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विसुद्धिमग्गो
विशेष कार्य विहिंसा का प्रतिघात करना है। मुदिता भावना का विशेष कार्य अरति (अप्रीति) का नाश करना है और उपेक्षा भावना का विशेष कार्य राग का प्रतिघात करना है।
प्रत्येक भावना के दो शत्रु हैं-१. समीपवर्ती, २. दूरवर्ती । मैत्री भावना का समीपवर्ती शत्रु राग है। राग की मैत्री से समानता है। व्यापाद उसका दूरवर्ती शत्रु है। दोनों एक दूसरे के प्रतिकूल हैं। दोनों एक साथ नहीं रह सकते। व्यापाद का नाश करके ही मैत्री की प्रवृत्ति होती है। करुणा भावना के समीपवर्ती शत्रु शोक, दौर्मनस्य हैं। जिन जीवों की भोगादि विपत्ति देखकर चित्त करुणा से आई हो जाता है, उन्हीं के विषय में तन्निमित्तक शोक भी उत्पन्न हो सकता है। यह शोक, दौर्मनस्य पृथग्जनोचित है। जो संसारी पुरुष हैं वे इष्ट, प्रिय, मनोरम और कमनीय रूप की अप्राप्ति से और प्राप्त सम्पत्ति के नाश से उद्विग्न और शोकाकुल हो जाते हैं। जिस प्रकार दुःख के दर्शन से करुणा उत्पन्न होती है उसी प्रकार शोक भी उत्पन्न होता है। शोक करुणा भावना का आसन शत्रु है, विहिंसा दूरवर्ती शत्रु है। दोनों से इस भावना की रक्षा करनी चाहिये।
__पृथग्जनोचित सौमनस्य मुदिता भावना का समीपवर्ती शत्रु है। जिन जीवों की भोग-सम्पत्ति देखकर मुदिता की प्रवृत्ति होती है उन्हीं के विषय में तन्निमित्त पृथग्जनोचित सौमनस्य भी उत्पन्न हो सकता है। वह इष्ट, प्रिय, मनोरम और कमनीय रूपों के लाभ से संसारी पुरुष की तरह प्रसन्न हो जाता है। जिस प्रकार सम्पत्ति-दर्शन से मुदिता की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार पृथग्जनोचित सौमनस्य भी उत्पन्न होता है। यह सौमनस्य मुदिता का आसन शत्रु है। अरति, अप्रीति दूरवर्ती शत्रु हैं। दोनों से इस भावना को सुरक्षित रखना चाहिये।
अज्ञान-सम्मोहप्रवर्तित उपेक्षा उपेक्षाभावना की आसन्न शत्रु है। मूढ और अज्ञ पुरुष, जिसने क्लेशों को नहीं जीता, जिसने सब क्लेशों के मूलभूत सम्मोह के दोष को नहीं जाना और जिसने शास्त्र का मनन नहीं किया, वह रूपों को देखकर उपेक्षाभाव प्रदर्शित कर सकता है, पर इस सम्मोहपूर्वक उपेक्षा द्वारा क्लेशों का अतिक्रमण नहीं कर सकता। जिस प्रकार उपेक्षाभावना गुण एवं दोष का विचार न कर केवल उदासीन वृत्ति का अवलम्बन करती है, उसी प्रकार अज्ञानोपेक्षा जीवों के गुण दोष का विचार न कर केवल उपेक्षावश प्रवृत्त होती है। यही दोनों की समानता है। इसलिये यह अज्ञानोपेक्षा उपेक्षाभावना का आसन्न शत्रु है। यह अज्ञानोपेक्षा पृथग्जनोचित है। राग और द्वेष इस भावना के दूरवर्ती शत्रु हैं। दोनों से इस भावना-चित्त की रक्षा करनी चाहिये।
सब कुशल कर्म इच्छामूलक हैं। इसलिये चारों ब्रह्मविहारों के आदि में इच्छा है, नीवरण (=योग के अन्तराय) आदि क्लेशों का परित्याग मध्य में है, और अर्पणा समाधि पर्यवसान में है। एक जीव या अनेक प्रज्ञप्ति रूप में इन भावनाओं के आलम्बन हैं। आलम्बन की वृद्धि क्रमशः होती है। पहले एक आवास के जीवों के प्रति भावना की जाती है। अनुक्रम से आलम्बन की वृद्धि कर एक ग्राम, एक जनपद, एक राज्य, एक दिशा, एक चक्रवाल के जीवों के प्रति भावना होती है।
सब क्लेश द्वेष, मोह, राग पाक्षिक हैं। इनसे चित्त को विशुद्ध करने के लिये ये चार ब्रह्मविहार उत्तम उपाय हैं। जीवों के प्रति कुशल चित्त की चार ही वृत्तियाँ हैं-१. दूसरों का हितसाधन करना, २. उनके दुःख का अपनयन करना, ३. उनकी सम्पन्न अवस्था देखकर प्रसन्न होना और ५. सब प्राणियों के प्रति पक्षपातरहित और समदर्शी होना। इसीलिये ब्रह्मविहारों की संख्या चार है। जो साधक इन चारों की भावना चाहता है उसे पहले मैत्री भावना द्वारा जीवों का हित करना चाहिये। तदनन्तर दुःख से अभिभूत जीवों की प्रार्थना सुनकर करुणाभावना द्वारा उनके दुःख का अपनयन करना चाहिये।