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जून - २०१७
चीटीयई संतोष पर्वत पाडिउ, जीव तृष्णातुर थकउ संसार मांहि महत्व गमावइ.
सुरतरु साखइं काग बइठउ, विषधर गरुड विदा[इ] कस्तूरी परणालइ वाही, लसण भरिउ भंडारइं... चतुर० ३
जिनशासन रूप कल्पवृक्षई कुगुरु, काग बइठउ. क्रोध ज्ञाननई नसाडइं. समतारूप कस्तूरी गमावी नई असत्य वचननउ [ल्हसणनउ] संचय करइ. ए जीवनडे स्वभाव जाणिवलं.
अंब-आक फल इक तरु लागा, हंस-काग इक मालइ; मींढइ नाहर लातइं मारित्रं, अचरिज इणि कलिकालइं... चतुर० ४
ए शरीर केडई सुखदुख दोनूं फल लागा वहइ छइ. ए जीवनइं पुण्य पाप बे साथिई छई. अभिमान रूप मीढइ विवेक नाहर पग[गि] ठेलिओ. अति मानथी विवेक जाइ ए वात जाणिवी.'
माछरकइ मुखि मइगल मायउ, राजा घरिघरि हीडइ; एक थंभ पांचइ गज बांध्या, राणी होइ कण खांडइ... चतुर० ५
मिथ्यात्व रूप माछरइ सम्यक् रूप हाथी गलियो जाणिवउ ए वात जाणिवी. जीवराजा नवीनवी योनि मांहि भमइ, एक शरीरइ पंचई इंद्री लागा वहइ छइ, अविरतिराणी व्रतनी खंडना करइ.
आठ नारि मिलि एक सुत जायउ, बेटइ बाप बढायउ, चोर वसिउ मंदिर महिं आई, घरथी साह कढायउ... चतुर० ६
आठ कर्मकी प्रसूतिइं संसार रूपी पुत्र प्रगट कीधउ छइ. कपट बेटइ मोह पिता वधायउं. विषय चोर काया मंदिर मांहि वसिउ, साहस रूपी साह घटमांहिथी कढायउ.
एक आगि सगलइ जल पीवइ, वेस्या धूंघट काढइ, कुलवंती कुल लाज तिजी करि, घरि घरि बारइ हींढइ... चतुर०७
लोभ रूप आगि सगली वस्तुनई सोषइ छइ. माया वेस्या मिष्ट वचन रूप चूंघट करइं, कपटी मीठी बोलइ. सर्वविरति रूप सती कुलवंती स्त्री आपणी लाज छांडी अने असंयम विकारइं प्रवर्तइ.