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( १० ) यज्ञ में यह विधि उत्तम नहीं है, तूने पशुओं को मारने का यह अधर्म प्रारम्भ किया है । इस हिंसा रूपी यज्ञ से धर्म नहीं होता है, यदि तुम उत्तम कर्म चाहते हो तो शास्रों के अनुसार धर्म करो। हे इन्द्र तूने त्रिवर्ग की नाश करने वाली महादुर्व्यसन रूप हिंसा सम्बन्धि विधियाँ करके अपने यज्ञ को रचा है । लेकिन ऋषियों से शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद भी इन्द्र ने अपने अभिमान में उनके वचनों को स्वीकार नहीं किया। उस समय ऋषियों का और इन्द्र का बड़ा भारी विवाद हुआ कि यह यज्ञ पशुओं से होना चाहिये अथवा स्थावर वस्तुओं के शाकल्यादिकों से ? तब बड़े-बड़े ऋषि उस विवाद से दुःखी होकर आकाश में विचारने वाले वसु राजा' को इन्द्र के समान ही जानकर उससे यह पूछने लगे कि हे महाप्राज्ञ ! यदि तुमने यज्ञ की विधि देखी है तो हमारे संदेह को दूर करो। ___सूतजी कहते हैं कि वह वसु राजा ऋषियों के वचन सुनकर उचितअनुचित का न विचार कर वेद शास्र को स्मरण कर यज्ञ के तत्व को कहने लगा कि शास्र में यज्ञ के योग्य उत्तम पशुओं करके अथवा मूल, फल आदि को करके यथार्थ विधि से यज्ञ करना चाहिये । यज्ञ का स्वभाव ही हिंसा है, इसी से वेद में हिंसको चिन्ह वाले मंत्र कहे हैं । यह मैंने तत्वज्ञ ऋषियों के ही प्रमाण से कहा है इसको आप क्षमा कीजिये, हे द्विजोत्तम लोगों। यदि तुम अपने ही वचन और मंत्रों को मुख्य मानते हो तो, अन्यथा ही यज्ञ करो, मेरे वचनों को सत्य मत मानो। इस प्रकार का जवाब मिलने पर ऋषि अपनी आत्मा को तपोवृद्धि करके युक्त कर और अवश्यम्भावो को देखकर उस वसु को नीचे जाने का शाप दिया तब वह वसु राजा पाताल लोक में चला गया। ऋषियों के शाप से ऊपर के लोकों का विचरने वाला होकर नीचे के लोकों को प्राप्त हो गया । इसलिये अकेले बहुत जानने वाले पुरुष को भी बहुत सी धारणा वाले धर्म का खण्डन करना योग्य नहीं है क्योंकि धर्म की बहुत सूक्ष्म गति है ऋषि लोग यज्ञ में कभी हिंसा नहीं करते करोड़ों ऋषि तपस्या के प्रभाव से ही स्वर्ग में गये हैं इसीलिये बड़े महात्मा ऋषि हिंसा धर्म की प्रशंसा नहीं करते।
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