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________________ ११४ अनुसन्धान-७२ जो तत्त्व जिस रूप में है उसीकी प्ररूपणा करते हैं, कुछ नया नहीं कहते। अब तत्त्व तो सदाकाल समान ही होते हैं, तो प्ररूपणा में अन्तर कैसे हो सकता है ? । तीर्थङ्करों के वचनों में या द्वादशाङ्गी में जो पूर्व का अनुसरण कहा जाता है वह अर्थ की अपेक्षा से ही समझना चाहिए । तत्त्वप्ररूपणा को नजर में रखने पर ही अनन्त द्वादशाङ्गीओं में कोई भिन्नता नहीं दिखती, और इस ऐक्य के बल पर उन अनन्त द्वादशाङ्गीओं को एक समझकर द्वादशाङ्गी की अनादिता व ध्रुवता (और फलतः अपौरुषेयता) प्रतिपादित की जा सकती है। लेकिन हम जब द्वादशाङ्गी के वचनपक्ष की बात करते हैं, तब उन्हें नित्य या ध्रुव या अपौरुषेय प्रतिपादित नहीं कर सकते । तीर्थङ्करों के उपदेशों की और उनके सङ्ग्रहस्वरूप द्वादशाङ्गी की वचनरचना में तो परिवर्तन होते ही रहते हैं । शब्दों की अपेक्षा शाश्वत कुछ नहीं है । दो द्वादशाङ्गी की वचनरचना एकसमान नहीं हो सकती । इस दृष्टि से देखे तो प्रत्येक द्वादशाङ्गी तीर्थङ्करप्रणीत एवं गणधरग्रथित होने से पौरुषेय ही है, अपौरुषेय नहीं। तीर्थङ्करों से उत्पन्न होने की वजह से वह उत्पत्तिशील है, नित्य नहीं । सक्षेप में कहें तो शाश्वत तत्त्वों का अशाश्वत कथन यानी द्वादशाङ्गी । अपौरुषेय तत्त्वों की पौरुषेय प्ररूपणा यानी द्वादशाङ्गी । वैदिक परम्परा में ऋषिमुनिओं को जब मन्त्रस्रष्टा के स्थान पर मन्त्रद्रष्टा के रूप में वर्णित किये जाते हैं, तब इसी वात का सङ्केत दिया जाता है कि वह तत्त्व तो सूक्ष्म रूप से सृष्टि में मौजूद ही था । ऋषिमुनियों ने अपनी दिव्य दृष्टि से उसका साक्षात्कार किया और उसे स्थूल शब्ददेह दिया। यही उनका कर्तृत्व है । जैन आगमों में भी यही बात लागू होती है । इस तरह अनेकान्त दृष्टि से पौरुषेयता-अपौरुषेयता का विवेचन किया जाय तो चाहे जैन आगम हो, चाहे वेद हो - कहीं किसी भी तरह की मुठभेड को अवकाश नहीं मिलता और सुचारु समन्वय हो सकता है। स्याद्वादो विजयतेतराम् । -x
SR No.520573
Book TitleAnusandhan 2017 07 SrNo 72
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages142
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size9 MB
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