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( ८९ )
" दूसरे प्राणियों को आत्मतुल्य देख ।
अतः किसी भी प्राणी को हिंसा न कर, न दूसरे से करा ।" १
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" हे पुरुष ! जिसे तू मारने की इच्छा करता, विचार कर वह भी तेरे जैसा ही सुख-दुख का अनुभव करने वाला प्राणी है; जिस पर हुकूमत करने की इच्छा करता है, विचार कर वह भी तेरे जैसा ही प्राणी है । जिसे अपने वश में रखने की इच्छा करता है, विचार कर वह भी तेरे जैसा ही प्राणी है । जिसे अपने वश में रखने की इच्छा करता है, विचार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है, जिसके प्राण लेने की इच्छा करता है, विचार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है ।"२
"आत्मा में अर्थात् मन में सर्व प्रकार से सब सुख - दुख आदि रहते हैं, और हर एक जीव को अपने प्राण अत्यन्त प्रिय है, ऐसा जानकर किसी भी प्राणी के प्राणों का घात न करे तथा भय और वैर से सदा उपरत रहे ।" ३
"सब जीव जीना चाहते हैं, कोई भी मरना नहीं चाहता अतएव निर्ग्रन्थ मुनि भयंकर प्राणि- वध का परित्याग करते हैं ।" ४
"अपने लिये अथवा दूसरों के लिये क्रोध से अथवा भय से, दूसरे को पीड़ा पहुँचाने वाला असत्य वचन न स्वयं बोलना चाहिये और न दूसरों से बुलवाना चाहिये । ५
हेमचन्द्राचार्य ने योगशास्त्र में कहा है- "जिस प्रकार अपने को सुख प्रिय और दुख अप्रिय लगता है, उसी प्रकार दूसरे प्राणियों को भी लगता है ।
१. आचारांग के सूक्त, शीतोष्णीय - सूत्र ४२ वही, लोकासार—सूत्र ५९
२.
३ उत्तराध्ययन–अध्याय ६, श्लोक ७
४. दशवैकालिक - अध्याय ६, श्लोक ११
५.
वही
- अध्याय ६, श्लोक १२
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