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________________ १०४ अनुसन्धान-७२ उत्तरपक्ष - यह सब आप जो कह रहे हैं उससे तो यही प्रतीत होता है कि वेद में जो दोषाभाव आप मान रहे हैं वह वक्ता के अभाव की वजह से ही है, उसका अन्य कोई विकल्प ही नहीं ऐसा सिद्ध करने की आपने ठान ली है। मगर जरा यह तो सोचिए कि वेद में जिन प्रामाण्यपोषक गुणों का आप स्वीकार कर रहे हैं वे वहाँ कहाँ से आए ? । यदि वक्ता के अभाव में निराश्रय ऐसे दोषों का असद्भाव वेद में हो जाता है, तो उसी वजह से निराश्रय ऐसे गुणों का सद्भाव वहाँ क्यों बना रहता है ? । दोषों का उद्भव वक्ता के अधीन है, और गुणों का सद्भाव तो स्वयंस्फूर्त है यह तो दोमुही बात हुई ना ? । वास्तव में वेदों में जो प्रामाण्य के जनक गुण हैं वे ही प्रामाण्य के अपवादक दोषों का निराकरण करते हैं और वे गुण वक्ता के अधीन ही हैं । गुणवान् वक्ता के द्वारा रचे जाने के कारण ही किसी कृति में गुणसम्पन्नता एवं तज्जन्य निर्दुष्टता आती है। वेदों का कोई रचयिता ही यदि नहीं होगा, तब तो वेद में न तो दोष रहेंगे, न ही गुण रहेंगे । वेद प्रमाअप्रमा दोनों कोटि से विनिर्मुक्त एक विलक्षण कृति ही बना रहेगा । तब उसे सर्वोपरि प्रमाण के रूप में स्वीकार करना तो एक मजाक ही गिनी जाएगी। मीमांसक - आपकी बात से तो यह सिद्ध होता है कि वेदों में प्रामाण्य का जनक जो दोषाभाव है, वह तत्रस्थ गुणों की वजह से है, और वे गुण गुणवान् वक्ता के द्वारा रचे जाने के कारण ही हो सकते हैं । अतः वेद को पुरुषजन्य कृति ही समझना चाहिए । पर हमारी सोच में आप जिन गुणों की बात कर रहे हैं, वे गुण दोषाभाव का ही नामान्तर है, कोई अलग चीज नहीं । जैसे कि 'यथार्थ-प्ररूपकत्व' नामक गुण को लें, तो यह 'अयथार्थप्ररूपकत्व' नामक दोष का अभाव ही है, और क्या है ? । और जब 'गुण' नाम से जिसकी पहचान हो सके ऐसी कोई चीज ही नहीं है, तो उसकी उत्पत्तिहेतु गुणवान् पुरुष की खोज में निकलना कहा तक उचित गिना जाएगा? । हाँ, वेदों में जो निर्दुष्टता है, उसकी वजह जरूर सोचनी चाहिए ।
SR No.520573
Book TitleAnusandhan 2017 07 SrNo 72
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages142
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size9 MB
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