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________________ विज्ञप्तिका (अपूर्णा) - सं. मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय देवेन्द्रसेवित... थी शरु थता वसन्ततिलका छन्दना एक ज श्लोकना विविध अर्थो द्वारा प्रभुनी विज्ञप्तिस्वरूप आ रचना छे. कर्ताए ए एक ज श्लोकना विभिन्न पदच्छेदो-अर्थो दर्शावीने सामान्य जिन अने वर्तमान चोवीशीना २४ जिन एम कुल २५ जिननी एक साथे स्तुति करी छे. कर्ता दरेक जिननुं नाम जे रीते श्लोकमांथी काढी आपे छे ते खरेखर रसप्रद छे. स्तुतिगत विशेषणोना अर्थो पण नवा नवा नीकळता ज रहे छे. समग्रपणे जोतां कृति आपणा मन पर कर्ताना वैदुष्यनी छाप अङ्कित करी आपे तेवी सक्षम छे. कृतिना कर्ता, रचनासमय व. बाबतो पुष्पिकाना अभावे जाणी शकाई नथी. श्रीशीतलनाथनी स्तुति सुधीना कुल ११ अर्थो जेटली ज कृति (हस्तप्रतनां ४ पानां) उपलब्ध थई छे. हस्तप्रतनी वाचना घणी ज अशुद्ध छे. ___ हस्तप्रत श्रीवीरसूरीश्वरजी ज्ञानमन्दिरनी छे. जेनी Xerox सुश्रावक श्रीबाबुलाल सरेमल शाह - साबरमतीना सहयोगथी प्राप्त थई छे. देवेन्द्रसेवित! विपापयुगाऽदिनाथ!, विश्वारिभीरणभरैरपराजित! स्तात् । नेतः! श्रियां परपदाश्रय! शं भवान् मे, श्रीवीतराग! शमितान्तिनिवारकाख्य! ॥ विज्ञप्तिकायामत्र ॐ नत्वा इति पूर्वं व्यावर्ण्यते । तत्र प्रथममिष्टदैवर्ते(देवतायै) नमस्कृतिरूपः अनन्तसङ्ख्यात्मकसर्वसाधारणश्रीजिनस्तुतिविशेषो खते(लिख्यते) यथा - हे देवेन्द्रसेवित!, दीव्यन्ति- क्रीडन्ति अप्सरोभिः सह [इति] देवाः चतुर्विधाः, तेषामिन्द्राः- स्वामिनो महदैश्वर्यधराश्चतुःषष्टिसङ्ख्या वासवास्तैः, अथवा देवाश्च इन्द्राश्च देवेन्द्रास्तैः सेवित! । हे विपापयुग!, विगतं पापस्य युगं यस्माद् भवतः स विपा०, तस्य सम्बोधनम् । हे अदिनाथ!, दं- कलत्रं विद्यते येषां
SR No.520573
Book TitleAnusandhan 2017 07 SrNo 72
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages142
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size9 MB
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