, विगतं पापस्य युगं यस्माद् भवतः स विपा०, तस्य सम्बोधनम् । हे अदिनाथ!, दं- कलत्रं विद्यते येषां
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अनुसन्धान-७२
ते दिनः, नैकाक्षरार्गिद(दि)ति(?) सूत्रेण अत्र इन्-प्रत्ययस्य एकाक्षरशब्दादघटमानत्वेऽपि 'विशेषे बहुल'मिति सूत्रप्रामाण्याद् लक्षणस्य बहुविविधप्रयोगगरिष्टत्वाद् इन् समेति न दोषः । इति अन्यत्राऽपि ज्ञेयम् । न दिनः अदिनः परिग्रहारम्भरहिता यतय इत्यर्थः । तेषां नाथ! । हे विश्वारिभिः रणभरैः अपराजित! विश्वे- समस्ता बाह्याभ्यन्तररूपाः काम-क्रोधादयोऽरयो
वैरिणस्तै रणभरैः- सङ्ग्रामभरैरनभिभूत! । अथवा विश्वारिभिः साकं रणभरैरपराजित! । हे नेतः!- स्वामिन्! । हे श्रियां- बाह्याभ्यन्तराणां पर-पदाश्रय!प्रकृष्टपदस्थान! । हे शमितान्तिनिवारकाख्य!, शमिनो- यतयस्तेषां तान्तिनिवारका आख्या यस्य ते, तस्य सम्बोधनं हे शमि० । एवंविधगुणोत्तम! हे श्रीवीतराग!, भवान्- त्वं मे- मह्यं शं- सुखाय स्तात्- भव इति वृत्तेक्ष-(त्ताक्ष)रार्थः ॥१॥
अथ वर्तमानचतुर्विंशतिजिनवर्णनमया नमस्काराः क्रमेण विविधपदयोजनाभिलिख्यन्ते । यथा - देवेन्द्रसेवित! विपाप! युगादिनाथ!,
विश्वारिभीरणभरैरपराजित! स्तात् । नेतः! श्रियां परपदाश्रय! शं भवान् मे,
श्रीवीतराग! शमितान्तिनिवारकाख्य! ॥ व्याख्या - हे देवेन्द्रसेवित!, इह देवशब्दस्याऽनेकेऽर्थाः सन्ति । यतः दिवूच क्रीडा १ जयेच्छा ३ पणि ४ द्युति ५ स्तुति ६ गतिषु ७ । दीव्यन्तिक्रीडन्ति अप्सरोभिः सममिति । दीव्यन्ति- जयन्ति दानवादीनपरानपि प्रतिपक्षान् मानवोनयिवा (मानवान् यौवन-)रूप-लावण्या-ऽमृताहारा-ऽजरत्वा-ऽऽरोग्याऽत(नि)मिषता-कान्तिप्रभृतिगुणैरिति देवाः । दीव्यन्ति- इच्छन्ति सुरसम्बन्धिवृत्त्यादि सुखंद्रा(सुरेन्द्रा)देशं केचित् सम्यग्दृशो जिनदर्शनं बोधिबीजं मानुष्यभवं समवसरणरचनादि जैनवैयावृत्त्यं वेति देवाः । दीव्यन्ति- व्यवहरन्ति देवसम्बन्धितदुचितव्यापारैरिति देवाः । दीव्यन्ति- उत्पत्तिमारभ्य आ जीवधारणावधि द्युतिभाज एव भवन्ति देवाः । तथा दीव्यन्ति- स्तुवन्ति जिनादीन् महर्षीन् स्वस्वामिनो वा देवाः । पुनर्गच्छन्ति अर्हदादीन् नन्तुं तत्कल्याणिकमहं शासने महतां साधूनां सांनिध्यं वा कर्तुं शक्रादीनां सेवनां वा स्वस्वामित्वात् शरणं वा । अथ गच्छन्तिप्राप्नुवन्ति आमरीसम्पदं सुखश्रेणिमिति देवाः । तथा देवशब्दस्य अपरधातुभि
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जून
र्निष्पत्तेरपि सर्वत्राऽत्राऽर्थानामपौनरुक्त्यं ज्ञेयम् । हे विपाप !, विगतं पापं यस्मात् स वि०, तस्याऽऽमन्त्रणं हे वि० । हे विश्वारिभीरणभरै: ०, अरि (रीणां भीर्भयमरिभीश्च रणभराश्च अरिभी०, विश्वे च तेऽरिभी० विश्वारिभीरणभरास्तैरपराजित! । हे श्रियां नेतः । प्रापक!, भक्तानामिति गम्यम् । हे परपदाश्रय!, परे प्रकृष्टे पदे- निर्वाणस्थाने आश्रयो यस्य स०, तस्य सं० । हे शमि०, प्राग्वत् । हे श्रीवीतराग!, वीतो रागो यतो भवतस्तस्याऽऽमन्त्रणम् । य ईदृग्गुण: हे श्रीयुगादिनाथ! भवान् मे शं स्तात् । इति श्रीऋषभः ॥२॥ देवेन्द्रसेवित ! विपाप ! युगादिनाथ !,
विश्वारिभीरणभरैर ! पराजित ! स्तात् । नेतः! श्रियां परपदाश्रय! शं भवान् मे, श्रीवीतराग! शमितान्तिनिवारकाख्य ! ॥
२०१७
३
व्याख्या आद्यविशेषणद्वयं पूर्ववत् । हे युगादिनाथ!, विद्यते दोदानं परकृतशंदायको वा येषामथवा दा- दानं परसूत्रितं दाता वा विद्यते येषां ते दिनः । दकार-दाकारयोरपि एतदर्थवर्तिता नामकोशोक्ताऽस्ति । क्वचित् क्वचित् भिन्नार्थतया ग्राह्यमपुनरुक्ततायै । न दिनः अदिनः, परैरदत्तधन्याद्यर्थाः कृतसारा: अत एव दौःस्थ्यभाजः, एते एव दीना जना इति भावार्थ: । युग (गे) कृतादौ अदिनः युगादिनः, एतदजितायुषि बाहुल्यात (ल्याद्) बहुयुगातिक्रमः अभूत्, तेन युगचतुष्कस्याऽपि ग्रहणमादिशब्देन । युगादीनां नाथः युगा०, तस्य सं० हे यु० । हे विश्वारिभीरणभरैर!, अश्वे- कल्याये (कल्ये?) अरयः असामर्थ्येऽपि सन्मुखभषणपरत्वात्, यतः शास्त्रे शुनामीदृक्स्वभावदृढता(त्वा)त् (?), यत: "एजइ मंडलेण भसियं" इत्यादिप्रामाण्यात् । श्वकल्या(?) अरयः, भीर्भयं सप्तविधं, रणभरो- युद्धभरस्तेषामा- सामस्त्येन इ[:] - खेदः, पर(ए?):- काम:, श्वारयश्च भीश्च रणभराश्च एवरश्च ( ? ) श्वारिभिरणभरैराः, वि- विगताः श्वारिभीरणभरैरा यस्मात् स वि०, तस्य सं० हे विश्वारिभीरणभरैर! | अत्र अव्यया-: - ऽनव्ययशब्दयोर्मिश्रभजने समासेऽनुचितं मन्यन्ते केचित् । परं बहुलमिति प्रयोगवशाद् भवति एव, तथापि महत्कवीन्द्रप्रणीतग्रन्थेषु दृष्टत्वादानीतमस्ति, [न] दूष्यम् । हे पर!- ईदृग्गुणश्रेष्ठ! । हे अजित ! - हे अजितनाथ! जिन ! । भवान् मे शं स्तात् ||३||
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अनुसन्धान-७२
देवेन्द्रसेवित! विपाप! युगादिनाऽथ,
विश्वारिभी रणभरैरपराजित! स्तात् । नेतः! श्रियां परपदाश्रय! शम्भवाऽऽन्मे,
श्रीवीतराग! शमितान्तिनिवारकाख्य! ॥ [व्याख्या -] हे देवेन्द्रसेवित!, हे विपाप!, हे अपराजित!अपराभूत!, केन? युगादिना, परतीर्थसम्बन्धिदेवेनेति गम्यम् । जात्येकवचनं, युगेषु कृतादिषु, अः कृष्णः, अ ब्रह्मा, तदादिपरशासनीयैर्देवत्वमुद्राचिह्नगणादिभिर्न निराकृत इति तत्त्वम् । अथ अन्तरार्थे । कैः ? विश्वारिभिर्विश्वैः समस्तैर्वैरिभिः । पुनः कैः? रणभरैः, यतो भगवतस्तु सिद्धिं समेतस्य अभिभवं विधातुं न समर्था एव ते। हे परपदाश्रय!, हे श्रीवीतराग!, हे इतान्तिनिवारकाख्य!, इ:- कन्दर्पः, तान्तिः- ग्लानिस्तन्निवारका आख्या यस्य स इ०, तस्याऽऽमं० । हे शंभव!, हे श्रियां नेतः! । श्रीकारवन्निति ना(भा?)वः । बहुवचनं भृशार्थबाधकं जिनेन्द्रस्य श्रीकारवर्णनं भृशमेव जाघटीति । इयताऽऽह - श्रीशंभवजिन! त्वं मे शं स्तात् । किंलक्षणस्त्वम् ? आद्- आ- तापो भवसम्बन्धी तं अत्ति इति आद् । तन्निवारक इत्यभिप्रायः ॥४॥ .
देवेन्द्र! सेवित! विपापयुगाऽदिनाथ!,
. विश्वारि भीरणभरैरपराजित! स्तात् । नेतः श्रियां परपदाश्रय! शं भवान्मे,
. श्रीवीत! रागशमितां ति निवारकाख्य! ॥ [व्याख्या -] हे देवेन्द्र! तत(देवतति?)सेवित!, पूजितत्वात् । हे विपापयुग!, विगतः पापोपलक्षितो युगः- कलियुगो यस्मात् स विपापयुगः । हे अदिनाथ! डुर्दा च्छेदबन्धयोरिति दाशब्देन च्छेदोऽङ्गोपाङ्गादीनां सापराधत्वेन राजादिकृतः अथवा बन्धो रज्ज्वादिभिः न विद्यते येषां तेऽदिनोऽर्थाद् देवा वैक्रियशरीरित्वेन तदयोग्यत्वात् तेषां नाथः । अत्र देवे० एतद्विशेषणस्याऽस्य समानार्थत्वेन दूषयिष्यन्ति केचित् परतन्त्रदेवेन्द्रा वा सर्वसवाऐवा(?) ग्राह्या, अत्र देवा, देवैरपि इन्ट्रैरपि मानिता इति ज्ञेयम् । एवमपुनरुक्तिः । हे अपराजित!, कैः? भीरणभरैः, कथम् ? यथा स्यात् विश्वारि, विगत[:] श्व(श्वा)कल्यारि यथा भवति क्रियाविशेषणमिदं, प्रनष्टारे! इति भावं(वः) । हे नेतः!।
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जून २०१७
हे श्रियां प० । हे रागशमिताईत (तामित) !, रागस्य शमो विद्यते यस्य [स] रागशमीनो (०शमी, तस्य) भावः रागशमिता, भावे तल् प्रत्यय:, तां प्राप्त[:], नीराग इति भावः । अथ नामारोपणा हे तिनि ( हे नि )वारकाख्य!, नितरां वार:- समूहो यस्मिन् तद् निवारं प्रचुरमिति तत्त्वं निवारं प्रचुरं कं- सुखं यस्याः सा निवारका, निवारका आख्या यस्य सः, तस्याऽऽमन्त्रणम् ० । ति । सिद्धहेमे परपदाश्रय!, मकारपरः प्रकृष्टः स्याद्यन्तादिपदाश्रयो यस्य यत्र वा सा 'मति' जातम् । हे सेवित!, सकारस्य :- शोभा यस्मिन् स से:, सेर्य उस्तमित[:]- प्राप्त[:] प्रकार उच्चारहेतुः सुयुक्त इति भावः । सुमति । हे श्रीवी!, श्रीकारो विशेषेण ई- प्रत्यक्षो यत्र स०, तस्याऽऽमं०, आमन्त्रिणी सि, अव्ययत्वाद् लुप्। इयताऽऽह श्रीसुमति इति सुखदायकाख्य! जिन ! भवान् शं स्तात्, भक्ताना-मिति गस्य (गम्यम् ) ॥५॥
-
"
देवेन्द्रसेवित! विपापयुगा ! दिनाऽथ,
विश्वारि भी ! रणभरैरपराजित! स्तात् । नेतः ! श्रियां परपदाऽऽश्रय ! शं भवान्मे,
श्रीवीत ! रागश! मिताऽन्तिनिवारकाख्य ! ॥
-
व्याख्या
I
हे दिन!, दकारो विद्यते यस्याऽसौ दी, इन्प्रत्ययः, दी चाऽसौ नश्च दिनस्तस्य सम्बो०, पदेने (दिने ) ति निष्पन्नम् । हे मित!, मकारं प्राप्त! । हे नेत!, 'न' इति वर्णेन ई- प्रक्षा (ख्या) ता शोभा यस्मिन् स नेतस्तस्याऽऽमन्त्रणम् । नम्दन, 'तौ मुमोर्व्यञ्जने स्वौ', अनुस्वारः, 'नन्दने' ति सिद्धम् । हे भी!, भि- इत्यक्षरम् ई- सन्निधौ यस्य स भी, तस्य सं०, आमन्त्रिणी सि, अव्ययत्वाद् लुप् । 'भिनन्दनं' जातम् । हे आश्रय !, अकारस्य आश्रयो यत्र स०, 'अभिनन्दन 'रूपसिद्धिः । हे श्रीवीत!, श्रीकारं विशेषेण प्राप्त ! । हे श्रीअभिनन्दनजिन ! भवान् मे शं स्तात् इति क्रियासम्बन्धः । अथाऽऽमन्त्रणेन विशेषणानि हे देवेन्द्रसेवित!, हे विपापयुगा !, विगत: पापयुगो बहुपापप्रवृत्तिमयो युगः कलियुगस्तस्य य आ:- सन्तापो यस्मात् स०, तस्य सम्बोधनम् । जिनातिशयाद् दुष्टयुगचेष्टितं न बाधते इति भावः । अथ आनन्तर्यार्थः । हे विश्वारि यथा भवति तथा । रणभरैः अपराजित! रणे भादीप्तिर्येषां सामर्थ्यगर्वप्रोद्भूतोत्साहादकातरत्वेन, रणभाश्च ते राश्च रणभरास्तैः
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६
अनुसन्धान- ७२
सुभटनरैरनभिभूत! । हे श्रियां परपद ! । हे रागश!- रागोच्छेदक! । अन्तिनिवारकाख्य!, अन्ती - संसारान्तवान्, सिद्धत्वं प्राप्त इत्यर्थः, निवारकाप्रचुरसुखकरा आख्या यस्य स०, अन्ती चाऽसौ निवारकाख्यश्च विशेषणद्वयकर्मधारयः ॥६॥
देवेन्द्रसेवित ! विपा ! पयुगाऽऽदिनाऽथ,
विश्वारिभीरण ! भ ! रै रपराऽजित ! स्तात् । नेतः ! श्रियां परपदाश्रय! शं भवान्मे,
श्रीवीत! राग! शमितान्तिनिवारकाख्य ॥
व्याख्या हे भ! हे रपरोऽग्रेतन: रपरस्तस्य सं०, 'रभ' सिद्धम् । हे विपा !, विशेषेण पकारस्य आ- अवधारणं यस्मिन् स० सं०, 'प्रभे 'ति जातम् । हे मे!, मकार ई- समीपे यस्य स 'मप्रभ' इति रूपव्युत्पत्तिः । हे आद्!, आ- सामस्त्ये वाक्ये वा द्- दकारो यस्मिन् स० । 'द्मप्रभ' निष्पन्नम् । हे पयुग ! - पकारयुक्त!, 'पद्मप्रभ' । हे श्रीवीत ! । इयता श्रीपद्मप्रभजिन! भवान् शं स्तात्, 'त्वदाराधकाना' मित्युक्तियुक्तिः । हे दे०!, हे इन ! - स्वामिन्! । अथोऽनन्तरतायाम् । हे विश्वारिभीरण!, श्वकल्यारिभीस्तया ईरणं– कम्पनं श्वारिभीरणं, विगतं श्वारिभीरणं यस्मात् स० । हे रै:- अपरैः सामान्यनरैः अजित!, अतुलबलत्वात् । हे श्रियां नेतः ! । हे परपदाश्रय! | हे राग!, रं- कामं न गच्छति - न प्राप्नोति - न तदाश्रयवशमेति रागः, कामविक्रियाऽबाधित इति भावः । हे शमितान्तिनिवारकाख्य ! । इति वृत्तार्थ:
॥७॥
1
देवेन्द्र! सेवित! विपापयुगाऽदिनाथ!,
विश्वारिभीरणभरैरपराजित! स्तात् ।
नेतः! श्रियां परपदाश्रय! शं भवान् मे,
श्रीवीतराग! शमिताऽतिनि! वाऽर ! काख्य ! ॥
हे व! | शमित! - शकारं प्राप्त!, 'श्व' सिद्धम् । हे काख्य!, केनसुखेन- अप्रयासेन आख्या - प्रकथनं यत्र स० । कस्य ? अरः, अरइति वर्णविज्यासस्य अर:(?) । अत्र " नाऽनुस्वारविसर्गौ तु चित्रभङ्गाय सम्मतौ' इति शास्त्रप्रामाण्या [दनुस्वार - ] विसर्गयोर्न दोषः । इह बह्वर्थाविर्भावनं चित्रं
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जून - २०१७ ज्ञेयम् । 'अर्वे'ति निष्पादितम् । हे अर्श्व! किंविशिष्टरूपम् ? विपापः, विशेषणं(विशेषेण) पकारस्य आपः प्राप्तिर्यत्र स विपापः, प्रथमैकवचनं सि, सौरुः सररार्यरयस्वार वा ('सो रुः' - स → र, 'रोर्यः' - र → य, 'स्वरे वा') अत्र सूत्रे विकल्पसद्भावात् न यलोपः, पअर्श्व, 'समानानां तेन दीर्घः', 'पार्श्व' निष्पन्नम् । हे उग!, उकारं गच्छति ई (इति) उगस्तस्या० । उपार्श्व । हे सेवित!, सस्य इ:- शोभा, तस्या ऊ- रक्षणं इत- प्राप्त!, अकार उच्चारणार्थः, सयुक्त इत्यर्थः । 'सुपार्श्व' सिद्धम् । हे देवेन्द्र! । हे अदिनाथ!, दाशब्देन च्छेदः, छ(?)विना तथा एकेन्द्रियवनस्पतिपत्रपुष्पफलादीनां न विद्यते येषां षड्जीवनिकायारम्भप्रत्याख्यानेन सर्वतो विरतत्वात्, अथवा दा बन्धनं स्त्रीपुत्रपौत्रगृहधनधान्यसुवर्णादिपरिग्रहविमोहितत्वेन अथवा बन्धों राजाद्यादेशवर्तित्वलक्षणः, यतः "स्वैरं विहरति स्वैरं शेते स्वैरं च जल्पति" इति वचनात्, पुनरप्यबन्धः कर्मणा न विद्यते येशं ते अदिनः, यद्यपि सिद्धिगमनं विना कर्मणामबन्धकत्वं न स्यात्, परं तथाप्यनारम्भित्वेन सर्वनिवृत्तः बन्धस्य अल्पतेया(अल्पतया) असत्तैव विशेष्यते यथा - सदसत्संशयगोचरो दोरी(?) इति वर्णनवत्, इयताऽदिनः छेदबन्धरहिता यतय एव तेषां नाथ! । हे विश्वा० अपराजित! । हे श्रियां नेतः! । हे परपदाश्रय! । हे श्रीवीतराग! । भवान् मे । अतिनि, अतिक्रान्तक्षयमक्षयं यथा स्यात् । इति वृत्तार्थः ॥८॥ देवे द्रसेवित! विपाऽपयुगाऽऽदिनाथ!,
विश्वारिभीरणभ! रै र! परा! जितः स्तात् । नेतः! श्रियां परपदाश्रय! शं भवान्मे,
श्रीवीत! रागश! मिताऽतिनिवारकाख्य! ॥ व्याख्या - हे भ!। हे रैर रकारस्य परः आ सामस्त्येन इरणं- प्रापणं यत्र स रैर(?), तस्य सं० । 'रभ' इति रूपनिष्पत्तिः । हे विप!, विशेषेण पः पकारो यत्र तत् । अकार उच्चारणप्रयोजनपरः । हे द्रसेवित!, द्रयुक्त!। 'द्रप्रभ'सिद्धिः । हमव (हे मित! ?), म्-इत्यक्षरं प्राप्त! । हे आदिनाथ!, कस्मात् ? जितः, जो जकारः समीपे एकवर्गे वा विद्यते यस्य स जी इत्यर्थः, तस्मात् जितः, पञ्चम्यास्तस्, “नाम सिदय्व्यञ्जने" - पदसञ्जा, "नाम्नो नोऽनह्नः" इति सूत्रेण जिन्-नलुप् जितः, जकारादादौ नं- ज्ञानं यस्य स
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अनुसन्धान-७२
आदिनः, अर्थाच्चकार एव, तस्य आ- अवधारणे थो- रक्षणं यस्मिन् स आदिनाथस्तस्याऽऽमन्त्रणं - हे आ० । चन्द्रप्रभ । "तौ मु०" - अनुस्वारः । हे श्रीवीत!, श्रीकारं विशेषेण प्राप्त! । 'श्रीचन्द्रप्रभजिन' नाम निष्पन्नम् । हे अपंयुग!, अपगतो युगः कलियुगो यस्मात् स, तस्य सं० - हे अ०, भवत्प्रभावात् कलिकालकल्पिता(त)दुष्टचेष्टितानि न स्युः इति तत्त्वम् । हे विश्वारिभीरणभ!, विगत(ता) स्वतुल्य(श्व कल्य?) वैरिभयकम्पना भादीप्तिर्यस्य स विश्वारिभीरणभः तस्या० । हे परा!, परं- प्र[कर्षेण] आस्मरणं यस्य स परा, तस्य सं० । अव्ययम् । कस्मितः(कस्मिन्) ? देवेसुरे, जात्येकवचनं, देवानां स्मरणीय!- पूजनीय! इति तत्त्वम् । हे श्रियां नेतः!, हे परपदाश्रय!, हे रागश!, प्राग्वत् । हे अतिनिवारकाख्य!, अति- अत्यर्थं निवारका- प्रचुरसुखकरा आख्या यस्य सः, त्वन्नामग्रहणेनाऽपि सुखसम्पदः स्युः । भवान् मे शं स्तात् ॥९॥ देवेन्द्र! से! वित! विपापयुग! आदिनाऽऽथ!,
विश्वारिभीरणभरैरपराजित! स्तात् । नेतः! श्रियां परपदाश्रय! शं भवान्मे,
श्रीवीतराग! शमितान्तिनिवारकाख्य! ॥ व्याख्या - हे आदिनाथ!, आदिन! आथ!, आदिर्नाद् यः स आदिनो धकारः, आकारस्य थो- रक्षणं समीपवर्तित्वेन यस्मात् स आथ, इकार एवेत्यर्थः । आदिनात् आथः आदिनाथ, तस्य सं० हे आ० । धकारात् पुरः इः, धइ, अवर्णस्याएतेनस्युन्नेण एत्वम् (?), एतावता हे धे! । हे वित!, विवर्णस्य ता- शोभा यत्र स वितस्त० । 'विधे' सिद्धम् । हे उग!, उकारं प्राप्नोतीति उगस्तत्स० । उविधे । हे उविधे! किंलक्षणस्त्वम् ? इ- प्रत्यक्षः, केन ? सा, र(स)कारेण । 'सुविधे' इति जातम् । भवान् मे शं स्तात् । कथम्भूतो भवान् ? विपाप:- पापरहितः । हे देवेन्द्र!, हे विश्वारिभीरणभरैरपराजित!, हे नेतः!, हे परपदाश्रय!, कासाम् ? श्रियाम् । हे श्रीवीतराग!, हे शमितान्तिनिवारकाख्य!, इति सम्बोधनैर्विशेषणानि । वृत्तार्थः ॥१०॥ देवेन्द्रसे! वित! विपाप! युगादिनाऽथ,
विश्वारिभीरणभरैरपराजित! स्तात् ।
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जून - २०१७
नेतः! श्रियां परपदाश्रय! भवान्मे:
श्रीवीत! रागशमितान्तिनिवारकाख्य! ॥ व्याख्या - हे रपर!, रात् पर:- अग्रेसर ‘यरलवे'ति मातृकापाठोच्चारानुक्रमतः, ततो रपरो लकारस्तस्याऽऽम० । हे ल०!, हे वित!, विशेषेण 'त' इति वर्णो यस्मिन् स वितस्तस्य सं० । 'तले'ति जातम् । हे अीवीत!, ररहित'श्री'इति वर्णस्तं प्राप्त!, 'र'विना श्री शीः स्यात् । हे शीतलजिन! सिद्धम् । मेअग्रे अश्री(?), "एदोत: पदान्तेऽस्य लुक्" अनेन सूत्रेण लोपः, "र: पदा०" अनेन रविसर्गः । हे देवेन्द्रसे!, देवेन्द्रस्य सा- लक्ष्मी ईप्रत्यक्षस्वरूपज्ञानदृग्गोचरत्वात् तत्पूज्यत्वाद् यस्य स देवेन्द्रसे आम०, अव्यय० । विपाप । युगे- कृतादौ आदिना- परतीथिदेवेनाऽथ विश्वारि० अजित- न निराकृत! । हे नेतः! । हे श्रियां परपदाश्रय!, हे रागशमितान्तिनिवारकाख्य!, रागस्य शमो विद्यते येषां, इन् प्र०, ते नीरागा यतयस्तेषां तान्तिनिवारका आख्या यस्य स रा०, तस्याऽऽमं० । भ...
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वस्तुपालसम्बन्धी २ प्राचीन ऐतिहासिक प्रशस्तिओ
- सं. मुनि सुयशचन्द्रविजय गणि
मुनि सुजसचन्द्रविजय
प्रशस्तिकाव्यो ए संस्कृतसाहित्यनो घणो रोचक काव्यप्रकार छ । घj करीने अलङ्कारिक शैलीमां रचाती आ कृतिओमां इतिहासप्रसिद्ध व्यक्तिना जीवननो अने कार्योनो परिचय होय छे । तेथी आ प्रशस्तिकाव्यो इतिहासना संयोजनमा बहुमूल्य फाळो आपे छे ।
मुख्यतया प्रशस्तिकाव्यो २ स्वरूप प्राप्त थाय छे (१) चैत्यप्रशस्तिस्वरूपे तथा (२) ग्रन्थप्रशस्तिस्वरूपे ।
तेमां चैत्यनो, वसतिनो के तेना खण्डस्वरूप मण्डप, बलानक, शिखर, गर्भगृह के देवकुलिका ना नवनिर्माण के पुनरुद्धार करावनार व्यक्तिना जीवन अने कार्य उपर प्रकाश करनार कृति ते चैत्यप्रशस्ति । आ प्रकारनी प्रशस्तिओ ते गुणवान पुरुषना (दाताना) गुणथी आकर्षित थनार कोई गुरुभगवन्त के विद्वान कवि द्वारा रचवामां आवती हती । त्यारबाद शिलाखण्ड उपर कोतरवामां आवती हती । शत्रुञ्जय गिरिराज उपर रामपोळ पासे लागेल २ शिलालेखो, आबुतीर्थ-लुणिगवसहिनी हस्तिशाळामां लागेल शिलालेख, ओवा शिलालेखो आ प्रकारमा समाविष्ट थाय छ।
ते ज रीते ग्रन्थलेखनना कार्यमा अर्थसहयोग आपनार अर्थात् ग्रन्थ लखावनार गृहस्थना जीवन अने सुकृतोनो परिचय आपनार काव्य ते ग्रन्थप्रशस्ति । ग्रन्थनी आदिमां के अन्तमां कागळ उपर के ताडपत्र उपर आ प्रशस्तिओ लखवामां के कोतरवामां आवती हती । प्राचीन ताडपत्रीय ग्रन्थोमां तेमज हस्तप्रतोमां आवी प्रशस्तिओ लखायेली जोवा मळे छ ।
उपरोक्त बन्ने प्रकारनी प्रशस्तिओमां प्रतिष्ठापक गृहस्थ के ग्रन्थ लखावनार गृहस्थना जीवन अने कार्योनी साथे तेमनी वंशपरम्परानो, तेमनां कार्योनो पण परिचय आपवामां आवतो हतो । वधुमां चैत्यप्रशस्तिओमां चैत्यादिनिर्माणसमये विद्यमान शासकनो, ते शासकना वंशनो, प्रतिष्ठाकारक पूज्य आचार्यादिनो, तेमनी गुरुपरम्परानो अने चैत्यनिर्माणना वर्षनो पण उल्लेख करवामां आवतो हतो ।
ग्रन्थप्रशस्तिओ अने चैत्यप्रशस्तिओ संस्कृतभाषाबद्ध गद्य-पद्यमय रहेती । अने ग्रन्थप्रशस्ति करतां चैत्यप्रशस्ति प्रमाणमां वधु मोटी रहेती हती ।
___ अहीं रजू करेल बन्ने प्रशस्तिओ चैत्यप्रशस्तिरूपे प्राप्त थई छे । तेमां (१)
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शत्रुञ्जयस्थित इन्द्रमण्डपनी प्रशस्ति (२) गिरनारमा वस्तुपालकारित शत्रुञ्जय (शत्रुञ्जयावतार) चैत्यनी प्रशस्ति छ । हाल बन्ने प्रशस्तिओ त्यां शिलालेखरूपे जोवा मळती नथी, पण तेनी कागळ पर उतारेल नकलस्वरूपे प्राप्त थाय छे ।
वर्तमानमां प्राप्त वस्तुपालसम्बन्धी प्रशस्तिओमां आ बन्ने मोटी अने विशेषविगतो धरावती होवाथी घणुं महत्त्व धरावे छे । ते बन्ने रचनाओ एक ज कर्ता श्रीबालचन्द्रसूरिजीनी होवानुं गौरव पण राखे छे ।
चन्द्रगच्छना नायकश्री देवेन्द्रसूरिजी → भद्रेश्वरसूरिजी → अभयदेवसूरिजी -> हरिभद्रसूरिजीना शिष्य बालचन्द्रसूरिजी.
__ प्रस्तुत बन्ने कृतिमां बालचन्द्रसूरिनी गुरुपरम्परा उपर मुजब जोवा मळे छ। तेमना जीवनचरित्र विशे केटलीक माहिती आपणने तेमना ज बनावेल 'वसन्तविलासकाव्य'मांथी प्राप्त थाय छे ।
मोढेरक(मोढेरा) शहेरमां धरादेव नामनो ब्राह्मण हतो । तेने विद्युत् नामनी पत्नी अने मुंजाल नामे पुत्र हतां । मुंजाल गृहस्थावस्थामां पण वैराग्यवासित चित्तवाळो हतो । अनुक्रमे तेने हरिभद्रसूरिजीनो समागम थयो । पूज्य श्रीनां वचनो सांभळी वैराग्यथी मात-पितानी आज्ञा लई तेणे तेमनी पासे 'बालचन्द्र' नामथी दीक्षा ग्रहण करी हती । थोडा समयमां ज ते सर्वविद्यामां पारंगत थई गयो । 'पद्मादित्य' नामना विद्वान प्रभावक साधु ओमना विद्यागुरु हता । अन्तसमये हरिभद्रसूरिजीए तेमने पोतानी पाटे स्थापित कर्या हता।
वादिदेवसूरिगच्छना उदयप्रभसूरिजी पासेथी तेमणे 'सारस्वतमन्त्र' प्राप्त को हतो । एकवार ते मन्त्रनुं ध्यान करता तेमने योगनिद्रामां सरस्वतीदेवीए दर्शन अने कवित्वना आशीर्वाद आप्या हता । साथे तेमने पुत्र तरीके स्वीकार्या (संबोध्या) हता। तेमना आचार्यपदप्रसंगे महामन्त्री वस्तुपाले १००० (एक हजार) द्रम्म खा हता।
प्रस्तुत बे प्रशस्ति सिवाय बालचन्द्रसूरिजीए 'करुणावज्रायुध' नाटकनी, तथा आसड कवि कृत 'विवेकमञ्जरी' अने 'उपदेशकन्दली'नी टीकानी रचना करी छ ।
प्रशस्तिपरिचय :
(१) इन्द्रमण्डपप्रशस्तिः
आ प्रशस्ति कुल १३८ पद्योनी छे । तेमां श्लो. १ थी ८मां कविए
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अनुसन्धान-७२
मङ्गल कर्यु छे । श्लो. ८मां कविए शत्रुञ्जयतीर्थना अधिष्ठायक श्रीकपर्दीयक्षने श्रीसङ्गनी (जगतनी) रक्षा करवानी प्रार्थना करी छे । साथे कविए पोतानुं नाम पण गुम्फित करी दीधुं छे.
___त्यारबाद श्लो. ९थी ६९ना विशाळ काव्यखण्डमां कविए चौलुक्यवंशना राजाओगें वर्णन कर्यु छे । तेमां श्लो. ४६मां मुरजबन्ध-चित्रकाव्यनो प्रयोग जोवा मळे छे । अने श्लो. ४७मां पद्यरचना ए रीते करी छे के ते काव्यनां चारे चरणना प्रथम ४ शब्दो आडा के ऊभा, गत-प्रत्यागत क्रमे वांचो तो ते ज श्लोक उकेलाय । कविनी असामान्य काव्यप्रतिभानां दर्शन आ पद्यमां थाय छे
र ता म रा
ता र हा स
म हा सि का
रा स का न ।
श्लो. ७० थी ९१म्मं कविए वाघेला वंशना राजाओनी शूरवीरतार्नु अने कीर्तिनुं वर्णन कर्यु छे । उपरोक्त बन्ने काव्यखण्डो खूब रसाळ अने प्रौढशैलीमां रचायेला छे ।
श्लो. १२ थी १०३मां कविए वस्तुपाल-तेजपालना वंशनो परिचय आप्यो छे । पण आश्चर्यनी वात ए छे के आ पद्योमा क्यांय वस्तुपालना पिता 'आसराज(अश्वराज)'ना नामोल्लेखवाळु पद्य प्राप्त नथी । सम्भवतः ए पद्य मूलप्रतनी प्रतिलिपि करती वखते के प्रशस्ति-शिलालेखना उतारा वखते लखतां छूटी गयुं जणाय छे। बीजी नोंधनीय वात ए पण छे के प्रस्तुत कृतिमां कुमारदेवीने ३ पुत्र (मल्लदेव-वस्तुपाल-तेजपाल नामथी) होवार्नु जणाव्युं छे ज्यारे आ ज कर्तानी अन्य कृति 'रैवताचलप्रशस्ति' (अधि. २ श्लो. १३१४-१५)मां 'लूणिक' साथे चार पुत्र कह्या छे, जे सौथी ज्येष्ठ छे । आ ज कर्ताए 'वसन्तविलासमहाकाव्य'मां पण वस्तुपाल आदि ३ पुत्रो ज कह्या छ। ओक ज कर्तानी कृतिओमां आवो हकीकतभेद केम थयो हशे ?
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जून - २०१७
१३
... पछीनां ३ पद्योमा (श्लो. १०४ थी १०६) कविए तेजपालना अने श्लो. १०७ थी ११३मां वस्तुपालना गुणोनुं वर्णन कर्यु छ । तेमां स्तम्भतीर्थनी रक्षा माटे सिन्धुराजना पुत्र शङ्खराजा साथे थयेल युद्धमां वस्तुपालना शौर्यगुणनो पण परिचय आप्यो छे ।
श्लो. ११४ थी १२६मां (मात्र) वस्तुपालनां केटलांक सुकृतोनी नोंध आपी छे । जेमके (१) गामे-गामना सङ्घोने भेगा करी शत्रुञ्जय अने रैवतगिरि (गिरनार)नी तीर्थयात्रा करी ।
__(२) धोळकामां हिमालय जेवू उजळु श्रीआदिनाथप्रभुनुं जिनालय बनाव्युं ।
(३) स्थम्भनका खंभात)ना शक्रपुर(शकरपुर)मां श्रीपार्श्वप्रभुना जिनालयनो जीर्णोद्धार को अने तेना पर स्वर्णकलशो स्थापित कर्या ।
(४) अणहिल्लपुर-(पाटण)मां श्रीपंचासरापार्श्वप्रभुना जिनालयनो जीर्णोद्धार कर्यो ।
(५) स्थम्भनकपुर(थामणा)मां नगर फरतो कोट बनावडाव्यो । (६) अनेक पौषधवाळाओ करावी अने साते क्षेत्रमा धन वापर्यु । (७) अर्कपालीयक(अंकेवाळीया) गामां विशाळ सरोवर निर्माण
कराव्युं ।
(८) शत्रुञ्जय उपर इन्द्रमण्डप बनावडाव्यो । अने शत्रुञ्जय उपर श्रीनेमिनाथ तथा श्रीपार्श्वनाथ प्रभुना २ देरासरो कराव्यां । आ बन्ने हकीकतोनी नोंध उदयप्रभसूरिजीकृत 'सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी' (श्लो. १६५-१६७) तथा जयसिंहसूरिजी कृत 'वस्तुपाल-तेजःपाल-प्रशस्तिः' (श्लो. ६१)मां पण नोंधायेली जोवा मळे छे ।
श्लो. १२९-१३०-१३१मां कविए इन्द्रमण्डपनी प्रतिष्ठा करावनार, वस्तुपालना कुलगुरु (गुरु भ.)नी परम्पराना श्रीशान्तिसूरिजी अने श्रीअमरसूरिजीने याद कर्या छे, ते ध्यानार्ह बाबत छे ।
अन्ते श्लो. १३२ थी १३८ना पद्योमा कविए पोतानी गुरुपरम्परानी स्तवना करी छे । अने पोताना नामोल्लेखपूर्वक प्रशस्तिना चिरंजीविपणानी
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१४
अनुसन्धान-७२
अभ्यर्थना करी छ ।
प्रस्तुत कृतिनी हस्तप्रत तपागच्छनायक श्रीजयचन्द्रसूरिजीना शिष्य पण्डित श्रीजिनहर्षगणिना शिष्य 'सिद्धान्तधर्म' नामना मुनिए सं. १५१८मां लखी छे ।
श्रीविमलगच्छीय उपाश्रयनो भंडार (देवसानो पाडो-अमदावाद)मांथी प्रस्तुत कृतिनी हस्तप्रतनी Xerox सम्पादनार्थे प्राप्त थई छे । ते बदल विमलगच्छीय ग. प.पू.आ.श्री प्रद्युम्नविमलसूरिजी म.सा.नो, पू. जम्बुविजयजीना शिष्य पू.पं. पुण्डरीकविजयजी म.सा.नो, हिरेनभाई पण्डितजी (पालीताणावाळा)नो तथा विमलगच्छीय भण्डारना कार्यवाहकोनो खूब-खूब आभार ।
(२) वस्तुपालप्रशस्ति :
प्रस्तुत कृति पण कवि बालचन्द्रनी ज रचना छे । कृतिमां अनुक्रमे वंशाधिकार, शत्रुञ्जयाधिकार विगेरे १३ अधिकारो छे । दरेक अधिकारमां वस्तुपाले ते ते क्षेत्रमा करेला जिनमन्दिर, उपाश्रय, सत्रागारादि ऐतिहासिक कार्योनी विगत छे । तेमां य खास करी पेटलाद, धोळका, धंधुकादिकना अधिकारमा वर्णवायेली विगत इतिहासविदो माटे घणी महत्त्वपूर्ण छ । कवि जिनहर्षे सं. १७९३मां रचेला वस्तुपालचरित्रमा आ ज प्रशस्तिमांथी घणा श्लोको उद्धर्या होय तेम लागे छे । अमे प्रस्तुत कृतिमां तुलना माटे वस्तुपालचरित्रना ते श्लोकक्रमाङ्क पण नोंध्या छ ।
... प्रतमा उल्लेखित सूत्रधार साल्हण द्वारा प्रशस्ति उत्कीर्ण करायानी विगत जोतां मूळ शिलालेख परथी ज आ कृति ताडपत्र के कागळनी प्रतना उतारारूपे लखाई होवानुं अनुमान थाय छे. जो के अक्षरोना मरोडादि उपरथी कृतिनुं लेखन पण १६मी सदी पूर्वे थयुं होय तेवू जणातुं नथी. एटले के आ प्रतलेखकनी सामे जिनालयनो मूल शिलालेख न होई कागळनी के ताडपत्रनी कोई हस्तलिखित प्रत होय तेवं मानवं वधारे योग्य लागे छ । खास तो आवा अमूल्य दस्तावेजने आपणा सुधी पहोंचाडवा बदल ते-ते प्रतलेखकोनो, साथे-साथे प्रतनी हस्तप्रत साचवी राखवा बदल तेमज सम्पादनार्थे तेनी नकल
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जून - २०१७
आपवा बदल श्रीविजयगच्छ जैन ज्ञानभण्डार (राधनपुर)ना व्यवस्थापकश्रीनी तेमज बाबुभाई (बेडावाळा) विगेरे सुश्रावकोनी श्रुतभक्तिनी खूब अनुमोदना । कृतिकार :
आगळनी प्रशस्तिमां जोया मुजब अहीं पण कविनी गुरुपरम्परा ते ज मुजब आलेखायेली छे. विशेषमां तेमणे प्रशस्ति-रचनामां सहाय करनार प्रद्युम्नसूरिजीनी परम्परानो करेलो उल्लेख जोवा मळे छे. देवानन्द मुनीन्द्रना गच्छना कनकप्रभसूरि, तेमना शिष्य प्रद्युम्नसूरि के जेओए कवि बालचन्द्रसूरिनी पासेथी पद प्राप्त कर्यु हतुं. कृतिनी ऐतिहासिक विगतोनो ढूंक सार
वस्तुपाल वंश परिचय प्राग्वाटवंशीय चण्डप
चण्डप्रसाद (जयश्री)
सौर
सोम सीता (पत्नी)
(आसराज) अश्वराज विजयराज तिहुणपाल केली (बहेन)
लूणिग
मल्लदेव
वस्तुपाल
तेजपाल
लीलू
पातूं ललितादेवी सौख्यलता अनुपमादेवी (पत्नी) (पत्नी-१) (पत्नी-२) (पत्नी)
(पत्नी)
पूर्णसिंह (पुत्र)
जयन्तसिंह (पुत्र)
पेथड (पौत्र)
बकुलदेवी लूणसिंह (पुत्री) (पुत्र)
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अनुसन्धान-७२
कुमारदेवीना पियरपक्षनो परिचय --
प्राग्वाट सामन्त आमदत्त
शान्ति
नागड
ब्रह्मनाग
आभू → लक्ष्मी (पत्नी)
आमदत्त
धनपाल पूर्णपाल महिपाल कुमारदेवी(बहेन)
शत्रुञ्जयाधिकार
राजा विक्रमादित्यना (वि.सं.) १२७०मा वर्षथी प्रारम्भी चौलुक्यवंशना मन्त्री वस्तुपाले शत्रुञ्जय विगेरे गामोमां घणां सत्कार्यो कर्यां. श्लो.नं.
शत्रुञ्जयगिरि उपर [वस्तुपाले] इन्द्रमण्डपनी रचना करी. त्यां अम्बिका, अवलोकन, शाम्ब अने प्रद्युम्नना शिखरोथी शोभतुं नेमिनाथ प्रभु- चैत्य बनाव्यु. त्यां पूर्वे करावेला स्तम्भन पार्श्वनाथप्रभुना चैत्यमां पोताना राजानी (वीरधवल), पोतानी पत्नीनी (ललितादेवी), पोताना गुरुनी, पोताना
भाईनी (तेजपाल) तथा पोतानी (वस्तुपाल) मूर्तिओ बनावी. ६-७ त्यां जयतल्लदेवीनी तथा वीरधवल राजानी गजारूढ मूर्त्तिनी रचना
करी अने पोतानी तथा पोताना भाईनी अश्वारूढ मूर्ति घडावी. ८ त्यां ज कायोत्सर्गस्थ २ जिनप्रतिमा अजितनाथ तथा शान्तिनाथनी -
(कवि जिनहर्ष मुजब) पधरावी
त्यां मण्डपमा ७ जिनेश्वर परमात्मानी ७ देवकुलिका बनावी. १० त्यां सरस्वतीनी मूर्ति तेमज प्रशस्ति मूकावी.
इंद्रमण्डपमा पश्चिम द्वार- तोरण कराव्युं.
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आदिनाथ प्रभुना चैत्यनी आगळनी जग्यामां किल्ला सहितनी पोळ बनावी.
त्यां भगवानना स्नात्र निमित्ते गजपद नामनो कुण्ड बनाव्यो. आदिनाथ प्रभुना जिनालयमां प्रवेश करवाना मार्गे डाबी तथा जमणी बाजुए जुदा जुदा मण्डपमां वडील बे भाई लूणिग तथा मल्लदेवनी घोडा पर बेठेली मूर्त्तिओ स्थापन करावी.
ते बे मूर्तिनी डाबी तथा जमणी बाजुए प्रशस्तिथी युक्त सङ्घने रहेवा माटे समाजमण्डप बनाव्या.
आदिनाथ भगवानना (जिनालयनी) आगळ स्तम्भनी नीचे मल्लदेवना अस्थिने दाटी तेना उपर मल्लदेवनी मूर्ति स्थापित करी. आदिनाथ प्रभुना [जिनालयना ] द्वार पर तोरणनी रचना करी. ते तोरण पासे हाथीथी शोभती जगती करावी.
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१९ त्यां आदिनाथ प्रभुना [जिनालय] पासे बे प्रशस्ति चतुष्किका (चोकी) करावी.
२०-२१ आदिनाथ प्रभुना जिनालयमां प्रवेश करतां दक्षिण बाजुए पत्नी ललितादेवीना पुण्यने माटे वस्तुपाले पोतानी पत्नी ललितादेवी, ब्राह्मी (सरस्वती) तथा ब्रह्मशान्ति यक्षनी प्रतिमाथी युक्त वीरप्रभुनुं सत्यपुरावतार नामनुं जिनालय बनाव्युं.
२२-२३-२४ तो उत्तर बाजुए पत्नी सौख्यलताना पुण्यने माटे समवसरण, अश्व, समडी, वटवृक्ष, मुनियुग्म, जितशत्रु राजा, शिलामेघ राजा, वणिक्, सुदर्शनादेवी, पोतानी तथा सौख्यलतानी मूर्त्तिथी युक्त मुनिसुव्रतस्वामीना. अश्वावबोधतीर्थनी रचना करी.
सत्यपुरावतार तेमज अश्वावबोधतीर्थ ए बन्ने देरासरनी आगळ मोटी प्रशस्तिओ मूकावी तेमज बन्ने देरासर उपर सुवर्णना ध्वज - दण्ड
पधराव्या.
ते [जिनालय]नी आगळ दादा चण्डप अने चण्डप्रसादना पुण्यने माटे अजितनाथ तथा सम्भवनाथ भगवाननी मूर्ति पधरावी.
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मल्लदेवनी पत्नी लीलू तथा पातू, पुत्र पूर्णसिंह, पौत्र पेथडना श्रेयने माटे चार तेमज श्रेष्ठि यशोराजना श्रेयने माटे ३ देवकुलिकाओ करी. ३४-३५ [तेमां] अनुपमादेवीनी तथा पोतानी पोतपोताना देहमान प्रमाणेनी आरसनी मूर्तिओ पधरावी.
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अनुसन्धान-७२
ते ज मण्डपमां पोतानी तेमज ललितादेवीनी मूर्तिने माटे उत्तरमुखी स्फटिक द्वारवाळी देवकुलिका करावी.
आदिनाथ प्रभुना चैत्यमां दक्षिण तथा उत्तर बाजुए चार चार चोकी करावी.
३८
३९.
आदिजिन-चैत्य पर सुवर्णकलश बनाव्यो.
आदिनाथ प्रभुना चैत्य उपर पौत्र प्रतापसिंहना पुण्यने माटे त्रण मण्डपना त्रण सुवर्णना कुम्भ कराव्या.
३६ [अहीं] अनुपमादेवीना पुण्यनी वृद्धि माटे 'अनुपमासर' नामनुं सरोवर तथा एक वाडी (बगीचो) बनाव्यां.
ते सरोवरना किनारा पर कपर्दीयक्ष तथा अम्बिकादेवीना मन्दिर बनाव्यां.
तळावना कपर्दीयक्षना मन्दिर माटे मार्ग बनाव्यो.
शत्रुञ्जय पर्वत परना कपर्दी यक्षना भवननो जीर्णोद्धार कर्यो अने तेनी आगळ एक तोरण तथा प्रदक्षिणामां आरसनी जगती करावी, तेमज अहींना पार्श्वनाथ प्रभुना [ जिनालयना ] गर्भागारनुं द्वार तथा गोखलो कर्यो.
तेजपाले इन्द्रमण्डपनी पासे नन्दीश्वर नामनुं जिनालय बनाव्यं. तेनी पासे पोतानी ७ बहेनोना पुण्यनी वृद्धिने माटे ७ देवकुलिकाओ करावी.
४२
४० - ४१ शत्रुञ्जयगिरिनी तळेटीमां रहेला वाग्भटपुरमां ललितादेवीना श्रेयने माटे 'ललितासर' नामे सरोवर बनाव्यं.
ललिता सरोवरनी पाळ उपर सूर्यदेव, महादेव, सावित्री, वीर प्रभु, अम्बा तथा कपर्दि यक्षनां मन्दिरो बनाव्या.
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वाग्भटपुरनी अन्दर गुरुमूर्ति तथा प्रशस्तिथी शोभती वसति (उपाश्रय) बनावी. पुत्रना श्रेयने माटे वाग्भटपुरनी बहार प्रपा (परब) बनावी. आदिनाथ प्रभुनी पूजाने माटे पथ्थरथी बांधेला कूवाथी युक्त 'वस्तुपालगिरि' नामनी पुष्पवाटिका (बगीचो) बनावी. शत्रुञ्जयना मार्गना विभूषण समान वल्लभीना आदिनाथ प्रभुना चैत्यनो जीर्णोद्धार कराव्यो. त्यां एक कूवो अने परब कराव्या. वटवृक्ष, कूवो तथा मण्डपिका (बजार?) सहितनुं वालाक ('वाळाक प्रदेश)- भण्डपद्र (भंडारिया?) गाम शत्रुञ्जयने आधीन कर्यु. वालाकना अंकेवाळिया गाम अने चरोतरना वीरेज्य गामने शत्रुञ्जयने आधीन कर्यां. वीरेज्य गाममा वस्तुपालविहार, वस्तुपालेश्वर नामनुं शिवमन्दिर, परब अने सत्रागार कराव्या. अंकेवाळियामां वस्तुपाले पिताना पुण्यने माटे जिनेश्वरदेव- भवन (जिनालय), माताना पुण्यने माटे परब, पूर्वजोना पुण्यने माटे सत्रागार, पोताना पुण्यने माटे सरोवर, महादेव, मन्दिर तथा मुसाफरोने रहेवानां स्थानो विगेरे बनाव्यां. रैवताधिकार रैवताचलना शिखर उपर नेमिनाथ प्रभुना चैत्यनी पाछळ पोताना श्रेयने माटे 'वस्तुपालविहार' नाम, आदिनाथ प्रभुनु चैत्य बनाव्युं. त्यां पोताना पूर्वज चण्डप तथा चण्डप्रसादना सुकृतने माटे अजितनाथ तथा वासुपूज्यस्वामिना बिम्बने पधराव्यां. ते[चैत्य]ना रंगमण्डपमां चण्डप्रसादनी मोटी देहप्रमाण मूर्ति तथा वीरप्रभुनी तेमज अम्बिकानी मूर्ति बनावी. ते [चैत्य]ना गर्भगृहना द्वार पासे दक्षिण तथा उत्तर बाजुए पोतानी
१-२
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अनुसन्धान-७२
तेमज नानाभाई(तेजपाल)नी गजारूढ मूर्तिओ स्थापित करी. ६-७ ते [चैत्य]नी डाबी बाजु ललितादेवीना श्रेयने माटे पोतानी,
ललितादेवीनी तथा पूर्वजोनी मूर्तिओ सहित सम्मेतशिखरतीर्थनी रचना करावी. ते[चैत्य]नी दक्षिण बाजु सौख्यलताना सुकृतने माटे पोतानी, सौख्यलतानी माता कुमारदेवीनी तेम ज बहेननी मूर्तिसहितनी अष्टापदतीर्थनी रचना करावी अने तेमां श्लोकबद्ध २ प्रशस्तिपट्टो कराव्या. वस्तुपालविहार, सम्मेतशिखर तथा अष्टापद - ए त्रणे चैत्योनां तेणे त्रण तोरण कराव्या. वस्तुपालविहारनी पाछळ कपर्दियक्ष- मन्दिर बनाव्युं. ऋषभदेवनी माता मरुदेवी- मन्दिर बनाव्युं अने तेमां जिनमातानी
गजारूढ मूर्ति करावी. १३ नेमिनाथ प्रभुना चैत्यमांत्रण द्वारवाळा मण्डपमां सफेद आरसनां त्रण
तोरणो बनाव्या. . . १४ ते चैत्यनी उत्तर तथा दक्षिण बाजुए पिता आसराज तथा पितामह
सोमनी घोडा पर आरूढ थयेली मूर्तिओ बनावी. ते मूर्तिओनी पासे तेणे माता कुमारदेवी तथा दादीनी मूर्तिओ बनावी. नेमिनाथ प्रभुना चैत्यनी त्रिकमां माता-पिताना श्रेयने माटे अजितनाथ तथा शान्तिनाथ भगवाननी कायोत्सर्गस्थ मूर्ति स्थापित करी. (श्लोक त्रुटित छे.) पांपा नामना मठनी पासे सरस्वतीनी मूर्ति, प्रशस्तिलेख तथा पूर्वजोना मूर्ति-युग्म सहितनी त्रण देवकुलिकाओ करी. नेमिनाथ प्रभुना जिनालयना मण्डप उपर सुवर्णनो कळश पधराव्यो. अम्बिकादेवीना मन्दिरमां मण्डपनी रचना करावी अने त्यां आरस
पहाणनी जिनेश्वर प्रभुनी देवकुलिका बनावी. २१ अम्बिकादेवी, आरसपहाण- परिकर बनाव्यु.
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२२ अवलोकन, शाम्ब तथा प्रद्युम्न [शिखर] उपर पुरुषोनी मूर्तिथी युक्त
जिनेश्वर परमात्मानी त्रण देवकुलिकाओ बनावी. २३ पोताना दादा-दादी, माता-पिता तथा बहेन जाल्हा(जालू?)ना अस्थिने
पृथ्वीमां दाटी रैवतदेवता(नेमिनाथ प्रभु)ना जिनालयनी आगळ स्तम्भो
बनाव्या. २४-२५ तेजपाले उज्जयन्तगिरिनी नीचे संघना आवासने माटे दुकान, घर,
परब, वाव तथा संघपतिना घरथी शोभतुं, श्रेष्ठ किल्लावाळु 'तेजपालपुर'
नामनुं गाम वसाव्यु. २६ त्यां पिताना श्रेयने माटे 'आशराजविहार' नाम, चैत्य तेमज वसति
(उपाश्रय) बंधाव्यां तथा नगरनी बहार माताना पुण्यने माटे 'कुमारदेवीसर' नाम, सरोवर बनाव्युं. पार्श्वनाथ प्रभुनी पूजाने माटे बगीचो बनाव्यो. पोतानी नगरी अने वामनपुरीनी वच्चे मोटी वाव बंधावी. वामनस्थली (वंथळी)मां वसति (उपाश्रय) बनावी. उज्जयन्तगिरिना मार्गनां इंधुमधुर (?) पुरीमां वीरधवल तथा जयतल्लदेवीना नामथी शिवमन्दिर, देरासर, धर्मशाळा, सरोवर अने परब बनाव्यां.
वस्त्रापथमां आदिनाथ प्रभुनुं जिनालय अने कालमेघनो मण्डप बनाव्यो. ३२. (अर्थ स्पष्ट थतो नथी.)
देवपत्तनाधिकार वस्तुपाले देवपत्तनमां (प्रभासपाटणमा) सोमनाथमहादेवनी जगतीमां राजा वीरधवलना श्रेयने माटे वीरधवलेश्वर तथा जयतल्लदेवीना श्रेयने माटे जयतल्लेश्वर महादेवनी स्थापना करी. देवपत्तनाधिकारना पद्य ३थी लई, स्तम्भतीर्थाधिकारना पद्य २८ सुधीनी प्रशस्तिनो सारांश अनुसन्धान ७०मां आप्यो छे, तेथी फरी तेनो उतारो कर्यो नथी. . . --- २७-३० आसराजविहार अने कुमारविहार नामनां ऋषभदेव अने
३१.
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अनुसन्धान-७२
नेमिनाथनां जिनालयो बनाव्यां. आ जिनालयो एक स्थण्डिलबन्ध पर स्थित हता. तेमनुं निर्गमनद्वार एक ज हतुं, ज्यारे बलानकमण्डप बे हता. आठ मण्डप, बावन जिनालय अने आरसपहाणना उत्तान पाटडाओथी बनावेलां द्वारोथी मण्डित हतुं. तेमां पूर्वजोना श्रेय माटे शत्रुञ्जय अने गिरनारना पट्ट पण बनाव्या हता. ते जिनालयना निर्वाह माटे बे दुकान, चार पाडा तथा एक बगीचो भेट आप्यो. आसराजविहारमां पित्तनुं समवसरण बनाव्युं. मुनिओने रहेवा माटे पांच वसति (उपाश्रय) बनाव्या. शंखराजा साथेना संग्राममा मृत्यु पामेला भूणपाल विगेरे १० राजाओ माटे महीनदीना कांठे ते-ते नामवाळी शिवनी १० देवकुलिका बनावी. तथा ते मन्दिरनी जगतीमां पोतानी कुळदेवी चण्डिका तथा दरियादेवनी देवकुलिकाओ करी. तेनी आगळ चार स्तम्भोने विषे तोरण बनाव्या. तपस्विओने रहेवा माटे मठ(आश्रम) बनाव्या अने तेना निर्वाह माटे घणी जूदा जूदा प्रकारनी आवकव्यवस्था करी. तथा भीमेश्वर नामना शिवमन्दिर पर स्वर्णना ध्वजदण्ड-कळश स्थापित कर्या. ते ज मन्दिरना गर्भगृहमां पोतानी कुळदेवी चण्डिकानी मूर्ति तथा गोखलामां पोतानी अने तेजपालनी मूर्ति स्थापित करी. ते गर्भगृहनी परिधिमा दोला बनावी, तेनी सामे वृषभ (नंदी) बेसाड्यो. नवो चण्डीमण्डप बनाव्यो. पोतानी पत्नी ललितादेवीना श्रेयने माटे वस्तुपाले वटसावित्री, मन्दिर बनाव्युं. भीमेश्वर नामना शिवालयनी फरते आगळ पोळवाळो (सप्रतोलीक) वाडो बनाव्यो.
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४३ कुमासमण्डपिका पासे परब बनावी. ४४ ते (गाम)मां निम्बेयक नामना गणेशना मन्दिरनो, बकुलस्वामि सूर्यना
मन्दिरनो तेमज कुमारेश्वर नामना शिवालयनो एम ३ मण्डप तेणे बनाव्या. गणपति, कपिल तथा महादेवना भुवननो जीर्णोद्धार को. त्यां महादेवना मन्दिर पासे मल्लदेवनी तेमज कुमारेश्वरना मन्दिर पासे पोतानी मूर्ति स्थापित करी. त्यां ब्राह्मणोना कुटुम्ब माटे ब्रह्मपुरी करावी. . त्यां रहेनारा ब्राह्मणोने १३ वाडाओ [भेट] आप्या. . तेमज रामपल्लडिका गाम षट्कर्ममां निरत ब्राह्मणोने शासन (कारभार चलाववा?) माटे आप्यु. मल्लदेवना पुत्र पूर्णसिंहना पुण्यनी वृद्धि माटे पूर्णसिंहेश्वर नामर्नु शिवमन्दिर बनाव्यु. युद्धमा मृत्यु पामेला १४ सैनिकोनां नामथी पूर्णसिंहेश्वर मन्दिरनी पासे बीजां १४ शिवालय बनाव्यां. तेना निर्वाहने माटे मठ सहित किल्लावाळी २ पलडिका (?) [भेट] आपी. त्यां परोपकारने माटे कुंड(कूवो) बनाव्यो. त्यां पोतानी ख्याति माटे तळाव बनाव्यु. भट्टादित्य (सूर्य?)ना मस्तक पर मुगट, तेम ज तेना बगीचामां कूवो बनाव्यो. भट्टादित्यना अनेक प्रकारना उत्तानपट्ट (?) कराव्या. मूळथी बे माळ वाळु तेमज अश्वशाळाथी युक्त मन्दिर बनाव्युं. त्यांना यशोराज नामना राजाना महेलनो जीर्णोद्धार कर्यो. पौत्र प्रतापसिंहना पुण्यने माटे एक परब बनावी अने तेनी आवक
माटे घणी भूमि अने दुकानो भेटमां आप्या. ६०-६१ एकल्लवीर नामेना पादरदेक्ताना मन्दिरमा मत्तवारण अने तोरण सहित
सोपानपंक्ति बनावी. त्यां पट्ट कराव्या अने द्वारसहित गभारो बनाव्यो.
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धोळकाधिकार
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अनुसन्धान-७२
वस्तुपाले धोळकामां माता कुमारदेवीना श्रेयने माटे 'अम्बावसति' नामनुं आदिनाथ प्रभुनुं चैत्य बनाव्युं. वळी ते चैत्यनी फरते पोताना पूर्वज, बेनो, तथा स्वजनोना पुण्यने माटे फरता देवालयवाळां घणां चैत्यो कर्यां. तेम ज तेनी आवक माटे अनेक दुकानो, घरो तथा पाडाओ [भेटमां] आप्या.
ते चैत्यनी बहार गायना अपहरण वखते थयेला युद्धमां वीरगति पामेला राणाओनां तेमज भट्टारकोनां देवकुलोनो जीर्णोद्धार कर्यो. तेनी आगळ नवुं तोरण बनाव्युं अने माताना श्रेयने माटे [त्यां] वाव तथा शाळा बनावी.
संग्रामसिंह साथेना युद्धमां मृत्यु पामनार पोताना सैनिक वीरमना श्रेयने माटे वीरमेश्वर नामनुं शिवालय बनाव्युं.
पोतानी माताना श्रेयने माटे वाउडा गाममां नेमिनाथ प्रभुनुं चैत्य बनाव्यं.
तेजपाले धोळकामां पोताना बे पुत्र-पुत्रीना पुण्यने माटे बे वसति ( उपाश्रय) बनावी. "
धोळकाना पडी गयेला चैत्यनो जीर्णोद्धार कर्यो.
'भृगुकच्छचैत्य' नामना चैत्यनो जीर्णोद्धार कर्यो.
मल्लदेवनी पत्नी लीलूना पुण्यने माटे परब बनावी तेमज शिवालयनी पासे आघाट (कोट ? ) बनाव्यो.
वस्तुपालना पुत्र यै (जै) त्रसिंहे अहिं वाव अने परब बनावी. तेजपालना पुत्र लूणसिंहे अहिं ब्राह्मणो माटे कूवा अने परबथी युक्त ब्रह्मपुरी बनावी.
तेमज तामसिज गाममां परब, बगीचो तेमज अर्हद् वसति (चैत्यालय) बनावी.
वस्तुपाले राजा वीरधवलना नामथी वीरपुरमां कूवो, तळाव, वाव, सत्रागार, परब अने बगीचो बनाव्या.
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धंधुकाधिकार -
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त्यां राजा वीरधवलना तेमज पिता आसराजना श्रेयने माटे 'लूणगेश्वर' नामनुं मन्दिर तथा माता कुमारदेवीना पुण्यने माटे 'मदनशंकर' नामनुं मन्दिर बनायुं.
तेमज त्यां राजा वीरधवलना श्रेयने माटे ब्रह्मपुरी तथा पिता आसराजना श्रेयने माटे वीर प्रभुनुं जिनालय बनाव्यं.
वाडाक प्रान्तना वल्लभीनाथना धाम गिरीन्दक गाममां मन्दिरनां तोरण बनाव्यां.
त्यां माता-पिताना भवनने उत्तानपट्ट तथा पगथिया सहित आरसपहाणनुं कर्यु.
त्यां कोटेश्वर महादेवना मन्दिरमां तेणे तोरण तथा परिधि बनाव्या तेमज त्यां पोतानी आरसनी मूर्ति स्थापित करी.
तेजपाले राजा वीरधवलना श्रेयने माटे धंधुका अने हडालीय प्रान्तनी वच्चे परब सहितनुं सरोवर बनाव्युं.
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वस्तुपाले गुंदी गाममां परब तथा वाव बनावी.
६ तेज गाममां तेणे वीरप्रभुनुं बिम्ब पधराव्यं.
प्रकीर्णकाधिकार
बोहक गाममां वीरप्रभुनुं जिनालय तथा परब बनाव्यां.
गाणपल्लि गाममां गाणेश्वरमहादेवना मन्दिरनो मण्डप, तोरण, पोळ, कोट तथा परब बनाव्यां.
धंधुकामां वस्तुपाले अष्टापद चैत्यन्नी भमतीमां २४ जिनबिम्बोनी स्थापना करी.
आशापल्लीना ‘उदयनविहार' मां पोताना पुत्रना श्रेयने माटे वीर जिनेश्वर तथा शान्तिनाथ प्रभुना २ गोखला कर्या.
शांतूवसति तेमज वायटीय (वायडीय) वसतिमां पोतानी माताना पुण्यने माटे मूळनायक प्रभुना बिम्बो स्थापित कर्या.
वडसर गाममां यशोधवल नामना गणपति ( ? ) ना मन्दिरने बंधाव्युं
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अनुसन्धान-७२
बाला(थारा)पद्रीयगच्छना चैत्यमां पत्नी अनुपमादेवीना श्रेयने माटे मूळनायक- बिम्ब पधराव्यु. वस्तुपाले उमारसिज गाममां यात्रिकोने माटे परब अने विश्रामगृह बनाव्यां. सेरीसापार्श्वनाथ जिनालयमां मल्लदेव तथा पूर्णसिंहना पुण्यने माटे नेमिनाथ प्रभु तथा वीरजिनेश्वरना २ गोखला बनाव्या. वीजापुरना वीरप्रभुना जिनालयमां मल्लदेवना पुण्यने माटे आदीश्वर भगवाननी देवकुलिका बनावी. तारणगढ (तारंगा)ना 'कुमारविहार' नामना जिनालयमां आदिनाथ तथा नेमिनाथ प्रभुना २ गोखला कर्या. नगर (नगरा) गामना जिनालयनो वस्तुपाले जीर्णोद्धार कर्यो. आ प्रशस्ति रचनार (बालचन्द्र) कविना गाम मण्डलमा वसति (उपाश्रय) करावी तथा 'मोढवसति'मां मूळनायक परमात्माने स्थापित कर्या. पोतानी जन्मभूमिरूप साध्वालयमां जिनेश्वर प्रभुतुं जिनालय तथा शिवालय बन्नेनो जीर्णोद्धार कर्यो. डंगरूपमा रहेला कुमारविहारनो तेणे जीर्णोद्धार कर्यो. (व्याघ्ररोल)वाघरोल गाममां पूर्वजोना जिनालयने ध्वजाथी तेणे शोभाव्युं. अणहिल्लपुरमां पंचासर जिनालयमां मूळनायक भगवानने स्थापित कर्या. मुंजालस्वामीनो रथ बनाव्यो. भीमपल्लीमां जिनेश्वर परमात्मानो रथ करावी आप्यो. प्रह्लादनपुर (पालनपुर)ना 'प्रह्लादनविहार' नामना चैत्यनो मण्डप
अने २ गोखला बनाव्या. प्रह्लादनपुरी तथा चन्द्रावतीपुरीनी अन्दर २ वसति (उपाश्रय) करावी. वसन्तकस्थान, अवन्ति अने नासिकना जिनालयमां अरिहन्त प्रभुने [स्थापवा] माटेना २-२ गोखला बनाव्या.
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जून - २०१७
२७
२० सत्यपुरमां महावीरस्वामी भगवानना जिनालयमां आदिनाथ अने नेमिनाथ
भगवाननी देवकुलिका करी. केदार नामना स्थळे(?) राजा वीरधवल, राणी जयतल्लदेवी, मल्लदेव,
तेजपाल अने पोतानी मूर्ति मूकी. २२ पोताना बनावेला अनेक जिनालयोमां तेणे ध्वजदण्ड-कळशनी स्थापना
करी अने प्रशस्तिओ बनावी. २४ मम्माण पर्वतथी आदिनाथ भगवान, पुण्डरीकस्वामी तथा कपर्दीयक्षनां
[नवां] बिम्ब मंगावी भविष्यना [शत्रुञ्जयना] उद्धार माटे शत्रुञ्जयना
शिखर पर गुप्त स्थानमा राख्यां. अर्बुदाधिकार - १ अर्बुदगिरि (आबु) पर अचलेश्वर महादेवना मण्डपने तेणे बनाव्यो.
श्रीमाताना मन्दिरमा पूर्वे जे कांई जीर्ण हतुं तेनो जीर्णोद्धार कर्यो अने जे न्यून हतुं ते पूर्ण कर्यु. विमल मन्त्रीना जिनालयमा मल्लदेवना श्रेयने माटे मल्लिनाथ प्रभुनो गोखलो कर्यो. तेजपाले पुत्र लावण्यसिंहना पुण्यने माटे नेमिनाथप्रभु- जिनालय बनाव्युं. अहिं तेणे प्रद्युम्न, शाम्ब, अम्बिका तथा अवलोकन नामना ४ शिखरो
बनाव्या. ७-८ अहीं [नेमिनाथ प्रभुना चैत्यमां] चण्डप, चण्डप्रसाद, सोम, अश्वराज,
लूणिग, मल्लदेव, वस्तुपाल, तेजपाल, जैत्रसिंह तथा लावण्यसिंह - ए दश पुरुषोनी मूर्तिओ हाथिणी पर आरूढ थयेली बनावी.
४० अw
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श्रीबालचन्द्रसूरि-विरचिता श्रीवस्तुपालप्रशस्तिः
अपूर्वभवा(णि)तिर्जेनः, सपूर्वभणितिः श्रिये । अनङ्गहारी वो भूया-दङ्गहारी जिनेश्वरः ॥१॥ स्थितमिह बहिरन्तर्जाग्रति ज्ञानदीपा-चिषि तम इव यस्य स्कन्धयोः कुन्तलाली। प्रविलसति मुदे वः सोऽस्तु देवः शिवश्री-रतिसदनसनाभिर्नाभिसूनुजिनेशः ।।२।। त्रिभुवनवनलक्ष्मीशेखरः कल्पशाखी, स भवतु भवभाजां भूतये नेमिनाथः । हरिरपि हरिहेलां यस्य दोर्दण्डशाखा-मधिमधुपविनीलो लम्बमानस्ततान ॥३॥ कुवलयदलदामश्यामधामा स वामा-सुत इह महतीं वः सम्पदं सन्तनोतु । शिरसि लसति यस्य व्योमकालं विशालं, फणिपतिफणजालं रत्ननक्षत्रमालम् ॥४॥ नालीकप्रतिबोधबन्धुरतरः सच्चक्रनिःशोकता
___ लङ्कर्मीणमहोदयः किमपरं दोषाभिघाते कृती । कुर्यान् मे दुरितान्धकारनिकरप्रध्वंसनायाऽऽगत
स्तारामार्गमनर्गलद्युतिरिनः श्रीवीरनामा जिनः ॥५॥ नम्राखण्डलमौलिमण्डलगलन्मन्दारमालारजः
पुजैः पिञ्जरिताहूयः स्मरशरव्रातच्छिदाकोविदाः । धर्मारामपयोमुचः सुचरितस्रोतस्विनीसिन्धवः,
साधूनामपरेऽपि तीर्थपतयः पुष्णन्तु लक्ष्मीममी ॥६॥ ते वः पान्तु भवाब्धितो गणभृतः श्रीपुण्डरीकादयो,
- यैरादाय घनं घनैरिव पयस्तीर्थेशनीरेशितुः । प्रोद्यद्बुद्धितडिद्गुणैः प्रवचनं विस्तारिभिः सर्वतः,
__पीते यत्र भवन्ति कौतुकमहो! मुक्तास्तदेते जनाः ॥७॥ जलदमिव नदन्तं बालचन्द्राभदन्तं, गजपतिमधिरूढः प्रौढपाशाङ्कुशादि । दधदवतु जगन्ति ग्रामणीगुह्यकाना-मयमरिबलजृम्भापक्षमर्दी कपर्दी ॥८॥ विश्वम्भराभारधुरन्धरं नरं, विधातुमन्तर्वि ..................... ।
................... ॥९॥
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जून - २०१७
......... राजप्रभवभुवनभ्रान्तयशसः,
प्रतापप्रागल्भीगलित ..... ................... महसः । क्षितीशोऽभूत् ................... विलसदसिदण्ड..... ...........................
॥१०॥ दिग्दन्तावलकर्णतालपवनप्रेवत्प्रतापानल
प्लुष्टाशेषसपत्नभूपतिभुजाहुङ्कारकारस्करः ।
........... जगतः श्रीमूलराजः सुर
स्त्रीभिः काममपास्य नाम यदसिध्यानं समाधीयते ॥११॥ क्षोणीमानणहिल्लपाटकमिति प्राकारमौलिस्खलत्
___ ताराचक्रमुदारविक्रमनिधिर्भोजः पुरं यः पुरा । यत्राऽभ्रंलिहहेमहर्म्यवलभीवैडूर्यपुञ्जप्रभा
पुढे पौरभुजङ्गसङ्गममरस्वैराः स्त्रियः कुर्वते ॥१२॥ प्रतिच्छन्दः कुन्दस्तुहिनगिरिरुच्चैरुपकथा,
समस्याऽवस्या(श्या)यः स्फुरस्फ)टिकशिखरी च द्विवचनम् । अखण्डं पाख[ण्डं] कुमुदवनखण्डं सुरसरित्
पयः पौनःपुण्यं(न्यं?) विशदमहसां यस्य यशसाम् ॥१३॥ अधिमृधमसिदा राजसूयीकयाजी, निजमहसि हुताशे राजहव्यानि हुत्वा । प्रहतरिपुभिरु/विष्टकुन्तैः सयूपं, रुधिरसलिलपूतं यश्चकाराऽश्वमेधम् ॥१४॥ पुण्याङ्गजन्मा मकरन्दवत् पुरा, शिलीमुखैर्यस्य शिलीमुखैरिव । आस्वाद्य लक्षः समरे नरेश्वरः, कथावशेषां पदवीमलम्भि सः ॥१५॥ यः शात्रवक्षोणिभृतां प्रचण्ड-दोर्दण्डकण्डूं शमयाम्बभूव । उच्छेदयामास च मण्डलानि, स राजवैद्यो वचसामपन्था(:) ॥१६॥ प्रौढप्रतापसुरवेश्मनि कीर्तिकेतु-मारोप्य कान्तनयदैवतगर्भिते यः । शात्ता(ता)सिकृत्तरिपुमस्तकनालिकेरै-राशापतिभ्य उपहारमिवाऽऽततान ॥१७॥ तस्मिन्नुद्दामवीरव्रतजनितयशःशेषतामश्नुवाने,
. चण्डश्चामुण्डराजः समजनि नृपतिस्तत्सुतो दानशौण्डः । प्रेङ्खद्भिर्यद्यशोभिस्त्रिजगति कुमुदप्रोज्ज्वलैः शुभ्रितेऽस्मिन्,
भ्रामत्यद्यापि लक्ष्मीरनुगृहमसकृत् कृष्णमन्वेषयन्ती ॥१८॥
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३०
अनुसन्धान-७२
यात्रायां यस्य चेलुः कटक-करटिनः केतुभिः सान्ध्यमेघ
ल्वा(?) यादायादभाभिर्नभसि विलसनाद् वीजितादित्यबिम्बैः । व्यावल्गद्वाजिराजिक्षतधरणिरजःपुञ्जधूमस्य क्रीला(डा)
लीलैः संहारवह्नर्द्विषदवनिभुजां दिग्गजांस्तर्जयन्तः ॥१९॥ यत्कृपाणकवलीकृताहित-प्रेयसीजनकुचस्थलादलम् ।
साञ्जनैः पतितबाष्पबिन्दुभिः, पङ्किलादिव जगाम मन्मथः ॥२०॥ तन्नेत्रपात्रीप्रतिबद्धनासिका-प्रणालिकापातिभिरश्रुबिन्दुभिः ।
माहेश्वरो यः प्रतिपन्थियोषितां, ददौ गलन्तीः स्तनलिङ्गमूर्द्धसु ॥२१॥ यद्वाणदत्तविधवाव्रतधारिणीभि-रद्रीन्द्रसान्द्रतरकुञ्जविहारिणीभिः ।
प्रत्यर्थिपार्थिववधूभिरुरोजलिङ्गे, हा-हेति मन्त्रजपनं क्रियतेऽश्रुबाष्पैः ॥२२॥ असिनभसि विलासं प्राप्य यस्य प्रताप-घुमणिरखिलवैरिप्रेयसीदिग्वधूनाम् । अहरत सह भूषारत्नताराचमूभि-श्चहुरतिमिरपूरानाकुलानां विलासैः ॥२३॥ तत्पुत्रः समभूद् विभूतिसदनं कुन्तापनीतावनी- .
___ शल्यो वल्लभराज इत्यभिधया भूमण्डलाखण्डलः । यात्रो(त्रा)नेहसि रंहसा खुरपुटैरालक्ष्य पृष्ठं भुवः,
शेषे भारमपाचकार हृदये वाऽमुष्य वाहावली ॥२४॥ शरदि यस्य तुरङ्गखुरक्षरत्-क्षितिरजःपटलच्छलधूमरी ।
विजयवल्लियश:कुसुमक्षिति, व्यतनुताऽतनुतापजुषां द्विषाम् ॥२५॥ अमितिसमितिसर्पवैरिमत्तेभकुम्भ-स्थलदलनविलग्नः स्थूलमुक्ताफलौघः । प्रचुरपयसि फुल्लत्पुष्करच्छन्नमध्ये, यदसिसरसि हंसश्रेणिशोभामवाप ॥२६॥ वैकुण्ठत्रिदशालयस्य सरणिः केतुर्द्विषां सङ्गर
__ श्रीसीमन्तपथः प्रतापहुतभुग्धूमः क्रुधां कन्दलः । कुल्या कीर्तिलतावनस्य कबरी निःसीमराज्यश्रियः,
शौर्यश्रीकरिणीकरः करतले यस्याऽसियष्टिर्बभौ ॥२७॥ विक्षुब्धदुग्धनिधिगर्भतरङ्गरङ्ग[द्]-डिण्डीरपिण्डपरिपाण्डुयशाः शशास । भ्राता भुवं तदनु दुर्लभराजनामा, रामाविलोचनमधुव्रतपद्मखण्डः ॥२८|| येनाऽखानि सरः सरोजसुभगं गम्भीरनीरश्रिया,
भ्राजिष्णुद्रुमसान्द्रसेतुवलिभिद्वैराज्यमम्भोनिधेः ।
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जून - २०१७
३१
पुष्णाति प्रतिबिम्बितासितरुचिर्यत्राऽनिशं सङ्गतः,
स्वःसिन्धोरणहिल्लपाटकपुरप्राकारभित्तिभ्रमम् ॥२९॥ यत्राऽभिषेणनभव: पथिमानमेत्य, पूर्वं सपत्ननरनाथपुरेषु रेणुः । तत्रत्यवामनयनानयनाम्बुवर्षे, राजानुकम्पपदवीमुदवाप पश्चात् ॥३०॥ यं वैरिनारीमनसि प्रियाणां, द्वितीयमालोक्य रतेरभीष्टः । स्थितिं दधौ नाऽऽत्मनि शङ्कमानो, द्वाभ्यां तृतीयोऽयमितीव मौर्यम् ॥३१॥ अध्याजि निर्भरनिघातविदारितेन(भ)-कुम्भोत्थलग्नघनमौक्तिकतारकौघः ।, प्राप्तद्विषन्मुखशशी रुधिरारुणाङ्गः, सायन्तनां वररुचिं यदसिर्बभार ॥३२॥ तस्माद् विस्मारितरिपुवधूलोकविध्योकर(बिब्बोक)रीति
र्जज्ञे नीतिव्यसनितमतिर्भूपतिर्भीमनामा । कीर्तिर्यस्य स्फुरति परितः स्वधुनीस्पर्धिनीयं,
यस्यामिन्दुर्मदयति मनो मेघफेनोपमेयः ॥३३॥ चमूचरणचूर्णितक्षितिरजोभिरग्रेसरै-निवेदितयदागमः सपदि भोजभूमीपतिः । विशन् निजपुरीं पुराऽनुपदमेव यस्याऽऽगतैः, प्रहृत्य धनुषा भटैः पतिरमोचि भूमीपतेः
॥३४॥ कशाघातत्रस्यत्तुरगखुरखातक्षितितलो
__ल्लसद्धुलीजालैरलमविरलैः संरुरुधिरे । यदुद्योगे शत्रुव्रजविधिनिधानोत्सुकचमू
चरोन्निद्रक्रोधानलबहुलधूमैरिव दिशः ॥३५॥ निर्धूमः सूर्यवह्निर्भुजभुजगपतेरुल्लसन्ती रसज्ञा,
सम्पा कोपाम्बुदस्याऽलिकतिलकलिपिः कौङ्कमी कीर्त्तिवध्वाः । सूराणामस्तसन्ध्या विजयजलनिधेर्विद्रुमाङ्करपूरः,
संरेजे यस्य खड्गः प्रतिनृपतिचमूशोणितस्नानशोणः ॥३६।। अहितनृपतिलक्ष्मीलुण्टनाद्यंभविष्णु-जितरतिपतिरूपः कर्णभूपस्ततोऽभूत् । समरसरसि धीराद् विक्रमा(मो)त्तानवीराः, कति कति न हि यस्मात् त्रासमासेदिवांसः?
॥३७॥
कैलासः कुटजानि कास(श)कुसुमं कृष्णांहिकल्लोलिनी
कल्लोलाः कुमुदानि कुन्दकलिका कम्बु[:] करिग्रामणीः ।
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३२
अनुसन्धान-७२
कर्पूरः करकावली कुमुदिनीकान्तत्विषः केतकी,
कामारिः करदानि यस्य यशसामेतानि विश्वोदरे ॥३८॥ पीताम्भोधिभिराजिरेणुभिरिलालग्नंभविष्णुर्जनः,
शीर्षेऽसौ पलितंभविष्णुरविलादम्भंभविष्णुर्दृशोः । भूतेशः सुभगंभविष्णुरजनि स्थूलंभविष्णुः स्थली,
___यस्याऽश्वीयखरोद्धतैर्घटकृतामाद्यंभविष्णुर्जनाः ॥३९॥ असमय इति यस्य द्वारपालैर्निषिद्धाः, प्रतिफलनमिषेण स्फाटिकप्राङ्गणेषु । ददृशुररिनरेन्द्राः स्वं निषि(ष)ण्णा रसान्त-र्गतमतनुहियेवाऽन्योन्यमानम्रवक्त्राः ॥४०॥ व्याघातव्रणितकलाविकेन दोष्णा, क्षोणी स क्षितरिपुसन्ततिः शशास । यद्पं चकितमृगीदृशः पुरन्ध्यः, पश्यन्त्यो दशशतनेत्रतामकाङ्क्षन् ॥४१॥ तस्मिन् शौर्यकथावशेषपदवीमुद्गाहमाने ततः,
सिद्धश्रीजयसिंहदेवनृपतिर्नेत्रप्रियंभावुकः । सप्ताम्भोधितटीपटीरपटलच्छायानिषि(ष)ण्णोरगी
गीतस्फीतयशाः शशास वसुधामेकातपत्रामिमाम् ॥४२॥ अहो! सपादलक्षेऽपि, स्वीकृते किल मालवम् ।
यो जग्राह तथाऽप्येष, त्यागीति भुवि कथ्यते ॥४३॥ विभोरस्य क्षात्रे महसि सहसा सर्पति नम-च्छिदालङ्कर्मीणे किमय--कोपादिव दिवि। तिरोधादादित्यं तरलतुरगश्रेणिरवनी-रजोभिर्दिग्जैत्रे हरिहरति यस्मिंश्च हरति ॥४४॥ अभिषिषणयिषोः किल मालवं, शरदि यस्य वनेषु विनोदिभिः । कटदिति द्विरदैर्मदशालिभिः, शकलिता(:) कलितालमहीरुहः ॥४५॥ सेना सा सहसा तस्य, घना सररसा ततः । ततसाररसाभतृ(र्तृ), जातसासहसाऽभया ॥४६॥ मुरुजबन्धः ॥ रतामरारामतार, तारहाससहारता । महासिका कासिहाम, रासकाननकासरा ॥४७॥ धरापुरीपरिसरेषु युगान्तमुक्त-मर्यादवारिलहरिप्रकरप्रकाशम् । यस्याऽश्वस्यै(सै)न्यमतिमात्रमलोकि लोकैः, फालाविलोलतरचामरफेनकूटम् ॥४८॥ प्रचलचलसमुद्रे यस्य भूभृन्निवासे, प्रसृमरतरवारिग्राहिणि स्म बुडन्ती । विदलति बत धारा नो(नौ)रिवाऽन्तर्विसर्पत(द्), बहुल[ल]हरिमन्दक्रन्ददस्तोकलोकाः
॥४९॥
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जून - २०१७
३३
नामार्थमपनीयाऽस्य, यशोवर्माणमक्षिपत् ।
धाराधवमयं कारा-पञ्जरे गूर्जरेश्वरः ॥५०॥ जायन्ते कति नाम न क्षितिभुजः क्षोणौ ? गुणज्ञः पुनः,
श्रीमान् सिद्धनरेन्द्र एव विदुषां दारिद्र्यविद्रावणः । चन्द्राद्यागमने ग्रहाः समुदयन्त्येते जगद्वाधक
ध्वान्तध्वंसकरः परन्तु भगवानम्भोजिनीवल्लभः ॥५१॥ यस्य तुष्टस्य रुष्टस्य, विदुषां विद्विषामपि ।
धर्मकर्मणि निष्णस्य, दानकेलिकरः करः ॥५२॥ सकलमेकलमेदुरगोकुलो-रसमये समये शरदोसुना ।
युधि गताधिगता रिपवः शरैः, स(श)कलिताः कलिता गजवाजिभिः ॥५३॥ वर्ण्यन्ते गणशो गुणाः कथममी कुन्देन्दुशङ्खत्विष
स्तस्य श्रीजयसिंहदेवनृपतेरेकैव जिह्वा यतः । आदौ यस्य कृपाणकृत्तशिरसां प्रत्यर्थिपृथ्वीभृतां,
सद्यः स्वर्भजतामहंप्रथमिकापाणिन्धमोऽध्वाऽभवत् ॥५४॥ तस्मिन् भूमिभृति त्रिविष्टपपतेर सन(ना)ध्यासिनि,
क्ष्मामाधत्त कुमारपालनृपतिर्वैकुण्ठवैतण्डिकः । अर्णोराजममन्दरागकलनान्निःशेषमुन्मथ्य यो,
लक्ष्मीमाप घनागमादृतवलिप्राणो रणोपक्रमे ॥५५॥ उत्कृष्टभूपगणनासु विधाय रेखां, यस्याऽऽदितः सुरसरिन्मिषतो विरञ्चिः । तत्तुल्यमन्यमवनावनवेक्ष्य पाणे-श्चन्द्रं खटीमिव मुमोच नभःकटने ॥५६॥ दृष्टस्तेन शितांशुपेशलगुणश्रेणिर्नृपः श्रेणिको,
दृष्टस्तेन दशार्णभद्रनृपतिः स्पर्द्धाजितस्व:पतिः । दृष्टस्तेन किलाऽर्धभारतपतिः श्रीसम्प्रतिः साम्प्रतं,
दृष्टो येन कुमारभूपतिरयं धर्माभिरामाकृतिः ॥५७।। दूरादेव तवाऽऽनता(:) क्षितिभृतः पुंरूपिणः पौरुषा
धारः सैष दृषन्मयानपि चिरं चौलुक्यचूडामणिः । उत्खातप्रतिरोपिता न.... भूपीठे मठः श्रेयसां,
स्थान-स्थाननिवेशितामितजिनप्रासादमालामिषात् ।।५८।।
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३४
अनुसन्धान-७२
यः कारितानेकजिनेन्दुमन्दिर-ध्वजाभुजानिर्गलहस्ति... । हिंसापिशाची(चीं) पटहप्रघोषणा-भिचारमन्त्रैर्निरवासयद् भुवः ॥५९॥ वीक्ष्य वक्षसि सानन्दा - म (मि)न्दिरां कृतमन्दिराम् । स्पर्द्धयेव मुखाम्भोजं, भेजे यस्य सरस्वती ॥६०॥ स्वीकृत्याऽऽ श्रमज श्रमध्वगतते धत्तेऽम्बु भट्टारिका,
काऽपि श्रीहरिसिद्धिरित्यनितवा (भिनवा) तावज्जनानां श्रुतिः । नव्यान्नव्यतरस्तु कुङ्कणपतेरादाय मौलिं बली,
यत्पत्तिः प्रभुरम्बडः फिल ददौ वैकुण्ठसौख्यामृतम् ॥६१॥ लीलाबन्धुरगन्धसिन्धुरघटादानोर्मिभिः पङ्किले,
यस्य द्वारि ति(नि)पेतुषः सरभसं सेवार्थिनः पार्थिवान् । आलोकन्त सहासहाकृतिकृतः पौरा गरीय:परा
भूतिम्लानमुखत्विषः परिलसल्लज्जानमत्कन्धरान् ॥६२॥ एकातपत्रां भुवमत्र शासति, छत्राणि काले जलदस्य केवलम् । कुलालगेहे बहु पार्थिवस्थिति-र्नदीषु रोधः कलिरद्रिभूमिषु ॥६३॥ अमरनगरनारीनेत्रनि:पीयमाने, क्षितिभुजि भुजभीमः तत्र निःसीमकीर्त्तिः । नृपतिरजयदेवः सेवते स्म क्षमाया - स्तलमतुलबलश्रीः शत्रुसन्तानकेतु ॥६४॥ प्रसृमरमदकुल्यातीरवैखानसालि-द्विजकुलकृतपुञ्जावेदमन्त्रानुवादैः ।
युवतिकुच किशोरद्वन्द्वदायादकुम्भैः, करिभिरकृत यस्य प्राभृतं जाङ्गलेन्द्रः ||६५ || गच्छामः स्वपुरं पुरन्दरपुरद्वैराज्यमत्र स्थितै
र्मातः! किं गहने वनेऽथ जनकः कोऽस्माकमित्यात्मजैः । उक्ताः पूर्वसुखं नवीनमसुखं स्मृत्वाऽस्य वैरिस्त्रियः (य)स्ना(स्ता)नेव स्नपयाम्बभूवुरमितैः क्रोडस्थितानश्रुभिः ॥६६॥ अजनि विजयमूलं मूलराजस्तदीयः, क्षितिपतिरतिवीरः सूनुरन्यूनतेजाः । अधिकलिततरङ्गान् वैरिणो वाहिनीशान्, यदसिकलसयोनिः पीतवान् लीलयैव ॥६७॥ किं ब्रूमो वयमस्य चारुचरितं चौलुक्यचूडामणे:, ...... पार्थिवघटाकुट्टाकदो: सम्पदः ।
मूच्छिः कुण्ठितकर्मकर्मठतया........
यः संहर्तुमना मनागपि रणे बालोऽपि नाऽऽलोकितः ॥६८॥
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जून २०१७
-
तत्पट्टोदयशैले, राजमहसि हृतौ सहः शूरः ( ? ) । उदयायि भीमदेवः, तमः प्रणासी (शी) महातेजाः ॥ ६९ ॥ एतस्मिन्नवनीश्वरे शिशुतया त्रातुः किलाऽनीश्वरे,
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भूमीगोलमलोलसाहसनिधिस्तद्वश्य एवाऽभवत् । अर्णोराज इति प्रतापवसतिः सामन्तवास्तोष्पतिः,
प्रत्यर्थिप्रतिहूतगुर्जरपतिः श्रीजालजालन्धरः ॥७०॥ सारावं मारयामास, रणसिंहनृपं रणे । यः पुरा गूर्जरधरा-निर्जराधिपवैरिणम् ॥७१॥ वैकुण्ठनाकाध्वनि यस्य रेजुः कृपाणपट्टे पृथुपुष्कराणि । हताहितक्षोणिभृतां प्रयाता - महो पदानीव करम्बितानि ॥ ७२ ॥ कुन्देन्दुसुन्दरमहांसि यशांसि यस्य, विश्वत्रयीं धवलयन्ति किमत्र चित्रम् ? । विद्वेषिणां मलिनयन्ति यशः प्रशस्ति- मेतत् पुनर्मनसि कस्य न कौतुकाय ? ॥७३॥ तदङ्गज: सङ्गरसङ्गरङ्गः, कृतारिभङ्गः स्मरचङ्गदैहः ।
अजायत श्रीगिरिशप्रसाद - प्रसादलीलो लवणप्रसादः ॥ ७४॥ लाटः पाटवमुत्ससर्ज समभूद् बङ्गोऽपि रङ्गोजि (ज्झि)त:, पाण्ड्यः पिण्डमपाकरोद् गिरिगुहाकोणेऽविशत् कौङ्कणः । केलि केलिरनायकोऽपि मुमुचे कान्तीरवन्तीपतिः,
श्रुत्वा यस्य जगन्नमस्यमहसः प्रस्थानभेरीरवम् ॥७५॥ यद्वाजिराजिगमनोद्भुतधूलिसम्प- दाढ्यम्भविष्णुषु तटेषु दिवस्तटिन्याः । क्रीडन्ति देवशिशुभिः सह पांशुमुष्टि - निक्षेपगूढमणिभिः सुरलोककन्याः ॥७६॥ यमभिवीक्ष्य यमाकृतिमुद्भट - स्फुरणतो रणतो रिपुराजकम् । द्रुतमनेशदुपद्रुतमुज्ज (ज्झ) ता-नुपमकुन्तमकुन्तलबन्धनम् ॥७७॥ कस्तूरी-घनसार-कर्बुरसुरः श्रीखण्डलिप्तं वपु
धम्मिल्ले नवमल्लिका मृगदृशः कण्ठे परीरम्भणम् । वक्त्रे नागरखण्डमित्यपि गते सङ्कल्पयोनिं मनः,
सूते नैव तथाऽपि यद्भयभरत्रस्यत्त्विषां विद्विषाम् ॥७८॥ आकर्ण्य प्रावृषेण्याम्बुदनिवहमहागर्जितं गूर्जरन्दो
र्यस्याऽवस्कन्दताम्रानकनिकररवभ्रान्तितो भीतिमन्तः ।
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३६
अनुसन्धान-७२
नश्यन्तस्त्यक्ततल्पा: करधृतवसनं मुक्तकेशाः क्षितीशाः, सन्धार्यन्तेऽवरोधैः कथमपि कथितप्रस्तुतार्थैर्निशीथे ॥ ७९ ॥
जलधरपयःपूरैः खातक्षितिप्रकटानरि-क्षितिपनगरे प्राप्यानल्पान् निधीनधिमन्दिरम् । अतिगुरुगिरा गायद्भिर्यत्पराक्रममुज्ज्वलं, कटिकृतकुथकु (त्कु)न्थै: पाथै: सहर्षमनृत्यत
॥८०॥
सुतस्तस्मादासीदिह जगति दासीकृतरिपुः,
क्षितीस: (शः ) स न्यायी प्रकृतिधवली (लो) वीरधवलः । अहो पञ्चग्रामप्रधम (न) मिषधारागृहगतः,
प्रतापी यस्याऽसिर्भटरुधिरधाराभिरभवत् ॥८१॥ शत्रूणां कालरात्रि (र्मृ) गमदतिलकं प्राज्यसाम्राज्यलक्ष्म्याः, शाखा रोषद्रुमस्य प्रचलतरमहः खड्गिनः शृङ्गयष्टिः । स्फूर्जच्छौर्यप्रदीपाञ्जनमनणुयशः पुण्डरीकस्य नालं,
पाथोधिः पुष्कराणामसिरसितरुचिर्यस्य हस्ते विभाति ॥८२॥ भास्वत्कान्तिकुलङ्गिलेन रजसा वाजिव्रजक्षोदित -
क्ष्मापीठप्रभवेण नैशतमसामद्वैतमातन्वत ।
लोकेऽस्मिँश्चिरकाङ्क्षिताप्ररवधूसम्भोगसंसिद्धिवान्,
यस्मै हन्त परंतयाऽयमुदितः कामी जनः श्लाघ्यते ॥८३॥ युधि यत्र घनश्रीके, शरासाराभिवर्षिणि । प्रत्यर्थिवाहिनीहंसै- रुड्डीयोड्डीय निर्गतम् ॥८४॥
वनकरिकराघातैरस्तङ्गतद्र (दु) मभर्तृका, निभृतमसकृत् क्षोणीपीठे लुठत्तनुयष्टयः । यदरिनगरीलीलोद्याने गलत्कुसुमाश्रुभि-र्भ्रमरकवि[भिरु]त्क्षिप्तोच्चै रुदन्ति लताङ्गनाः ॥८५॥
दत्तेङ्गकम्पितिमिवीव(?) मुखारविन्द - ग्लानिं तनोति परिमन्दयति प्रतापम् । यत्कीर्त्तिरत्र हिमराजिरिव स्फुरन्ती, द्वेष्टि द्विषां विजयवल्लियशः प्रसूनम् ॥८६॥ उद्धूतानां मरुद्भिः पथि पथि रजसा (सां) दर्शनाद् भीतभीतः, कम्पादुद्भ्रान्तदृष्टिर्द्विषदवनिभुजामात्तदिक्कः समूहः ।
यस्याऽवस्कन्धमेव स्फुरितमनुपदं शङ्कमानो दिगन्तानारुह्याऽऽरुह्यपल्लीशिखरिषु सहसाऽस्तोकमालोकते स्म ॥८७॥
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जून २०१७
यस्य तेजोनलं काष्ठा-न्तर्गतं रिपुयोषिताम् । परित (:) पोषयामासु-रिव निश्वासमारुतैः ॥८८॥ यदरिगणः कविवाणी - श्रवणपरः सम्पदीव विधुरेऽपि । गैरिककटकविटङ्काः, कृशोदरीभूषितो भजति ॥८९॥ पृथ्वीचौर! निवारकोऽसि जलधेश्चन्द्रः श्रितस्त्वत्पदो
निद्रालुः सकलभ्रमेषु जगतः संकृद्व्यपायो ( ? ) बली सद्वाक्यामृतचङ्गगी: सजवनज्योतिः प्रगेयं दिशः,
शश्वद् व्यापृतवानिहाऽऽप सहसादोजस्विलीलं यशः ॥९०॥ ॥ इदं काव्यं कविनामगर्भं चक्रं दुष्करम् ॥
शेषदण्डजुषः क्षोणी- च्छत्रस्य कलशायते । अयं वलयिताम्भोधि- दुकूलस्योपरि स्थितः ॥९१॥
इतश्च
अखर्वः शाखाभिः फलतिलकिताभिः कलयति;
स्फुट (ट) प्राग्वाटानां वटवटपलक्ष्मीमभिजनः । अपर्णोऽपि च्छायां क्षितिवलयकुक्षिम्भरिमयं,
वितन्वानः कामं प्रथयति न कस्याऽद्भुतरसम् ? ॥९२॥ तत्राऽजायत निस्तुषायतगुणश्रेणीभिरात्मम्भरि
विश्वाधारपरः पुरा नवनवश्रीमण्डपश्चण्डपः । यत्कीर्त्या धवलीकृतेऽवनितले कल्लोलकोलाहलैर्जानीते यदि कंसवः शिशयिषुर्दुग्धाम्बुधिं प्रावृषि ॥९३॥ समभूदयं गजपतिर्जगति, प्रथमः सतां समतया मतया । च्छलमाप्तवान्न कलितः
प्रतिवासरं परमया रमया ( ? ) ॥९४॥!
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३७
वल्गद्विवेककलहंससरोजखण्ड-श्चण्डाश्मचारुगुणरत्नमहाकरण्डः । चण्डप्रसाद इति धर्मधनैरखण्ड - स्तस्मादजायत सदायतबाहुदण्डः ॥९५॥
दिग्दन्तावलकर्णतालमितिभिर्यत्कीर्त्तिरङ्गाङ्गना,
नृत्यन्ती श्रमवा (मा) गतेव जगतीविस्तीर्णरङ्गाङ्गणे । म्लानं म्लान्यमिवाऽक्ष (क्षि ) पन् मृगधरं धम्मिल्लकोशादमून्यादाय स्वनखैर्ललाटतटतः खेदोदबिन्दूनिव ॥९६॥
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अनुसन्धान-७२
क्षोणीमण्डलकुण्डलः समभवत् तस्याऽङ्गजः स्वर्गजप्रालेयाचल-कास-कुन्दकलिकासंकाशकीर्त्तिः कृती | सोमः कोमलकौमुदीपतिकलासब्रह्मणीभिर्गुण
श्रेणीभिः कलितः सदैव ललित श्रीकेलिकेलीगृहम् ॥९७|| पर्यणैषीदसौ सीता-मविश्वामित्रसङ्गतः । असूत्रितमहाधर्म- लाघवो राघवोऽपरः ॥९८॥
जननीतिविदात्मीयं, जननीपदपङ्कजम् । प्रत्यहं विजयावासः, पूजयामास यः सुधीः ॥९९॥ फुल्लत्कैरवभैरवप्रहसितश्वेतं यदीयं यशः,
श्रुत्वा संसदि गीयमानमनिशं हाहादिभिर्गायनैः । धारावाहिभिरश्रुभिः प्रमुदितस्तद्यन्त्रधारागृह
क्रीडाकौतुकमातनोति सुचिरं शच्याः सहस्रेक्षणः ॥१००॥ सुतारकीर्त्तिः सुकुमारकीर्त्तिः, कुमारदेवीमिति धर्मसेवी । किलोपयेमे हृतहेमगौरीं, पूरीकृताशेषजनोपकारः ॥१०१॥
तस्याः कुक्षिसरोहंसाः, पक्षद्वयसमुज्ज्वलाः । त्रयोऽस्य सूनवोऽभूवन्, सदाचरणरागिणः ॥१०२॥
ज्येष्ठो तेषां जातवान् मल्लदेवः, श्रेष्ठः कीर्त्या वस्तुपालो द्वितीयः । तार्तीयीकस्तारिविस्तारितेजाः, तेजःपालः पालितस्वप्रतिज्ञः ॥१०३॥ तेजःपाल इति प्रसिद्धमहिमा वर्ण्यो हिमानीशुचि: (चि)
स्वान्तः कान्तगुणैकभूः स विदुषां केषां विशेषान्नहि ? । यं सर्वेश्वरमीश्वरप्रतिनिधिः प्राज्ये स्वराज्येऽप्यधान्
निर्बन्धादुपरुध्य वीरधवलः क्ष्माचक्रसङ्क्रन्दनः ॥ १०४॥ स्फुटितकुटजगौरा यस्य दूरादपि स्व:- सरितमिव विजेतुं गीयमाना दिशाभिः । स्फुरति वियति कीर्त्तिः कारितानेकचैत्य-ध्वजपटकपटेनाऽऽसूत्र्य मूर्तीरनन्ताः ॥१०५॥ यस्य विस्फुरितं पाणि - पल्लवेन तथा तथा । यथाऽर्थिभिर्वृथा कल्प- दुमसृष्टिरमन्यत ॥ १०६ ॥
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उल्लासयामास गुणैः स्वकीयै-र्योत्स्नावदातैः कुमुदं सदा यः । प्राग्वाटवंशार्णवपार्वणेन्दुः, स वर्ण्यते सम्प्रति वस्तुपालः ॥१०७|| यदधीनमधाद् वीर-धवलो धवलैगु(गुं)णैः । स्तम्भतीर्थपुरं क्षेम-हेतवे योगसङ्गतः ॥१०८॥ सिन्धुराजतनयो नयोज्ज्वल(:), स्तम्भतीर्थनिधनार्थमागतः । शङ्खभूपतिरमात्यभूभुजा, येन सङ्गरभुवि प्रवासितः ॥१०९।। न किं जाल्मोऽमुना योद्ध-माययौ सिन्धुराजभूः । शङ्खः स यः पुरः कीर्त्या, योषिताऽप्यस्य निजितः ॥११०॥ विश्वस्याऽपि समक्षमेव विदधे सा नर्मदा नर्मदा
तीरे वीरवरेण येन जयिना सेना यदूनां पुरा । तेनाऽपि प्रसभं महीतटमहीमागत्य मृत्योर्महे
सेहे भ्रूकुटिभङ्गभीषणमुखः सङ्ख्ये न सं(शंखेन यः ॥१११॥ पूत्कृत्य शङ्ख हरशङ्खगौर-गुणेन येनाऽऽजिमहे महीयान् । असूत्रि मन्त्रिप्रवरेण कोऽपि, शब्दः स यो नाऽब्दशतैर्विनाशी ॥११२।। दिग्दन्तावलगल्लपल्वलगलद्दानाम्बुभिः पङ्किले,
क्रीडित्वा किल यस्य कुन्दधवला कीर्त्तिदिशां मण्डले । यद्दत्त्वोरसि फालया(म)म्बरभुवः स्वर्द्धामधामाऽगमद्
धत्ते तत्पदमेकमङ्कमिषतः पङ्काकुलं चन्द्रमाः ॥११३॥ भजत भजत धर्म्य कर्म दुष्कर्मधर्म-क्षपणनिपुणगङ्गावारिसब्रह्मचारि । कुगतियुवतिलास्यस्थानमालस्यमस्मि-न्नपि च कुरुत मा मा वर्तते यावदायुः ॥११४॥ अयि यदिदमजस्रं विस्रसाकम्पमान-द्रुहिणकरचतुष्काध्यापकाधीतरीतिः । जवनपवनवेल्लद्वैजयन्तीपटानां, विरचयति चलत्वे वादपत्रावलम्ब[म्] ॥११५।।
॥ युग्मम् ।। इति निपीय गुरोर्गुरुदेशना-वचनवारि निवारितकल्मषम् । अयमसूत्रयदात्महितक्रिया-ममितिधर्मविनिर्मितिभिः कृती ॥११६।। श्रीशत्रुञ्जय-रैवतादिषु महातीर्थेषु धर्मार्थिना,
येनाऽकारि चतुर्दिगन्तमिलितामादाय सङ्घावलीम् । मोहारेरभिषेणनप्रतिकृतिर्यात्रा पवित्रात्मना,
के के तद्गुणवर्णनासु कवयः सान्द्रासु तन्द्रालवः ? ॥११७।।
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अनुसन्धान-७२
अपरहिमगिरिप्रभं पताका-मिषमखभोजनवाहिनीकमुच्चैः । सुरसदनमकारि नाभिसूते-र्धवलकृते सुकृतेङ्गितेन येन ॥११८॥ किञ्च स्तम्भनके निकेतनमयं वामेयभर्तुर्नवी
चक्रे शक्रपुरं प्रसृत्वरयशोगीतः परीतः श्रिया । यस्योदंशुमुदीक्ष्य हेमकलशं प्रत्यंशुमालिभ्रम
क्रोधेनेव पतिस्त्विषामुदयते प्रध्मातताम्रारुणः ॥११९।। उद्दधे यः सुधाबन्धु-वाचा पञ्चासराभिधम् । सुरसद्मशिखापुष्कु(ष्प)-मणहिल्लपुरश्रियः ॥१२०॥ स्थम्भनकपुरं परितः, प्राकारं किञ्च कारयामास । यः कलिवैरिविलोडित-धर्माभयदुर्गमिव सचिवः ॥१२॥ पौषधशाला दुरितौ-षधशाला येन कारिता बहुशः । आनन्द-कामदेव-प्रमुखाननुकुर्वता चरितैः ॥१२२॥ न्यायान्निजभुजोपात्तं, वित्तबीजमसौ सुधीः । शस्यार्थमर्थिकल्पद्रुः, सप्तक्षेत्र्यामवीवपत् ॥१२३॥ येनाऽखानि सुपुण्यखानिचरितेनाऽत्यन्तरम्यं सरो, नीरोत्त(त्तु)ङ्गतरङ्गरङ्गसुभगं ग्रामेऽर्कपालीयके । यत्राऽम्भोजवनीवनीपकमहो मत्तालिनां पेटकं, प्राहुं कल्पदु गायती(?) बत गिरा श्वेतं यदीयं यशः ॥१२४।। कि बहु ब्रूमहेऽमुष्य, धर्मस्थानमितिस्तदा । क्रियते क्रियते व्योम्नि, नक्षत्राणां मितिर्यदा ॥१२५।। ऐन्द्रो मण्डप एष चण्डपकुलश्वेतांशुना कारितस्तेनाऽनल्पगुणापणेन तरणेींहारविष्कम्भकः । तत्तत्पूर्वजमूर्तिभिस्तिलकितः शैवेय-वामेययोचैत्यद्वन्द्वमिदं च सञ्चितयशःसन्दोहसन्देहकृत् ॥१२६॥ आगत्येन्द्रमतन्द्रचन्द्रमहसां धिक्कारिणी स्वैरिणी,
यावन्मण्डपमश्वराजतनयेनाऽग्राहि यल्लम्पटा । सा कीर्तिर्भुवनं समागतवती तद्वल्लभा सम्भ्रमा
दित्येवं परिभावयन्निव जराजीर्णो विधिः कम्पते ॥१२७॥
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गण्यः पुण्यवतामयं धुरि धराऽनेनैव रत्नप्रसूः, श्लाघ्योऽसौ महतामयं गुणमयः श्रीवस्तुपालः सुधीः । यः शत्रुञ्जयतीर्थपार्थिवशिरस्यासूत्रयामासिवानैन्द्रं मण्डपमुच्चमुत्तममनुं श्वेतातपत्रोपमम् ॥१२८॥ किञ्चैतस्य कुले गुरुर्गुरुतरप्रज्ञापरिज्ञातगीः
सर्वस्व (:) स्मरदोः स्मयव्ययपटुः श्रीशान्तिसूरि : पुर ( रा ) । आसीद् गौतमसत्तमक्रमनमद्भव्यावलीमूर्द्धसु,
च्छत्रीभूय यदीयपाणिरकरोत् पापातपापाकृतिम् ॥१२९॥ अजनि रजनिजानिद्योतिरुद्योतिशील-व्रतविदलितमोहध्वान्तवल्लिप्ररोहः । तदनु जगदमारक्रोडविक्रोडदंष्ट्रो - गमरममरसूरिः सातयन् कीर्त्तिभूरिः ॥१३०॥ तेनेन्द्रमण्डपे तेने, मतेनेह मनीषिणाम् ।
प्रतिष्ठाविधिरम्भोधि-गम्भीरिमगुणस्पृशा ॥१३१॥५
अस्ति स्वस्तिश्रीविशालो विशालो, द्रङ्गः सम्पन्मण्डली मण्डलीति । तस्मिन्नासीत्(द्) मोहमल्लप्रणाशी, प्रज्ञाभूरिः किञ्च देवेन्द्रसूरिः ॥१३२॥ समजनि नभः सिन्धुश्रोतस्सबन्धुयशः सुधाधवलितहरिद्भित्तिर्भद्रेश्वरो गणनायकः ।
तदनु सदनं सच्चारित्रश्रियः परमद्भुत
स्थितिरपबलः स्तम्भारम्भान्वितो न कदापि यत् ॥ १३३ ॥
अभवदभयदेव(:) सूरिरुद्दामकीर्त्ति
स्तदनु वदनलक्ष्मीनिर्जितेन्दुप्रशस्तिः ।
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व्यथितुमिह मनांसि त्रासमासाद्य यस्माद्(त्), प्रगुणयति न बाणं पञ्चबाणो मुनीनाम् ॥१३४॥ साहित्याम्बुनिबुद्धि (निधि:) .... [ सत्त ] र्कलीलाविधिर्नानालक्षणसेवधिर्निरवधि ब्रू (ब्रू) म: किमन्यद् वयम् ? । पुंरूपेव सरस्वती त्रिजगतीसङ्गीतकीर्त्तिः कृती,
तत्पट्टे हरिभद्रसूरिरजनि श्रीमानतीव व्रती ॥ १३५॥ शिष्यस्तस्याऽभवद् बाल-चन्द्रसूरिरतन्द्रधीः ।
प्रत्यपद्यत यं स्वप्ने, तनयं श्रुतदेवता ॥ १३६॥
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अनुसन्धान-७२
तेने तेनेयमसमा, समावर्जितकोविदा ।
श्रीमतो वस्तुपालस्य, प्रशस्तिः स्वस्तिशालिनः ॥१३७॥ सार्द्ध तारागवीभिः निशि शशिवृषभे पश्चिमायां प्रयाति,
प्रातः प्रातश्चरित्वा तरलतमतमःपूरदूर्वावणानि । भास्वानश्वानिव स्वान् हरिहरिति चिरं चारयत्येष यावत्,
तावन्नन्द्यादनिन्द्या मतिभण(णि)तिरसौ वस्तुपालप्रशस्तिः ॥१३८॥ ॥ इति मन्त्रिमुकुटश्रीवस्तुपालप्रशस्तिः ॥ स्वस्तिकृद् भूयात्
श्रीश्रमणसङ्कस्य ॥ कृतिरियं श्रीबालचन्द्रकवेः ॥ लिखिता सिद्धान्तधर्मेण
सं. १५१८ व. [वर्षे] ॥
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श्रीबालचन्द्रसूरिरचिता श्रीवस्तुपालप्रशस्तिः
॥०॥ श्रीरैवतावले श्रीवस्तुपालावतारितश्रीशत्रुञ्जयप्रासादे वामभागे प्रविशतां पट्टिकाषट्कप्रशस्तिकाव्यानि यथा
लक्ष्मीताण्डवमण्डपे हृदि सदा विश्वोपकारिव्रतं, बिभ्राणः किल शैशवेऽपि कलयन् गोपीवरत्वं विभुः । प्रत्युद्यु(द्य)त्समितौ जिगाय नरकं योऽरिष्टनेमिर्जगद्, विख्यातः स निरस्तदुर्द(ध)रतमा देवो मुदे वो जिनः ॥१॥ पाथोनाथ इवाऽच्युतस्थितिवशो वंशोऽस्ति गम्भीरतापात्रं प्राप्तसरस्वतीपरिचयः प्राग्वाट इत्याह्वयात् ।। दत्वा रत्नकदम्बकानि सुमनःप्रीति समातन्वती, येनाऽशोभि यशोभिरम्बरतलं द(डि)ण्डीरपिण्डैरिव ॥२॥ तत्राऽजनिष्ट चण्डप-इति गुणसङ्गीतमण्डपः श्रीमान् । निजकुलदेवकुलं यो, जिनदैवतमावृणोति स्म ॥३॥ निजकुलकीतिस्तम्भः, समभूच्चण्डप्रसाद इति तस्मात् । समजनि यत्र जयश्रीः, सर्मिणी शालभञ्जीव ॥४॥ पुरुषोत्तमस्य तस्या-ऽजनिषातां सौर-सोमनामानौ । पुत्रावनुकृतनेत्रा-वतिमात्रालोकनिष्णातौ ॥५॥ सोमस्य च रामस्य च, निच्छद्मगुणस्य नाऽन्तरं विद्मः । कुशलवपुषोऽङ्कपाली(ली), समवाप्यत सीतया यस्य ॥६॥ विधेर्वेधा इवाऽमुष्य, त्रयोऽभूवंस्तनुभूवः । केलीति नन्दिनी चैका, शारदेव विशारदा ॥७॥ तेषु मुख्योऽश्वराजाख्यो, मध्यो विजयराभिधः । लघुस्तिहुणपालाह्व-स्त्रयीवेयं त्रयी बभौ ॥८॥ ब्रूमः किमश्वराजस्य, पित्रोभक्तिकृतोऽधिकम् । कथायां न धिनोत्येव, श्रवणः श्रवणद्वयम् ॥९॥
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अनुसन्धान-७२
प्राग्वाटान्वयभूस्तथाऽजनि पुरा सामन्तनामा पुमांस्तद्भः शान्तिरिति प्रशान्तचरितोऽस्माद् ब्रह्मनागः सुतः । तत्पुत्रोऽभवदामदत्त इति तद्भू (र्ना)गडोऽभूत् ततो, दण्डेशः समभूत् प्रभूतधिषणासम्भूतिराभूरिति ॥१०॥ धनपाल-पूर्णपालौ, महिपालस्तस्य सूनवोऽभूवन् । लक्ष्मीकुक्षेः पुत्री, कुमारदेवीति च ख्याता ॥११॥ सोमसूनोर्बुधस्येव, बुद्धिर्विश्वैकपावि(व)नि(नी) । आसराजस्य तस्याऽसा-वजायत सधमिणी ॥१२।। कुमारदेव्यामेतस्य, चत्वारः सूनवोऽभवन् । कलौ धर्मनृपस्याऽङ्ग-रक्षका इव ये बभुः ॥१३॥ आद्यस्तेषामशेषाघ-लवनो लूणिकाभिधः ।
प्रतिकूलः कलेर्मल्ल-देवोऽभूदपरः पुनः ॥१४॥ श्रीवस्तुपाल इति पौरुषवेश्म तेजः-पालश्च शुद्धमतिधाम तृतीय-तुर्यो । तौ मन्त्रितामलभतां चतुरौ चुल(लु)क्य-वीरस्य वीरधवलस्य धरामघोनः ।।१५।।
जाल-मायू-सायू-धनदेवी-सोहगा-वयजूकाऽऽखाः(ख्याः) । पद्मलदेवी चैषां, क्रमान्दिमाः सप्त सोदर्यः ॥१६॥ लीलू-पातू उभे कान्ते, मल्लदेवस्य मन्त्रिणः । लीलूभवः सुतः पूर्ण-सिंहस्तद्भश्च पेथडः ॥१७॥ दयिते ललितादेवी-सूखलते वस्तुपालसचिवस्य । ललितादेव्या जात-स्तनयस्तु जयन्तसिंहाख्यः ॥१८॥ तेजःपालस्य धाम्नाऽपि, नाम्ना त्वनुपमा प्रिया । अपत्ये बकुलदेवी-लूणसिंहावजीजनत् ॥१९॥ वंश एष रघुवंश इवाऽस्मिन्, भूतले स्तुतिपदं न किमस्तु । यत्र साम्प्रतमिमौ सचिवेन्द्रौ, रामलक्ष्मणनिभौ विजयेते ॥२०॥
॥ इति वंशाधिकारः प्रथमः ॥ विक्रमनृपकालाद् द्वा-शतमितसमयचूलिकाभूतान्(त्) । सप्ताधिकसप्ततिका-दारभ्य चुल(लुक्यनृपसभ्यः ॥१॥ पुरनगरग्रामादिषु, धर्मस्थानानि धार्मिकः श्रीमान् । वस्तूनि वस्तुपालो, विविधानि विधापयामास ॥२॥ युग्मम् ॥
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शत्रुञ्जयगिरौ पूर्व-मिन्द्रमण्डपसज्ञितम् । असौ कलितिरस्कारं, कारयामास कीर्तनम् ॥३॥ ६/६३६ तत्राऽम्बका-ऽवलोकन-शाम्ब-प्रद्युम्नसानुभिः । सह रैवततीर्थेन्दो-रसौ चैत्यमसूत्रयत् ॥४॥ ६/६३७ स्तम्भनकतीर्थनायक-चैत्ये तत्रैव कारितेऽकार्षीत् । निजनायक-निजदयिता-निजगुरु-निजबन्धु-निजमूर्तीः ॥५॥ ६/६३८ तत्राऽन्वितं श्रीजयतल्लदेव्याः(व्या), श्रीवीरभूपालमसौ निजेशम् । शचीसखं शक्रमिव द्विपेन्द्रा-धिरूढमूर्ति रचयाञ्चकार ॥६॥ ६/६३९ आत्मानमात्मानुजमप्यजस्रं, विश्राणितश्रीविदुषामिहाऽसौ। आरासनीयाश्ममयाश्वपृष्ठ-प्रतिष्ठमूर्ति घटयाञ्चकार ॥७॥ ६/६४० तत्रैव मन्त्रिसुत्रामा, स कायोत्सर्गिणौ जिनौ । उर्ध्वंदमौ जगद्रक्षा-यामिकाविव निर्ममे ||८|| ६/६४१ तत्रैव मण्डपे सप्ता-र्हदेवकुलिकानिभान् । सप्ताऽपि दुर्गतीर्जित्वा, जयस्तम्भानरोपयत् ॥९॥ ६/६४४ तत्र श्रीशारदां वाच्य-दिव्यरूपद्वयीमसौ । शस्तां प्रशस्तिमूर्तिभ्यां, स्वहदीव न्यवीविशत् ॥१०॥ प्रत्यग्द्वारगतं चन्द्र-कलासितसि(शि)लाशतैः । तत्रेन्द्रमण्डपे मन्त्री, तोरणं स व्यरीरचत् ॥११॥ ६/६४५ तत्राऽऽदिनाथतीर्थेन्दो-रसौ चैत्यपुरोभुवि । प्रतोलीं कारयाञ्चक्रे, सह प्राकारवा(बा)हया ॥१२॥ ६/६४९ मुधाकृतसुधाकुण्डं, कुण्डं गजपदाभिधम् । सूत्रयामास मन्त्रीन्दु(न्द्र)-स्तत्र स्नात्रकृतेऽर्हताम् ॥१३॥ ६/६५० स्वज्येष्ठयोलूँणिग-मल्लदेवयो-मूर्ती पृथग्मण्डपिका-हय-स्थिते । स कारयामास युगादिदेवता-गृहप्रवेशाध्वनि वामदक्ष(क्षि)णे ॥१४॥ ६/६५४ स वामतो दक्ष(क्षि)णतस्तथैतयोः, प्रत्येकमेवाऽमितपुण्यहेतवे । सङ्घाधिनाथस्य समाजमण्डपं, प्रशस्तिमद्वास्तु च वस्तुमातनोत् ॥१५॥ तदङ्गानि निधायाऽधः, स्तम्भे तीर्थेश(शि)तुः पुरः । असौ श्रीमल्लदेवस्य, मूर्ति स्थापितवानिह ॥१६।।
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अनुसन्धान-७२
द्वारि युगादिजिनेन्दो - स्तोरणमारासनीयमतिविशदम् । व्यरचयदयमिह सुमहत्, पद्यामिव शिवपदारोहे ||१७|| ६ / ६५५ अभितोरणमुत्तुङ्ग-मत्तवारणमण्डिताम् ।
जगतीं रचयाञ्चक्रे, सेनामिव निजामयम् ॥१८॥ ६ / ६५९ तत्राऽऽदिनाथस्य पुरः प्रशस्ति - चतुष्किकायुग्ममसावकार्षीत् । विलोकयन्त्या इव तोरणं तच्चैत्यश्रियो नेत्रयुगं विकासि ||१९|| ६ / ६६० तत्राऽऽदिनाथधाम्नो, बलानकान् मण्डपे सतां विशाम् ।
दक्षिणपक्षे ललिता-देव्याः पुण्याय निजसधर्मिण्या (ण्याः) ॥२०॥ ६/६६१ सत्यपुराह्वं तीर्थं श्रीवीरसनाथमकृत सुकृती सः । स्व-स्ववधूमूर्ति श्री-ब्राह्मी- श्रीब्रह्मशान्तियुतम् ॥२१॥ ६ / ६६२ [युग्मम्] तत्रैव वामपक्षे, सौख्यलतानामधेयधन्यायाः । अपरस्याः प्रेयस्याः, श्रेयोऽर्थमनर्थदलनसहम् ॥२२॥ ६/६६३ अश्वावबोधतीर्थं, मुनिसुव्रततीर्थनायकसनाथम् । समवसरणा-ऽश्व-शकुनी - वटमुनियुग- मृगयुमूर्तियुतम् ||२३|| ६/६६४ जितशत्रु - श(शि) लामेघ-क्षितिपति वणिजां सुदर्शनादेव्याः । स्वस्य च सौख्यलतायाः सह मूर्त्तिभिरातनोदेषः ॥२४॥
[त्रिभिर्विशेषकम् ] ६ / ६६५
उभयोरपि कीर्तनयो-रनयोः पुरतः प्रशस्तिमतिशस्ताम् । उपरि च हेमदण्डं, कलशं च कलाशयो विदधे ॥२५॥ तत्पुरतः प्रपितामह - चण्डप - चण्डप्रसादपुण्याय । विजय सोऽजित - सम्भव - जिनयुगलं कारयामास ||२६|| ६ / ६६६ ललितादेव्याः स्वस्य च, मूर्त्योस्तत्रैव मण्डपे मन्त्री | देवकुलिकामकारय-दुदङ्मुखीं स्फाटिकद्वाराम् ||२७|| ६/६६७ चतस्रश्च चतस्रश्च, दक्ष (क्षि) णोत्तरपक्षयोः । अकारयि(य)दसावादि-जिनचैत्ये चतुष्किकाः ॥२८॥ ६ / ६६८ नाऽभूदे (द्दे) वकुलस्य, प्रमाणतः पूर्वमेष इति है । नाभेयचैत्यमू(मौ)ला-वकारयत् कलशमिह किल सः ॥२९॥
युगादिदेवायतनेऽत्र कुम्भ-त्रयं त्रयाणामपि मण्डपानाम् । प्रतापसिंहाधिप(भिध)पौत्रपुण्य-कृते कृतं स्वर्णमयं कृती सः ||३०|| ६/६७०
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तत्रेन्द्रमण्डपासन्नं, तेजःपालोऽस्य चाऽनुजः । कीर्तनं विदधे कीर्त्ति-नन्दी नन्दीश्वराभिध:(धम्) ॥३२॥ ६/६७२ स्वसोदरीणां सप्ताना-मपि पुण्याभिवृद्धये । कुलीनो देवकुलिका-स्तदुपान्ते विनिर्ममे ॥३२॥ कान्तयोर्मल्लदेवस्य, लीलू-पातूसमाख्ययोः । तत्पुत्र-पौत्रयोः पूर्ण-सिंह-पेथडसञ्जयोः ॥३३॥ श्रेयसे देवकुलिका-श्चतस्रस्तत्र कारिताः । तिस्रश्चाऽपि यशोराजः(ज)-श्रेष्ठिनः सुहृदोऽमुना ॥३४॥[युग्मम्] अनुपममतिरयमनुपम-देव्याः स्वस्याऽपि पुरुषमानेन । आरासनीयमस्मिन्, मूर्तियुगं कारयामासे ॥३५॥ ६/६७६ व्यधादनुपमाप्रिया-ऽनुपमपुण्यसंसिद्धये, सुधीरनुपमासरस्तदुपकण्ठकुञ्जान्तरे । । तटेऽस्य जिनपूजनव्यतिकराय किञ्च धुसद्वनाभिनयनाटिकामकृत वाटिकामप्यसौ ॥३६।। ६/६७७ सरःक्षीरार्णवस्याऽस्य, तीरे तत्रैव तेनिवान् । वेलाशैलौ कपर्यम्बा-देवतालयकैतवात् ॥३७॥ पद्याबन्धमसौ तत्र, तडागतिलकोपरि । कपर्दियक्ष्य(क्षं) शैलश्री-सीमन्ततिलकं व्यधात् ॥३८॥ ६/६७९ शैलेऽमुत्र कपर्दियक्षभवनं श्रीवस्तुपालः पुनः, पूर्वं जर्जरमुद्दधार विदधे चाऽस्याऽग्रतस्तोरणम् । किं चैतत्परिधौ चकार जगतीमारासनीयं(यां) व्यधाद्द्वारं गर्भगृहस्य खत्तकमिहाऽऽतेने च पार्श्वप्रभोः ॥३९॥ ६/६८० अस्ति श्रीवाग्भटपुरं, शत्रुञ्जयगिरेरधः । तत्र सङ्घतृषावारि, न वारि समभूत् पुरा ॥४०॥ मत्वैतत्पुरतः पुरोऽस्ति(पुरस्य) ललितादेवि(वी)प्रियाश्रेयसे, चक्रेऽसौ ललितासरोऽतिविमलं श्रीवस्तुपालः कृती । स्फारद्वार(रि)विराजितस्य कुरुते क्रौञ्चालयस्य भ्रमं, भूम्ना तोरणमात्तमानसरुचेर्यस्य प्रवेशावनौ ॥४१॥ ६/६८४
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अनुसन्धान- ७२
रवि- शङ्कर- सावित्री-वीरजिना - ऽम्बा- कपर्दिया ( क्षाणाम् । धामानि धार्मिकोऽसौ, चक्रे ललितासरः सेतौ ॥ ४२ ॥ ६ / ६८५ गुरुमूर्त्या प्रशस्त्या, सनाथामक्षरात्मना ।
स वाग्भटपुरस्याऽन्तः, कुट्टिमां वसतिं व्यधात् ॥४३॥ तद्बहिस्तु प्रपां चक्रे, पयोधरघटोद्भटाम् । धात्रीमिवाऽऽत्मजस्याऽयं यशसो वृद्धिहेतवे ॥४४॥ वस्तुपालगिरिसञ्ज्ञितामसा - म (व) श्मबद्धपृथ (थु) कूपबन्धुराम् । आदिनाथजिनपूजनार्थमा-सूत्रयुक्त (यत्) [कु] सुमवाटिकामिह ॥ ४५ ॥ शत्रुञ्जयमहातीर्थ - घण्टापथविभूषणम् ।
वलभ्यामुद्दधाराऽसौ युगादिजिनमन्दिरम् ||१६|| ६ / ६८७ कूपं तत्र सुधाकुण्ड - रूपं चिद्रूपचन्द्रमाः । प्रपां च जन्यपञ्चाभ(पाञ्चजन्याभ ) - कीर्त्तिः कारितवानयम् ॥१७॥ वटकूपकमण्डपिका-स्थितकेन समं चकार सचिवोऽयम् । शत्रुञ्जयसाद् ग्रामं, वालाके भण्डपद्राख्यम् ॥४८॥ वालार्के (के)ऽर्कपालितकं, वीरेज्यं चतुरुत्तरे । शत्रुञ्जयत्रा कृतवा - नयं ग्रामद्वयं तथा ॥४९॥ वस्तुपालविहारं स वस्तुपालेश्वरं तथा । प्रपा - सत्रे च विदधे, ग्रामे वीरेज्यनामनि ॥५०॥ ६/६९० धर्मार्थं जनकस्य जैनभवनं पुण्याय मातुः प्रपां पित्रोः पुण्यसमृद्धिहेतुकमथो सत्रं पवित्राऽऽशयः । स्वश्रेयः कृतये सरः पुरभिदा (दो) देवस्य हर्म्यं तथा, पान्थारामकुटीमथाऽयमकृत ग्रामेऽर्कपालीयके ॥ ५१ ॥
॥ इति शत्रुञ्जयाधिकारो द्वितीयः ॥
रैवताचलचूलायां पृष्ठे श्रीनेमिवेश्मनः । शत्रुञ्जयपतेश्चैत्य-मात्मश्रेयोऽभिवृद्धये ॥१॥ ६ / ६९९ मन्त्रिवास्तोस्पतिर्वस्तु-पालो विध्वस्तकन्मुखं (कल्मषम्) । वस्तुपालविहाराख्य-मकार्षीदेष कीर्तनम् ॥२॥ [ युग्मम् ] ६ / ७००
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निजपूर्वजयोश्चण्डप-चण्डप्रसादयोः स सुकृताय ।। तत्कमलीभित्तियुगे-ऽतिष्ठिपदजितं च वासुपूज्यं च ॥३॥ ६/७०३ तन्मण्डपे चण्डपसञ्जितस्य, महत्प्रमाणां प्रपितामहस्य । मूर्ति तथा वीरजिनेन्द्रबिम्ब-मथाऽम्बिकामूर्त्तिमिमामकार्षीत् ॥४॥ तत्र गर्भगृहद्वारे, दक्ष(क्षि)णोत्तरपक्षयोः । स्व( स्वं) च स्वमनुजं चैषा(ष), गजारूढमतिष्ठिपत् ॥५॥ ललितादेवीश्रेयः-कृते च तस्यैष पक्षके वामे । पूर्वजमूर्तिसमेतं, सम्मेतं कारयामास ॥६॥ ६/७०६ ललितादेव्याः स्वस्य च, मूर्ती तत्र महोन्नतै(ते) । रोहिणीचन्द्रनिस्तन्द्र-रुचिः सोऽयमचीकरत् ॥७॥ सौख्यलतासुकृताया-ऽष्टापदमथ तस्य दक्ष(क्षि)णे पक्षे । निजजननी-निजभगिनी-मूर्तियुगं निर्ममे चैष(:) ॥८॥ ६/७०७ स्वस्य सौख्यलतायाश्च, मूर्तीवर्णसमुज्ज्वले । प्रशस्तिपट्टके चाऽत्र, चक्रे सुश्लोकपेशले ॥९॥ प्रासादत्रितयस्याऽस्य, जगत्रितयचित्रकृत् । तोरणत्रितयं चक्रे, स विद्यात्रितयाश्रया(यः) ॥१०॥ ६/७०८ वस्तुपालविहारस्य, पृष्ठेऽनुचरसम्भवम् । कपर्द(दि)यक्षाऽऽयतन-मकारयदयं कृती ॥११॥ ६/७०९ मातुर्युगादिदेवस्य, मरुदेव्या निकेतनम् । गजस्थमूर्ति तत्रैव, मातुर्गर्भे सि(स) तेनिवान् ॥१२॥ ६/७१० तोरणत्रयमातेने, तेनेन्दुविशदाश्मभिः । त्रिद्वारमण्डपद्वार-गतं श्रीनेमिवेश्मनि ॥१३।। ६/७१२ त्रिकेऽसौ नेमिचैत्यस्य, दक्ष(क्षिणोत्तरपक्षयोः । पितुः पितामहस्याऽपि, मूर्ती वाजिस्थिते व्यधात् ॥१४॥ ६/७१३ तयोरयं पित्र(तृ)पिता-महमूर्योः समीपगे । साम्बा-पितामहीमूर्ती(र्तिः), विदधे विशदाश्मना ॥१५॥ स्वपित्रोः श्रेयसे च, श्रीनेमिचैत्यत्रिका[वनौ । स कायोत्सर्गिणौ चक्रे-ऽजित-शान्तिजिनेश्वरौ ॥१६॥ ६/७१४
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अनुसन्धान-७२
........... ]बभौऽमुना मण्डपिकासमेतः ॥१७॥ पांपा-मठस्य सविधे विदधे जिनानां, तिस्रः स देवकुलिकाः कुलकैरवेन्दुः । वाग्देवताप्रतिमया सहिताः प्रशस्तियुक्ता युताश्च निजपूर्वजमूर्तियुग्मैः ॥१८॥ श्रीनेमिमण्डपे तुङ्गे, कुले च विपुले निजे । कल्याणकलशं दिष्ट्या, स धीमानध्यरोपयत् ॥१९॥ ६/७२३ अम्बिकायाश्च सदने, मण्डपोऽनेन कारितः । आरासनी आ(चा)हदेव-कुलिका चाऽत्र सूत्रिता ॥२०॥ ६/७२४ अम्बिकायाः परिकर-श्चारुश्चाऽऽरासनाश्मना । विशदि(दे)न निजेनैव, यशसाऽनेन कारितः ॥२१॥ ६/७२५ अवलोकन-श(शा)म्ब-प्रद्युम्नप्रस्थेषु विशदपाषाणैः । विधित(विहितं) जिनदेवकुलिका-त्रितयं पुरुषमूर्तियुतम् ॥२२॥ पित्रोः स्वीयपितुर्जगद्विद(दि)तयोः श्रीसोमसीताक्ष(ख्य)योराशाराज-कुमारदेव्यभिधोस्ताताम्बयोरात्मनः । जाल्ह(जाल्हू)नामजुषः स्वसुर्वसुमतीक्रोडे तदङ्गान्यधःक्षिप्त्वा रैवतदेवताऽऽलयपुरः स्तम्भानयं निर्ममे ॥२३॥ अधस्तादुज्जयन्तस्य, तेजःपालप(पु)रं नवम् । हट्ट-[ह]H-प्रपा-वापी-सद्धेशगृहशोभितम् ॥२४॥ ६/७३६ तेजःपालाभिधस्तस्या-ऽवरजो विरजस्तमाः । अमायः सङ्घवासाय, धुःप्र(प्रा)कारमकारयत् ॥२५॥ [युग्मम्] आशाराजविहारसञ्ज(ज्ज्ञि)तमसौ श्रीपार्श्वचैत्यं पितुः, श्रेयो) वसतिं च पुष्कलतरामस्याऽन्तरा तेनिवान् । तद्बाह्ये च कुमारदेविसर अ(इ)त्युल्लोलकल्लोलमत्, मातुः पुण्यकृते कृती विरचयाञ्चके विशालं सरः ॥२६॥ ६/७३९ श्रीपार्श्वनाथपूजार्थ-मुद्यानमतिकोमलम् । असूत्रयदसौ तत्र-मुद्यानमतिकोमलम् ॥२७॥ ६/७४१
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स्वपुरी-वामनपुरीप्रान्तरे खातदुस्तरे । व्यधाद्वापी प्रधानापी, मल्लदेवानुजानुजः ॥२८॥ ६/७४२ वसतिं वामनस्थल्यां, कौमुदं तन्वन्ती(ती)मयम् ।। सदा यामवतीं चन्द्रो-दयचारुमकारयत् ॥२९॥ ६/७४३ श्रीवीरधवल-जयतल-देव्यो मनोज्जयन्तमार्गेऽसौ । हर-जिनगृह-सत्र-सरः-प्रपा इंधुमधुरे पुरे तेने ॥३०॥ वस्त्रापथे च प्रथमे-शस्य मन्दिरमुत्तमम् । विशालं कालमेघस्य, मण्डपं च व्यपञ्चयत् ॥३१॥ ग्रामः कुहेडीति क्ष(क्षि)तौरुसंस्थाः, प्रस्थाश्च पञ्चाशदिहोर्वरायाः । चक्रेऽमुना स्थानतपोधनस्य, वस्त्रापथे सङ्घकराभिमुक्तौ ॥३२॥
॥ इति श्रीरैवताधिकारस्तृतीयः ॥ श्रीदेवपत्तनपुरे, श्रीसोमेशमहेश(शि)तुः ।, जगत्यां श्रेयसे भर्तुः, श्रीवीरधवलेश्वरम् ॥१॥ जयतल्लेश्वरं चैतन्महिष्याः पुण्यहेतवे । सचिवो रचयामास, वस्तुपालः सविस्तरम् ।।२।। [युग्मम्] एतयोर्मूर्तियुगली-मयमारासनाश्मना । चक्रे श्रीसोमनाथस्य, रङ्गमण्डपखत्तके ॥३॥ स्वस्वामिसुकृताय श्री-सोमनाथमहेश(शि)तुः । माणिक्यखचितां मुण्ड-मालामयमकारयत् ॥४॥ स्नात्रकुण्डी विभोस्तत्र, कलधौतविभासिताम् । शीर्णां समुद्दधाराऽसौ, चन्द्रमूर्तिमिवाऽर्यमा ॥५॥ द्विस(श)त्या सचतुःषष्ट्या, स्वर्णगद्याणकैरसौ । तत्रोमाभरणं सौक्ष्य(ख्य)-लतापुण्यकृतेऽकृता(त) ॥६॥ सोमनाथपुरतो निजकीर्त्याः, क्रीडपर्वतनिभं करियुग्मम् । तुङ्गमश्ममयमत्र वितेने, तेजः(ज)पालसचिवस्तु सुवस्तु ॥७॥ सोमनाथविभोलिङ्ग-मन्दरं परितोऽमुना । चतुःकाष्टी विधायाऽत्र, विधाताऽपि व्यजीयत ॥८॥
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अनुसन्धान-७२
तत्र चन्द्रप्रभस्वामि-सदनस्याऽन्तिकेऽमना । चतुर्विंशतितीर्थेश-प्रासादोऽष्टापदः कृतः ॥९॥ ६/५३७ पौषधशालामौषधि-पतिमूर्त्तिमिवोज्ज्वलां सुधासारैः । जनतापापहरामिय-मकृत कृती तत्र नभसीव ॥१०॥ ६/५३८ अष्टापदस्य पौषध-शालाया अपि च तत्र सचिवोऽयम् । आयार्थमट्टमालां, गृहमालां च व्यधापयत् ॥११॥
॥ इति देवकपत्तनीयाधिकारश्चतुर्थः ॥ मन्त्री भृगुपुरे वस्तु-पालो वस्तुविचारवित् । शकुनीविहारकरिणा, भेत्तुमात्मभवाग्र(ग)लाम् ॥१॥ ४/१५७ तन्मुखे देवकुलिका-द्वयं दन्तद्वयोपमम् । आरादारासनीयाश्म-मयं स्फारमकारयत् ॥२॥ ४/१५८ [युग्मम्] तदगढमण्डपेऽजित-शान्त्याख्यं परिकरस्थशेषजिनम् । ललितादेव्याः स्वस्य च, सुकृताय चकार जिनयुगलम् ॥३॥ ४/१५९ तद्गूढमण्डपक्रोडे, विशतां दक्षिणे सताम् । स्वमूर्ति कारयामास, ललिबां(ता)कलितां(ता)मयम् ॥४॥ ४/१६० पित्तलानिर्मितां स्नात्र-प्रतिमां सुव्रतप्रभोः । लेपमूर्तेरलेपात्मा, तेजपालोऽत्र तेनिवान् ॥५॥ ४/१६१ तत्र स्नात्रप्रतिमा-पृष्ठे पुरतश्च सुव्रतजिनेन्दोः ।। मूर्तिमकारयदनुपम-देव्याः स्वस्याऽपि सुकृती सः ॥६॥ तत्राऽश्वबोधतीर्थे, परितस्तीर्थेशदेवकुलिकानाम् । दण्डांश्च पञ्चविंशति-मकारयत् काञ्चनाते(ने)षः ॥७॥ ४/१६२ पुराद् बहिरसौ पुष्प-वनं तलतमालवत् । चक्रे जिनार्चनविधा-वनन्ते(न्त)लतमालवत् ॥८॥ ४/१६३ वडऊसणपल्लीस्थित-चैत्ययोर्मूलनायकौ । नाभेय-नेमिनौ वस्तु-पालस्तु समतिष्ठ(ष्ठि)पत् ॥९॥ ४/१६४
॥ इति भृगुकच्छाधिकारः पञ्चमः ॥
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दर्भोर्वीनगरे वैद्य-नाथावा(व)सथमण्डपे । वस्तुपालो व्यधात् स्वर्ण-कुम्भानेकोनविंशतिम् ॥१॥ ३/३७१ स्वेश-तत्प्रियतमा-स्वकनिष्ठ-ज्येष्ठमूर्ति-निजमूर्तिसनाथम् । वैद्यनाथहरगर्भगृहाग्रै(ग्रे), वामतो व्यधित खत्तकमेषः ॥२॥ ३/३७२ नव स्वर्णमयांस्तत्र, खत्तके कलशानयम् । नवखण्डधरोद्योति(तेऽ)-करोत्प्रद्योतनानिव ॥३॥ ३/३७३ पश्चिमोत्तरयोवैद्य-शाल(ली)यद्वारयोरयम् । प्रशस्ती न्यस्तवानात्म-कीर्तिमङ्गलपाठ(ठि)के ॥४॥ ३/३७४ उत्तरद्वारपुरतो, वैद्यनाथस्य वेश्मनः । असूत्रयदसौ तुझं, तोरणं विशदाश्मभिः ॥५॥ ३/३७६ वृषमण्डपिकां द्विभूमिकां, विशदैरश्मभिरस्य बान्धवः । इह काञ्चनकुम्भशोभितां, पुरतो वैद्यपतेः प्रतेनिवान् ॥६॥ तथाऽसौ निजनाथस्य, कालक्षेत्र(?) तदाख्यया । रेवोरि(रु)सङ्गमो(मे) वीरो(रे)-श्वरदेवकुलं व्यधात् ॥७॥
॥ इति दर्भावत्यधिकारः षष्ठः ॥ स्तम्भनके च शलाका-मुदधे पार्श्वनाथभवनस्य । दण्डकलशौ च काञ्चन-मयौ व्यधाद्वस्तुपालोऽत्र ॥१॥ नाभेय-शैवेयजिनेशखत्तके, सद्वारपत्रं च सिताश्मसुन्दरम् । तत्र प्रशस्ति च गिरिं च देवता-मकारयत् कारयितव्यकोविदः ॥२॥ साधितोभयलोकाप्त-जन्मनोरयमात्मनः । कीर्योर्दोलानिभं तत्र, तोरणद्वयमातनोत् ॥३॥ पुरे स्तम्भनके तस्मि-न्नेकां वापीमपापधीः । द्वे प्रपे त्रीनयं शालान्, विशालान् परितो व्यधात् ॥४॥
॥ इति स्तम्भनाधिकारः सप्तमः ॥ वस्तुपालस्ततो जैत्रः, पेटलापद्रपत्तने । दिगम्बरजिनागारे, धनपालेन कारिते ॥१॥ मातामहस्य सुकृतौ(त)-कृते कान्हडमन्त्रिणः । मूलनायकमर्हन्तं, नेमिनाथं न्यवीविशत् ॥२॥ [युग्मम्]
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अनुसन्धान-७२
तत्रैव पत्तने जैत्र-सिंहोऽयमतिपुष्करम् । मण्डलं पेटलार्यायाः, पद्रदेव्याः पुरोऽकरोत् ॥३॥ मन्त्री मसूयडग्राम-गम्भीराग्रामचैत्ययोः । वस्तुपालस्तु नाभेय-वामेयौ न्यस्तवान् जिनौ ॥४॥ स्वस्यैष ललितादेव्याः(व्या), अपि पुण्याभिवृद्धये । जयादित्यं नगरके, रत्नादेवीमकारयत् ॥५॥
॥ इति पेटलापदाधिकारोऽष्टमः ॥ स्तम्भतीर्थपुरे वस्तु-पालो मन्त्रिपुरन्दरः । कीर्तने शालिगस्योच्च-रुद्दधे गूढमण्डपम् ॥१॥ ४/६७३ तत्र गर्भगृहद्वार-श्रियो लीलासरोरुहम् । स्वस्याऽप्यवरजस्याऽप्य(पि), स तेने मूर्त्तिखत्तकम् ॥२॥ ४/६७४ गौ(गु)र्जरान्वयिनो लक्ष्मी-धरस्य सुकृताय सः । तस्यैव परिधावष्टा-पदोद्धारमकारयत् ॥३॥ ४/६७५ पुण्यायाऽम्बडदेवस्य, वैरिसिंहाभिधस्य च । तत्पक्ष-चैत्ययोः सोऽर्हद्विम्बे पृथग्(ग)तिष्ठिपत् ॥४॥ ४/६७६ तथौ(थो)सिवालगच्छीय-पार्श्वनाथजिनालये । स्वस्याऽपि स्वाङ्गजस्याऽपि, मूर्ती कारयति स्म सः ॥५॥ ४/६७७ श्रेयांसमात्माग्रजपुण्यहेतोः, स्वपुण्यहेतोश्च युगादिदेवम् । स्वकान्तयोः पुण्यकृते च नाभि-सिद्धार्थजावेष जिनावकार्षीत् ॥६॥ ४/६७८ सैव मोक्षपुरद्वार-तोरणस्तम्भसन्निभौ । तद्गूढमण्डपे कायो-त्सर्गिणौ विदधे जिनौ ||७|| ४/६७९ थारापद्रकगच्छीय-शान्तिनाथजिनालये । बलानकं त्रिकं गूढ-मण्डपं प्रोद्दधार सः ॥८॥ तत्रैव केलिकाख्यायाः, पुण्यहेतोः पितृष्वसुः । पितृव्यस्यैष तिहुण-पालस्य सुकृताय च ॥९॥ ४/६८१ स्वश्रेयसे च क्रमतः, श(स)म्भवं नाभिनन्दनम् । शारदां पट्टशालायां, कारितायामतिष्ठिपत् ॥२०॥ [युग्मम्] ४/६८२
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तथा शत्रुञ्जयाख्ये च, सदने प्रथमार्हतः । श्रीनेमि-पार्श्वजिनयोः, स देवकुलिके व्यधात् ॥१२॥ ४/६८३ प्राग्वाटवंशोद्भवकृष्णदेव-राणूतनूसम्भवयोः स्वपत्न्योः । श्रेयोभिवृद्ध्यै मथुराभिधाने, जिनालये सत्यपुराभिधे च ॥१२॥ ४/६८४ बलानकं च त्रिकमण्डपौ च, पुरः प्रतोली परितो वरण्डम् । मठं तथाऽद्वयमट्टषट्कं, क्रमेण मन्त्री रचयाञ्चकार ॥१३॥ [युग्मम्] ४/६८५ क्षपणार्हद्वसहिका-मेकामेकां च तत्प्रिया । तथोद्दधार ललिता-देवीकान्तः स कान्तधीः ॥१४॥ ४/६८६ तथाऽसो(सौ) वीरनाथस्य, रथशालामकारयत् । मठमट्टद्वयं चैत-दायदानाय निर्ममे ॥१५॥ ४/६८७ गुहायामिव पूर्वाद्रे-श्चन्द्रं विश्वतमोपहम् । तत्रैव रथशालायां, नेमिनाथमकारयत् ॥१॥ ४/६८८ इतश्च पल्लीवालाख्य-वंशे शोभनदेवभूः । अभूदजयसिंहाख्यो, भण्डशाली महामनाः ॥१७॥ ४/६८९ सङ्ग्रामसिंहसङ्ग्राम-व्यसनोपशमाय स । स्वमौलिं वस्तुपालार्थे, ढुण्ढदेवबलिं व्यधात् ॥१८॥ ४/६९० तन्मूर्ति(त्ति) रोघडीचैत्ये, कृतज्ञोऽयमकारयत् । तच्छ्रेयसे च जैनेन्द्र-बिम्बमेकमतिष्ठिपत् ॥१९॥ ४/६९१ रोघडीचैत्यदेवेन्दो-रादिनाथजिनेशितुः । शाकमण्डपिकामाय-दाने कल्पयति स्म सः ॥२०॥ ४/६९२ तथा ब्रह्माणगच्छीय-नेमिनाथजिनालये । जिनेन्दोरादिनाथस्य, स देवकुलिकां व्यधात् ॥२१॥ ४/६९३ तथा सण्डेरगच्छीय-मल्लिनाथजिनालये । प्रियासौख्यलताश्रेयः-कृते सीमन्धरप्रभोः ॥२२॥ ४/६९४ उदारमण्डपां देव-कुलिकामयमातनोन्(त्) । युगन्धरं च बाहुं च, स(सु)बाहुं च जिनाधिपम् ॥२३॥ [युग्मम्] ४/६९५ भावडाचार्यगच्छीयः, समुद्दधेऽमुना तथा । जिनत्रयाख्यः प्रासादः, श्रीमत्पार्श्वजिनेश(शि)तुः ॥२४॥ ४/६९६
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अनुसन्धान- ७२
श्रीकुमारविहारेऽसा- वकार्षीन् मूलनायकम् ।
तदाये हट्टिकां चैकां, तन्दुलेच्छा (लोञ्छ) मतिव्य ( र्व्य) धात् ॥ २५ ॥ ४ / ६९७ पौत्रप्रतापसिंहस्य, तद्भ्रातुश्च कनीयसः ।
श्रेयसे किञ्च तत्राऽर्हत् खत्तके द्वे चकार सः ||२६|| ४/६९८ आसराजविहारस्य (राख्यं), प्रासादमृषभप्रभोः । कुमारदेवीवी (वि) हार - नामधेयं च नेमिनः ||२७|| ४ / ६९९ एकस्थण्डिलबन्धेनो-भयं तत्कृतसंश्रयम् ।
एकनिर्गमनद्वारं, द्विप्रवेशबलानकम् ||२८|| ४ / ६९९ अष्टमण्डपमुद्दण्ड-द्विपञ्चाशज्जिनालयम् । आरासनोत्तानपट्ट-द्वारपत्रपवित्रितम् ||२९|| ४/७०० शत्रुञ्जयोज्जयन्ताद्रि- तीर्थयो(:) प्रतिहस्तकम् । पित्रोः श्रेय(:)कृते तत्रो - तुङ्गा (ङ्गं) कारयति स्म सः ॥३०॥ ([चतुर्भिः] कलापकम्) ४/७०२ तदाये हट्टके द्वे तु चतु (त) स्रो गेहपाठिका (:) । वाटिकामप्यसावेकां, ददावेकान्तधार्मिकः ॥३१॥ ४/७०३ आसराजविहारे च, पित्तलामयमुच्चकैः ।
असौ चकार समव-सरणं कारणं श्रियः ॥ ३२॥ ४/७०४ वसतीरिह चारित्र - प्रतिष्ठानवतीरयम् । पञ्च प्रपञ्चयामास, भवाम्भोधी तरीरिव ॥ ३३॥ ४/७०५ सङ्ख्ये शङ्खमहीपते: समपतन् ये भूणपालादयो, वीरा विक्रमवृत्तिनिर्मलकथावाचालितोर्वीतलाः । तत्तन्नामनिरूपणानि स महीतीरे महीयान् दश,
स्थाणोर्देवकुलानि दुर्जनकुल श्रीबन्द (न्दि) कारोऽकरोत् ||३४|| ४/७१० स्वगोत्रदेवतायाः श्री-चण्डिकायास्तथाऽम्बुधेः ।
ज[ग]त्यामेतदीयायां, स देवकुलिके व्यधात् ॥३५॥ शङ्खम(न) कृतपूर्वी स:, आसराजसुतो रणम् । तत्पुरः कारयामास, चतु:स्तम्भेस (षु) तोरणम् ॥३६॥ तपोधनमहं चैतत्, प्रतिबद्धमकारयत् । प्रभूतमेतदायं च नानाविधमकारयत् ॥३७॥
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तथा भीमेश्वरशिवायतने स वितेनिवान् । शातकुम्भमये कुम्भ-दण्ड(ण्डे) चण्डांशुरोचिषा ॥३८॥ तद्गर्भगेहे स्वकुल-देवतां चण्डिकामसौ । मूर्ती स्वस्याऽनुजस्याऽपि, खत्तकान्तरकारयत् ॥३९॥ तदीयपरिधौ दोला, तत्पुरो वृषभं शुभम् । तद्भद्रखत्तके चण्डी-मण्डपं नव्यमातनोत् ॥४०॥ स्वकान्ताललितादेव्याः, श्रेयसे तत्र सुन्दरम् । स मन्त्री वटसावित्री-देवतायतनं व्यधात् ॥४१॥ भीमेश्वरशिवागारं, परितोऽसौ वरण्डकम् । पुरतः स प्रतोलीक-मलीकविमुखो वि(व्य)धात् ॥४२॥ कुमासमण्डपिकायाः, समीपेऽसौ प्रपां व्यधात् । तृष्णाच्छिदे सुमनसा-मिन्दुर्मू(मू)तिमिवोज्ज्वलाम् ॥४३॥ निम्बैयकगणेशस्य, बकुलस्वामिभास्वतः । कुमारेश्वररुद्रस्य, मण्डपं स व्यरीरचत् ॥४४॥ चत्वरमुग्धचतुष्पन्थ-गणेश-कपिलेश-वैद्यनाथानाम् । भवनोद्धारं कृत्वा, कृतोऽमुना कृतयुगोद्धारः ॥४५॥ मूर्ति श्रीमल्लदेवस्य, वैद्यनाथान्तिके तथा । स्वस्य मूर्ति(त्ति) व्यधादेष, कुमारेश्वरसन्निधौ ॥४६।। तुङ्गकुट्टिमविश्रान्त-द्विजराजकुटुम्बकाम् । अजिह्मधीरसौ ब्रह्म-पुरीमेकामकारयत् ॥४७॥ ४/७११ तद्वासिवाडकेयो(भ्यो)ऽसौ, वाटकांश्च त्रयोदश । ददौ बभ्राम कीर्तिस्तु, भुवनानि चतुर्दश ॥४८॥ ४/७१२ षट्कर्मनिरतेभ्यस्तद्-द्विजेभ्यः सुकृतात्मना । रामपल्लडिकाग्राम-स्तेनाऽदीयत शासने ॥४९॥ ४/७१३ तथा श्रीमल्लदेवाङ्ग-भुवः पुण्याभिवृद्धये । पूर्णसिंहेश्वरं रुद्र-भवनं स व्यरीरचत् ॥५०॥ अनेकरिपुसङ्ग्राम-हतपादातनामभिः । चतुर्दशैष तत्पाश्र्वे, रुद्रधामान्यकारयत् ॥५१॥
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अनुसन्धान-७२
तदाये समठामेका-मयं प्राकारि(र)कावृत्ता(ताम् । व्यधात् पलडिके द्वे तु, मुत्कले वासमुत्कले ॥५२॥ तत्र पौरोपकाराय, चिद्रूपः कूपकैतवात् । पातालतः सुधाकुण्ड-मेकमाहूतवानयम् ॥५३॥ ४/७१४ प्रस्थापयितुमात्मीय-कीत्तिं भोगपुरीमिव । खातमातनुते स्वायं(चाऽयं?), तडागे मादनाभि(धे?) ॥५४॥ भट्टादित्यस्य श(शिरसि, स्वर्णश्रीकलितोऽमुना । मुकुटः कुसुमोद्याने-ऽवटश्च निरमीयत ॥५५॥ भट्टादित्ये तथोत्तान-पट्टादिकमनेकधा । अकारयदसौ यद् यद्, तत् तद्वेत्ति स एव सः(हि) ॥५६॥ अकारयदसौ चू(मू)ला-देव देवो द्विभूमिकम् । राजसौधोपमं मन्त्रि-मन्दिरं मन्दुरान्वितम् ॥५७।। विस्तारयत्(न्) भुवि यशो, राजधाम सुधासितम् । तत्रोद्दधार स यशो-राजधाम सुधासितम् ॥५८।। पौत्रप्रतापसिंहस्य, पुण्यायाऽसौ प्रपां व्यधात् । तदाये च ददौ भूमि-हट्टार्दिकमनेकधा ॥५९॥ एकल्लवीराभिधपद्रदेवता-निकेतने चण्डपवंशकेतनम् । सतोरणे तत्र समत्तवारणे, सोपानपीठे रचयाञ्चकार सः ॥६०॥ एकल्लवीराजलपट्टमुत्ता-नपट्टमस्मिन् विशदाश्मवृन्दैः । द्वारान्वितं गर्भगृहं च वर्ध-मानाश्मना सो(ऽसौ) घटयाञ्चकार ॥६१॥
॥ इति स्तम्भतीर्थाधिकारो नवमः ॥ वस्तुपालो निजाम्बायाः, श्रेयसे धवलक्कके । अम्बावसतिनामानं, प्रासादं वृषभप्रभोः ॥१॥ स्वपूर्वज-स्वसौ(सो)दर्य-सोदरी-स्वजनात्मनाम् । पुण्यार्थं परितः क्लृप्तः(प्ता)-नै(ने)करूपं जिनालयम् ॥२॥ आयार्थं विहितानेक-हट्ट-होरुषा(पा)टिकम् । ध्वजाचलापनीताशा-रजोभारमकारयत् ॥३॥ ([त्रिभिः] विशेषकम्)
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राणभट्टारकाणां तद्-बहिर्देवकुलोद्धृतिम् । गोग्रहत्यक्तदेहैक-पक्षपाताच्चकार सः ॥४॥ जगतीयुक्तहस्ताभं, तत्पुरस्तोरणं नवम् । स्वमातुः श्रेयसे वापी, शालामापीमपि व्यधात् ।।५।। वीरमस्य च सग्राम-सिंहसङ्ग्रामपातिनः । स्वपत्तेः श्रेयसे तत्र, चक्रेऽसौ वीरमेश्वरम् ॥६॥ श्रेयसे च निजाम्बाया, वाउडाग्राममण्डनम् । भवनं नेमिनाथस्य, रम्याकारमकारयत् ॥७॥ तेजःपालस्तु धवल-क्कक(के) स्फाराम्बकप्रभम् । स्वपाप(स्वापत्य)द्वयपुण्याय, विदधे वसतिद्वयम् ॥८॥ धवलक्कश्रियो दन्ता-निव चैत्यापदेशन(तः) । उद्दधे पतितांस्तेजः-पालः पुण्यरसायनी ॥९॥ भृगुकच्छाभिधं चैत्य-ममुनोद्धृत्य धीमता ।। पुरं(रः)श्री(श्रीः) स्वप्रशंसायां, विहितो/कृताङ्गुलिः ॥१०॥ श्रीमल्लदेवदयिता-लीलूपुण्याय च प्रपाम् । आघाटं वैद्यनाथस्य, समीपे कृतवानयम् ॥११॥ वापीमापीनसुकृतः, प्रपामपि कृपानिधिः ।। वस्तुपालसुतो यै(जै)त्र-सिंहस्तत्र पुरे व्यधात् ॥१२॥ तेजःपालाङ्गजो लूण-सिंहस्तु धवलक्कके । व्यधात् ब्रह्मपुरी-कूप-प्रपा विप्रोल्लसत्घटाः ॥१३॥ असौ तामसिजग्रामे, तृष्णातापरजोहराम् । प्रपां च वाटिकां चाऽर्हद्-वसतिं च विनिर्ममे ॥१४॥ श्रीवस्तुपालस्तु चकार वीर-पुरं श्चा(च) वीरस्य निजेश्वरस्य । नाम्ना सर:-कूप-निपान-वापी-सत्र-प्रपा-ऽऽराममनोभिरामम् ॥१५॥ स्वभर्तुः पितृपुण्याय, लूणगेश्वरमत्र सः । विदधे मातृपुण्याय, तथा मदनशङ्करम् ॥१६॥ श्रेयसे च स्वनाथस्य, तत्र ब्रह्मपुरीमयम् । स्वपितुः श्रेयसेऽकार्षीन्-मनीषी वीरमन्दिरम् ॥१७॥
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अनुसन्धान-७२
वाडाक-वलभीनाथ-धामग्रामे गिरि(री)न्दके । गिरीन्द्रतळं तस्याऽग्रे, तोरणं चैष तेनिवान् ॥१८॥ श्रीवीरमन्दिरं मन्त्री, ग्रामे बोहकनामनि । प्रपामपि कृपालुः श्री-वस्तुपालो विनिर्ममे ॥१९॥ गाणपल्ल्यामसौ गाणे-श्वरदेवस्य मण्डपम् । तोरणं च प्रतोली च, वप्रं चाऽथ प्रपां व्यधात् ॥२०॥
॥ इति धवलक्कळधिकारो दशमः ॥ धन्धुक्कके च श्रीवस्तु-पालो (न)ष्टापदेष सः । अष्टापदे चतुर्विंश-त्यर्हद्विम्बान्यतिष्ठिपत् ॥१॥ ६/२४८ अन((घ) पितृ-मातृणां, भवनं विशदाश्मना । उत्तानपढें पद्यां च, तत्र कारितवानयम् ॥२॥ तथा कोटेश्वरागारे, तोरणं परिधि(धि) च सः । कारयामास मूर्ति च, निजामारासनाश्मना ॥३॥ धन्धुक्कक-हडालीय-प्रान्तरे सप्रपं सरः । स्वस्वामिसुकृताय श्री-तेजःपालस्तु तेनिवान् ॥४॥ ६/२५४ मन्दीकृतकलिगुन्दी-ग्रामे दैन्यमुदन्यया । वस्तुपालो व्यधाद् व्यर्थं, प्रपा-वापीव्य(वि)धानतः ॥५॥ ६/२५५ पापसन्तापनिर्वाप-कृते तनुभृतामयम् । ग्रामे तत्रैव तीर्थेन्दु-बिम्बमेकमतिष्ठिपत् ॥६॥ ६/२४९
॥ इति धन्धुक्ककाधिकारः एकादशः ॥ आसापु(प)ल्ल्यामुदायन-विहारे वीर-शान्तियुक(ग्) । श्रेयसे स्वाङ्गजस्याऽयं, खत्तकद्वितयं व्यधात् ॥१॥ ६/२५५ सान्त्वसत्यामात्मीय-मातुः पुण्योदयाय सः ।। वायटीयवसत्यां च, विदधे मूलनायकम् ॥२॥ ८/१५६ यशोधवलदेवस्य, गणेशस्य निकेतनम् । व्यधाद् वडसरग्रामे, नृमणी(णि)ग्रामणीरसौ ॥३॥ स्वप्रियाऽनुपमादेव्याः, श्रेयसे मूलनायकम् । बाला(थारा?)पद्रजिनागारे, तेजःपालो न्यवीविशत् ॥४॥ ८/६५७
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तथोमारसिजग्रामे, वस्तुपालः प्रपां व्यधात् । प्रकटीकृतकारुण्य-पथः पान्थकुटीमपि ||५|| ८/६५८ सेरीसापार्श्वभुवने, खत्तके नेमि वीरयोः । मल्लदेव - पूर्णसिंह- पुण्यायाऽयमकारयत् ॥ ६ ॥ ८/६५९ वीजापुरे च श्रीवीर - मन्दिरे प्रथमार्हतः । मल्लदेवस्य पुण्याय, स देवकुलिकां व्यधा[ त्] ||७|| ८/६६० श्रीकुमारविहारेऽसौ, तारङ्गनगमण्डने ।
नाभेय - नेमिज (जि) नयो- र्जनयामास खत्तके ||१८|| ८ /६६१ नगरस्य समुद्धृत्या(त्य), नगरम्यं जिनालयम् । भारतीसुनूनाऽनेन, भारतीकीर्त्तिरुद्धृता ||९|| ८ /६६२ एतत्प्रशस्तिसुकवे-र्मण्डल्यां वसतिं व्यधात् । मोढार्हद्वसतौ मूल-नायकं च न्यवीविशत् ॥ ११०॥ ८/६६४ उद्दधार जिनागार - शिवागारैरसौ समम् ।
स्वजन्मभूमिकां साध्वा - लयाऽऽख्यमखिलं पुरम् ||११|| ८/६६३ श्रीकुमारविहाराऽऽख्य-मुद्दधार जिनालयम् ।
असौ नगमिवोत्तुङ्गं, डङ्गरूपाभिधे पुरे ||१२|| ८/६६५ व्याघ्ररोलाभिधे ग्रामे, पूर्वजानां जिनालयम् । ध्वजाभुजलतोकृ(त्क्लृ) - ताण्डवं विदधे नवम् ||१३|| ८ /६६५ आसराजसुतः पञ्चा - सराऽऽख्ये जिनमन्दिरे । अणहिल्लपुरोत्तंसेऽतिष्ठिपन्मूलनायकम् ॥१४॥ ८/६६६ तेजःपालस्तु निर्माय, मुञ्जालस्वामिनो रथम् । पूरयामास चौलुक्य - राजधानीमनोरथम् ॥१५॥ भीमपल्ल्यां जिनरथं, चक्रे राजेव सम्प्रति: । स राजमानः कृतिनां चक्रे राजेव सम्प्रति ||१६|| ८/६६७ प्रह्लादनपुरे प्रह्ला - दनवी(वि)हारमण्डनम् । एकं मण्डपमेषोऽर्हत् खत्तके च व्यधादुभे ॥१७॥ प्रह्लादनपुरी - चन्द्रावतीपुर्योवि (वि) तेन (नि) वान् । वसती निजपुण्यश्री - कामिनीकुण्डले इव ॥१८॥ ८/६६८
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अनुसन्धान- ७२
वसन्तः (न्त) स्थानका - ऽवन्ति - नाशिक्यजिनवेश्मसु । युगं युगं युगं चार्हन् (त्) - खत्तकानामकारयत् ||१९|| ८/६६९ पुरे सत्यपुरे श्रीमन्महावीरजिनालये ।
नाभेय-नेमिनोर्देव-कुलिके क्लृप्तवानयम् ॥२०॥
जिन(निज ) नायक - तत्कान्ता- निजाग्रज - स्वानुज - स्वका मूर्ती: । केदारेऽपि वसन्तः, पञ्चैष विपञ्चयामास ॥२१॥ परःसहस्रा निजकारितेषु, प्रशस्तयस्तेन सुवर्णरूपाः । आकाशमानद्युतयश्च दण्ड- कुम्भा न्यवेशन्त सुरालयेषु ॥२२॥ किं बहु वच्मि विचित्रं, धर्मस्थानानि मन्त्रिणोरनयोः । गदितु:मत्त (तुमल?) मतुलधिषणो, धिषणोऽपि न जन्मनैकेन ||२३|| आनाय(य्य) मम्माणनगाद् युगादि - नाथस्य बिम्बं सकपर्दियक्षम् । सपुण्डरीकं निदधे भविष्यो- द्धाराय शत्रुञ्जयमूर्ध्नि मन्त्री ||२४|| [इति बृहत्प्रशस्तौ प्रकीर्णकाधिकारो द्वादशः ॥ सूत्रधारबालसुत-सह्लणेन प्रह (श) स्तिरियमुत्कीर्णा ॥] तेजःपालान्वितो वस्तु-पालो बुर्दगिराविह । चक्रेऽचलेश्वरविभोर्मण्डपं ' चण्डपान्वयी ॥१॥ ८ / २२२ श्रीमातुः सदने जीर्णं, न्यूनं च यदभूत् पुरा । उद्धर्तुमिच्छताऽऽत्मानं, तत्सर्वममुनोद्धृतम् ॥२॥ ८ / २२३ दण्डेशविमलोपज्ञे, तेन तेने जिनौकसि ।
श्रेयसे मल्लदेवस्य, मल्लदेवस्य खत्तकम् ||३|| ८ / २२४ कैलासादपि निर्मलं मलयतोऽप्याविर्भवत्सौरभं, हेमाद्रेरपि शृङ्गतुङ्गमभितः शीतं हिमाद्रेरपि । श्रीमन्नेमिजिनेन्द्रमन्दिरमिदं लावण्यसिंहाभिधा
भाज: स्वाङ्गरुहस्य पुण्यकृतये श्रीतेजपालो व्यधात् ||४|| ८/२२५ विमलदण्डपतिर्विमलाचला-धिपजिनालयमारचयत् पुरा ।
इह गिराव[सकौ तु स ] कौतुकं व्यधित रैवतदैवतमन्दिरम् ॥५॥ ८/२२६ प्रद्युम्ना - म्बा-सा (शा) म्बा-वलोकनाऽऽख्यानि तानि चत्वारि । इह सानूनि स नूनं, व्यतनोदन्यूनलक्ष्मीकः ॥६॥ ८ / २२७
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आसीच्चण्डप इत्यमुष्य तनुभूश्चण्डप्रसादस्ततः, सोमस्तत्प्रभवोऽश्वराज इति तत्पुत्राः पवित्राशयाः । श्रीमल्लूणिग-मल्लदेवसचिवः श्रीवस्तुपालाभिधास्तेजःपालसमन्विता जिनमतारामोन्नमन्नीरदाः ॥७॥ ८/२२८ श्रीमन्त्रीश्वरवस्तुपालतनयः श्रीजैत्रसिंहाभिधस्तेजःपालसुतश्च विश्रुतमतिर्लावण्यसिंहाभिधः । एतेषां दश मूर्तयः करिवधूस्कन्धाधिरूढा इह, भ्राजन्ते जिनदर्शनार्थमयतां दिग्नायकानामिव ॥८॥ ८/२२९ भर्तुः सेवां कर्तुमभ्येति मत्र्यैः, साकं लोको भोगिदिस्वःपतीनाम् । प्रातः प्रातर्नन्वधस्तिर्यगूर्ध्व-श्रीमद्ग्रावोपात्तवद्विम्बदम्भात् ॥९॥ महानदीनामिव मण्डपानां, वितानजालेषु नितान्तमस्मिन् । गवेषकाणां पतिता नू(न) जातु, निर्यातुमीष्ये शफरीव दृष्टिः ॥१०॥ अनुदिनमिह रङ्गक्षोणिरङ्गन्नटश्री(स्त्री)-प्रतिकृतिपरिपाटीभङ्गिमाटीकतेऽसौ । स्फटिकपटलराजन्मण्डपक्रोडचूडा-मणिवलयविशालाः(ल:) शालभञ्जीसमूहः
॥११॥ पाताले निखिलेऽपि रो(खे)लति दिवो देशान्तरे दीव्यति, क्रोडे क्रीडति भूतलस्य रमते काष्ठासु चाऽष्टास्वपि । आशाराजतनूजकीर्तिरियमित्येतत् समन्तादहो, वातान्दोलितकेतुहस्तत(च)लनैराक्ष्या(ख्या)ति साख्या(धा?)दिव ॥१२॥ ८/२३१ नागेन्द्रगच्छवनहरि-हरिभद्रमुनीन्द्रगगनपट्टरविः । सूरिः प्रतिष्ठितिविधि, विदधे श्रीविजयसेन इह ॥१३।। पूर्वोदितेषु चैत्येषु, शेषेश्वपि विशेषवित् । गुरुश्चकार विजय-सेनसूरिः प्रतिष्ठितिम् ॥१४॥ यो दृग्गोचरताम(मु)पैति समयस्तस्याऽपरान्वेषणे, निर्धार्येति कुमारकाविव रवि-ज्योतिष्पती क्रीडतः । रा(रो?)दःकन्दरमन्दिरे व्यवहितौ गीर्वाणभूमीभृतां, यावत्तावदयं जयं कलयतु श्रीनेमिनाथालयः ॥१५॥ अस्तीतः किल मण्डलीति नगरी तत्राऽभवन् विश्रुतः(ताः), श्रीमन्तोऽभयदेवसूरिगुरु(र)वस्तत्पट्टलक्ष्मीहरिः ।
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अनुसन्धान-७२
पूज्यः श्रीहरिभद्रसूरिस(सु)गुरुः षट्तर्कनिष्णातधीस्तच्छिष्योऽयमिमां प्रशस्तिमकृत श्रीबालचन्द्रः कविः ॥१६॥ देवानन्दमुनीन्दुगच्छगगनालङ्कारशीतद्युतैः(तेः), शिष्यः श्रीकनकप्रभाख्यसुगुरोस्त्रैविद्यचूडामणेः । वाग्देवीसुतबालचन्द्रसुकवेः प्राप्तप्रतिष्ठः सुधीरेतस्यां सहकारि कारणमभूत् प्रद्युम्नसूरिः पुनः ॥१७॥
॥ इति श्रीबालचन्द्रसूरिविरचितायां बृहत्प्रशस्तावबुंदाधिकारस्त्रयोदशः ॥
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गूढा - प्रहेलिका - समस्या - हरियाली
- उपा. भुवनचन्द्र
गजरातीमां जेने 'उखाणां', 'कोयडा' कहे छे तेने संस्कृतमां प्रहेलिका के समस्या कहे छे. जूनी गुजरातीमां उखाणा माटे 'गूढा' शब्द पण वपरातो. कच्छीमां आजे पण 'पिरोली' शब्द प्रचलित छे जे 'प्रहेलिका' माथी ज ऊतरी आव्यो छे. (एक आडवात : आ पिरोली शब्द कच्छीभाषाना संस्कृतभाषा साथेना निकट सम्बन्धनो एक पुरावो छे.) 'प्रहेलिका'मां मूळ शब्द छे 'हेला', जेनो अर्थ थाय छे क्रीडा, रमत. कोयडा उकेलवा ए जरा जुदी-विशिष्ट प्रकारनी रमत छे ए सूचववा 'प्र' लाग्यो अने एनुं कद नानुं छे ते सूचववा 'इक' लगाडवामां आव्यो...
___ आम, 'प्रहेलिका' एटले बौद्धिक रमत, 'उखाणुं' 'उपाख्यान'मांथी ऊतरी आव्युं छे, जेनो अर्थ हतो 'नानी कथा'. उखाणामां नानी वात होय छे अने तेने सजीवना रूपे रजू कराय . समस्या संस्कृत शब्द छे. अस् = फेंकवू; 'सम्' उपसर्ग लागतां 'सारी रीते मूकवू, सरखं करवू' एवो अर्थ मळे छे. कोयडामां कोइक वात गूंचवीने मूकाय छे, जेने स्पष्ट करवानी होय. आम, 'समस्या' एटले 'सरखी करवा लायक वात'. 'गूढा' एटले गूढ-गुप्त रीते कथन करनारा दूहा.
जूनी गुजरातीमां सांकेतिक रीते कोइक वस्तुनुं वर्णन गीतरूपे पण थवा लाग्युं, जेना माटे 'हीयाली' के 'हरियाली' शब्द योजायो. आ शब्द 'हृदय'मांथी आव्यो होय एवो अभिप्राय श्रीजयन्त कोठारीनो छे. हृदयने प्रसन्न करे ते हृदयाली → हरियाली → हीयाली एवी कल्पना थई शके. आवां गीतो पण पुष्कळ मळे छे. एमां कोइक जाणीती वस्तुने नवा ज रूपरंग साथे प्रस्तुत कराय छे जेने परखवामां मानसिक मथामण करवी पडे छे जेमां खूब मजा पडे छे.
उखाणां, गूढा, समस्या के प्रहेलिकानी गणना आजे लोकसाहित्यमां थाय छे. प्राचीन कालमां तेनो शिष्ट साहित्यमां ज समावेश थतो हतो. अनेक प्रशिष्ट काव्यग्रन्थोमां अने चरित्रग्रन्थोमां 'समस्या' प्रकारनी रचनाओ जोवा मळे छे. संस्कृत सुभाषित संग्रहोमां प्रहेलिकास्वरूपना अनेक श्लोको सचवाया छे.
___ हस्तलिखित ग्रन्थभण्डारोमा फुटकर-प्रकीर्ण पत्रोमां आवी सामग्री पुष्कळ पडी होय छे. आवां छूटां पानांओमांथी संकलन करीने थोडा गूढा-समस्याप्रहेलिका-हरियाली आदिनो एक संग्रह अहीं प्रस्तुत छे. विद्वानो अने अभ्यासीओने
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ए बौद्धिक विनोद पूरो पाडशे.
थोडा अपरिचित शब्दोना अर्थ नोंध्या छे. कोई कोई स्थाने शब्दो के पंक्तिओ खूटे छे. गूढाना उकेल ते ते स्थाने लखेला हता, ते नोंध्या छे. अमुक स्थळे अमे शोधीने लख्या छे. ज्यां उकेल नथी मळ्यो त्यां प्रश्नचिह्न मूक्युं छे. ‘सेवक आगळ...' अने 'कह्यो पंडित...' ए बने हरियाली सुप्रसिद्ध छे पण बन्नेनो बो अप्रसिद्ध हशे एम धारीने अहीं मूळ अने बो बन्ने आप्या छे.
केटलाक शब्दो
सूण
खाडेती
पाली
कबाण
पुहर
सेणा
गूढा
बाली कन्या
-
पोते, जाते
आपु
पखाणि पत्थरमां
बाको
छेहउ
उपहरी
त्रीय
चुंबन, बकी
नुकसान, दगो, छेडो, अंत
ऊंची, ऊंचाईए
स्त्री
विवसायां वसवायां, कारीगरनी ज्ञाति/
·
सजडु जटासहित गंधिया गांधी
पंगुरणु
पांगरण, ढांकनार
—
सूथणु, घाघरो
हांकनार ?
पगपाळी
हरियाली
छयल
पाखइ वगर परणालइ नीकमां मढइ घेटाए
****
धनुषी कमान
पहोर
स्वजन
-
अनुसन्धान- ७२
छैलछबीलो
गूढ
पांचे मूठी दशे धरी, हुइ बतीसह नारी,
करण हीआली पाठवी, राजा भोज विचारि... १ [ शिला]
च्यारि पुरुष नइ सोलह कुलवंती,
चिहुं पुरुषनउं एक ज नाम, कहउ नाम कइ छांडउ गाम ... २ [अंगुठउ ]
नारी भीतरि नर वसइ, नर भीतरि वसइ नारि,
नर गोरो स्त्री सांगली, कहउ अर्थ विचारि... ३ [ आंख ]
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फिरइ चडी पणि कहीइ पाली, उत्तम संग करइ सा बाली, आप कूआरी जग परिणावइ, पंडित एह हीआली भावइ... ४ [कंकोतरी] एक नारी भरतारि मूंकी, देहवन्न सघला सा चूकी, सा जि नारि भरतार न देखइ, जइ जनम भरि देखइ... ५ [सर्पकांचली] एक नारि मुख काजलवन्नी, हीइ परगट नइ बोलीइ छानी, परकारणि आपु छेदावइ, मूरख सरसी गोठ न भावइ... ६ [लेखण] जलि उपन्नी थलइ बसइ, जलि लग्गइ सीदाइ, सा शुं करउ बापडी, जिम अजरामर थाइ... ७ [इंट] थलि उपन्नी जल वसइ, जलचर जीव न खाइ, जीवह कारण बापडी, क्षणि आवइ क्षणि जाइ... ८ [बेडी, नाव] लाखे पुरुषे त्रिणि ज नारी, त्रिहुं मिली इक बेटी जाइ, पुंछडि बांधिउ पुरुष नचावइ, सा नारी रूडी भावइ... ९ [वेणी-गोफ] वांकउ चूंकउं बहबहआलउं, सूनउं रूपउं नही परवालउं, गाम नगर सहूइ तिणि सोहइ, कामिणी हाथि लीउं जग मोहइ... १० [सूपडं] पातलडी नइ वंकमुही, नामइं भणीइ नारि, सुगुणी पुरुषह क्षय करइ, भोज हीआली विचारी... १२ [सींघणि] [कटार?] दही नही पुण दहीआवन्नउ, मछ नही पुण जलि उपन्नउ, चोर नही पुण साही जीलइ, पुत्र नही पुण बाको दीजइ... १३ [शंख] एक पुरुष पखाणि उपन्नउ, तेहD भोजन पाणी, राजभवन मइ रमतउ दीठउ, अंत:पुर सह राणी... १४ [चूनउ] एकोतर बेटा जाइआ, बहुतर अछइ पेट, सम करावउ हे सखी, जो पुरुष होइ भेट... १५ [किलि] (?) पगह विण परवति चढइ, मुह विण खड खाये, हुं तुम्ह पूछु हे सखी, ए कुण सावज जाये ?... १६ [अग्नि] रती रती रतठ्ठी, थाइ होइ विरत्त, स्त्री फाटी पुरुष हुउ, एह असंभम वत्त... १७ [चोखा] जलचर जीव तणीय जनेता, उत्तम मध्यम दीसइ खाता, ब्रह्मा पूणी शंकर झाल, रूप नही पणि दीसह विकराल... १८ [बगाई]
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अनुसन्धान-७२
एक पुरुष मइ दीठउ परो, दीहइ सु जीवइ रातिई मरइ, सूए लाभ जीवत छेहउ, बोलउ राजन ते पुरुष केहउ... १९ [झांपउ] नारी एकली असंभम वात, भमइ अ गाम न हाथ न पाग, वाउ पीइ उपहरी चडइ, हीए दोर न हेठइ पडइ... २० [गुंडी][पतंग] चरण नहीं पुण चलइ नयण नवि देखइ सोइ, चढण पंच तस सवल तास गति न लहइ कोइ, पाप फुरत नवि शंक पुन्य तस छेह न आवै, रूपवंत अति चतुर तास गुण केता पावै, यश प्रताप त्रिभुवन प्रगट हेज आणि त्रीय उचरइ, कहउ कंत ते नर कवण अवि (?) प्रचंड सहु फिरइ... २१ [मन] सोवन पाया सोवन ईसा, दो जन बइठा करै जगीसा, फोडइ फोफल खावइ पान, दो जन वच्चै बावीस कान... २२
[रावण-मंदोदरी] पुरुष एक दोइ नयण वयण सोहइ तसु दाढी, .. उछव मंगल हर्ष तेहसुं प्रीति जु गाढी, दरदीवाणइ मान जाजुं काजइ सलहीअइ, ता विण न रहइ मास तास गुण केता कहीयइ, सुभ लक्षण सुंदर सुघट धर्म कर्म मंगल करण, हेज आणि प्रीय उचरइ कहउ त्रीय ए नर कवण... २३ [श्रीफल] चंद्र तणइ आकारि नयण नइ हर्ष करती, हथिणापुर उपनी अंगनि सेजइ पोढंती, चउ अक्षर तस नाम पुरुष नाम मन मोहंती, पतिव्रता नहीं तेह पंथीजन साथि चलंती, नरनारी मन वल्लही पुन्यवंत सु रमइ अपार, ता विण प्रेम न ऊपजइ कंता लेहु विचार... २४ [अंगाकरी] (?) अठ वयण झगमगइ नयण सोलह तसु लिज्जइ, युगल जीव दोइ हथ चरण दोइ तास कहिज्जइ, रसना पनरह जास तास त्रिभुवन जण पुज्जइ, अहिनिशि ध्यावइ जेह तेह मनवंछित सिज्जइ,
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जून - २०१७
त्रिभुवन जनमन वल्लहउ, नाम तास मंडण लहयउ, संभलहु नारि पीय उचरइ ए कवन पुरुष उत्तम कहयउ ?...२५ [श्रीपार्श्व] अठ चरण बे पुंछ नयण वस्त्र तास सुणिज्जइ, च्यारि जीव नौ हत्थ श्रृंग दोइ तास कहिज्जइ, चतुरानण तेह तण्णइ नाम ब्रह्मा नवि जाको, भीम पुत्र वइसणु सरिस सोसी आलूण ताको, शारंग पुत्र वाहण कहयउ बहुत लोय सेवइ चरण, संभलहु नारि प्रीय उचरइ इसउ रूपधारी कवण ?... २६ [महादेव] तिखुं नई तमतमुं, केलि सरीखं पान, ए हरिआलीनो अर्थ कहइ, तेहनइं आपुं वीरमगाम... [पत्तरवेलानां पान] तिखा नई तमतमां, सूडा-वरणां जेह, मुझ प्रीउ पाटण सीधावीया, मुझ मोकलयो तेह... [पान] उंटनी बइंसणि हरणनी फाल, ए अर्थ न कहइं तेनइ ल्यइं खेत्रपाल... [मेडक] रातो घडो कालो बुझारो, ए अर्थ न कहई, तेहन ल्यइं खेत्रपाल... [चिणोठी] कालो बलद कलोलीउं माथई सोविन फूल, सोए सहसे मागीउ, धणी न करई मूल... [आंख] एक नारी छई चिंहु खुणी, चिहुं खूणे छई चोखंडी, गहिलां लोक रीझई छइ, विनु कारज सीझइ बई... [लग्ननी चोरी] हीआनुं ऊपायुं हीर, वणकर विहोणुं वणिउं चीर, बीबा विहूणी पाडी भाति, को हरियाली केइ जाति ?... [सापनी कांचली] एक नारी छइं झाकझमाली, तेहनइं पासिं आवि वनमाली, चोसठि चांपां लाबई भेटिइं, राजा सरीखां तेह नई पेटीइं, विवसायां कुल उपनी उभी राजदुआरि, करण हरीआली पाठवइ राजा भोज विचारी... [पालखी] अंब जंब अंबिलीए लगइ, करणे केले द्राख न लगइ; लग लग कहतां किमे न लगइ, मा मा कहतां घणेरु लगइ. [होठ]
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अनुसन्धान-७२
स-जडु न शंकरु, सीअ-हरु लंकाहिवइ न होइ, एह हीयाली पंडिआ, विरलउ जाणइ कोई. [कंबल] छ लोयण दह चलण, सत्त कन्न मुह च्यारि; भोज हीयाली पाठवी, वीसलदेव विचारि. [?] पंचायण कर पंगुरणु, महिलामंडण होइ, हुं तो पूछउं गंधिया, उषध अछइ सोइ. [नख] गले जनोइ पूंठे थण, मस्तक उपर कंत, ते बोलंती में सुणी, जोवा गइ ती कंथ... [वीणा] जीवतो वनमा वसे, मूओ आवे गाम, पगे भांगी खोडो थयो, ते कशे न आवे काम... [खाटलो] दो नारी दो वीजणा, परखां कूपा च्यार, ते हूं आवी मागवा, पाडोसण न करे नाकार... [खाटलो] भोम डशण रीपु बोलियो, छांड चल्यो पिउ मोय, गणपतिवाहन तास भक्ष्य, आणी मेल्या सोय... [कूकडो] ? अगनिकुंडथी ऊपनी, प्रीतम साथे लेइने वहे, वगर पाणीए डूबकी मारी, चनुर होय ते कहे... [सोय] एक जडी ने श्वेतवरणी, रहे राया शेर राय, चतुर होय तो कहे - ओ जाय ओ जाय... [जाइ] पहिलो जायो बेटडो, पछे जायी माय, बार बरसडो बेटडो, आठ वरसनी माय...
[मा ८ वरसनी बेटो आठ वरसनो ते-ओरमान मा] पेटण शीतहरण, नही रावण नही राम, चतुर हो तो भावजो, नहीतर रामो राम... [चीर] चलण चोदह नयण दश, शशी पंच जीव च्यार, करण हरियाली पाठवी, राजा भोज विचार... [यवन मडुं] ? एक नारि अति सांमली, पापण माहि वसंत, तो तुम अलजो अति घणो, जोवा अतिहि करंत [आंख] जिहां पवन न संचरे, पंखी न बेसें कोय, ते फल वहिला लावयो, साचा साजन होय... [मोती]
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एक नारि अति जगह पियारी, नही पण वेस्या नहीं वणजारी, आपण मरती त्रण जण मारई, ए काम करइ रंग रहावइ... [नागरवेलनां पान] दही नहि पण दहियावन्नो, मच्छ नहीं पण जल उपन्नो, पूत नहि पण बाका दीजे, बलद नही पण नाथी लीजे... [संख] हीयाली तो तेहनें कहीयै, जेहनो हीयौ वलीयौ, एक पुरुष जिमतो दीठौ, सांमे भणइ गलीयौ... जब जाइ तब तीस गज, भर यौवन गज च्यार, बूढापनमें साठि गज, सुरता लेहु विचार... [छांहडी] बालपणे तो बहुत सवायौ, वडौ भयौ कछु काम न आयौ, मैं कहि दीयौ उसका नाम, कहौ अरथ कै छांडो गाम... [दीयो] विण पाए डुंगर चढे, विण दांते खड खाय, कहिज्यो पढियां पंडितां, सो कुण जीव कहाय... [अगनि] पढम अक्षर विण मारग हरै, मध्यक्षर विण नभ संचरै, अंताक्षर विण चोपद खाय, क्युं तुम्ह पास नहीं होय राय... [खडग] एक पुरुष प्रगट पवित्र, तास न देखे कोइ, सुंदर कहौ विचार कै, सुखदाइ जग सोइ... [वायरो] एक नारि ताकै मुख साल(त?), सो मैं दीठी पेठै जात, आधो माणस निगले रहै, अर्थ भाव कोइ पंडित कहै [सूथण] डुंगर झरणें घर करै, सरली मूंकै धाह, सो नर नयणे नीपजै, तस मुझ साद सुहाय... [मोर] परवत शिखर एक रथ जाइ, खाडेती बैठो भंय ठाय, अति उव्वक (उच्चक) चालै करि, पग आघो नव जाइ... [कुंभारचक्र] कुंण आधार जीवो तj, काम वरण कुंण खाप, श्रावण धुरि कुण फूलीय, स्त्री परणी किहा जाइ... [सासरइ जाइ] प्रथम अक्षर विण जग आधारै, मध्यक्षर विण जग संहारे, अंत्य अक्षर विण सगलां दीठौ, एह अंचबो नयणे दीठौ... [काजल] चंचल रुख अनेक फल, फल फल न्यारा नांव, तोड्यां पछी पाकसी, पंडित करो विचार... [कुलाल चक्र]
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अनुसन्धान-७२
मारी थी तन मारी थी, कुंवारी थकी सारी थी अबै मारै मुजकुं तो, मोटी वदुं तुजकुं... [हांडी] इक नारि इण नगर मझारे, खाइ मण दोइ च्यार, पग छ ने चाले चिहं, आंख च्यारि ने देखे बिहं... [घाणी] एकै उपरि दोइ तल, संकट आइ नारि, करण हीयाली पाठवी, राजा भोज विचारि... [इंढोणी] ऊंटोके है बेसणे, चीतां जेही फाल, अरथ न कहसी इहy, ते लेसी पंचा गाल... [मींडक] नामें सुनी रंगे काली, करे गामांतरो न हीडै पाली, खाली पेटै चरै, पंडित पुन्य हीयाली करै... [सोपारी] हीयाली तो तेहने कहीपै, जेहनें हीये हुवे ग्यान, एक पुरुष में जातो दीठो, तेहनें माथै कान... (?) मुखई पाणी पीवै, पर हथ करै विहार, करण हीयाली पाठवी, राजा भोज विचार... [लेखण] एक नारी नवरंगी चंगी, कहै तसु कूड जाय, पाणी विना तिरंगी दीठी, जग मीठी ते जाय... [जलेबी] एक नगरी में छै बहु रावला, तिण नगरी में नही वाणीयो, सोइ ज नगर प्राकारे छायो, प्रगट पिण कहीयै जाणीयो... [मंकोडानुं घर] छ चलणा दो लोयणा, तिहं खंधे सरीर, नगरीमांहि भमत है, दीठो कवण सु वीर... [मंकोडो] अंबर अडै न धर पडै, जननी जने न तास, चंद-सूर देखत मरे, कवण पंखेरु भास... [बादल] एक पुरुष सांवलौ, फरै नव नव वेस, मनि कवण ते जाणीयै, वाचो देस विदेस... [?] एक हीयाली हुं कहुं, सुणि रे भाइ पोपला, एक संखरे तीनफल, गुल-राइ नें कोकला... [छोतरा, दांणा, अमल] जाली जलै न जल में बुडै, तोली टांक न होइ, पूरब पछिम उत्तर हवै, दक्षिणा दिस न होइ... [छांह]
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पोला खाय.
सदल सकोमल सीसहर, लंका धणी न होय, म्हांकै आयो पाहुणो, थांके छै सो ढोय... [सीरख, चादर] बाप न दीन्ही दाइजै, सासू न दीनी खंति, मोडी आइ बापडी, दोइ लै सूतो कंति... [सीरख, चादर] नैंन अढार जीव तीन, च्यार भुजा षट् पाय, दिन प्रति समर्यां थका, सदा रहै सुहाय.. [?] बाप ज बेटै इको नाम, बेटो फिरे ज गामोगाम, बेटा रै इक बेटी जाइ, सो फिर हुइ बापडी माइ... [आंबा-केरी-गुटली] कागळनि परें कड कड, मद (?) जिम झोला खाय, राजा पूछे पंडीतो, ए कुण जनावर जाय... [वीजळी] आशपाशथी आइ है, लोक के मन भावि है, देखि है पण चखी नहीं है, राम दुहाइ खाइ है.,. [गामनी खाइ] एक नारि ते जगमां जाणी, पुंछडा हेठे पिइ पाणी, पीती पीती निची जायइ, ठाकठोक पाडोसण खाय... [घटीका यन्त्र] महीपुत्रथी उपनी, तेहना राता दांत, ते नारी नर बांधीयो, जोवा गइ थी कंथ... [इंटबंध कूवो] उत्तम कुलथी उपनी, विशेष वीसमी डाल, लखमीसुं लीला करे, तेहनां नाम सो-हजार. [लाख] हरीयाली ते हल परमाणो, जाणे सघलो लोक, केडमां झाली कूटीइं, तो पइशा आवे रोक... [पीजण] हरीयाली तो तेने कीजे, जेने हीये होइ ज्ञान, एक पंखी में एहवं दीर्छ, जेने पूंछडे च्यार कान... [तीर] नारीथी नर उपनो, नरा उपनी नारी, उ नारी नर मारसी, सुरता कहौ विचारी... [कबाण] एक पुरुष कहै असंभव वात, विण पग चालै दिन राति, अंधारै अजवालो करे, एक वरस में निश्चें मरै... [टीपणो] सूक्कौ लकड हे सखी, मैं फल लागो दिह, चाखै तो जीवे नही, जो जीवे तो निह... [बरछी]
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अनुसन्धान-७२
चिहुं नारी नर नीपजै, चिहुं पुरुष नर होइ, सो नर आवै पाधरो, गंज न सकै कोइ... [दिन] गलै जनोइ पूंठि थण, मस्तक उपरि दंत; एह हीयाली पाठवइ, राजा भोज विचार... [वीणा] सूको सरवर बहुत जण, कवण न लब्भइ पार, करण हीयाली पाठवइ, राजा भोज विचार... [अरीसो] माता तौ महीयल वसै, पिता वसै आकास, जना कहौ तौ मोकलां, नवा आसू मास... [मोती] पडी पडी पिण भांगी नही, कुटका हुवा दु चार, सौलै हुइ ठीकरी, राजा भोज विचार... [राति] गंगा जाकै सिर वहै, रुंडमाल गल मांहि, वाहिण जाको सहल है, माहदेव भी नाहि... [अरहट] आइ आइ सौ को कहइ, गइ न वांछइ कोइ, आव्या ही दुःख उपजै, गयां ही दुख होय... [आंख आइ] हल हलका भू पतली, वावणहार सुजाण, हाथे वावै मुख लुणै जो छेह,
___ वाट जोवू छु तेहनी जेम छावीओ मेह... [कागल] इक नारि नवरंगी आइ, तिण नवरंगी बेटी जाइ, इक पुहर थे रखे कोइ, बेटी सो फेर बेटा होइ... (?) सिंधुसुतासुत तास रिपु, तास सामिनि जेह,
अन्त्याक्षर विण जे हुए, वेगी करजो तेह. [समुद्र-छीप-मोती-हंस-सारदा-सार] राधापति के कर वसे, पांचु अक्षर एह, आदि अक्षर विण नीपजै, सो नित हमकू देह. [सु-दरिसण] षट्पद वाहन तासु सुत तस धी वाहन तास, सो निश्चे करी मानज्यो, तेह तुमारे पास. [हंस][जीव] दधिसुत कंठ विलग री(रही?), महीसुत के अणुहार, कश्यपसुत देखे टरै, पंडित कहो विचार. (?) जलसुय तस सुय तास सुय, तस वल्लही म मंडि, पिय अक्खइ धण अग्गलइ, केइ छंडिस कय छंडि. [वेढि][झगडो?]
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रजनीचर रिपु रिपु मयण, अरिजननी उत्पन्न, आज तिको अम घर नहीं, तिणसुं थया कृशंत. [रात-राक्षस-देव-दानव-देवी
महिषासुर-भेंस-घी, घी नथी तेथी दीवो झांखो थयो छे.] अजा सुत सारिखडो, जा वलहो लहेस, तो दशसिर बंधव लही, जनमेतर न लहेस. [छाली(बकरी)-बोकडो-तेना
जेवो छेल-ते रावण-तेनो बंधव कुंभकर्ण-तेनी प्रिया ऊंघ] धरतीवाहन तास रिपु, तिस माथे जे होय. ते मारे एण सारिखा, कहयो कारज कोय. [धरतीनो वाहन सर्प-तेनो वेरी मोर
तेना माथे छत्र होय-तेम तुमे अमारे छो-छत्र सरीखा छो.] पाणी पीती दूबली, तरसी माती होय, हुं तुज पूर्छ पंडिता, ए काके ही होय... [छास] जल उपनी थल वसी, जल लागई सीदाय, बाली मुंको एहने, जिम अजरामर थाय... [इंट] सरोवर पाले होवे जेह, कूकण [कांठे] निपजें तेह, बेहु मिलीने एक ज नाम, कहो पंडित केहो गाम... [वनखंडग्राम] हर सुत वाहन वलहो, ता वाहन सुत स्याम, संभारीने सजन्ना, कहेज्यो लेइ नाम... [शंकर-कार्तिकेय-मोर-मेघ-पवन-हनुमान-राम]
आंबाथी बे केरी पडी, ते दीठी बे बीजे, दीठी तेणे लीधी नहीं, लीधी पण बे बीजें, लीधी ते दोड्या नहीं, दोड्या पण बे बीजा, दोड्या तेणे खाधी नहीं, खाधी पण एक बीजें, खाधी ते कुटाणो नही, कुटाणो एक बीजो,
कुटाणो ते रोयो नहीं, रोया पण बे बीजा. (आंखो ए जोइ, हाथोए लीधी, पग दोड्या, मुखे खाधी, कुटाणो माणस, रोइ बे आंखो)
कायामंडण कर्वण ? कर्वण रजपिता कहावे ? वड जोगासण कवण ? धके गढ कण ढहावे ? नृपद्रव्य को कहा नाम ? हुकम कहो कौन परक्खे ?
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अनुसन्धान-७२
कहा तंदुल कुणं होत ? कहा सयण हरक्खे ?
आद अरू अंत परहर अखर, ध्यान चरण मझ ध्यावला,
किचलाल कहे मंगलकरण जयो पास जीरावला । (श्रीजीरावलाजी) (१. जीव २. राव ३. राजीव (पद्मासन) ४. ? ५. रावला ६. वजीरा, ७. जीरा (?) ८. वला)
सीतापति-अरि तास रिपु, उणे पाल्यो छे सोय,
देव मनुष्य में देखता, ऐसा विरला कोय. (राम-रावण-लक्ष्मण-तेणे जे पाल्युं (शील), एवा बीजा. विरला होय)
नररिपु वाहन तास रिपु, रिपु रिपु जे होय,
तास कटी अनुहारडे, कहीए विरला कोय. (मनुष्यरिपु यम, तेनुं वाहन भेंसो, तेनो शत्रु वाघ, तेनो रिपु सिंह - तेनी केड - एवा विरल होय) प्रथम अक्षर विण बाल पियारी, मध्य अक्षर विण पेरे नारी; अंत अक्षर विण सेणा दीजे, ऐसे नामें सेर सुणीजे. (सादडी) प्रथम अक्षर विण जग जीवाडे, मध्य अक्षर विण जग संहारे; अंत अक्षर विण सघले मीठो, ए अंचंभो नयणे दीठो. (सारस) प्रथम अक्षर विण कोइक जीवे, मध्य अक्षर विण महिला छाजे; अंत अक्षर विण होत संहारी, एण नामे संसार में प्यारी. (बाजरी) षट्पद वाहन तास सुत, तसु पुत्री कर जेह; जोई राखो जुगत सुं, वनरिपु-रिपु सुं तेह. (भमरो-कमल-ब्रह्मा-सरस्वती-पुस्तक, तेने अग्नि-पाणीथी बचावो)
अथ एक अक्षर उत्तर लिख्यते - १. वंदै नही क्युं देव-गुरु, विकै न वस्तु विवेक;
छोडै ऐठो अन्न क्युं, उत्तर त्रिहूंरो एक. (भाव नही) २. पूछे किम सवाद नही, दीधै किम फिर दीध;
दाडिमकण ज्युं पोस्तकण, जुदा नही किण विध. (थर नही) ३. हाथी जनमि किसुं न है, वैद दियै किम पत्थ;
नर आदर किम ना लहै, उत्तर त्रिहुं इक अत्थ. (जर नही)
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४. देशै नीपति क्युं नही, क्युं न थडे लोहार; किम वसतां मुंहगी विकै, ऊत्तर एक प्रकार. (घण नही)
समस्यापूर्ति
१.
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१.
‘थारी में यूं ठहरात न पारौ' इति समस्या पूर्यते दूरसौं दूरि मिलै छिनमैं गहि लेत है एक किनारौ, भौरसैं खात फैलात चिहुं दिसि नैं कुअरै नहि होत निनारौ, एक न ठौर कहौ ठहरात गह्यौ नहि आवत हाथ अतारौ, युं तिस नामैं भमे चित चंचल थालीमें ज्युं ठहरात न पारौ.
अन्यश्च
मैं हरवीरज धीरजकारण गोरी कौं प्राण नि हार्थं पियारौ, मैं कियो कारितकेय कुमार करूं उपगार सु धातु सुधारौ, कासीमें होइगी हांसी हमारी निकारि बनात लिपि सिही डारौ, त्रिधा त्रिकूट त्रिजाति मैं तार हुं थारीमें युं ठहरात न पारौ.
-
-
"काकैं कैं दीठे कुटुंब ही दीठौ " इति समस्या मोहनभागे जलेबीय लडूअ घेवर तामैं कहो कहा मीठौ, वाद भयो प्रमसी कहै नागर न्याउकुं जंगल जट्ट प्रतीठौ, सो कहै बूरै कैं पूर भये सब ताकौ भाई गुड लाल मजीठौ,
सो गुड दीठौ है अति मीठौ तौ काकैं कैं दीठे कुटुंब ही दीठौ.
अथ 'मत्सी रोदिति मक्षिका च हसति ध्यायन्ति वामभ्रुवः' इति व्याससतीदासदत्तं समस्यापदं पूर्यते श्रीकृष्णोऽम्बुधितश्चतुर्दश भृशं रत्नानि निर्वासयामासाऽनेहसि तत्र सक्तसफर : शुण्डाघटो निःसृतः । स्वस्वभ्रंशवशादपूर्वलभनाद्धाति: (?) प्रतीतः क्रमान्मत्सी रोदिति मक्षिका च हसति ध्यायन्ति वामभ्रुवः ॥ २. राजन्नाजिविधौ त्वया निजरिपुर्व्यापादितस्तच्छिरोलात्वोड्डीय जगाम गृध्र उत तद् दृष्टं च नद्यां वहत् । वार्घट्टे किमिति स्त्रियस्तिमियुतं तन्निश्चकर्षुस्तदा मत्सी रोदिति मक्षिका च हसति ध्यायन्ति वामभ्रुवः ॥
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अनुसन्धान-७२
३. वृक्षे क्षौद्रमसंख्यमाक्षिकमिहारुक्षन् समीक्षन् स्त्रियो
द्रागुन्मूल्य सरिद्रयोद्रुममिलद् द्रुत्वामिभंदुद्रुतं (?)। पीताब्धिश्च पवौ जलस्थलतयागामज्जताच्चित्ततो (?) मत्सी रोदिति मक्षिका च हसति ध्यायन्ति वामभ्रवः ॥
'यष्टिरीष्टे न वैणवी' इति समस्या पूर्यते - १. नमनं गुणवानेव कुरुते न तु निर्गुणः ।।
गुणं विना नतिं कर्तुं यष्टिरीष्टे न वैणवी ॥ प्रतिभैव प्रयुक्तिः [स्यात्] खण्डने स्यान्मतिस्तु न । क्षोदितुं हि कुशीव क्ष्मा यष्टिरीष्टे न वैणवी ॥
'नवलक्ष्यो जनताक्षिभिबिभीः' इति समस्यापदं श्रीजिनचन्द्रसूरिभट्टारकैः प्रदत्तं पञ्चकृत्वः पूरितं१. सुषमाभिरनेकसूनृतैः प्रतिभाभिः सुनयैश्च सद्गुणैः ।
जिनचन्द्रतुलां करोति यो नवलक्ष्यो जनताक्षिभिबिभीः ॥ प्रतिघस्मयकैतवस्पृहाः करुणान्यत्र च पञ्च तद्भिदे ।
प्रवणो यतिपः परीक्षते न वलक्ष्यो जनताक्षिभिर्बिभीः ॥ ३. उपकारपराऽपकारिषु कनर्क कामिनिकं च वष्टिनो (?) ।
स भवाब्धिपराङ्मुखः पुमा-नवलक्ष्यो जनताक्षिभिर्बिभीः ॥ ४. कुरुते गुरुगर्हणां यको दृष्टि (ढ?) मुष्टित्वमलं दधाति यः ।
अभिधाप्यशुभात्र यस्य सः न वलक्ष्यो जनताक्षिभिर्बिभीः ।। ५. गदतः स्वजनेष्टनाशतो जरसो मृत्युत एव दैवतः ।
शतशो भयमेवमुद्वह-न्नवलक्ष्यो जनताक्षिभिर्बिभीः ॥
"तिलतुषतटकोणे कीटिकोष्ट्रं प्रसूता' इति समस्यापदं पूर्यतेसखि दृशि समपप्तत्कीटिकैकोपभारं सुहृदवदत्पक्ष्मो(?)दस्पतिः सारयन्स्तं । अभिमुखमयबिम्बं वीक्ष्य दृक्स्थं तदाहो
तिलतुषतटकोणे कीटिकोष्ट्र प्रसूता ॥ २. तिलमिव लघु चित्तं स्नेहयुक्तप्रदेशे
निविशति किल हीनाङ्गीव कृष्णातिकृष्णा ।
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१.
मयमिव मदनां सा सूतजातं तदित्थं तिलतुषतटकोणे कीटिकोष्ट्रं प्रसूता ॥
_ 'विवेकः शाब्दिकेष्वयं' इति समस्यापदं पूर्यतेउत्तमोऽहं सदा वर्ते मध्यमस्त्वं प्रवर्तसे ।
परः सामान्य आवाभ्यां विवेकः शाब्दिकेष्वयम् ॥ २. समासः क्रियते तेषां येषामन्वययोग्यता ।
वासता (?) बहुरूपाणां विवेकः शाब्दिकेष्वयम् ॥ ३. सर्वधातुकता नित्यं लकाराणां चतुष्टये ।
अर्धधातुकता षट्के विवेकः शाब्दिकेष्वयम् ॥ 'समस्या समस्या समस्या समस्या' इति पदं पूर्यतेप्रवति(?) विश्वे जिनस्योपदेशो, : भवाब्धि तितीर्घर्भवेद्यो हि तेन, रतिश्चारतिश्चातिनिन्दाऽतिनिद्रा, समस्या समस्या समस्या समस्या ॥ षोडश नयनसरोजा-न्यष्टौ मुखपङ्कजानि पादौ द्वौ । पञ्चदश यस्य जिह्वा, जीवद्वयमस्तु वः सिद्ध्यै ॥
[सात फणा पार्श्वनाथ भगवान] प्रहेलिका -
किं सपयं अवरोलं ? गामं किं कारणेण धणइड्ढं ? सुहडो कीस न गिणइ खग्गं समरंगणे पडियं ? (करहीनं) नारीद्वयं यत्र नरास्त्रयो हि शृङ्गद्वयं पुच्छयुगं च यत्र । नवाधिकं नेत्रसहस्रयुग्मं दशैव पादा दिशतात् स राज्यम् ॥ (?) आद्येन हीना लघुमानरूपा, मध्येन हीना प्रविभासमाना । अन्त्येन हीना कृशदुर्व्वहा स्यात्, संपूर्णनाम्नी भवतां मुदे सा ॥ (भारती) चउवयणो नवि बंभो बहुसिलो(सीसो?) नेव राय(व?)णो होई । सरणागयरख्खकरो भीमो नहु होइ जाणेह ॥ (मढ) अभूमिजमनाकाशं रसास्वादविवजितं । । सुलभं रोगनिर्नाशि वद वैद्य किमौषधं ॥ (लङ्घनं)
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अनुसन्धान-७२
हरियाली -
एक नरई बहु पुरुष झालिनइं नारि एक निपाइ हाथ पाय नवि दीसई कहिइं, मा विना बेटी जाई
चतुर नर, ते कुण कहिइं नारी... १ चीर-चुनडी-चरणा-चोली नवि पहरई ते सालु, छयल पुरुष देखीनई मोहई, एहवि तेह रूपालू... च० २ अपासिरई नवि आवई कहीइं, देहेरई जाए हरखइ, नरनारिस्युं रंगई रमती, सहूइ साथई सरखी... कंठइ वलगी वाहली लागई, साहिबनई रीझावइ, ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ...
च० ४ एक दिवस, यौवन तेहर्नु, . पछई नावइं काम, पांच अक्षर 3 स्युंदर तेहना, तेहमां तेहनुं नाम. च० ५ कान्तिविजय कवि इणि परिइं बोलई, सुणज्यो नर नई नारी, ए हरियालीनो अरथ कहै ते, साहिबनि बलिहारी... च० ६
(फूलनी माला)
हाथी दंत समी एक नारि नामाक्षर तिस दोइ, दूध-धारि सरिखउ सुत जनमइ मान भखइ सुत सोइ रे... १ बूजउ पंडित ए हरीआली जोइज्यो हृदइ निहाली, करिज्यो ऊतर पाछउ बोली, सुधउ अरथ संभाली रे... बू० २ नरनारी संयोगि जाइ, देह विवर्जित बाला, मुख पाखइ पंच साखि, विणसे उतपति काला रे. श्वेतवरणस्यइ नयणे दीठउ, गंध विवर्जित फूल, न चढइ देवि न देख्युं भावै, किछुय न पावै मूल रे. बू० उत्तमि बापइ बेटउ जायउ, बेटइ बाप लजायउ, बेटा के गुण लेखि लिखायो, नारी नयण सुहायो रे. बू० ५
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पांचे वरणि नवि पंचाली, नागिणि नहि दोइ जिह्वा, श्याम वदन मंजारि न होवै, लिहि पंडित निशदीहा. अधिक कषाय धरइ उपजतउ, खाटउ यौवन वेस्यइ, वडपण हुइ विशेषइ मीठउ, दीसै देस विदेस्यइ रे. बू० ७ गुणवंत मनि गरब न आणै, छेडयउ छेह न दाखै,
सब जग की जे लज्जा राखै, मुनि शिवचंद इम भाखइ रे.बू० ८ (१. पूणी, ३. चुटकी, ४. ?, ५. काजल, ६. लेखण, ७. आंबो, ९. वस्त्र)
___- rm - Iv
बाई रे में कौतिक दिलु, काणो डोलो आंजियो ए... बाई० हाथ विछुटो हाथियो ए...
बोडि[डी] माथें राखडी ए.., तरस्यो पाणी नवि पीयइ ए... फलिओ आंबो कापियो ए... सूयरें हाथी मारीओ ए... बेटे बाप विणासिओ ए... विस पीधे हरखीत हुओ ए... विण पुरुष रमणी रमे ए... एक नारी परणे घणा ए... गुरुड नाम विष धारीओ ए... गयवर सीह सामो ग[च]ल्यो ए... सायर माछा सवि गल्या ए... एक जणे पांच विणासीया ए... माय मुइ रोयिं नहि ए... वयरी घर मांहि रमे ए... नारीइ प्रीतम बांधिओ ए... बांध्यो चोर चोरि करे ए... सुख विण सुखीउ थयो ए... पंथ लही भूलो फरें ए...
*4 44
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अनुसन्धान- ७२
विण सबदिं वात ज भाखै, जग सघलो ते करि राखै, ते नरी लहीइ लाखै रे रे पंडितजी, कहउ विचारी, हरियाली अरथ संभारी... रे पंडित...
इक नारी किणिही न दीठी, मुनिवरनै मनि मति मीठी, वसि कीधा विंदक धीठी रे...
पं० २
जिभि करि. किणिहि न चाख्यउ, सबही थइ मीठं भाख्युं, अभिधान जलंतरि राख्यं रे,
पं० ३
होवै जिंहा अधिक सनेह, पय- पाणी सारंग-मेह, तिहा मीठं अति घण केह रे.... इक नारी घरि पूजावइ, जीवंती दुख ऊपावै, खिणि छूटे खिणि बंधावे रे...
कापी कर कटका सांध्यउ, तसकर ज्युं ताणि बांध्यउ, तरुणीतनि ते जै बांध्यउ रे...
पं० ४
पं० ५
पं० ६
जातां जण च्यारि कहीजै, चिहुको इक खोजि लहीजै, भोजन कै उपरि दीजैं रे
ए अरथ अनूपम जाणै, चित्त अंतरि गरव न आणै, तेहने शिवचंद वखाणै रे
पं० ८
( १. नाडी, २. मुक्ति, ३. झाकल, ४. हसणु, ५. सोगठी, ६. कंचूओ, ७. तंबोल)
पं० ७
६
राग : आसाउरी
कहो रे पंडितजी तुम्हे विचारी, रंगीली रलीयाली रे,
एह हरीयाली हरखे बोली, जोज्यो कोण सुकुमाली रे.... क० कर्ता कामि दो पुत्र नीपाया, हूया जगमांहि विखाती रे, नारी दोइ तिणि नीपाइ, एक जल सेती राती रे... सुरुपीनि अ जीवइं द्वीपखि, चलण विहूणी चाले रे, ते जोवानई नखर हरखइ, जल- थलि बेहू माले रे.... एक वसंता महिमा वाधइ, बीजी मान गमावइ रे, एक आवइ होइ रंग रेली, अपराधी सवि जावई रे ....
क०
s
क० ३
क० ४
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एह नारी सुं जे नर राता, साह-चोर ते कहीइ रे, मेरुलाभ कहि जेहु सुंदरी नइं, छोडइ शिवपुर लहीइ रे... क० ५
[होडी-ननामी]
दारे बेठी सूडली तस पांख ज नावे, चुंण करवा कारणे, सायरमां जावे... दारे० १ देह वरण नीली नही, तस पांच छे नीली, पांचे इंडा मूकती, सायरमां झीली...
दारे० तेह इंडा चाप्यां थका, फोडा पण नवी फूटे, एहनी भगती जे करे, तेहना पातक छूटे... दारे० ३ कवीजन हरखे एम कहे, ए कुण छे सूडी, अरथ वीचारी जे कहे, तेहनी मती छे रूडी... दारे० ४
[कलम]
कहो कहो रे पंडित ए हरियाली... एक अनोपम पुरुष ते कहीइ जे देखी नइ सुख बहु लहीइ... कहो० १ तस मस्तक एक नारी बयठी ते पणि सारंगा मइ रे दीठी, कहो० कारीगरइं पणि तेह नीपाइ, देखत नयनां बहु सुख पाइ... कहो० २ एक पुरुष जब सबलो रे थावइ, तव ते चिहुं दिसि डील हलावइ, कहो० सात पांच पुरुष नइं चाकर राखइ, अहनिसि ते पणि मधुरु रे भाखइ... कहो० ३ राती नीली पीली धोली काली, पांचे वरणी अति रढियाली, कहो० मोहनगारी सहुनई प्यारी, ए पणि मोटे कामइ धारी... कहो० ४ जेणई थानक ए नारी रे सोहइ, तिहां सुरनर बहु भूपति मोहइ, कहो० हर्षविजय गुरुवयण संभाली, प्रीतिविजय कहइ ए हरियाली... कहो० ५
अचल सुता पति तसु दिपिइ रे, रिपु धर कंत वखाणि, तसु रिपु भज्जा नाम छइ रे, तसु प्रथमाक्षर जाणि,
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अनुसन्धान-७२
गुणियण सेवउ सुहगुरु पाय, तसु नामई दुरित पलाइ
जसु जपतां शिवसुख थाइ... १ तसु सह नामइं जे अछइ रे, तासु तणउ मल्हार, तसु नामइं मन ऊल्हसइ रे, पामउ हरख अपार... गुणि० २ वनरिपु तसु रिपु तेहनी रे, धूय तणा तनु वान, महियलि महिमा महमहइ रे, द्यइ इंद्रादिक मान... गुणि० ३ समुद्र सुता सुत तनु तुलई रे, निर्मल दीपइ जासु, अखंड कीरति छइ तेहनी, कीधउ अतिहि प्रकास...गुणि० ४ जासु नाम प्रगटउ जगिइं रे, हेलिई जीतउ मार, संजम सिरि सहजई वरी रे, तरिया भव संसार... गुणि० ५ सहगुरु दीठइ उपजइ रे, हरि सिरि जिणि सोभंति, ए गूढारथ तिणि कीयउ रे, पंडित जण बूझंति... गुणि० ६ ऋषि हापराज इम वीनवइ रे, ए गूढारथ गीत, साधु तेय सूधउ सदा रे, अवर बइसइ चीति... गुणि० ७
१०
परमार्थ तत्त्व हीयाली सेवक आगइ साहिब नाचइ वहइ गंग जल खारी; गर्दभ साटइ गइवर वेचिउ इ अचरिज मोहि ता(भा)री, चतुर नर, बूझइ एह हियाली, जिम ऊतर दे संभाली [आंचली] १
हिवइ भव्यजीव तणई कारिणि हितोपदेश-शिष्या(क्षा) वचन दीजइ छइ. कर्मरूप सेवकनइं आगलि जीवरूपीओ राजा नाचइ छइ. जिनवाणी श्री सिद्धांत रूप गंगाजलनइं आपणी मतिइं जूठां अर्थ कहतउ खारु करइ. प्रमाद रूपीओ गर्दभ, तेहनइं साटइ संयम रूपीओ मत्त गइंवर वेचिओ. जीव प्रमादनइ वस्य पडिओ चारित्र पाली न सकइ.
मांकड कइ वसि जोगी नाचिउ, मारिउ सीह सीयालइ; इक चीटीयइ परबत ढाहिउ, अचरिज इणि कलिकालइं... चतुर०२
चतुर नर, हीयाली नउ अर्थ ए जांणिवउ... मन रूप मांकड कइ वसि जोगी असंयमी नाचिउ. शीलरूपीउ सिंघ काम सीयालई मारिउ. तृष्णा रुपिणी
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चीटीयई संतोष पर्वत पाडिउ, जीव तृष्णातुर थकउ संसार मांहि महत्व गमावइ.
सुरतरु साखइं काग बइठउ, विषधर गरुड विदा[इ] कस्तूरी परणालइ वाही, लसण भरिउ भंडारइं... चतुर० ३
जिनशासन रूप कल्पवृक्षई कुगुरु, काग बइठउ. क्रोध ज्ञाननई नसाडइं. समतारूप कस्तूरी गमावी नई असत्य वचननउ [ल्हसणनउ] संचय करइ. ए जीवनडे स्वभाव जाणिवलं.
अंब-आक फल इक तरु लागा, हंस-काग इक मालइ; मींढइ नाहर लातइं मारित्रं, अचरिज इणि कलिकालइं... चतुर० ४
ए शरीर केडई सुखदुख दोनूं फल लागा वहइ छइ. ए जीवनइं पुण्य पाप बे साथिई छई. अभिमान रूप मीढइ विवेक नाहर पग[गि] ठेलिओ. अति मानथी विवेक जाइ ए वात जाणिवी.'
माछरकइ मुखि मइगल मायउ, राजा घरिघरि हीडइ; एक थंभ पांचइ गज बांध्या, राणी होइ कण खांडइ... चतुर० ५
मिथ्यात्व रूप माछरइ सम्यक् रूप हाथी गलियो जाणिवउ ए वात जाणिवी. जीवराजा नवीनवी योनि मांहि भमइ, एक शरीरइ पंचई इंद्री लागा वहइ छइ, अविरतिराणी व्रतनी खंडना करइ.
आठ नारि मिलि एक सुत जायउ, बेटइ बाप बढायउ, चोर वसिउ मंदिर महिं आई, घरथी साह कढायउ... चतुर० ६
आठ कर्मकी प्रसूतिइं संसार रूपी पुत्र प्रगट कीधउ छइ. कपट बेटइ मोह पिता वधायउं. विषय चोर काया मंदिर मांहि वसिउ, साहस रूपी साह घटमांहिथी कढायउ.
एक आगि सगलइ जल पीवइ, वेस्या धूंघट काढइ, कुलवंती कुल लाज तिजी करि, घरि घरि बारइ हींढइ... चतुर०७
लोभ रूप आगि सगली वस्तुनई सोषइ छइ. माया वेस्या मिष्ट वचन रूप चूंघट करइं, कपटी मीठी बोलइ. सर्वविरति रूप सती कुलवंती स्त्री आपणी लाज छांडी अने असंयम विकारइं प्रवर्तइ.
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अनुसन्धान-७२
ए परमारथ ग्यान सुंणी करि, आतमध्यान सुध्यावउ, विनयसागर मुनिवर उपदेसइं, धरमई निज मति लावउ... चतुर० ८
ए वात श्रीजिणवरइं पंचम आरानी स्थिति जाणी सिद्धांत मांहि कही, एहवउ जाणी उत्तम प्राणी सुभमति आणी मन-वचन-कायाइं करी जिनधर्म करिवउ. ए खरतरगच्छे श्रीसुमतिकलश मुनि शिष्य पंडित विनयसागर मुनिवर कृत उपदेश सांभलीयइं धर्म सुंणीयइ.
कहयो पंडित ते कुण नारी, वीस वरसनी अवध विचारी... कहयो० १ जाणइ ते चेतना नारी, ते नारी कुण ? वीस वरसनी अवधि दीजई छई, ते माटई... दो पिताइं तेह निपाइ, संघ चतुरविध मनमां आइ... कहयो० २
ए बे पिताइं निपाई छइ नारी, ते नारी चतुरविध संघना मनमां आवि. कीडिइं एक हाथि जायो, हाथी साहमो ससलो धायो... कहयो० ३
निगोद मांहे जे अव्यक्त क्षोपशम ते कीडि तेहथी व्यवहार ज्ञान होइ ते हाथि जाणवो. तेहथी साहमो जीव अज्ञानि थाय ते ससला सरिखो कर्म ते सांमो थयो. विण दीवें अजूवालूं थाय, कीडीना दरमाहे कुंजर जाय... कहयो० ४
दीवा विना अजूआलू थाय ते चेतन जाणवो. तेह मोहग्रस्त थाई ति वारे • कीडीदर जे निगोद, ते मांहि हाथि सरखो ज्ञानवंत पणि जाणिइं (जाइ). वरसै आगि नइ पाणी दिवें, कायर सुभट तणा मद जी... कहयो०५
ते चेतनाने अधिकारे अग्नि सरिखों कर्म वरसै त्यारे पाणी सरिखो खिमावंत थाइ ते दिपइ. विषय-कषायना भयथी संसारी कांतार [कातर] थाइ ते मोह रूप सुभटनइं जीपइं. तिण बेटीइं बाप निंपायो, तेणें तास जमाइ जायो... कहयो० ६
तेह चेतनरूप बेटीइं उपयोग रूप बाप निपायों छइं. तेणे बापइं उपयोगात्मा
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रूप जमाई जायो.
मेह वरसंतो बहू रज ऊडें लोह तरइं ने तरणुं बूडे... कहयो० ७
स्नेहरूप मेह वरसंतां कर्म रूप रज, ते उडइं. लोह सरिखो ज्ञानवंत बलिष्ट होय ते तरें, तरणा सरिखो विषय लालची जे छे ते बूडइं.
तिल फरें ने घाणी पिलाई, घरटी दाणें करिय दलाई... कहयो० ८
तिल सरिखो कर्म करई तेहने समुदायें प्रमाद, घाणि सरीखी चेतना पीलाइ. ते कर्म छइ [रूपि]दाणे करी चेतना रूप घरटी प्रमादी थाइ ते दलीइं . बीज फले नें शाखा उगइ, सरोवर आगले समुद्र न पूगई... कहयो० ९
बीज ते बोध बीज फलई, क्रिया करें ते शाखा, ने ज्ञानरहितने दुःख पालवइ ज्ञानसरोवर आगल संसारसमुद्र पणि न पूगई.
पंक झरे ने सरवर जांमे, भमें माणस तिहाँ घणे विसामे... कहयो० १०
ते चेतना करो थइनइ ते झरे तीवारें आत्मा रूप सरोवर जामे. तिहां घणो प्रमाद रूप विसामें ने मनुष्य संसारमां भमे. चरित्र रूप वेगें चाले ते न भमइ. प्रवहण उपर सायर चालें, हरण तणें बल डुंगर हाले... कहयो० ११
प्रमादि ते प्रवहण सरिखो आत्मा तेहनें हेंठें घालिनई उपर संसार समुद्र चालइ छइं. हरिण सरिखा कर्मने बले डुंगर सरिखो आत्मा अस्थिर थाय. एहवउं जाण.
एहनो अर्थ विचारी कहयो, नहितर कोई गरव म धरयो ... कहयो० १२ प्राणिइं ते चेतन नामइ जीवनी बुद्धि करवी, प्रमाद न करवो, नहितर मन माहि गर्व कोइ न धरस्यो.
श्री नयविजय विबुध ने सीसें, कहि हरीयाली मनह जगीसें... कहयो० १३ श्री नयविजय पंन्यासने चेले पोताना मनने हरखे एह हरियाली कहि. ए हरीआली जे नर कहेरौं वाचक जस कहे ते सुख लहसे... कहयो० १४ जे एह हरियालीनो अर्थ जाणस्यें अथवा कहस्यइ ते जसविजय पाठक कहै छै जे ते अनंत सुख लहस्यइ. पंडित होय ते एह हरिआली अर्थ विचारी नें कहेवा.
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श्रीमानसागर-विरचित आषाढाभूति सतढालियो
- सं. प्रा. अनिला दलाल
कवि मानसागर ओ तपागच्छना गुजराती जैन साधु-कवि छे. तपगच्छपति श्रीविजयप्रभसूरि → विजयरत्नसूरि → श्रीजयसागर → श्रीजीतसागर → मानसागर - आ तेमनी गुरुपरम्परा, आ कृतिनी छेल्ली ढाळनी अन्तिम बे कडीओना आधारे जाणी शकाय छे.
__मध्यकालीन गुजराती साहित्य कोश-१मां उपलब्ध नोंध प्रमाणे आ कवि विक्रमसेन चोपाई (ई. १६६८), सुरपति चोपाई (१६७३), सात ढाळनी प्रस्तुत रचना तथा अषाढभूति चोपाई रास (ई. १६७४, १६८०), आर्द्रकुमार ऋषि सझाय (१६७५), कान्हड कठियारा चोपाई-रास (१६९२), सिंहलकुमार चोपाई (१६९२), सुभद्रासती चोढाळियुं (१७०३) इत्यादि अनेक कृतिओ रची छे. तेमनो सत्ताकाळ सत्तरमी सदीनो उत्तरार्ध छे.
अषाढाभूति नामक साधुपुरुषने केन्द्रमा राखीने कवि बे रचनाओ रची छे. १. अषाढाभूति सतढाळियो. २. अषाढभूति चौपाई. बन्ने कृतिओ महदंशे समान जणाय छे. थोडा थोडा परिवर्तनने बाद करतां लगभग एक ज रचना होय तेम लागे छे.
प्रस्तुत सम्पादनमां 'सतढाळियो'ने मुख्य राखीने वाचना तैयार करेल छे. तेनी प्रति सं. १८९५मां लखाई होवानुं पुष्पिकाथी जणाय छे. अषाढभूति चोपाइना पाठभेदो तेम ज केटलाक शब्दोना अर्थ टिप्पणीमां आपेल छे. चोपाइने प्रतिमां 'चोंपी' तरीके लखेल छे.
आ बन्ने कृतिनी हस्तप्रतो कोबाना श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिरना ग्रन्थसङ्ग्रहमांथी प्राप्त थई छे. 'सतढाळियो'नी प्रत क्रमांक ३९६६१, तथा चोपाई (चोंपी) प्रतक्रमाङ्क १६९४२ - ए क्रमे त्यांना संग्रहमां बे प्रतो नोंधायेली छे. बन्ने प्रतिओनी झेरोक्ष नकल आपवा माटे ते ज्ञानमन्दिरना कार्यवाहकोनो आभार मानुं छु.
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आषाढभूति सतढाळियो
सासण-नायक-सुखकरु वांदु वीर जिणंद सेवकने सुरतर (रु) समो पुरण परमाणंद... वचन - सुधारस वरसती समरी सरसति माय वाणी वरवाणी दीयो सेवकने सुख थाय...
से मुख श्रीजिन उपदिसे दान सीयल तप भाव धर्ममुल एही ज धुरा भव - सायरकी नाव... भाव - विशेषे भविक जन ओहमे अधिक सुजाण, भाव - सहित तप- जप करे तेह चढे निर्वाण... भाव विना जिन भगत सी भाव विनां सी दीख र भाव विना भणवो किसो भाव विना सी सीख... इण परि भावे भावनां जिम आषाढमुनीस कर्म मयल खेरुं करी केवल लह्यो जगीस... ढाल अलवेल्या
५
६
दाहिण भरतमांहे भलो रे लाल, पूर्व दिस प्रधान सुखकारी रे राजगृही रलीयामणी रे लाल, इंद्रपुरी उपमान... सु०
राजगृही पुर सूंदरुं रे लाल... सोहे चोरासी चोहटा रे लाल, वापी कुप आराम सु० अहनिस सेवे देवता रे लाल, जिहां रहिवाने विश्रांम सु० २ रा० लोक वसे सुखीया सहु रे लाल, धन करी धनद समांन सु० ले लाहो लिखमी तणो लाल, दे षट दर्शण दान सु० आरीहंत आण वहे सदा रे लाल, श्रावक कुल सिणगार सु० धरम - धुरंधर्मे धुरा लाल, छे द्वादस वरत धार सु० नालंदेपाडे वसे रे लाल, जिहां श्रावकनी जोड सु सें मुख वीर प्रसंसीया रे लाल, साढीबार कुल कोड सु० ५ रा०
३ रा०
४ रा०
१. स्वयं । २. पांमें चो. । ३. दीक्षा । ४. मेल खंखेरीने । ५. केवलज्ञान ।
८९
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७ रा०
पर्वत पांचे पाखती रे लाल, विभार विपुल गिर जांण सु० उदय सोवन रतनेंगीरी रे लाल, नांम मिसा वखांण सु० ६ रा० सालभद्र धनो तिहां रे लाल, एकादस गणधार ... सु० कर अणसण अराधनां रे लाल, पोहता मुक्ति मझार सु० लांबी हाथ छियाल छे रे लाल, परंवर पोसाल सु० चवदे चोमासा कीया रे लाल, वीर जिणंद दयाल सु० पहिली ढाल पुरी थई रे लाल, अलविल्या केरी जात सु० मानसागर कहे सांभलो रे लाल, नगर तणो अवदात सु० ९ रा०
८ रा०
अनुसन्धान- ७२
दुहा
गाम नगर पुर विहरता निरमम निरअहंकार पांचसयां मुनी परवर्या धर्मरूची अणगार... समोसर्या तिण अवसरे राजगृही उद्यान तास सीस आषाढमुनी लबधि गुणे प्रधान... छठ तणो छें पारणो लेई सतगुर आदेस' चारित्रियो "वहरण चल्यो नगरे कीध प्रवेश...
ढाल
११ ( वादल चिहुंदिस उनम्या सखी... ए देशी) मुनीवर वहिरण पांगुर्या सखी लेई सतगुर आदेस छठ तणो छें पारणो सखी नगरे कीध प्रवेस रे... मुनीवर नवजोवन वेस रे सोहे सीर लुंचित केस रे चित्त लोभ नही लवलेस रे मनमोहनगारो साधुजी... कांधे लाखीणी लोवंडी सखी हाथ अमोलक डांग मेयंगलनी परे मलपतो सखी निरमल गंग तरंग रे सोहे तन केसर रंग रे रूपे करी जेम अनंग रे छोड्यो प्रमदानो संग रे मनमोहनगारो साधुजी...
-
२
६. नांम जिहां तिहां खांण - चो. । ७. प्रवर वीर पोसाल चो. । ८. अलबेला० चो. । ९. त्रीजो दुहो चो. प्रतमां नथी । १०. वहोरवा आहार लेवा । ११. वादल दह दिस उसर्या सखी - चो. । १२. कामळी अथवा पछेडी । १३. मयगल
हाथी ।
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भमर तणी परे बहु भमे सखी ले मुनी सुध आहार सूर तपे सिर आकरो सखी पिंड झरे जलधार रे रिष उपसमनो भंडार रे जिण जितो है विषयविकार रे अति पंच माहावरत धार रे... मनमोहन....
३ पुज पधारे वहरवा सखी नटुई केरे गेह धर्मलाभ दीयो४ धु सखी चितमें चमकी तेह रे आओ मनीवर अम गेह रे हर्षे करी पुरित देह रे मोदक द्ये धरि ससनेह रे... मनमोहन... मोदक ले मुनीवर चल्यो सखी वलि चिंते चित मझार ओ मोदक मुझ गुर भणी सखी कीधो ओह विचार रे मुनि लबधि तणो भण्डार रे कीधो तिण रूप उदार रे वलि आयो दुजी वार रे... मनमोहन... ती मोदक लेई चल्यो सखी वलि चिंते मुनिराय ए विद्यागुर कारणे सखी थिवर रूप वलि थाय रे अति गलत कीधी काय रे लडथडता मुंके पाय रे तीजी वेला तिहां जाय रे... मनमोहन... डोसो दुखीयो दुबलो सखी देख थई दीलगीर वेहरावे करुणा करी सखी जाय रह्यो एक तीर रे चिंते मुनी वडिवीर रे ईणमे लघु सीषनो सि(सी)र रे गुर पास भणे जीम कीर रे... मनमोहन.... कुबो डुबो वांमणो सखी स्यांम वरण करहि(ही)ण कांणी कोची आंखडी सखी गीड रह्या लयलीण रे दंतुर अति काचा खीण रे तिण रूप रच्यो अति दीण रे १५बोले मुख वयण प्रवीण रे... मनमोहन... ८ चोथी वेला आवियो सखी नटई तणे आगार पडिलाभे प्रेमे करी सखी मोदक सुध आहार रे लेई मुनीवर कीध विहार रे लब्धि कीया भेख अपार रे
नटवे दीठा तिण वार रे... मनमोहन... १४. दीनों सत्वरें - चो. । १५: बोलतो मुख प्रवीण रे - चो. ।
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ऊंचा महलथी उतर्या सखी नट वांद्या मुनी पाय जे जोईये ते लीजीये सखी जे कछु आवे दायरे नटवो निज मंदिर जाय रे पुत्रीनें कहें समझाय रे सुरतर सम अ रिषराय रे.... मनमोहन ...
जो नटवो हुवे आपणो सखी तो भरीये धनकूप राज लोक रीझे बहु रीझे भलाभला भूप रे मुनीवर तो अकल सरूप रे लबधि करि नवनवा रूप रे अहने मोहो करी चुंप रे... मनमोहन ...
११
बीजी ढालमे ढलकतो सखी मीठो राग मल्हार मानसागर कहें सांभलो सखी सांभलतां सुखकार रे हिवे नटुइ करे विचार रे मुनी चिंत्यामण अनुसार रे पांमीजे पुन प्रकार रे... मनमोहन ...
दुहा
बिजे दिवसे वहरवा आयो उणही ज गेह
नटुई दीठो नेण भनि पडिँलाभे धरि नेह...
रूपे रंभा सारखी इंद्राणी अणुंहार
के पदमण पातालकी, घडी आप करतार...
ढाल
( वांभणडी जग मोहियो... ए देशी)
अनुसन्धान- ७२
आगे उभी आयनें जाणे चमकी वीज
मुनीवर मन " सांसे पड्यों अह रूप की रीझ... २
-
३
१०
१६. अणूहार - चो. । १७. आहार आपे । १८. संशय ।
१२
भुवनसुंदरी जयसुंदरी अति सोहे रे मन मोहे रे मुनीवर को जांण के कर जोडी आगल रही मुख बोले रे, अति मीठी वाण के मुनीवर मोह्यो माननी... (आंकणी)
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ज्यां सीर सोहे राखडी सिर गुंथ्यो रे गुंथ्यो अति चंग के वेणी भुजंगम सांमली विच करतो रे तिहां राज अनंग के... - मुनिवर मोह्यो माननी.... टीको नीको निलवटे मुख सोहे रे पुनमनो चंद के दंत जीसा दाडिमकुली जिहां सोहे रे अमृतनो कंद के
मुनिवर मोयो माननी... आंख कमलनी पांखडी गलि सोहे रे एकावली हार के नाके नकवेसर भण्यो कुंच सोहे रे श्रीफल अनुकार के
मुनिवर मोयो माननी... बांहे सोहे बहिरखा कर सोहे रे सोवननी चुड के कांने कुंडल कनकमे ईण वाते रे मत जांणो कुड के
मुनिवर मोह्यो माननी... कटमेखल सोहणी तटे कट चरणां रे पहर्या अति चंग के, पाये घुघर घमघमे मुलकंती रे करे नव नव रंग के मुनिवर मोह्यो माननी...
६ नयण वयण नारी तणा हिवे छुटा रे करवाने चोट के मुनिवर मृगतन भेदीयो अति दीधी रे नयणांकी दोटर के मुनिवर मोह्यो माननी...
७ नयण वयण सर सारिखा अति नांख्या रे तिहां भर भर मुंठ के भेदालक तन भेदीयो जाई लागो रे ते न रुके उठ के मुनिवर मोह्यो माननी...
८ भुवनसुंदरी जयसुंदरी समझावे रे तीजी ढाल के मांन कहे समज्या२२ सहु धन्यासी रे रागे सुविशाल के
मुनिवर मोह्यो माननी...
१९. निलाड - ललाट । २०. सोणी - चो. । २१. चोट - चो. । २२. सझ्या - चो. ।
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२४
अनुसन्धान-७२
दुहा
कर जोडी वीनती करे सुंण ससनेहा साध भटके घर घर भीखने कहोनी कुंण फल लाध... १ कुंण अपराधी अहवो आ दीधी २३तुम सीख ईण वेलां तुं ओकलो मांगे घर घर भीख... ईसी सीख किम मानीओ लही मानव अवतार जिण ओ भोग न भोगव्या किण लेखे अवतार... ३
ढाल - ४ (रांम चंद के बाग चंपो मोरी रह्यो री... ए देशी) सुण ससनेहा संत, कांमण अर्ज करे री थे गीरूवा गुणवंत, घर घर कांय फीरे री... १ आ कीण दीधी हे सीख, जोवन दीख ग्रही री घर घर मांगे भीख, कहो काहा सीध लही री... २ किण धूतारे धूत, चितडो धूत लीयो री लेई कीयो अवधूत, फिर फिटकार दीयो री... ३ फिरो उभैराणे पाव, सुंण आषाढ मुंणी रे सूक लुखो खाय, किहां सीध सूंणी री... ४ पहरी मेला वेस, सोच न कछुय कीयो री मसतक तुंच्या केस, देही दुख दीयो री... २ लुल लुल लागुं पाय, साहिब कह्यो करो री थे सहुने सुखदाय, हमसुं प्रीत वरो री.... परणो जोवन वेस, नरभव सफल करो री २८सूंथे भीनां केस, कांमण चित धरो री... सुंण ससनेहा सांमि, भेख परहो तजो री थे अम्ह आत्मराम, मंदिर सेझ सझो री...
२३. कुण चो. । २४. दीक्षा । २५. अलवांणे - चो. । अडवाणा पग । २६. तिहां काह सिद्ध सुणिरी - चो. । २७. लळी लळी । २८. सुधे - चो. ।
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फूल बिछाई सेझ, नव नव भांति भली री करि हरणांखी हेज, पूरो चित रली री... तुम्ह मिलवा हम कोड, मंदिर आय बसो री जासी जोवन दोड, बेठा हाथ घसो री... ईम नटुइ तो जपंत९, आई चरण लगी री नेह निजर निरखंत, देखत प्रीत जगी री... कांमणने समझाय, मुनीवर वात कही री गुरकुं पुछु जाई, आवीस तुरंत सही री... धसमस चाल्यो वेग, कांमण चित वसी री छांड्यो मन संवेग, आश्रम आयो रीसी री... मांनसागर कविराय, चोथी ढाल भणी री वनिता के वस थाय, हिवे आषाढ मुंणी री...
दुहा वाट जोवे मुनीवर तणी सतगुर नयण निहाल, हिवे आषाढ मुनीसरूं तिहां आव्यो ततकाल... वछ तुम्हे असुरां आविया माथे ढलीयो सूर सतगुर शिषनें पूछीयो बोले शिष करूर... घर घर भिख्या मांगवी घणुं संताया भीख सीर सूर्य पगला तपे उपर वले तुम्ह सीख... ओघो ओ मुहपती अह तमारो भेख खम्या न जावे खिणखिणे खारा वयण विशेष... ४ बोल बांहदे आवियो कर नटुई संकेत, रह्यो न जावे भोग विण नटुई बांध्यो हेत... हमकुं तुम्ह आदेस द्यो नटुइघरमे जाय, भोग भलेरा भोगवां ३२हमकुं थया उछाह...
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२९. ईम नटवी जलपंत - चो. । ३०. घणो संताप्यो भीक्षु - चो. । ३१. वायदे - चो. । ३२. मुज मन चितउछाहे - चो. ।
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अनुसन्धान-७२
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ढाल - ५ (रूपीयारी अधटांक तमाखु मोलवे हो लाल तमाखु... ओ देशी) पभणे सतगुर शीख सुणो शीष वावला हो लाल... सुणो शीष... पररमणीके काज थया किम आकुला हो लाल... थया किम... पंचमाहावृत धार ईसो तुम किम घटे हो लाल... ईसो तुम। जाप जपे तुम्ह नाम लियां पातक कटे रे लाल... लि. १ रतन चिंत्यामण हाथ "दिखद कहो कुंण ग्रहे रे लाल... दि. गेवर३५ घुमेवार गधो कुंण संग्रहे रे लाल... ग. सुरतरू आंगण तोडि बंबुल न वावीये रे लाल... बं. अंब फल्यो असमान २६आक नहुं वावीये रे लाल... आ. वर छांडीजे प्रांण हुंतासनमे वली रे लाल... हुं. चारित रतन म छांडि न करि नारी रली रे लाल... म. तप कर काया सोसई इंद्री वस कीजीये हो लाल... ई. संजम विधसूं पाल "बोहत जस लीजीये हो लाल... ब. न गमे सतगुर सीख कहें सिष “गुर भणी हो लाल...क. मुज मन आहिज मोज गृहे वसवा तणी हो लाल... गृ. हमकुं द्यो आदेश कहे सीष वलीवली हो लाल... क. जिण कुल मदरा मांस टाली रहिज्यो रली हो लाल... र. देखीस मदरामांस भखण करतां सही हो लाल... भ.. ३९) हम गुरकी कार तिहां रहवो नही हो लाल... ति. हिवे आषाढ मुंणींद आयो नटवा घरे हो लाल... आ. भुवनसुंदरी जयसुंदरी बिंहु उच्छव करे हो लाल... बि. जो मदरा में मांस तणो टालो करो रे लाल... त. तो हम तुम घर वास बोल मांनो खरो हो लाल... बो. दोनां मांनी वात बोल निश्चे करी हो... बो.
जो तुम्ह लोपांकार साहिब जाज्यो फिरी हो... सा. ३३. व्याकुल । ३४. दृषद - पत्थर । ३५. गयवर - चो. । ३६. आक कुं कुण ग्रहे रे लाल - चो. । ३७. बहु तप जस - चो. । ३८. शिष्य वलवलि रे लाल - चो. । ३९. चो. मां आ पंक्ति नथी ।
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परणावी निज तात भुवन जय सुंदरी हो लाल... भ. भोगवे भोग रसाल के मन सुधे करी हो लाल... भ. हास विनोद विलास विविध सुख मानतो हो लाल... वि. मानव भव अवतार सफल करि जांणतो हो लाल... स. एक दिवस आषाढ चल्यो नृपति सभा हो लाल... च. तेडो आयो दुत सुकन हुवा ४°सुभा हो लाल... सु. लेई सामग्री साथ नाटक करवा भणी हो लाल... ना. प्रमदा पुठे छाक पीये मदरा तणी हो लाल... पी. नाटक जीपी आषाढ आयो घर आपणे हो लाभ... आ. राव लही सुपसाव बहु जय जय भणे हो लाल... ब. दीठी वनिता वेस विकराल४१ मद छाकणी हो लाल...म. थी(ची)र रहित पडी भुंमि जाणे करी डाकणी हो लाल...जा. मुल संभव न जाय जतन बहुला करे हो लाल... ज. स्वाननी वांकी पुंछ सरल कहो कुंण करे हो लाल... स. ४३टाल न जावे कोडि ओषध जो कीजीये हो लाल... ओ. काग न होवे स्वेत साबण बहु दीजीये हो लाल... सा. छांडी संजम वेस ईसी नारी वरी हो लाल... ई. ४५ईण लोपी मोहिकार जाति अहनी बुरी हो लाल...जा. पांचमी ढाल रसाल विसाल घणुं कही हो लाल... घ. मानसागर आषाढ घरे रहसी नही हो लाल... घ.
दुहा खरी सीख दीधी हुंती पण कांमण लोपीकार हिवे रहिवो जुगतो नही निश्चे ने विवहार... १ विकल रूप नारी पडी मुंकी चाल्यो जांम छाक गई मदिरा तणी नारी लाजी तांम...
२
११
४०. सुभ भला - चो. । ४१. विकल - चो. । ४२. स्वभाव । ४३. माथानी टाल । ४४. साबु । ४५. चो. मां आ पंक्ति नथी.
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अनुसन्धान-७२
कंता क्रोध न कीजीये अबला भाखे आंम कीडीसुध्६ कटकी कीसी थे अम आतमराम ३ ४७पलो झालि ऊभी रही जाय सखी भरतार
ओ लाखीणो लाडलो कब मेले करतार४८ ४ प्रीत करी परणी हुंती अब किम दीजे छोड ४९कतवारीका सूत जिम जिहां तूटे तिहां जोड... ४
ढाल - ६
(नथ गई रे मेरी नथ गई... ए देशी) प्रीत लगी रे तोसुं प्रीत लगी, प्रीत लगी रे केसरीया कंत कहें मृगनयणी सुंणि गुणवंत, तोसुं प्रीत लगी... प्रीतकी रीत न जाणे कोय जो जांणे जांकुं वीती' होय... तोसुं अकरसुं पीउ आंगण ५१आव लालन मोरो विरह गमाव... तोसुं तुं मुज प्रीतम प्रांण आधार तुज विण सूंनो सयल संसार... तोसुं २ तु पिहर तुं सासर जांण तुं परमेसर तुं रहमांण... तोसुं वलतो कहे आषाढ मुनीस मो मन केरी पुरि जगीस... तोसुं ३ मे निज गुरकुं दीधी पुठ कहत कहावत आयो उठ... तोसुं अब हुं लेसुं संजम भार मे नीज गुरकी लोपी हे कार... तोसुं ४ हुं अपराधी कठन कठोर विमुख थयो गुरजीको चोर... तोसुं में कीधी चारित्रनी हांण नवि कीधी५२ निज गुरकी कांण... तोसुं ५ गुर दीवो गुर प्रतिख देव हिवे जाय करसुंगुरकी सेव... तोसुं कोप तजो नणदीरा वीर कांमणसूं कांई तोडो हीर५३... तोसुं ६ कहो रे अमने कोण आधार थे तो मुको छो निराधार... तोसुं मुनीवर जंपे सुंण हे नार सात दिवस रहसुं घरबार... तोसुं ७ मेलव यु तुझ धननी कोडि पछे नमेसुं गुर बे कर जोडि... तोसुं।
छठी ढाले अर्थ सुचंग, मानसागर प्रमदा पीउ संग... तोसुं८ ४६. कीडी उपर कटक । ४७. पालव । ४८. कब मील सी कीरतार - चो. । ४९. कतवारीरा तार ज्यु - चो. । ५०. कुलवंती होइ - चो. । ५१. अकवार प्रीयु अम घर आव - चो. ५२. राखी - चो. । ५३. सीर - चो. ।
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امر
به
दुहा लेई सजाई सब चल्यो भूप पास रिषराज नाटक भरत संगीत रस जूगति देखाउं आज... १ कुमर सजाया पांचसे आरीसे आवास विण ताली मृदंग धूंनी रागबंध द्ये रास... २ लबधि करि लोका बिचे आणे नव नव रूप ५"देखी अचीती आषाढमें रीझ्यो चितमे भूप... ३
ढाल - ७ ___(हारे लाल वांवणायो वींझणो चुनडी'नी... ओ देशी) , ५५रीध करी चक्रवर्तिनी, तिहां ५६भर्त थयो रिष आप रे लाल षटखंड आंण मनावतो हिवे मांड्यो नव नव व्याप रे लाल... धन धन आषाढ मुनीससूं हिवे मांड्यो नाटक जांण रे लाल भर्त तणां अहिनाणसुं जिण पाम्यो केवल नांण रे लाल... धन... २ गज रथ घोडा पायका वले अंतेवर परवार रे लाल बतीस सहस नरेससू लबधे करी कीध तयार रे लाल... धन... भूषण अंग वणावीया रचना५७ वलि रूपकुमार रे लाल भुवन आरिसामें रच्या सिंहा नाटकनां धोंकार रे लाल... धन... नांहण-मंडप नरपती बेठा करी भूषण दूर रे लाल ओक आंगुली रही मुंद्रिका तिहो सोभा अधिक सनूर रे लाल.. धन.. ५ काया दीसे कारमी परसोभा सोभित तेह रे लाल आभरणे कर सोभती विण भूषण गंदी८ देह रे लाल... धन... ६ अस्थि रुधिर मांस सुक्रनो सिंभ श्लेषम बहुला आंम रे लाल अंतर गति आलोचतां मलमुत्र तणो मे ठाम रे लाल... धन... भर्त तणी परे भावनां भावतां लह्यो केवलनांण रे लाल कुमर तीके प्रतिबुझीया केवली थया तिण अवंसांण रे लाल...धन... ८ ५४. देख अचुंबो आषाढीनो रंज्यो चित्रमे भुप - चो. । ५५. रुध - चो. । ५६. भरथ - चो. । भरत । ५७. रचिया - चो. । ५८. मंद्री - चो. । ५९. तिणवार - चो. ।
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आयो सासण देवता तिण वेस दीयो रिषराय रे लाल भविक कमल प्रतिबोधता उपदेस दीयो तिण वाय रे लाल... धन... ९ अनुक्रमे चारित्र पालने साधु मुगति पोहंता जांण रे लाल,
धन्य आषाढ मुनीससू " जेहनी लोक वदे सुभ वांण रे लाल... धन... १० ईण परि भावनां भावीये जीम भावी आषाढ मुनिंद रे लाल,
मुगति तणां सुख जे लहे गुण गावे सुरनर वृंद रे लाल... धन... ११ ६ श्रीगछपति गुरराजीयो श्रीविजयप्रभुसूरिंद रे लाल
६१
तसू पट तेज दिवाकरु श्रीविजयरतन मुंणिंद रे लाल... धन... १२ ६३तसु गछ महिंमा सोभाकरु, श्रीजयसागर उवझाय रे लाल
६४ जीतसागर गणि सेवके, कवि मानसागर गुंण गाय रे लाल.. धन.. १३ सतरेसे त्रीसे समे श्रीनगर भेंरुंदे जाण रे लाल सातमी ढाल सोहामणी "कवि मानसागर सुभ वांण रे लाल... धन.. १४
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इतिश्री आषाढभूतिनो सतढालीयो संपूर्णम्. संवत १८९५ वर्षे चैत सुदि ६ लि. ( रतनचुं....)
६०. ज्यांरी लोकमें सोभा अपार रे लाल ६१. श्रीतपगच्छपति राजियो - चो. । ६३. तस गछमांहें सोभता ६५. वांचतां कोड कल्याण रे लाल
चो. ।
चो.
६२. सुरिंद - चो. ।
६४. तस शिष्य जीतसागर मुनि - चो. ।
चो. ।
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तत्त्वबोधप्रवेशिका - ३ वेदों का अपौरुषेयत्व
- मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय यद्यपि भारतीय दर्शनधारा के साङ्ख्य-योग, न्याय-वैशेषिक तथा मीमांसा और वेदान्त ये सभी प्रस्थान वेद के चरम प्रामाण्य को स्वीकार करते हैं, तथापि इनमें वेद के पौरुषेयत्व (-पुरुषकर्तृकत्व) तथा अपौरुषेयत्व को लेकर मतभेद है । वेद के रचनाकार के रूप में किसी व्यक्ति का स्वीकार वेद का पौरुषेयत्व है। इससे विपरीत वेद के रचनाकार के रूप में किसी व्यक्ति को न मानना अपौरुषेयत्व है ।
वेद किसी प्राकृत पुरुष की रचना नहीं है, यह तथ्य सभी वैदिक प्रस्थानों में समान रूप से माना गया है। न्याय-वैशेषिक वेद को ईश्वर के वचन के रूप में मानकर ही उसके सर्वोपरि प्रामाण्य को स्वीकार करते हैं। इस सिद्धान्त में वेद का प्रामाण्य अभिमत होने पर भी उसका प्रामाण्य ईश्वरप्रणीतत्व पर ही अवलम्बित होने से तत्त्वतः ईश्वर का प्रामाण्य वेद से अधिक सिद्ध होता है।
___साङ्ख्य-योग दर्शन में वेद शब्दरूप हैं । शब्द तन्मात्रा है, यह अहङ्कार से उत्पन्न होता है । अतः इस मत में वेद को जन्य-अनित्य मानने पर भी किसी पुरुष की रचना न होने से अपौरुषेय माने गए हैं ।
मीमांसा के पूर्वमीमांसा तथा उत्तरमीमांसा (वेदान्त) सम्प्रदाय यद्यपि समान रूप से वेद को अपौरुषेय मानते हैं, तथापि दोनों की वेदविषयक मान्यता में अन्तर है। वेदान्त का अद्वैतवादी प्रस्थान "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या" के सिद्धान्त के आधार पर ब्रह्मभिन्न वेद को ब्रह्म का विवर्त ही मानता है, मतलब कि वेद उत्पन्न होने से अनित्य ही है । जब कि पूर्वमीमांसा दर्शन में वेद को सर्वथा कारणरहित मानकर उनकी नित्यता स्वीकृत की गई है।
वेदों को पौरुषेय माननेवाले न्याय-वैशेषिकों एवं बौद्ध-जैन जैसे अवैदिकों के द्वारा वेदों के अपौरुषेयत्वपक्ष का प्रबल खण्डन किया गया
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अनुसन्धान-७२
है । सन्मतितर्क की तत्त्वबोधविधायिनी वृत्ति में प्रारम्भ में प्रामाण्यवाद की चर्चा करने के बाद वेदों के अपौरुषेयत्व पक्ष की कडी समालोचना की गई है। इस चर्चा में पूर्वपक्षी मीमांसक वेद के अपौरुषेयत्व का पक्षधर है, जब कि जैनमत की ओर से उत्तरपक्ष के रूप में वेदों का पौरुषेयत्व सिद्ध किया गया है।
इस चर्चा का अवलोकन करने से पूर्व यह समझना जरूरी है कि मीमांसकों ने वेद को अपौरुषेय गिनना क्यों जरूरी समझा । मीमांसादर्शन की समग्र प्रक्रिया मूलतः वेदवाक्यों पर अवलम्बित है । अतः वेदों को सर्वथा प्रमाणभूत निरूपित करना उसके लिए अनिवार्य था । यह प्रमाणभूतता तभी सम्भवित थी कि जब वेदों को पूर्णतः निर्दोष सिद्ध किया जाय । दूसरी ओर मीमांसकों की दृष्टि में समूचे विश्व में त्रिकाल में भी न तो कोई पुरुष सर्वथा निर्दोष हो सकता है और नहीं कोई कृति भी, जो पुरुषजन्य हो वह, दोषमुक्त रह सकती है। वह भी इसलिए कि जब पुरुष दोषयुक्त हो तो उसकी रचना में भी उन दोषों की वजह से दुष्टता आए यह बिल्कुल स्वाभाविक बात है। इस समस्या से बचने के लिए मीमांसकों ने वेद को किसी पुरुषविशेष की रचना न मानकर अपौरुषेय ही स्वीकार किया ।
यद्यपि न्याय-वैशेषिक दर्शनकारों ने भी वेदों को किसी प्राकृत पुरुष की रचना न मानकर सर्वज्ञ ईश्वर के वचनों के रूप में ही उसका प्रामाण्य स्वीकृत किया है । तथापि मीमांसादर्शन अनीश्वरवादी होने से उसमें वेदप्रणेता के रूप में ईश्वर का स्वीकार कतई सम्भवित नहीं है । वह तो कोई भी पुरुष सर्वज्ञ हो सकता है व उस सर्वज्ञ के वचन स्वयं प्रमाणभूत हो सकते हें इस बात का ही कडा प्रतीकार करता है । और तब तो वेद सर्वज्ञप्रणीत हो यह बात सम्भवित ही नहीं हो सकती । तात्पर्यतः मीमांसकों ने वेदों को नित्य, अनुत्पत्तिशील, शाश्वत एवं स्वयं-प्रमाणभूत घोषित किये हैं ।।
मीमांसकों का स्वतः प्रामाण्य का सिद्धान्त यहीं फलित होता है । वेदों में जो प्रामाण्य उत्पन्न होता है वह ईश्वरप्रणीत होने की वजह से है और उस प्रामाण्य का ग्रहण भी ईश्वरप्रणीतत्व के सापेक्ष रूप में होता है यह परतः प्रामाण्यवादी वैदिकों का पक्ष है । इसके विरुद्ध स्वतः प्रामाण्य के पक्षधर
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मीमांसकों का कहना है कि जब वेद किसी की रचना है ही नहीं, चाहे वह ईश्वर हो या अन्य कोई प्राकृत पुरुष, तो उसमें प्रामाण्य किसी की वजह से है यह कहना गलत ही होगा । वेद प्रमाणभूत है तो वह इसलिए कि उन्हें किसीने बनाया नहीं है, वे अपौरुषेय हैं । वे दोषयुक्त पुरुष की रचनास्वरूप नहीं है यही उनका निर्दुष्टत्व है । उनमें जो प्रामाण्य मौजूद है वह स्वयं उपस्थित है, नित्य है । उस प्रामाण्य का ग्रहण - वेद वाक्यों से जन्य बोध में प्रमाणभूतता का ज्ञान भी स्वयं होता है, उसे अन्य किसी भी ज्ञान की अपेक्षा है ही नहीं, वह निरपेक्ष है । ईश्वर के वचनरूप में वेदों का प्रामाण्य स्वीकारने का मतलब यही होगा कि हम ईश्वर को वेद से भी ज्यादा महत्त्व दे रहे हैं, जब कि वेद ही सर्वोपरि प्रमाण हैं, उनसे उपर कोई है ही नहीं। वास्तव में जब ईश्वर नाम का कोई व्यक्ति ही नहीं है, तो उसको वेदों का प्रणेता मानना व उसकी वजह से वेदों को प्रमाणभूत समझना कैसे सम्भव है ? ।
इस दृष्टि से देखें तो मीमांसादर्शन के वेदों का अपौरुषेयत्व एवं स्वतः प्रामाण्य - यह दोनों सिद्धान्त एकदूसरे पर अवलम्बित हैं । शब्द का नित्यत्व भी इसके पीछे पीछे ही चला आया है ।
इतनी प्रासङ्गिक चर्चा के बाद अब हम सन्मतितर्क की तत्त्वबोधविधायिनी वृत्ति में इस विषय पर जो चर्चा हुई है उसका सार देखेंगे -
मीमांसक - किसी वाक्य में प्रामाण्य न हो तो वैसा उसमें रहे दोष के कारण हो सकता है, दोष न रहने पर वाक्य स्वतः प्रमाणभूत होता है। अब दोष का विरह गुण होने पर ही हो ऐसा कोई नियम तो नहीं है, क्योंकि वाक्य को अपौरुषेय मानने पर भी दोषविरह का पूर्ण सम्भव है। वस्तुतः पुरुषमात्र अज्ञानादि दोषों से युक्त ही होता है । अतः उसके द्वारा रचित कृतिओं में उन दोषों से प्रेरित दुष्टता-अप्रमाणभूतता अनायास ही चली आती है। यदि किसी वाक्यविशेष को सर्वथा प्रमाणभूत हम गिनना चाहे, तो यह तभी सम्भवित है कि हम उसे निर्दुष्ट समझे । और इसके लिए उस वाक्य को अपौरुषेय मानना जरूरी हो जाता है । यही वजह है कि हम वेदों को - जिन्हें सर्वथा प्रमाणभूत गिनना चाहिए उसे - अपौरुषेय स्वीकृत करते हैं ।
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उत्तरपक्ष - यह सब आप जो कह रहे हैं उससे तो यही प्रतीत होता है कि वेद में जो दोषाभाव आप मान रहे हैं वह वक्ता के अभाव की वजह से ही है, उसका अन्य कोई विकल्प ही नहीं ऐसा सिद्ध करने की आपने ठान ली है। मगर जरा यह तो सोचिए कि वेद में जिन प्रामाण्यपोषक गुणों का आप स्वीकार कर रहे हैं वे वहाँ कहाँ से आए ? । यदि वक्ता के अभाव में निराश्रय ऐसे दोषों का असद्भाव वेद में हो जाता है, तो उसी वजह से निराश्रय ऐसे गुणों का सद्भाव वहाँ क्यों बना रहता है ? । दोषों का उद्भव वक्ता के अधीन है, और गुणों का सद्भाव तो स्वयंस्फूर्त है यह तो दोमुही बात हुई ना ? ।
वास्तव में वेदों में जो प्रामाण्य के जनक गुण हैं वे ही प्रामाण्य के अपवादक दोषों का निराकरण करते हैं और वे गुण वक्ता के अधीन ही हैं । गुणवान् वक्ता के द्वारा रचे जाने के कारण ही किसी कृति में गुणसम्पन्नता एवं तज्जन्य निर्दुष्टता आती है। वेदों का कोई रचयिता ही यदि नहीं होगा, तब तो वेद में न तो दोष रहेंगे, न ही गुण रहेंगे । वेद प्रमाअप्रमा दोनों कोटि से विनिर्मुक्त एक विलक्षण कृति ही बना रहेगा । तब उसे सर्वोपरि प्रमाण के रूप में स्वीकार करना तो एक मजाक ही गिनी जाएगी।
मीमांसक - आपकी बात से तो यह सिद्ध होता है कि वेदों में प्रामाण्य का जनक जो दोषाभाव है, वह तत्रस्थ गुणों की वजह से है, और वे गुण गुणवान् वक्ता के द्वारा रचे जाने के कारण ही हो सकते हैं । अतः वेद को पुरुषजन्य कृति ही समझना चाहिए । पर हमारी सोच में आप जिन गुणों की बात कर रहे हैं, वे गुण दोषाभाव का ही नामान्तर है, कोई अलग चीज नहीं । जैसे कि 'यथार्थ-प्ररूपकत्व' नामक गुण को लें, तो यह 'अयथार्थप्ररूपकत्व' नामक दोष का अभाव ही है, और क्या है ? । और जब 'गुण' नाम से जिसकी पहचान हो सके ऐसी कोई चीज ही नहीं है, तो उसकी उत्पत्तिहेतु गुणवान् पुरुष की खोज में निकलना कहा तक उचित गिना जाएगा? ।
हाँ, वेदों में जो निर्दुष्टता है, उसकी वजह जरूर सोचनी चाहिए ।
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वेदों का रचयिता कोई पुरुष यदि होता, तब तो उनकी प्रामाणिकता उस पुरुष पर निर्भर होती । और ऐसा कोई पुरुष हो नहीं सकता कि जो दोषमुक्त हो, जिसका वचन सर्वथा प्रमाणभूत हो, यह तो हम पहेले ही कह चूके हैं । अतः वेद को निर्दुष्ट-प्रमाणभूत मानने के लिए उसे अपौरुषेय ही समझना चाहिए । उत्तरपक्ष आप इसी बात को अलग ढंग से सोचिए । वेदवाक्य यदि अपौरुषेय हैं तो भी वे अपने विषयभूत अर्थों का स्वतः ज्ञान उत्पन्न करने का व्यापार नहीं कर सकते । क्योंकि यदि वे स्वतः ज्ञान उत्पन्न कर सकते तब तो वे नित्य होने से ज्ञानोत्पत्ति सतत होती रहनी चाहिए, परन्तु ऐसा तो नहीं होता । इससे यह सूचित होता है कि वेदवाक्य स्वयं ज्ञानोत्पत्तिव्यापार में संलग्न नहीं होता, अपितु पुरुषों के द्वारा अभिव्यक्त ऐसे अर्थप्रतिपादक जो संकेत, उससे जन्य जो अर्थबोधसंस्कार, उसकी सहायता से प्रेरणावाक्य अपने विषय की प्रतीति को उत्पन्न करता है । इसका मतलब यह हुआ कि शब्दों का किस अर्थ के साथ वाच्य - वाचकभाव सम्बन्ध है इस सङ्केत को अध्यापक पुरुष प्रगट करते हैं । जो लोग इस सङ्केत को जानते हैं, उनके 'इस शब्द से यह अर्थ समझना चाहिए' ऐसे संस्कार रूढ हो जाते हैं, तब उन्हें वेदवाक्य पढकर अर्थबोध होता है । इस प्रकार वेदवाक्य नित्य हो, अपौरुषेय भी, तब भी उनके अर्थ को जानने के लिए पुरुष की अनिवार्य आवश्यकता है ।
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अब आपके मत से तो सभी पुरुष रागादि दोषों से व्याकुल ही होते हैं, इसलिए उनके द्वारा प्रयुक्त सङ्केतों से जो संस्कार रूढ होंगे वे भी अयथार्थ ही होंगे । पुरुषप्रयुक्त सङ्केत यथार्थ होते हैं, लेकिन उनके वचन अयथार्थ होते हैं, ऐसा स्वीकार करना नामुमकिन है । नतीजा यह निकला कि वेद को स्वतः प्रमाणभूत व अपौरुषेय मानने पर भी सङ्केतकारक पुरुषों में दोष होने से पुरुषसङ्केत से उत्पन्न वेदज्ञान तो अप्रामाणिक ही सिद्ध होगा । इस प्रकार वेदवाक्यों को अपौरुषेय मानना व्यर्थ परिश्रम ही हुआ ।
सङ्क्षेप में कहें तो अर्थ समझने के लिए पुरुष की अपेक्षा रहती ही है । और पुरुषमात्र सदोष होने के कारण वेदवाक्यजन्य ज्ञान में अप्रामाण्य आ पडता है । तो वेदों की प्रामाणिकता अक्षुण्ण रखने के लिए उन्हें
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अनुसन्धान-७२
अपौरुषेय मानकर भी क्या लाभ होता है ? ।
और वैसे भी वेद के अपौरुषेयत्व को सिद्ध करे ऐसी कोई दलील भी आपके पास नहीं है।
मीमांसक - ना जी, हमारे पास इसकी सिद्धि के लिए बहुत सारे तर्क हैं - १. अन्य बौद्धादि आगमों में, हम और आप - दोनों को रचयिता पुरुष
के अभाव का ज्ञान नहीं है, इसलिए उन आगमों को हम पौरुषेय समझ सकते हैं । जबकि वेद में आपको रचयिता पुरुष के अभाव का ज्ञान नहीं होने पर भी हमें तो वह ज्ञान है ही। यह दोनों में विशेष अन्तर
है । इसलिए वेद को हम अपौरुषेय गिनते हैं । २. वेद नित्य हैं, उनकी सत्ता अनादिकालीन है - इस बात को भी हम
वेदरचयिता पुरुष के अभावज्ञान की उत्थापक समझ सकते हैं । ३. वर्तमानकाल जैसे वेदकर्ता से शून्य है, उस तरह अतीत और अनागत ___ काल भी वेदकर्ता से शून्य ही होने चाहिए - इस अनुमान से भी वेद
को अपौरुषेय सिद्ध कर सकते हैं । ४. वेद पौरुषेय हैं, उनका कर्ता कोई पुरुषविशेष हैं - ऐसा उल्लेख भी
वेद में नहीं है। ५. वेद में ऐसे अर्थ दिखाये हैं जो अतीन्द्रिय हैं, यह बात भी उनकी
अपौरुषेयता की ही पोषक है । ., उत्तरपक्ष - गहराई से सोचने पर अपौरुषेयत्व की सिद्धिहेतु आपके द्वारा प्रस्तुत ये सभी तर्क मिथ्या प्रतीत होते हैं - १-२. आपको वेद में रचयिता पुरुष के अभाव का जो ज्ञान है, वह वास्तव
में अभाव है इस हेतु से नहीं हुआ है, किन्तु साङ्केतिक है । यानी आपको अपनी परम्परा के प्रति भक्ति से यह वासना बन गई है कि वेद में कर्ता पुरुष का अभाव है व वे नित्य हैं । वास्तव में मात्र ऐसी पारम्परिक वासना के बल पर हम कुछ भी सिद्ध नहीं कर सकते । क्योंकि हर वादी को अपने माने हुए सिद्धान्तों पर ऐसी भक्तिजन्य
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पारम्परिक वासना होती ही है। यदि हम उसको ही प्रमाणभूत मानने लगेंगे तो आपके मत से प्रतिकूल हो ऐसी बहुत सारी बातें सिद्ध होने
की आपत्ति आएगी । ३. वेद से इतर बौद्धादि आगमों का भी वर्तमानकाल तो कर्तृशून्य ही देखा
जाता है । इसलिए समान हेतु से अन्य आगम में भी अतीतानागतकालीन कर्तृशून्यता सिद्ध होने की आपत्ति आएगी । फलतः, वे आगम भी अपौरुषेय सिद्ध होंगे, और उन्हें भी प्रमाणभूत गिनने की आपको आपत्ति आएगी । इससे बचने के लिए आपको उक्त अनुमान छोडना
ही होगा। ४. 'वेद पौरुषेय हैं' ऐसा कोई वेदवचन यदि नहीं है, तो 'वेद अपौरुषेय
हैं' ऐसा वेदवचन है क्या ? यह भी उल्लेखनीय है कि आप वेद में भी जो विधिवाक्य हैं केवल उन्हीं. को प्रमाण मानते हैं, अनुवादपरक वेदवाक्यों को प्रमाण नहीं मानते । यदि उनको भी प्रमाण मान ले तब तो वेद पौरुषेय सिद्ध होंगे । जैसे कि - वेदकर्ता के सूचक अनेक वचन उपलब्ध होते हैं - * हिरण्यगर्भः समवर्तताऽग्रे । * तस्यैव चैतानि निःश्वसितानि । * याज्ञवल्क्य इति होवाच । ऐसे वेदवाक्यों से हिरण्यगर्भ, याज्ञवल्क्य आदि ऋषिमुनिओं की वेदकर्तृता स्पष्टतः सूचित होती है। अतीन्द्रिय पदार्थों का प्रतिपादन तो अन्य आगमों में भी है, तो भी उनको आप अपौरुषेय नहीं मानते । तो वेदों में ही अतीन्द्रिय अर्थों के प्रतिपादन से उनको अपौरुषेय मानने में विनिगमक क्या है ? | अन्य वादी अतीन्द्रिय अर्थों के द्रष्टा पुरुष के द्वारा उनका प्रतिपादन स्वीकार करते ही हैं, तो आप क्यों वैसा नहीं कर सकते ? ।
मीमांसक - हमारा आशय आप समझ नहीं पाये । हम यह कहना चाहते हैं कि ऐसा कभी नहीं हुआ कि पहले किसी ने वेदों की अभिव्यक्ति
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न की हो और बाद में किसी ने उसका प्रथम प्रथम प्रारम्भ किया हो । तात्पर्य, सभी सज्जनों ने पूर्वकाल में जैसी अभिव्यक्ति चली आती थी ऐसी ही अभिव्यक्ति को अपनाया । स्वतन्त्ररूप से किसी ने भी वेदों की अभिव्यक्ति नहीं की। इस तरह अभिव्यक्ति नित्य न होने पर भी परम्परा की दृष्टि से तो वह नित्य एवं अनादि ही सिद्ध होती है । इस तरह पुरुष की स्वतन्त्रता के अभाव को ही हम अपौरुषेयत्व कहते हैं । कोई भी वक्ता ने स्वतन्त्ररूप से क्रम नहीं बनाया, यही वेदों का अपौरुषेयत्व है।
उत्तरपक्ष - इस तर्क से वेदों की अनादिता यद्यपि सिद्ध होती है, लेकिन उसकी अपौरुषेयता सिद्ध नहीं की जा सकती । वस्तुतः देखा जाय तो कितनी ही क्रियाएँ ऐसी हैं, कितने ही शिल्प ऐसे हैं जिनको एक व्यक्ति दूसरे को देखकर ही सीख पाता है । एक व्यक्ति जैसे उनको करता है, दूसरा उसका अनुसरण करके उसी तरह उन्हें प्रयोजित करता है। सामान्यतया स्वतन्त्ररूप से उन क्रिया, शिल्प इत्यादि का प्रवर्तन हो नहीं सकता । फिर भी अतिविशिष्ट प्रज्ञावान् व्यक्ति स्वतन्त्रता से उनका प्रवर्तन कर सकता है ऐसा हम स्वीकारते ही हैं । ऐसा न. भी माने तो भी उन क्रियादि को हम अनादि मानेंगे, नित्य मानेंगे, परन्तु अपौरुषेय तो नहीं मानेंगे । अन्यथा बालकों की पांशुक्रीडा को भी इस तरह अपौरुषेय मानने की आपत्ति आएगी। मतलब यह है कि इस तर्क से आप वेद की अपौरुषेयता सिद्ध नहीं कर सकते।
दूसरी बात, सम्पूर्ण वेदाध्ययन पूर्व पूर्व गुरुपरम्परागत अध्ययन का अनुगामी है, अत: कोई भी वेदाध्ययन स्वतन्त्ररूप से हो नहीं सकता, फलतः वेद अनादि एवं अपौरुषेय सिद्ध होंगे ऐसा स्वीकार यदि आप करना चाहे तो इस प्रकार का कथन तो अन्य ग्रन्थों के विषय में भी हो सकता है कि कादम्बरी आदि का अध्ययन पूर्व पूर्व परम्परागत अध्ययन का अनुगामी है। तब तो वे ग्रन्थ भी अनादि और अपौरुषेय सिद्ध होंगे । और उनको भी प्रमाणभूत गिनने का प्रसङ्ग उपस्थित होगा ।
मीमांसक - कादम्बरी आदि के कर्ता तो सुनिश्चित हैं । इसलिए वहाँ अपौरुषेयत्व की शङ्का उठने का कोई प्रश्न ही नहीं रहता ।
उत्तरपक्ष - वेद के कर्ता को भी याद किया जाता है । कोई
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हिरण्यगर्भ को वेद का कर्ता मानते हैं । दूसरे विद्वान अष्टक आदि ऋषि को याद करते हैं । ऐसे अन्य भी मत हैं ।
मीमांसक - कादम्बरी आदि के कर्ता के विषय में कोई विवाद नहीं है । लेकिन वेद के कर्ता के विषय में हिरण्यगर्भ, अष्टक आदि अनेक ऋषिमुनिओं के नाम सुने जाते हैं। इस तरह मतभेद होने से कर्ता का स्मरण विवादग्रस्त है, इसलिए वह मिथ्या है।
उत्तरपक्ष - कर्तविशेष विवादग्रस्त होने पर कर्तविशेष के स्मरण को ही हम असत्य कह सकते हैं, सामान्यतः कर्तृस्मरंण को नहीं । मतलब कि इन विवादग्रस्तता से वेदों का कोई न कोई कर्ता जरूर है इस बात का अपलाप नहीं हो सकता ।
मीमांसक - हम वेद को किसी की कृति नहीं मानते । अतः वेद के कर्तसामान्य में भी मतभेद तो है ही। इसलिए वेद में सामान्यतः कर्तृस्मरण विवादग्रस्त होने से उस स्मरण को मिथ्या समझना चाहिए ।
उत्तरपक्ष - अरे! वैसे तो कर्तृ-अस्मरण थी विवादग्रस्त ही है, तो उसको क्यों न मिथ्या समझा जाय ? ।
मीमांसक - वेद का यदि कोई कर्ता होता तो ब्राह्मणादि तीनों वर्ण के लोक वेदोक्त अर्थ के अनुष्ठानकाल में उसका स्मरण अवश्य करते । किन्तु कर्ता के स्मरण के बिना भी विश्वसनीय लोग प्रवृत्ति करते हैं, इसलिए वेद का कोई कर्ता नहीं है।
उत्तरपक्ष - आप खुद ही सोचिये कि अन्य बौद्धादि आगमों के विषय में भी इसी युक्ति का तुल्यरूप से प्रयोग हो सकता है या नहीं ? । तात्पर्य यह है कि उपरोक्त युक्ति अन्य आगम में भी तुल्यरूपेण लाग हो सकेगी, तो उन आगम को भी अपौरुषेय मानने की आपत्ति आएगी ।
वैसे यह नियम भी नहीं है कि इष्ट अर्थ के अनुष्ठानकाल में उसके कर्ता का स्मरण करके ही अनुष्ठाता लोग प्रवृत्ति करे । पाणिनि आदि द्वारा विरचित व्याकरण से उपदिष्ट शाब्दिक व्यवहार का जब जब पालन किया जाता है तब वे व्यवहारकर्ता पहले नियमतः पाणिनि आदि का स्मरण करे
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ही ऐसा कभी देखा नहीं जाता । यदि ऐसा नियम होता तो उक्त अस्मरण के बल पर वेद को अकर्तृक सिद्ध कर सकते, पर ऐसा नहीं है ।
इस तरह सोचने पर वेद उत्पत्तिशील एवं पौरुषेय ही प्रतीत होते हैं, नित्य व अपौरुषेय नहीं ।
सन्मतितर्क की तत्त्वबोधविधायिनी वृत्ति में हुई वेद के अपौरुषेयत्व की चर्चा का सार उपर प्रस्तुत किया गया है । मूल चर्चा अतिशय विस्तृत है एवं कठिन-गहन तर्कजाल से मण्डित है । सारल्य व सङ्क्षेप हेतु उसमें से बहुत कुछ यहाँ छोड दिया गया है । तर्कों के प्रस्तुतीकरण में भी कुछ भिन्न परिपाटी अपनाई गई है । लेकिन यह सब करते वक्त मूल चर्चा के हार्द को हानि न पहुचे इसका यथाशक्य ध्यान रखा गया है । प्रारम्भिक विद्यार्थी एवं जिज्ञासुगण लाभान्वित हो ऐसी दृष्टि मुख्यतया रखी गई है। अधिक गहराई से जानने हेतु मूल चर्चा अवलोकनीय है ।
वेद के अपौरुषेयत्व को विषय बनाकर जैन प्रमाणग्रन्थों में और अन्य अनेक जैनशास्त्रों में चर्चा का उपन्यास हुआ है । कहीं वह चर्चा अतिसक्षिप्त है, तो कहीं अतिविस्तृत । चर्चा के मुख्य पहेलू तो वहाँ वे ही हैं जो सन्मतितर्कवृत्ति में हम दिखते हैं। फिर भी हर ग्रन्थकर्ता की ओर से उसमें कुछ न कुछ तो संजोया गया ही है। एक ही बात शैलीवशात् कितने विभिन्न रूपों में परिवर्तित होती है यह हमें इन चर्चाओं से ज्ञात होता है । उसमें भी न्यायदर्शन की इस विषय की चर्चा में तो कुछ और ही निखार आया है । यद्यपि यह लेखश्रेणी तत्त्वबोधविधायिनी पर ही अवलम्बित है एवं सारल्य व सड्क्षेप को हानि न पहुंचाते हुए चर्चा प्रस्तुत करना यही इसका उद्देश्य है, इसलिए ग्रन्थान्तरगत चर्चाओं का सारदोहन यहाँ नहीं दिया गया; तथापि प्रारम्भिक स्तर पर इस विषय में जो जानकारी होनी चाहिए वह यहाँ मिले ऐसा प्रयास अवश्य किया गया है ।
बेङ्गलूरुनगर-स्थित 'संस्कृतभारती' संस्था से ई. २००१ में एक पुस्तिका प्रकाशित हुई है, जिसका नाम है – ऋणविमुक्तिः । एच्. वी.
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नागराजराव् इसके लेखक हैं । संस्कृत भाषा में लिखित इस पुस्तिका में महर्षि अष्टावक्र की जीवनी का रम्य चित्रण हुआ है । इस पुस्तिका के पृष्ठ ४८४९ पर अष्टावक्र के पिता ऋषि कहोड और महाराज जनक के आस्थानपण्डित बन्दी के बीच हुई शास्त्रचर्चा का सरल सड्क्षेप प्रस्तुत किया गया है, जिसका प्रमख विषय है - वेदों की पौरुषेयता-अपौरुषेयता । कहोड ऋषि वेद की अपौरुषेयता के पक्षधर हैं, जबकि बन्दिपण्डित पौरुषेयता के समर्थक हैं । विद्यार्थीओं के लिए उस चर्चा को उपयोगी समझकर उसका सरल भावानुवाद यहाँ प्रस्तुत है -
कहोड - वेद अनादि हैं । वे जगत्कर्ता के निःश्वासरूप हैं । उनका आधार लेकर ही जगत् का निर्माण हुआ है । फलतः जगत् के पूर्व ही वेद स्थित थे ऐसा समझना चाहिए । प्रलय के बाद भी वे अवस्थित रहेंगे । उन्हीं वेदों का पुनः पाठ होगा । विष्णु उन्हीं वेदों का उपदेश ब्रह्मा को देंगे । बाद में ब्रह्मा जगत् का सर्जन करेंगे । उससे गुरु-शिष्य परम्परा चलेगी । तात्पर्य यह निकला कि वेद मानवकृत नहीं हैं । अतः वे अपौरुषेय हैं ।
बन्दी - बोध उत्पन्न करनेवाले पदों का समूह ही वाक्य होता है और वेद ऐसे वाक्यों का समुदाय ही है । अपने अभिप्राय को प्रकट करने के लिए लोक में वाक्यप्रयोग होता है यह प्रत्यक्षसिद्ध है । वर्तमान में जैसे हम अर्थबोधक वाक्यों का प्रयोग करते हैं । वैसे ही भूतकाल में पूर्वजों के द्वारा प्रयुक्त वाक्यों का समूह ही वेद हैं । 'वेद जगत्कर्ता के निःश्वासरूप हैं' इत्यादि जो कहा जाता है वह श्रद्धा उत्पन्न करने के लिए किया गया अर्थवादमात्र है। वास्तव में जो जो वाक्य होता है, वह पुरुषरचित ही होता है ऐसी व्याप्ति है । इसलिए वेद पौरुषेय हैं इस बात में कोई संशय नहीं रहता ।
कहोड - लोग खुद को जिसका अनुभव होता है उसकी ही बात करते हैं, उसी विषयों में अपने अभिप्राय को व्यक्त करने हेतु वाक्य बनाते हैं । अब वेद में ऐसे कितने ही विषय प्रतिपादित हैं, जिनका ज्ञान मनुष्य कभी भी नहीं कर सकता । धर्म और उसके उपायभूत यज्ञादि सब अलौकिक हैं । एक मनुष्य सिवा आगम के, केवल प्रत्यक्ष या अनुमिति से उसे कैसे
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जान सकता है ? अत: उन विषयों के प्रतिपादक वेद अपौरुषेय ही हो सकते
हैं ।
बन्दी
कल्पना एवं ऊहा के बल पर मनुष्य क्या क्या नहीं बोलते ? लोक में कहीं भी दिखाई न देनेवाली बातें कथाओं में सुनने नहीं मिलती ? वैसे ही परलोक, यज्ञ, स्वर्ग सब काल्पनिक हैं । उससे वेदों की अपौरुषेयता सिद्ध नहीं हो सकती ।
इसके अलावा, वेदों में कितने ही कामना के सूचक वाक्यादि देखने मिलते हैं । जैसे कि 1 'हमारे बच्चों पर कोप मत करना, हमारे आयुष्य की रक्षा करना, हमें अन्न दो, वस्त्र दो, गाय दो' । ऐसे वाक्य क्या सूचित करते हैं ? आशा लेकर बैठे हुए किसी प्राकृत मनुष्य के ही ये सब उद्गार हैं ऐसा स्पष्टत: प्रतीत नहीं होता ? 'अक्षों से मत खेलो' इत्यादि चेतावनी द्यूतक्रीडा के अनिष्टों को देखकर ही दी जा रही है । तब वेद अपौरुषेय कैसे हो सकते हैं ?
1
कोड यदि वेद पुरुषरचित होते तो उनके कर्ता का उल्लेख अवश्य मिलता । लेकिन वैसा उल्लेख कहीं नहीं मिलता । आपने जो बातें बताई वे सब मानवकुल के हित की बातें हैं । हित में प्रवर्तन और अहित से निवर्तन शास्त्र का लक्ष्य होता है । वह कार्य यदि अपौरुषेय वेद करे तो उसमें क्या आपत्ति हो सकती है ? |
I
-
बन्दी सभी मन्त्रों के ऋषियों का कीर्तन होता है । मन्त्रों के उच्चारण से पूर्व हम गृत्स्नम, विश्वामित्र, अघमर्षण आदि उन उन मन्त्रों के रचयिता पुरुषों को याद करते ही हैं । बहुत सारे ऋषियों के द्वारा रचित मन्त्रों का सङ्ग्रह वेद में हुआ है । इसलिए यद्यपि वेदों का कोई एक कर्ता नहीं है, तथापि वे पौरुषेय हैं इस बात का अपलाप हो नहीं सकता ।
-
कोड ऋषियों मन्त्रद्रष्टा होते हैं, मन्त्रकर्ता नहीं । उन्होंने अपने तप के प्रभाव से मन्त्रों की जो शाश्वत आनुपूर्वी थी, उसका साक्षात्कार किया । उन साक्षात्कृत मन्त्रों का उपदेश उन्होंने लोक को दिया इसलिए हम उनके नाम का तत्र तत्र स्मरण करते हैं । न कि उन ऋषियों ने किसी नये मन्त्र की रचना की है इसलिए । इस तरह ऋषि वेद के कर्ता सिद्ध न होने से
-
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वेद अपौरुषेय ही हैं।
बन्दी - वेद नित्य हैं यह बात ही निरर्थक है । वेद में वशिष्ठ ऋषि और विश्वामित्र का कलह वर्णित है । दाशराजाओं के युद्ध का भी उसमें निर्देश है । स्पष्ट है कि ये घटनाएँ जब घटित हुई तब या उसके अनन्तरकाल में ही उनका जिक्र वेद में किया गया है । यदि वेद नित्य होते, तो उन किसी समयविशेष में घटित घटनाओं का वर्णन उनमें कैसे मिलता ? इससे यह सिद्ध होता है कि वेद अनित्य हैं और पौरुषेय हैं ।
अपौरुषेयत्व की चर्चा करते वक्त जैन दर्शनकारों के समक्ष एक प्रश्न अवश्य उपस्थित होता है, और वह है जैन मूल आगमस्वरूप द्वादशाङ्ग गणिपिटक की अनादिता का । जैन मन्तव्य अनुसार परम आप्तपुरुषभूत कोई भी तीर्थङ्कर वही उपदेश देते हैं जो कि उनके पूर्व तीर्थङ्करों के द्वारा प्रज्ञप्त किया जा चूका है । कोई भी तीर्थङ्कर नया कुछ भी नहीं कहते, उनकी सम्पूर्ण वचनधारा पूर्व वचनधारा का अनुसरण ही करती है । तीर्थङ्करों के उपदेश का सङ्ग्रह ही बारह विभागों में विभक्त होकर 'द्वादशाङ्गी' कहलाता है, जो कि प्रत्येक तीर्थङ्कर की अपेक्षा अलग-अलग होते हुए भी तत्त्वतः समान होता है । यह द्वादशाङ्गी ही जैनदर्शन में 'वेद' की तरह सम्माननीय व सर्वथा प्रमाणभूत गिनी जाती है । तात्पर्य यह निकलता है कि कोई तीर्थङ्कर ऐसे हुए ही नहीं कि जिन्होंने पूर्व तीर्थङ्करों की वचनरचना का अनुसरण किया ही न हो और न तो ऐसी द्वादशाङ्गी कभी हुई कि जो पूर्व द्वादशाङ्गी से समानता न रखती हो । ऐसी स्थिति में द्वादशाङ्गी को अनादि ही समझनी होगी । और जो अनादि हो वह पौरुषेय कैसे हो सकती है ? स्वयं जैन शास्त्रकारों ने द्वादशाङ्गी को ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षर, अव्यय एवं नित्य रूप में वणित करके उसकी अपौरुषेयता की ओर ही सङ्केत किया है। इस स्थिति में वेदों की अपौरुषेयता से इसमें अन्तर क्या रहता है ? ।
___ इस प्रश्न का समाधान अनेकान्त दृष्टि से ही समझा जा सकता है। शास्त्र के दो पक्ष हैं - शब्दपक्ष और अर्थपक्ष । अर्थ की अपेक्षा सब तीर्थङ्करों का उपदेश समान होने से द्वादशाङ्गी भी समान ही होती है । तात्पर्य, तीर्थङ्कर
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जो तत्त्व जिस रूप में है उसीकी प्ररूपणा करते हैं, कुछ नया नहीं कहते। अब तत्त्व तो सदाकाल समान ही होते हैं, तो प्ररूपणा में अन्तर कैसे हो सकता है ? । तीर्थङ्करों के वचनों में या द्वादशाङ्गी में जो पूर्व का अनुसरण कहा जाता है वह अर्थ की अपेक्षा से ही समझना चाहिए । तत्त्वप्ररूपणा को नजर में रखने पर ही अनन्त द्वादशाङ्गीओं में कोई भिन्नता नहीं दिखती, और इस ऐक्य के बल पर उन अनन्त द्वादशाङ्गीओं को एक समझकर द्वादशाङ्गी की अनादिता व ध्रुवता (और फलतः अपौरुषेयता) प्रतिपादित की जा सकती है।
लेकिन हम जब द्वादशाङ्गी के वचनपक्ष की बात करते हैं, तब उन्हें नित्य या ध्रुव या अपौरुषेय प्रतिपादित नहीं कर सकते । तीर्थङ्करों के उपदेशों की और उनके सङ्ग्रहस्वरूप द्वादशाङ्गी की वचनरचना में तो परिवर्तन होते ही रहते हैं । शब्दों की अपेक्षा शाश्वत कुछ नहीं है । दो द्वादशाङ्गी की वचनरचना एकसमान नहीं हो सकती । इस दृष्टि से देखे तो प्रत्येक द्वादशाङ्गी तीर्थङ्करप्रणीत एवं गणधरग्रथित होने से पौरुषेय ही है, अपौरुषेय नहीं। तीर्थङ्करों से उत्पन्न होने की वजह से वह उत्पत्तिशील है, नित्य नहीं । सक्षेप में कहें तो शाश्वत तत्त्वों का अशाश्वत कथन यानी द्वादशाङ्गी । अपौरुषेय तत्त्वों की पौरुषेय प्ररूपणा यानी द्वादशाङ्गी ।
वैदिक परम्परा में ऋषिमुनिओं को जब मन्त्रस्रष्टा के स्थान पर मन्त्रद्रष्टा के रूप में वर्णित किये जाते हैं, तब इसी वात का सङ्केत दिया जाता है कि वह तत्त्व तो सूक्ष्म रूप से सृष्टि में मौजूद ही था । ऋषिमुनियों ने अपनी दिव्य दृष्टि से उसका साक्षात्कार किया और उसे स्थूल शब्ददेह दिया। यही उनका कर्तृत्व है । जैन आगमों में भी यही बात लागू होती है ।
इस तरह अनेकान्त दृष्टि से पौरुषेयता-अपौरुषेयता का विवेचन किया जाय तो चाहे जैन आगम हो, चाहे वेद हो - कहीं किसी भी तरह की मुठभेड को अवकाश नहीं मिलता और सुचारु समन्वय हो सकता है। स्याद्वादो विजयतेतराम् ।
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ढूंक नोंध : अेक भ्रष्ट पाठे सर्जेली समस्या
- मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय महोपाध्याय श्रीयशोविजयजी रचित न्यायालोक प्रकरण पर परमगुरु श्रीविजयनेमिसूरिजी महाराजे वृत्ति रची हती. तेनां घणां वर्षों बाद आ प्रकरण पर 'भानुमती' नामनी वृत्ति रचाई. आ वृत्तिमां केटलेक ठेकाणे पूर्ववृत्तिगत प्ररूपणाओनुं खण्डन करवामां आव्युं छे. ते खण्डनना वाजबीपणा विषे अवसरे विमर्श करवायोग्य छे. पण आ लखाणमां तो एक ज खण्डनस्थळ पर चर्चाने सीमित राखी छे. आ चर्चा न्यायदर्शन अन्तर्गत आवता समवायसम्बन्धनी सिद्धिने सम्बन्धित छे अने नव्यन्यायनी परिभाषामां गूंथायेली छे.
घटनो नाश थाय एटले घटगत रूपादिमो पण नाश थाय ज ए देखीतं छे. मतलब के घटगत रूपादिना नाशमां घटनाश ओ कारणभूत बने छे. आ कार्यकारणभाव नव्यन्यायनी परिभाषामां आम बोलाशे - "प्रतियोगितया घटादिसमवेतनाशं प्रति स्वप्रतियोगिसमवेतत्वसम्बन्धेन घटादिनाशस्य हेतुत्वम्।" आनो भाव आम छे - न्यायमते कार्यकारणभाव ओक अधिकरणमां रहेनारा पदार्थो वच्चे ज सम्भवित छे. कार्यभूत घटरूपादिनाश ओ प्रतियोगिता सम्बन्धथी घटरूपादिमां रहे छे. (केम के जेनो नाश थाय ते प्रतियोगी कहेवाय अने नाश प्रतियोगिता नामना सम्बन्धथी तेमां रहे. जेम के पट अ पटनाशनो प्रतियोगी छे अने पटनाश प्रतियोगितासम्बन्धथी पटमां रहे छे.) अने ओ घटरूपादिरूप अधिकरणमां कारणरूप घटनाश पण स्वप्रतियोगिसमवेतत्वसम्बन्धथी रहे छे. स्व = घटनाश. तेनो प्रतियोगी = घट. तेमां समवेत = समवायसम्बन्धथी रहेनार घटरूपादि. आम कारणरूप घटनाश अने कार्यभूत घटरूपादिनाशबन्ने समानाधिकरण (घटरूपादिरूप एक ज अधिकरणमा रहेनारा) बन्या. अने एटले 'प्रतियोगितासम्बन्धथी घटरूपादिना नाश प्रत्ये स्वप्रतियोगिसमवेतत्वसम्बन्धथी घटनाश कारण छे.' अवो कार्यकारणभाव स्थिर थयो.
पण, आ कार्यकारणभावमां ओक आपत्ति आवी शके छे. घटना रूपादि तो घटनी विद्यमानतामां पण बदलाई शके छे. आमां जूना रूपादिनो
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जे नाश थयो तेमां तो घटनाश कारणभूत नथी ज. अटले घटरूपादिनाशरूप कार्य थाय छे, पण घटनाशरूप कारण वगर. तेथी उपरोक्त कार्यकारणभाव खोटो ठरे छे. (न्यायमते आ व्यभिचार कहेवाय.)
आना निवारण माटे आपणे अवो कार्यकारणभाव बनाववो पडशे के 'घटनाशना समानकालीन घटरूपादिनाश प्रत्ये घटनाश कारणभूत छे'. आ समानकालीनता अटले ज कालिकसम्बन्धथी अक जन्य पदार्थ- अन्य जन्य पदार्थमां रहे. अटले न्यायमते ओम बोलाशे के प्रतियोगितासम्बन्धथी घटरूपादिना (केवा घटरूपादि ? जे घटनो नाश लेवानो छे तेमां जे समवायसम्बन्धथी रह्या छे अने घटनाशना समकालीन छे तेवा) नाश प्रत्ये स्वप्रतियोगिसमवेतत्वसम्बन्धथी घटनाश कारणभूत छे. आमां घटरूपादिने विशेषित कर्यां होवाथी, अन्य घटनां रूपादिना नाशमां के घटकालीन रूपादिना नाशमां घटनाश कारणभूत न बनवा छतां, पहेलेथी ज अमनो कार्यकारणभावमां स्वीकार न होवाथी, उपरोक्त आपत्ति आवती नथी. आ कार्यकारणभाव संस्कृतमां आम लखाशे - "प्रतियोगितया स्वप्रतियोगिसमवेतत्वस्वाधिकरणत्वोभयसम्बन्धेन नाशवन्नाशत्वावच्छिन्नं प्रति स्वप्रतियोगिसमवेतत्वेन नाशस्य हेतुत्वम्।"
उपर जणावेली व्यभिचारनिवारणनी चर्चा परमगुरुओ न्यायालोकनी वृत्तिमां आम. वर्णवी छे -
__"द्विक्षणस्थायिनस्त्रिक्षणस्थायिनो वा रूपादेर्द्वित्वादिसङ्ख्याद्विपृथक्त्वादेः संयोगादेर्वा नाशस्य घटादिनाशमन्तरेणैव घटादिसत्त्वकाले उत्पादेन तादृशरूपादेः द्वित्वसङ्ख्या-द्विपृथक्त्वादेः संयोगादेश्च घटनाशासमानकालीनतया कालिकसम्बन्धावच्छिन्न-स्वनिष्ठनिरूपकतानिरूपिताधिकरणतारूपद्वितीयसम्बन्धस्याऽभावेन नोक्तोभयसम्बन्धेन तत्र घटादिनाशस्य सत्त्वमिति..."
पण भानुमतीकारने आ वात बराबर नथी लागी. तेथी तेओओ आना परे. आवी खण्डनात्मक टिप्पणी करी छे -
"केचित्तु द्विक्षण... इति व्याख्यानयन्ति, तन्न, एवमपि द्वित्रिक्षण- . स्थायिरूप-द्वित्वादिसङ्ख्या-पृथक्त्व-संयोगादेर्वा नाशे व्यभिचारवारणासम्भवात् । वस्तुतस्तत्र रूपादौ प्रतियोगितासम्बन्धेन ध्वंस एव नाऽभ्युपगम्यते, किन्तु
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द्वित्रिक्षणस्थायिरूपादिसमवायिकारणे एवेति न व्यभिचारः । तदुक्तं पूर्वपक्षव्याख्यायां बृहत्परिमाणस्याद्वादरहस्ये - घटादिकालीनसंयोगादिध्वंसे व्यभिचारवारणाय प्रतियोगितया इति ।"
आ टिप्पणीमां बे वात विचारणीय छ -
१. उपर जोयुं तेम परिष्कार कर्या पछी व्यभिचार नथी ज रहेतो अटले व्यभिचार- वारण करी ज शकाय छे. वारण अशक्य नथी. तेथी 'व्यभिचार- वारण करवू असम्भवित छे' ओवी आपत्ति बराबर नथी.
२. न्यायशास्त्रना सामान्य अभ्यासीने पण ख्यालमां होय ज के जे वस्तुनो नाश थाय ते ज वस्तु ते नाशनी प्रतियोगी गणाय. अने नाश प्रतियोगितासम्बन्धथी ते ज वस्तुमां रहे. पण भानुमतीकार घटरूपादिना नाशने प्रतियोगितासम्बन्धथी घटरूपादिमां नहि, पण घटरूपादिना समवायी कारण घटमां स्वीकारे छे. केम के तेओ कहे छे - "वस्तुतस्तत्र रूपादौ प्रतियोगितासम्बन्धेन ध्वंस एव नाऽभ्युपगम्यते, किन्तु द्वित्रिक्षणस्थायिरूपादिसमवायिकारणे एव ॥" आ विधान समजवं मुश्केल छे. कारण के जो घटरूपादिनाश प्रतियोगितासम्बन्धथी घटरूपादिमां नहीं, पण घटमां स्वीकारीओ, तो ओ नाशनो प्रतियोगी घट बने, घटरूपादि नहीं, अने तो ओ नाश घटरूपादिनो नाश गणाय ज कई रीते ? ।
वळी, भानुमतीकारे स्वमतना समर्थनमा बृहत्स्याद्वादरहस्यनो जे पाठ टांक्यो छे, ते पाठ पोते त्रुटित छे अने सम्पादननी क्षतिने लीधे अशुद्ध पण बन्यो छे. बृहत्स्यादवादरहस्य (कर्ता - उपाध्याय श्रीयशोविजयजी, सं. - श्रीजयसुन्दरसूरिजी)मां आ पाठ आम छपायो छे - "घटादिकालीन-संयोगादिध्वंसे व्यभिचारवारणाय 'प्रतियोगितया' । स्वप्रतियोगिसमवेतत्व-स्वाधिकरणत्वोभयसम्बन्धेन नाशवन्नाशत्वावच्छिन्नस्य हेतुत्वावश्यकतया..." आ पाठ अर्थसङ्गतिनी दृष्टिले देखीती रीते अशुद्ध छे. पूर्वे आपणे कार्यकारणभावनी जे चर्चा करी तेना आधारे आने सुधारवो होय तो आम सुधारी शकाय : "०वारणाय प्रतियोगितया स्वप्रतियोगिसमवेतत्वस्वाधिकरणत्वोभयसम्बन्धेन नाशवन्नाशत्वावच्छिन्न [एव स्वप्रतियोगिसमवेतत्वेन नाशत्वावच्छिन्न]स्य हेतुत्वावश्यकतया..." आ सुधारो फक्त अर्थसङ्गतिना आधारे पण शक्य छे ज. पण तेना माटे अन्य
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प्रमाणो पण मळी शके. कारण के उपाध्यायजी भगवन्ते समवायसिद्धिनी चर्चा अनेक प्रकरणोमां करी छे. जेमां लगभग समान दलीलो चर्चाई छे. अटले प्रस्तुत तर्कमा प्रयोजायेली पदावलीनी समान पदावली अन्य ग्रन्थोमां मळे ज. अने तेना आधारे प्रस्तुत पाठ त्रुटित छे एम समजी पण शकाय अने तेने सुधारी पण शकाय. जेम के उपाध्यायजीओ ज रचेली अनेकान्तव्यवस्थामां आम पाठ मळे छे : "न च घटादिसमवेतनाशमात्रे न घटादिनाशो हेतुः, घटादिकालीनतद्वृत्तिक्रियासंयोगविभागवेगद्वित्वादिनाशे व्यभिचारात्; किन्तु प्रतियोगितया स्वप्रतियोगिसमवेतत्व-स्वाधिकरणत्वोभय-सम्बन्धेन नाशवन्नाशत्वावच्छिन्न एव स्वप्रतियोगिसमवेतत्वेन नाशत्वावच्छिन्नस्य हेतुत्वात्... ॥" आ पाठना आधारे बृहत्स्याद्वादरहस्यनो उपरोक्त पाठ सहेलाईथी सुधारी शकाय तेम छे. पण आवा समान्तर सन्दर्भो तरफ सम्पादकश्रीनुं ध्यान नथी गयुं जणातुं. अने आ पाठ त्रुटित छे अवू पण कदाच तेओना ध्यान पर नथी आव्यु. अने अटले तेओओ आम छाप्युं छे -
"घटादिकालीनसंयोगादिध्वंसे व्यभिचारवारणाय प्रतियोगितया ।" वास्तवमा 'प्रतियोगितया' आगळ वाक्य पूरुं नथी थतुं, पण आगळ चालु रहे छे. परन्तु जो आ रीते वाक्य पूर्व करी देवामां आवे तो ओनो अवो भळतो ज अर्थ नीकळे के 'घटनी विद्यमानतामां थता संयोगादिना ध्वंसमां व्यभिचारना वारण माटे प्रतियोगितया पद छे.' तात्पर्यतः आवा ध्वंस प्रतियोगितासम्बन्धथी ते संयोगादिमां नथी रहेता अवो खोटो मतलब आनो नीकळे. अने सम्भवतः आवा खोटा मतलबना आधारे ज भानुमतीकारे आ पाठने स्वमतना समर्थनमां टोक्यो छे, अने परमगुरुनी प्ररूपणानुं खण्डन कर्यु छे.
सम्पादननी क्षतिने लीधे सर्जायेलो ओक खोटो पाठ अने तेनुं भळतुं अर्थघटन आपणने साची वातथी केटले दूर लई जई शके तेनुं आ ओक विस्मयजनक उदाहरण छे.
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विहंगावलोकन-अङ्क ७०
- उपा. भुवनचन्द्र
अनुसन्धान-७०ना प्रारम्भे प्रकाशित पांच स्तोत्र लघु छे पण भावसभर छे. 'भगवते ऋषभाय नमो नमः' आ पंक्ति आजे पण प्रचलित छे, तेनुं मूलस्थान अहीं प्रकाशित आदिनाथस्तोत्रमा छे. 'अद्य मे...'थी शरु थतो श्लोक आमां छे तेना जेवा अन्य श्लोको बीजे जोवा मळे छे. आ प्रकारनी रचनाओ लोकप्रिय बने छे अने तेनी अनु-रचनाओ थवा मांडे छे, पछी कई मूल रचना अने कई अनुरचना - ए कहेवं मुश्केल बनी रहे । जो के ए मूल कृतिनी लोकप्रियतानुं अने भावगर्भ कृति होवानुं प्रमाण बनी रहे।
पार्श्वनाथ स्तोत्रमा ३जा श्लोकमां 'विवेकाक्षम्' छे त्यां 'विवेकाख्यम्' होय तो वधु बंध बेसे । अन्ते कलशना श्लोकमां "जिनपतिपादाः' पाठ सम्भवित छे.
यमकबन्धयुक्त जिनस्तव ए जैन स्तोत्रसाहित्यमां एक सशक्त कृतिना उमेरारूप छे. शब्दनी चमत्कृतिथी समृद्ध रचना छे. आवी कृतिने समजवा माटे सम्पादक पासे संस्कृतनो गाढ अनुभव होवो जोईए. पंचपाठी-सूक्ष्माक्षरी प्रत परथी सम्पादन करवू ए पण एक पडकार होय छे. प्रस्तुत कृतिनुं सम्पादन खूब सुन्दर थयुं छे.
__ 'वस्तुपालादिप्रशस्तिसंग्रह' एटले आ अङ्कनुं अमूल्य नजराणुं. वस्तुपालतेजपालना सुकृतोनो प्रमाणित आलेख आमां सचवायो छे. कविए सूचिने सूचि न रहेवा देतां काव्यनी कक्षाए पहोंचाडी छे. नाम-ठाम साथेना वृत्तान्त आ बन्ने वीरनायकोनी जीवनीमां अद्भुततानो रंग पूरे छे. बीजा भागमां कुमारपालना दण्डनायक राणिग तथा तेना पूर्वजो अने सन्तानोए करेलां धर्मकार्योनी सूचि आ महानुभावोना धर्मानुराग अने सामर्थ्यनी मनोहर छबी रजू करे छे.
इतिहासकारो माटे आवी सामग्री किंमती दस्तावेज समान गणाय. अनु.ना सम्पादक आचार्यश्रीए आ कृतिनी विगतो, सारग्राही अवतरण-अवलोकन करी आप्युं छे अने इतिहासना सन्दर्भो तारवी आप्या छे.
अनुसन्धान जेवा संशोधनपत्रोमां आवी मूल्यवान दस्तावेजी सामग्री प्रगट
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१२०
अनुसन्धान-७२
थती होय छे जे क्यांक खूटती कडी पूरी पाडती हशे, तो क्यांक कोई भ्रमशङ्कानुं निरसन करती हशे, ने क्यारेक तो नूतन अज्ञातपूर्व जाणकारी बहार लावती हशे. विद्वानो द्वारा अद्यावधि जे इतिहासलेखन ग्रन्थस्थ थयुं होय, ते पछी मळेली आवी सामग्रीनो यथास्थाने समावेश करीने ते-ते इतिहासने संवर्धितupdate करवानुं काम पण थर्बु जोईए. अन्यथा, प्रकीर्णपत्रोमांथी जडेली विगतो पत्र/पत्रिकानां पानांओमां पूराइने पाछी 'खोवाइ' जई शके छे. कोई पण ग्रन्थना पुनःप्रकाशन पूर्वे, तत्सम्बन्धी सामग्री एकत्र करीने पूर्ति करी लेवानुं कर्तव्य सम्पादकोनुं गणाय. आपणा सम्पादक मुनिओ आ कर्तव्य तरफ बेध्यान रहेता जोवा मळे छे.
___ मन्त्रीश्वरे दिगम्बर जिनालयना पण जीर्णोद्धार वगेरे कराव्या छे. आ प्रशस्तिमां 'क्षपणक' शब्द आवे छे. दिगम्बरमुनिना सम्बन्धमां आ शब्द वांच्यानुं याद आवे छे. अहीं 'खत्तक' शब्द आव्यो छे. तेनो अर्थ सम्पादके आप्यो नथी. ए गवाक्ष-गोख छे के बीजुं कंइ छे ?
सर्वविजयजी कृत 'पुण्डरीकशब्दशतार्थी' कौतुककारी रचना छे. पुण्डरीक शब्दना अनेक अर्थ तो छे, पण सो नथी; परन्तु अहीं सो वखत आ शब्द गूंथी लेवामां आव्यो छे अने उच्चारभेद, सन्धिछेद, अक्षरोनां परिवर्तन वगेरे द्वारा नवा नवा अर्थ नीपजाववामां आव्या छे. आ एक प्रकारनी शब्दरमत छे जे विद्वानोने माटे छे.
सप्तवर्गाक्षरवरेण्य... नामक रचना पण एवी ज कौतुकरंगी विद्वद्भोग्य कृति छे. कर्तानो उद्देश सज्जन-दुर्जन अथवा उत्तम-नीच, धर्मी-अधर्मीनां चित्र प्रस्तुत करवानो छे अने ते माटे भाषाना आधारे रमतियाळ ढबे शब्दचित्रो सर्यों छे. बाराखडीना एक-एक अक्षर उपरथी सारामां शुं होय, नठारामां शुं होय ते हळवाशथी वर्णव्युं छे.
सम्पादकश्रीए कृतिगत शब्दोनी भाषाकीय तपास करवानो श्रम उठाव्यो छे. कृतिकारे पोते ज कृतिमांना शब्दोना अर्थ नोंध्या छे, पण एम करतां जे पर्यायो आप्या छे ते पण तपास मांगे छे ! सम्पादकजीए ए पण तपास्युं छे. कर्ता विनोदप्रिय तो छे ज, परंतु व्यवहारजगतना सुज्ञ पुरुष छे. 'सारा' माणसो अने 'खराब' माणसो विशे एक एक श्लोकमां ६-६ वातो गूंथवामां आवी छे, जे जगतना निरीक्षण-परीक्षण वगर सूझे नहीं.
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जून
1
२०१७
श्लो. ३४मां 'थल' शब्द 'मरुभूमि'ना अर्थमां नोंध्यो छे. राजस्थानमां आ शब्द आज अर्थमां प्रचलनमां छे. आ रचनामां जूनी देश्य भाषाना शब्दो घणा छे अने ते आजनी भाषाओमां हाजर हशे ज. देश्य, अपभ्रंश, संस्कृतना कोशो उपरांत राजस्थानी, बंगाळी, जूनी गुजरातीना कोशोनी पण मदद लेवी पडे एवं छे.
मुनिश्री प्रेमविजयजी उग्र तपस्वी, अभिग्रहधारी महात्मा हता, साथे साथे ज्ञानोपासक, साहित्यप्रेमी पण हता, कवि हता ने कवि हता एटले रसिक पण हता ज. एमनी घणी लघु रचनाओ मळे छे. तेमनी गुजराती कृतिओना संग्रहनुं एक मुद्रित पुस्तक मारे हाथ चडेलुं ने ते, ते वखते पू. प्रद्युम्नसूरिजी म. ने मोकली आपेलुं. आचार्य श्री प्रेमविजयजीनी रचनाओनो संग्रह प्रकाशित करवा इच्छता हता, ते थई न शक्युं.
अहीं प्रकाशित नमस्कार संग्रहमां 'कुम्भलभेर 'नो उल्लेख छे, जे सूचवे छे के कविना समयमां कुम्भलमेर-कुंम्भलगढ़नी यात्रा जैनोमां प्रवर्तमान हती. ते पछी जैनोए कुम्भलगढने विसारे पाडी दीधुं छे.
कडी १०मां पांचमी पंक्तिमां 'लोटीण उतारइ' छपायुं छे त्यां 'लोटीणउ तारइ' एम वांचवुं जोईए.
आ अंकनी महत्त्वपूर्ण रचना छे - कल्याणविजयजी रास. सम्पादक मुनिवरे रासना नायक, रास अने रचनाकार बधा विशे पार्श्वभूमिकानी विगतो पूरी पाडी छे, रासनुं महत्त्व रेखांकित करी आप्युं छे. रास कवित्वसभर छे, रसिक छे, भावोत्पादक छे. थोडां शुद्धिस्थान छे -
क. २०
क. २५
क. २५
क. ३८
क. ८१
क. ८५
क. १०७
मुझ
पांडुर
प्रकार
परिपरि
माडली
१२१
गाई
पापणी
मुझ मन
अहीं 'पाडउ' कल्पवानी जरूर नथी. पांडूर - पंडूर शब्द पुष्ट, मोटुं, विशाळ एवा
अर्थमां छे.
प्राकार (गढ)
परि परि
माउली
सहु गाई
पाणी
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१२२
क. १६३
भिण
क. १७४नी आंकणीमां
क. २२२
मुदाफरी
क. २४७
उपरत
अनुसन्धान- ७२
अर्थ छे - बहेन. कच्छीमां 'भेण'.
'विष अपार' ने बदले 'विषम अपार' मुदाफरी (मुजफ्फरी नाणुं)
अर्थ - उपरांत, -थी वधारे
शब्दकोशमां 'वसिनारी' (क. २९) नो अर्थ 'वेश्या' लख्यो छे, ते अहीं असंगत छे. वसनारी- रहेनारी एवो अर्थ होई शके. श्राविकाओनी वात छे. तंगी (क. २९७)नो अर्थ 'तंबू' ठीक लागतो नथी. कापडनी वात छे. 'ताका' अर्थ बेसे. तंबूनी वात आना पछीनी कडीमां आवे छे. भुंजाई (२९८) शब्द कोशमां लीधो नथी, पण लेवा जेवो छे. मीठाई जेवो आ भुंजाई शब्द फरसाणना अर्थमां त्यारे प्रचलित हतो, एम जणाई आवे छे. क. ११२ पछीनी पंक्तिमा 'नेखसाला' शब्द जोवाय छे. आजना 'निशाळ' नुं मूळ आ 'नेखशाला' छे. 'लेखशाला' → नेखसाला → नेहसाला नेसाला निशाळ. क. ३७मां धाणधार शब्द छे. पालनपुरनी आसपासना विस्तारने धाणधार कहेता हता. क. २२२मां 'मुदाफरी' ए नाणुं छे. 'मुजफ्फरी' नुं संस्करण करी 'मुदाफरी' कर्तुं छे. जूना सिक्काना अभ्यासीओ वधारे कही शके.
शत्रुञ्जयचैत्यपरिपाटी स्तवनमां वाचनभूलो देखा दे छे. क. १. 'आगममही' : आगम मांही. क. ५. अतिउमांहि : अति उमाही. क. १२. संधी रे : सधीर रे. ते समये शत्रुञ्जयना देरासरो-टूकोना नामोमां फेरफार जणाय छे. अलग अलग समये जुदा जुदा नाम प्रचलनमां होई शके.
आ. श्रीकुन्दकुन्दस्वामीना साहित्यक प्रदान विशे श्रीसागरमलजी जेवा अधिकारी विद्वाननो लेख महत्त्वपूर्ण विगतो पूरी पाडे छे. विषयनी सन्तुलित प्रस्तुति ध्यानमा लेवा जेवी छे.
श्रीत्रैलोक्यमण्डनविजयजीए हिन्दीमां लखवानुं शरु कर्तुं छे ते ठीक ज छे. एक आरूढ विद्वाननी सज्जताथी मुनिश्रीए विषयनो निर्वाह कर्यो छे. विविध मतोमां रहेला 'ख्याति' विषयक सूक्ष्म व्याख्याभेदो समजवा / समजाववा तीक्ष्ण मेधा / स्मृति जोईए. दर्शनना विद्यार्थीओने आ लेख वांचवानी मजा पडशे.
नानी खाखर, कच्छ पिन. - ३७०४३५
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विहंगावलोकन-अङ्क ७१
- उपा. भुवनचन्द्र
जैन ज्ञानभण्डारोमा स्तोत्र-स्तुति-स्तवननो जाणे अक्षयभण्डार छे. प्रभुस्तुति साधु-श्रावक बन्नेनी आराधना साथे जोडायेली वस्तु छे. भावोल्लास माटे नवां नवां स्तोत्र सहायक बने छे. जैन संघमां अध्ययन-अभ्यास-शिक्षणवातावरण पण उच्च स्तर- रहेतुं आव्युं छे – खास करीने त्यागी वर्ग. एटले सर्जन- स्तर पण सहेजे वधारे ऊंचुं होय. आम, लोकभोग्य अने उपयोगी सर्जन तरीके स्तोत्रस्तवन साहित्य, निर्माण वधु होय ए स्वाभाविक छे.
___अनु० ७१मा प्रथम क्रमे प्रकाशित 'शान्तिस्तव' गीतिकाव्य छे अने एक समर्थ कविनी रचना छे. श्रीजयवंतसूरि रसकवि हता अने प्रस्तुत रचनामां तेमनी ए मुद्रा प्रखर रूपे अङ्कित छे. सम्पादके एक वातनी नोंध नथी लीधी, अने ते ए के कविए आ लघु स्तोत्रमा नवेय रस समाव्या छे. शृङ्गार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अदभुत, शान्त - ए नव रसोनी हाजरी कई रीते छे ते अहीं जोई लईए -
प्रथम चार श्लोको प्रस्तावना के भूमिका जेवा छे. पछी एक-बे के त्रण श्लोकोमा एक-एक रसनो भाव दृश्यमान थाय छे. अमुक रसनां नाम पण क्यांक डोकाय छे, बाकी उद्गारो / रूपको । कल्पनो द्वारा ते-ते रसनो निर्वाह थयो छे. ४था पद्यमां 'रीतिरताः' शब्द द्वारा 'रीति'नो सीधो उल्लेख पण कर्यो छे. पद्य ५मां 'कामदेवना गर्व- खण्डन' वगेरे शब्दो शृङ्गारना व्यञ्जक छे. पद्य ६मां वित्रासन-भयनी वात थई छे. ७-८-९ ए त्रण पद्योमां विजयनां कल्पनो द्वारा वीररस चूंट्यो छे. १०-११ ए बे पद्य कठोरता अने वैरिना नाशना वर्णन द्वारा रौद्र रस पोषे छे. १२-१३ बे पद्य प्रभुनी मनोहरता ऊपसावी विस्मय-हास्यनो भाव जगाडे छे. १५मा पद्यमां भगवान पर द्वेष करनारा पर करुणाना उद्गार छे. अहीं 'करुण'शब्द पण हाजर छे. १६मुं पद्य बीभत्स रसनी लागणी जन्मावे छे. १७मा पद्यमां भगवान अद्भुतसागर छे एम कही अद्भुत रसनुं निरूपण कर्यु छे. छेल्लां पद्योमा शान्तरस चूंटायो छे. 'शान्ति'शब्द पण योज्यो छे.
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१२४
अनुसन्धान-७२
आ अङ्कमां बीजी एक प्रौढ स्तोत्रकृति पार्श्वजिनस्तवन यमकबद्ध होवाथी कर्णप्रिय बनी छे. भाषा प्रासादिक छे. थोयजोडानो जे एक प्रचलित राग छे ते ढबे आ गाई शकाय छे. यमकना सर्जन माटे सन्धि, समास, अनेकार्थक शब्दो अने अल्पपरिचित शब्दोनी मदद लीधी छे. बेर, वृष, निर्हाद, सा-कर वगेरे आवा अल्प प्रचलित शब्दो छे.
आ अङ्कनी अमूल्य उपलब्धि छे - वादीन्द्रवादिदेवसूरिचरितम्. श्वेताम्बर परंपराना आ दिग्गज आचार्यनां नाम अने कामथी सौ परिचित छे. आवी धुरन्धर प्रतिभाना जीवनचरितनुं न रचाय तो ज नवाई. हवे अपूर्ण तो अपूर्ण, पण जीवनचरितनुं महाकाव्य ज्ञानभण्डारमाथी बहार आव्युं छे. महाकाव्यनी शैलीए रचायुं होवाथी इतिहास के जीवनवृत्तान्त आपवानो आमां उपक्रम न होय. कवि आ महापुरुषना गुणग्राम अने काव्यरस सर्जनना आशयथी रचना करे छे, तेम छतां, घणी बधी इतिहासोपयोगी विगतो आमांथी मळी रहे छे, अथवा अन्यत्र प्राप्त विगतोने नवो आधार प्राप्त थाय छे. सम्पादकोए आनी सविस्तर चर्चा करी छे.
. वादिदेवसूरिना घणा शिष्यो हता. एमांना एक श्रीपद्मप्रभसूरि तपस्वी हता, नागोरमां तेमने 'तपस्वी' बिरुंद मळ्युं हतुं. पद्मप्रभसूरिनी परम्परा नागोरी वडगच्छ नामे ओळखाई. जयशेखरसूरि ए परम्परामां थया. आगळ जतां आ ज परम्परा पार्श्वचन्द्रसूरिना नामे पार्श्वचन्द्रगच्छ तरीके आगळ चाली.
प्र. १, श्लो. २मां अम्बर शब्द आगळ प्रश्नचिह्न मूकेलुं छे. आ पाठ अशुद्ध नथी. दिगम्बरविजय अने श्वेताम्बर मान्यताना मुद्दा कविए स्तुतिमां सात विभक्तिमां वणी लीधा छे अने ए रीते वादिदेवसूरिना प्रदाननो महिमा कर्यो छे. आ श्लोकमां 'वल्लते' क्रियापदनो अर्थ 'आहार करे छे' एवो नीकळे छे.
प्र. २मां श्लोक ६७मां बाल पूर्णचन्द्र चणा आपीने द्राक्ष लेवानो वेपार करे छे - ए वात आवे छे ते सुशक्य छे. अने 'धीवर'नो अर्थ 'माछीमार' ज लेवो जोईए.* व्यापार कंइ विद्वानो साथे ज थाय एवं न होय. भरुच तो समुद्रतट वाळो प्रदेश छे, धीवरो-माछीमारोनी वसती होय. पछात विस्तारोमां * आ विधान साथे सम्मत थर्बु मुश्केल छे. धीवर एटले बुद्धिमान् । -सं.
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जून - २०१७
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वेपारीओ विनिमय द्वारा आजे पण व्यापार करे छे. बालक पूर्णचन्द्र विकट परिस्थितिमां पिताने आ रीते मदद करता हता - ए वात कविए नोंधी छे. ए विस्तारमा ते समये द्राक्ष ऊगती हती ए पण सूचित थाय छे. श्लो. ६८मां 'वंशपात्र' शब्द छे. आनो अर्थ टोपली, करंडियो के सूपडं होई शके.
कृतिनी वाचना परिश्रमपूर्वक तैयार थई छे. क्यांक अस्पष्टता रहे छे. संशोध्य स्थान पण छे : श्लो.
संभवित पाठ १ १५ चरितं
चरित्रं धनेन्दु०
घनेन्दु० ६५ []
[कास] व्यभूषता
व्यभूष्यता °ङ्गवयवा
'ङ्गावयवा नृपति०
नृपति कुतकं
कुतुकं १०१
धाटी 'खि(लाग्नि)शिखा [च्छि]खिशिखा स्त्राणां
स्त्राणं रूमि०
०रूर्मी० परिषहांश्च
परीषहांश्च किमिच्छं (त्थं) क्यारेक लहियाओ च्छ अने त्थ सरखा लखता
हता. अहीं त्थ ज वांचवो जोईए । १०३ स्वसुरस्य
श्वसुरस्य प्रवी(की)र्णविष० ... प्रकीर्णा विष०
प्रकीर्णनो एक अर्थ 'विशाल' थाय छे. २४१ न धे(हि)
०ऽनघे
घाटी
१०२
१०६
१
१३०
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अनुसन्धान-७२
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व(च) -
२५४
सौख्या०
व(च)[स] विधया
विद्यया ३२१ विधा०
विद्या० ४६ सौख्य
एक अजैन खण्डकाव्य उपर जैनाचार्य द्वारा रचित टीका आ अङ्कमां प्रगट थाय छे. मूल कृति अजैन छे, एटलुं ज नहि, शृङ्गाररसनी रचना छे, तेम छतां जैन आचार्य एना पर टीका लखी शके छे. आ शुद्ध साहित्यिक अभिगम छे. जीवन प्रत्येनो सन्तुलित अभिगम पण छे. अने तेने शक्य बनावे छे अनेकान्त दृष्टि. टीकाना अन्ते टीकाकार लखे छे : "आ टीका रचवाथी उपार्जन थयेल पुण्य वडे लोको निर्वाणनी प्राप्ति करो!" _ 'केटलीक लेखपद्धतिओ' वांचतां मात्र संस्कृत भाषानी मजा ज नहि, पत्रलेखक-पत्रपाठक वच्चेना भावसंबंधोनी भीनाश पण अनुभवाय छे. श्राविकालेखनी १०मी पंक्तिमां स्वस(सं)दर्शन... ए विशेषण छे तेमां "पोताना मुखना दर्शनथी आनन्द ऊपजावनारी" एवो भाव जणाय छे, आथी मुखवाचक शब्द अहीं होवो जोईए. 'सदशन' शब्द मुखवाचक बनी शके. आवा कृत्रिम नामो योजवानी परिपाटी साहित्यक्षेत्रे हमेशां रही छे. वळी आनाथी पहेलां रूपनी वात पण थई छे. आथी स्वसदशन... एवो पाठ विचारी शकाय. 'सदशन' माटे आधार गोतवो रह्यो.
'केटलांक पत्रो' विद्वान मुनिजनोना पाण्डित्यसभर व्यवहारोनां चित्रो पूरा पाडे छे. 'लेखपद्धति' जेवी कृति पण पत्रलेखननो महिमा कोई समये केटलो हृदयपूर्वक स्वीकारायो हतो तेनी झांखी करावे छे. आ संग्रहमां अवसेरी, सारा, रावा, रणरणक जेवा बोलचालनी भाषामांथी संस्कृतमा प्रवेशेला शब्दो छे.
श्रीतिलकविजय कृत सुविधिनाथस्तवनमां क. ३मां 'पहिडइ' शब्द छे, जे व्युत्पत्तिनी दृष्टिए महत्त्वनो छे. वचनथी फरी जq, प्रार्थनानो भंग करवो - एवो अर्थ नीकळे छे. आना परथी ज 'फेडवू' आव्यो हशे. 'फेड'नो अर्थ 'पूरुं करवू, अन्त आणवो' - एवो सीमित रही गयो.
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जून २०१७
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'अष्टापदतीर्थस्तवन'मां अष्टापद साथै सम्बन्ध राखती पुष्कळ विगतो गूंथी लेवाई छे. क. ९मां 'घंटो' वाचनभूल जणाय छे. 'घाट' सुसंगत बने. क. २७मां 'झमाउल' छे, ते 'झलामल' होई शके.
अनुयोगद्वारसूत्रना पाठनी झीणी चर्चा शास्त्रीय विषयोना अभ्यासीओने लाभदायक थशे. श्रीमती नलिनी बलवीरनो प्रतिमासौन्दर्य विषयक लेख पठनीय छे. भाषा क्यांक क्लिष्ट - अस्पष्ट रही छे, परन्तु विदुषी लेखिकानो गहन अभ्यास लेखमां प्रत्यक्ष थाय छे. आवा भावात्मक विषय पर एक अ - जैन विदुषी लखे ए वात ज अत्यन्त आदरणीय छे.
श्रीकृष्ण विशे प्राकृत अने अपभ्रंश भाषाना जैन साहित्यमां व्यापक सर्वेक्षण करीने, तथा अन्य परम्पराना साहित्य साथे तुलना करीने लखायेलो श्रीसागरमलजीनो लेख श्रीकृष्ण विशे घणी सामग्री आपणी जाणकारी माटे एकत्र करी आपे छे.
'नन्द्यावर्त' विशेनो ढांकीसाहेबनो लेख लांबा समयथी चाली आवती भ्रान्तियुक्त मान्यताने प्रकाशमां लावे छे. संशोधन द्वारा ज आवी भ्रान्तिओनुं परिमार्जन थई शके. संशोधन द्वारा आवी माहिती मळ्या पछी एनो यथास्थाने अमल करवानी फरज सङ्घनायकोनी छे.
*
अनु० नो आ अङ्क बहुमुखी प्रतिभाना स्वामी डो. मधुसूदन ढांकीना स्मृति विशेषाङ्क रूपे प्रगट थयो छे.
अङ्कना पूर्वार्धमां संशोधन/सम्पादन लेखो अपाया छे; उत्तरार्धमां ढांकीसाहेब विषयक लेखो मूकाया छे. ढांकीसाहेबनी कीर्ति सर्वदिग्गामिनी हती. 'विद्वान् सर्वत्र पूज्यते' नी उक्ति तेमना जीवनमां सार्थक थई हती. भारत अने भारत बहारना भिन्न भिन्न विद्याशाखा ओना विद्वत्समाजोमां तेमनुं नाम अत्यन्त आदरभेर लेवातुं हतुं. ढांकीसाहेब विशे एवा केटला क्षेत्रोना केटलाय विद्वानोने कंईक कहेवानुं मन हशे ए बधाना मनोभावो एकत्र करवा मुश्केल छे. कोई सक्षम विद्यापीठ ए काम करे एवी आशा राखीए. अनुसन्धान द्वारा एक अंजलि अपाई छे, अने तेनी एक विशेषता छे. अहीं संगृहीत स्मृतिलेखो
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अनुसन्धान-७२
मोटा भागे ढांकीसाहेबना निकट क्षेत्रवर्ती अने सीधा परिचयमां आवेली व्यक्तिओना हृदयोद्गाररूपे लखाया छे.
अवंतिकाबेने ढांकीसाहेबनो साक्षात्कार करी लखेलो लेख पूर्वप्रकाशित छे, पण अहीं ते योग्य रीते ज प्रथम क्रमे मकवामां आव्यो छे. आ लेख ढांकीसाहेबनो अन्तरङ्ग परिचय आपे छे. ढांकीसाहेबना जीवन । अनुभव । कार्यकलाप विषयक वातो लेखिकाए तेमनी पासेथी सुपेरे कढावी छे. लेखिकाना उद्गार : "रूंवे रूंवे सौन्दर्य अने कलाना मर्मी मधुसूदनभाईनुं हैयुं साधुनुं छे, जेथी ज तेमनां वाणी-वर्तन अने विचारमाथी आटलो आन्तरवैभव छलकाय छे" - साव साचुं छे.
स्मृतिलेखोमां ढांकीसाहेबनां मनोमुग्धकर शब्दचित्रो आलेखायां छे. लेखकोनां मन पर ढांकीसाहेबनी अंकित थयेल छबीनी केटलीक रेखाओ तारववानुं मन थाय छे :
खरच्यु आलुं आयऱ्या विधविध विद्या माट, - सघन संशोधन कर्यु, माथा साटोसाट.
• - राजेश पंड्या ... तेमनी निखालसता जोई अमे दिङ्मूढ थई गया! तेमणे का : "महाराजश्री, मारी वाचना करतां तमारी वाचना वधु सुन्दर छे. तमे ते रीते तेनुं प्रकाशन करो". विद्वत्तानी साथे आवी नम्रता प्रायः घणी ओछी व्यक्तिओमां जोवा मळे.
- गणि सुयशचन्द्रविजय
- मुनि सुजसचन्द्रविजय कोई व्यक्ति पोताना मर्यादित जीवनकालमां केटलुं काम करी शके, केटली विद्यामां पारंगत थई शके एनुं उदाहरण मधुसूदन ढांकी छे.
- राजुल दवे ढांकीसाहेबना संगीतविवेचक-संशोधक तरीकेनुं नोंधपात्र लक्षण निर्भीक, निर्धान्त, मुक्त एवा अभिप्राय छे.
- हसु याज्ञिक
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१२९ ... जैनाचार्योनो समय निर्धारित करवानुं महत्त्वपूर्ण काम कर्यु. जैनबौद्ध आगमो, संगीतशास्त्र, होर्टीकल्चर, पशु-पंखीना अवाजो, रत्नविद्या, कलाओ आदि विषयोमां तेओ सिद्धहस्त लेखक हता.
- जितेन्द्र बी. शाह मने स्पर्शी गई छे तेमनी निखालसता, सरळता, नम्रता, सादगी... तेमनुं अकिंचनपणुं... विद्या अने अध्यात्म बन्नेनो सुयोग...
- रमजान हसणिया .....बहुचर्चित अने संवेदनशील विषय परत्वे 'जनोईवढ घा' करवा माटे महारथीनी शक्ति अपेक्षित होय छे. ढांकीसाहेब आवा महारथी हता.
- छेलभाई व्यास विविध विद्याशाखाना तज्ज्ञ होवू एटले, शुं? ते आजे (पारकी) सूंठने गांगडे गांधी गणावनारना समयमां समजवं मुश्कल लागे. एवां परिबळो वच्चे मधुसूदन ढांकीसाहेबनी प्रतिभा विशेष महत्त्वनी छे.
- डो. मनोज रावल तमे थोडीक वार बेसो एथी एमने धरव न थाय. एमनो अनुभव भण्डार खूटे एवो न हतो ने विनोदवृत्ति सतेज.
- रमण सोनी शास्त्रोक्त छणावट करवानुं कदाच तेमना 'जीन्स'मां हतुं. आवी 'ज्ञानामृतकुम्भ' (व्यक्ति)नी चिरविदाय वसमी लागे ए स्वाभाविक छे. ज्ञान साथे निखालसता घणी जूज व्यक्तिमा जोवा मळे.
- डो. रेणुका पोरवाल गुजरातना पुरातत्त्वविद्, स्थापत्यशास्त्री, इतिहासविद्, संगीतज्ञ, वृक्षपशु-पक्षीप्रेमी, भारतीय संस्कृति तथा जैनधर्मना शास्त्रोना अठंग अभ्यासी, पद्मविभूषणनी पदवी, कुमारचन्द्रक अने कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यचन्द्रक जेवां अनेक सन्मानो जेमने प्राप्त थयेलां एवा आन्तरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त बहुश्रुत विद्वान श्रीमधुसूदन ढांकी....
- डो. निरंजन राज्यगुरु
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Dr. Dhaky had great love for languages also; he could read and write Sanskrit, Prakrit, Pali, Magadhi, Ardhamagadhi, Apabhransha, English, French, Hindi, Marathi and Gujarati languages. This helped him deciphering inscriptions.
- Dr. Renuka Porwal ...तेओ एक एवं प्रतिभाबीज हता के ए जे जमीन पर पड़े त्यां ऊगी नीकळे अने म्होरी ऊठे. ...विद्याउपासना छेल्ले सुधी चालु रही... हसता हसतां कहेता के मारी दशा तो स्टीफन होकिन्स जेवी छे. आ शरीर पर सोळ सोळ ओपरेशन थयां छे पण हजी मगज पूरेपूरुं साबूत छे..
- डॉ. कुमारपाळ देसाई पोताना विषयमां अने प्रतिपादनमा स्पष्ट अने दृढ. तेना समर्थनमां तर्को, युक्तिओ तो आपे ज, साथे प्रमाणो पण आपे. प्रमाणो पण, बाप रे, क्यां क्यांना टांके! आगम, त्रिपिटक, वेद, अभिलेख, पुरातात्त्विक अवशेषो, शब्दप्रयोगो अने विविध विद्वानोना अभिमतो अने अर्थघटनो! बधुं ज हैयावगुं होय अने बहु ज कुशलताथी आ बधांय प्रमाणो के साक्ष्योनी एक जाळ रचता जाय...
- आ. शीलचन्द्रसूरि नानालाल कहे छे ते सो वसा आमने लागू पडे : 'पुण्यात्मानां ऊंडाणो तो आभथी ये अगाध छे.' कलाना मर्मज्ञ - चित्र, शिल्प ने संगीतना तो खास. आपणी संस्कृतिनी अनेकदेशीय बाजुओनी अनेकपक्षी दृष्टि एटले ढांकीसाहेब - संस्कृतिसौरभनु मानवरूप!
- कनुभाई जानी मूल्यह्रासनी तेमने भारे चिन्ता हती. ए रीते जोइए तो तेओ प्रशिष्ट परम्पराना आग्रही हता. अने ए आग्रह एकेएक क्षेत्रमा तेओ राखता हता.
- शिरीष पंचाल एमनुं जैन इतिहास अने साहित्यमा प्रदान खूब महत्त्वनुं छे. जैन साहित्य अने धर्म प्रत्येनो एमनो अभिगम अरूढ अने एक सत्यवक्तानो छे. तेओ परम्पराप्राप्त माहिती स्वीकारे खरा पण एने चारेबाजुथी चकास्या बाद.
- हेमन्त दवे
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एमने दरेकने अनुकूळ थवानो कीमियो हस्तगत. अथवा तो दरेकमांनुं ऊजळं पासुं मापी लेवानी दृष्टि. एमना मनमां वसी गयेल दरेक व्यक्तिने पोते सामे चाली फोन करे... सामेवाळो माणस नानो होय के मोटो, एमने माटे सरखो...
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पीयूष ठक्कर
जैन देरासर, ३७०४३५
जि. कच्छ, गुजरात
नानी खाखर
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माहिती :
डॉ. सागरमल जैनने हेमचन्द्राचार्य-चन्द्रक'
डॉ. सागरमल जैन आपणा एक प्रखर दार्शनिक विद्वान छे. भारतीय दर्शनशास्त्रो अने तत्त्वज्ञानना विषयमां तेओ आरूढ विद्वज्जनलेखे प्रख्यात छे. प्राचीन आगमो विषे तेमनां संशोधनोने विद्याजगत्मां व्यापक स्वीकृति सांपडी छे. जैन-बौद्ध-वैदिक दर्शनो विषे तेमणे करेल तुलनात्मक अध्ययनना ग्रन्थो अभ्यासुओ माटे मानदण्ड समान छे.
तेमणे ५७ जेटला ग्रन्थोनुं अने सेंकडो शोधलेखोनुं सर्जन कर्यु छे. सम्पादित ग्रन्थोनो आंक तो तेथीये घणो मोटो छे. तेमना मार्गदर्शन हेठळ विविध विषयो पर Ph.D. करनारा विद्यार्थीओनी संख्या बहु मोटी छे, एमां अनेक जैन साधु-साध्वीओनो पण समावेश थाय छे.
८५ वर्षे पण तेमनुं अध्ययन-अध्यापन अविरत चालु छे. बनारसना पार्श्वनाथ विद्याश्रम संस्थानना निर्देशक पदे रहीने 'श्रमण' जेवी एकाधिक शोध-पत्रिकाओनुं सम्पादन संभाळनारा डॉ. जैन वर्तमानमां पोताना वतन शाजापुरमा 'प्राच्यविद्या शोधपीठ' नामक संस्था चलावे छे, अने त्यां हजारो ग्रन्थोना ग्रन्थालय तथा शोधकेन्द्रनुं संचालन करवा द्वारा विद्याकीय विविध प्रवृत्तिओ करतां रहे छे.
आवा मूर्धन्य विद्वानने 'श्रीहेमचन्द्राचार्य-चन्द्रक' प्रदान करवानो एक समारोह ता. २८-२-२०१७ना रोज अमदावादमां शेठ हठीसिंहनी बहारनी वाडीमां भव्य रीते योजाई गयो. कलिकालसर्वजनी नवमी जन्मशताब्दीना वर्षे (वि.सं. २०४५), तेजोमूर्ति आचार्य श्रीविजयसूर्योदयसूरीश्वरजीनी भावना तथा प्रेरणाथी रचायेल श्रीहेमचन्द्राचार्य ट्रस्टना उपक्रमे योजाएल आ समारोह, पूज्य आचार्य श्रीविजयहेमचन्द्रसूरीश्वरजी म. तथा आ. श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिजी आदिनी पावन निश्रामां संपन्न थयो हतो.
श्रीअमित ठक्कर अने दीप्तिबेन देसाई द्वारा गवायेल मङ्गल प्रार्थना, श्रीनलिनीबेन देसाईनुं समतोल संचालन, महाराजश्रीनां अने उपरांत डॉ. कान्ति
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गोर (कच्छ), डॉ. निरंजन राज्यगुरु (सौराष्ट्र), डॉ. जितेन्द्र बी. शाह आदि विद्वज्जनोनां प्रसंगोचित वक्तव्यो - आ बधांने लीधे समारोह खूब जीवंत अने प्रसन्नकर रह्यो. ट्रस्टना बधा ट्रस्टीओनी उपस्थिति हती.
चन्द्रक प्रदान करवानी साथे साथे डॉ. जैनने प्रशस्तिपत्र, सरस्वती देवीनी चन्दननी प्रतिमा, शोल-तिलक-हार-श्रीफल उपरांत १.११ लाखनो धनराशि - आ बधुं अर्पण करवामां आव्युं हतुं. डॉ. जैने, पोताने अपायेल ते धनराशि प्राच्यविद्या शोधपीठना ग्रन्थालयने अर्पण करवानुं जाहेर कर्यु हतुं.
उल्लेखनीय छे के श्रीहेमचन्द्राचार्य ट्रस्ट द्वारा, अत्यार सुधीमां अन्य १५ जेटला मूर्धन्य विद्वानोने आ चन्द्रक अर्पण करवामां आवेलो छे.
चन्द्रक स्वीकार्या पछी डो. जैने प्रतिभावरूप वक्तव्य आपतां श्रमण संघमां तथा जैनोमां आगमादि शास्त्रोनुं अध्ययन वधारवानी प्रेरणा करी हती.
___ समारोह पूर्ण थया पछी श्रीहठीभाईनी वाडीना जैन संघ द्वारा योजायेल भोजन-समारंभ बाद सहु विखराया हता.
डॉ. भारतीबेन शेलतने श्रीपुण्यविजयजी चन्द्रक'
आगमप्रभाकर श्रुतशीलवारिधि मुनिराज श्रीपुण्यविजयजीनी दीक्षाशताब्दी निमित्ते, आचार्य श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिजीनी प्रेरणाथी एक चन्द्रक अर्पण करवानो निर्णय थयो हतो. ते माटे एक फण्ड पण करवामां आवेखें, अने ते फण्ड तथा चन्द्रकने लगती तमाम जवाबदारी गुजरात विश्वकोश ट्रस्टने सोंपवामां आवी हती. चन्द्रक समिति अने विश्वकोश ट्रस्ट द्वारा संचालित आ प्रकल्पना अन्वये अत्यार सुधीमां पांच विद्वानोने चन्द्रक एनायत थयो छे. ते अंगेनो समारोह विश्वकोश भवनमां डॉ. कुमारपाल देसाईनी दोरवणी हेठळ योजाय छे.
प्राचीन अने मध्यकालीन जैन के अन्य साहित्यना क्षेत्रे पोतानुं प्रदान अने अध्ययन-संशोधन करनार विद्वानने आपवामां आवतो आ चन्द्रक आ वखते डो. भारती शेलतने आपवामां आव्यो. भारतीबेन, मुख्य प्रदान भारतीय
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अभिलेखविद्याना तथा पुरातन सिक्काओना क्षेत्रे रह्यं छे. भागवतपुराणनी समीक्षित वाचना तैयार करवामां पण तेमनो मोटो फाळो छे. विविध जैन ग्रन्थो पर तेमज गुजरातना इतिहास-ग्रन्थो पर पण तेमणे घणुं काम कर्यु छे.
ता. २६-३-१७ना सवारे विश्वकोश ट्रस्ट - भवनमां, आ. श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिजीनी उपस्थितिमां, डॉ. कुमारपाळ देसाईनी अध्यक्षतामां योजायेल एक समृद्ध समारम्भमां श्रीभारतीबेनने श्रीपुण्यविजयजी चन्द्रक अर्पण थयो हतो. चन्द्रक उपरांत सरस्वती-प्रतिमा, प्रशस्तिपत्र, शोल, श्रीफल, हार, तिलक अने ५१/- हजारनी धनराशि पण अर्पण थयां.
आ प्रसंगे डॉ. थोमस परमार, डॉ. देसाई व.नां सुन्दर प्रवचनो थयां. डॉ. शेलते पण पोतानो प्रतिभाव सरस रीते व्यक्त कर्यो. कवि जसुभाईसंचालन रसमय रह्यु.
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