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....यज्ञों के नाम पर हिंसा यजुर्नेद में बीज रूप में थी, परन्तु शतपथ आदि ब्राह्मण ग्रंथों में और श्रोत सूत्रों में इसने फैलकर बड़े वृक्ष का रूप धारण कर लिया। आश्वलायन श्रोत सूत्र के द्वितीय अध्याय में कोई तीस से अधिक याज्ञिक पशुओं का वर्णन मिलता है । डॉ० प्रसन्न कुमार आचार्य लिखते हैं-- "पाक यज्ञों में मांस की भी अग्नि में आहुति की जाती है ... .. .. श्रावणी में साँपों को जो उस समय अधिक दिखाई पड़ते हैं अग्नि में होम किया जाता है ........ सुलगावा या ईशान बलि में ईशान (शिव) को गौ-मांस और पका हुआ चावल दिया है...""हविर्यज्ञ में माँस मिश्रित हवि अग्नि को दी जाती है .."चातुर्मास्य यज्ञ पशु और सोम यज्ञों जैसा भी होता है जब उसमें माँस और सुरा की आहुतियाँ दी जाती हैं..."पशुबंध यज्ञ में देवताओं को विशेषकर माँस की आहुति देते हैं..."सौत्रामणिक यज्ञ के सोम स्वरूप में अधिक से अधिक पाँच पशुओं की बलि दी जाती है । आगे लिखते हैं-पंच महायज्ञों के देव यज्ञ का यह यज्ञ विकसित रूप है। इसके सात साधारण भेद हैं... १. अग्निष्टोम–दो पशुओं की बलि दी जाती है । २ अत्यग्निष्टोमतीन पशुओं की बलि। ३. उक्थय–दो पशुओं की बलि । ४. षोडशिनतीन पशुओं का बलिदान । ५. वाजपेय-सत्रह पशुओं का बलिदान । ६. अतिरात्र यज्ञ-चार पशुओं की बलि जिनमें चौथा पशु भेड़ होता है । ७. आप्तोर्याम यज्ञ-चार पशुओं को बलि ।१ ।
अनेक स्वच्छन्दचारी, स्वकपोल कल्पित पंथ चलाने वाले स्वकपोल कल्पित अर्थ बना कर वैदिकी हिंसा छिपाने के लिये मनमानी कल्पना करके मूर्ख जनों को भ्रम की अंधकूप में डालते हैं उनका कहना है कि इस जगत में वेदोक्त हिंसा नियत की गई है उसको अहिंसा ही जानना चाहिये क्योंकि वेद से ही धर्म की उत्पत्ति हुई है । वेदों में हिंसा का उपदेश है ही नहीं जो कुछ है सब ब्रह्म रूपी है । जब एक ही ब्रह्म हुआ तब कौन किसको मारता है ? १. भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता-डॉ प्रसन्न कुमार आचार्य पृ० ५६-६१
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