________________
जून - २०१७
१११
नागराजराव् इसके लेखक हैं । संस्कृत भाषा में लिखित इस पुस्तिका में महर्षि अष्टावक्र की जीवनी का रम्य चित्रण हुआ है । इस पुस्तिका के पृष्ठ ४८४९ पर अष्टावक्र के पिता ऋषि कहोड और महाराज जनक के आस्थानपण्डित बन्दी के बीच हुई शास्त्रचर्चा का सरल सड्क्षेप प्रस्तुत किया गया है, जिसका प्रमख विषय है - वेदों की पौरुषेयता-अपौरुषेयता । कहोड ऋषि वेद की अपौरुषेयता के पक्षधर हैं, जबकि बन्दिपण्डित पौरुषेयता के समर्थक हैं । विद्यार्थीओं के लिए उस चर्चा को उपयोगी समझकर उसका सरल भावानुवाद यहाँ प्रस्तुत है -
कहोड - वेद अनादि हैं । वे जगत्कर्ता के निःश्वासरूप हैं । उनका आधार लेकर ही जगत् का निर्माण हुआ है । फलतः जगत् के पूर्व ही वेद स्थित थे ऐसा समझना चाहिए । प्रलय के बाद भी वे अवस्थित रहेंगे । उन्हीं वेदों का पुनः पाठ होगा । विष्णु उन्हीं वेदों का उपदेश ब्रह्मा को देंगे । बाद में ब्रह्मा जगत् का सर्जन करेंगे । उससे गुरु-शिष्य परम्परा चलेगी । तात्पर्य यह निकला कि वेद मानवकृत नहीं हैं । अतः वे अपौरुषेय हैं ।
बन्दी - बोध उत्पन्न करनेवाले पदों का समूह ही वाक्य होता है और वेद ऐसे वाक्यों का समुदाय ही है । अपने अभिप्राय को प्रकट करने के लिए लोक में वाक्यप्रयोग होता है यह प्रत्यक्षसिद्ध है । वर्तमान में जैसे हम अर्थबोधक वाक्यों का प्रयोग करते हैं । वैसे ही भूतकाल में पूर्वजों के द्वारा प्रयुक्त वाक्यों का समूह ही वेद हैं । 'वेद जगत्कर्ता के निःश्वासरूप हैं' इत्यादि जो कहा जाता है वह श्रद्धा उत्पन्न करने के लिए किया गया अर्थवादमात्र है। वास्तव में जो जो वाक्य होता है, वह पुरुषरचित ही होता है ऐसी व्याप्ति है । इसलिए वेद पौरुषेय हैं इस बात में कोई संशय नहीं रहता ।
कहोड - लोग खुद को जिसका अनुभव होता है उसकी ही बात करते हैं, उसी विषयों में अपने अभिप्राय को व्यक्त करने हेतु वाक्य बनाते हैं । अब वेद में ऐसे कितने ही विषय प्रतिपादित हैं, जिनका ज्ञान मनुष्य कभी भी नहीं कर सकता । धर्म और उसके उपायभूत यज्ञादि सब अलौकिक हैं । एक मनुष्य सिवा आगम के, केवल प्रत्यक्ष या अनुमिति से उसे कैसे