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द्रव्य हिंसा भी हो और भाव हिंसा भी :
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जहाँ इस प्रकार की दोहरी हिंसा हो, वह हिंसा का तीसरा विकल्प कहलाता है । हृदय में मारने का भाव पैदा हुआ और मार भी दिया, 1 प्रकार की दोहरी हिंसा का फल भी भाव - - हिंसा के समान जीवन को बर्बाद करने वाला होता है। नाथूराम गोडसे के मन में गाँधीजी की हत्या का विचार आया और हत्या कर भी दी, इस प्रकार की हिंसा दोहरी हिंसा कहलायेगी । यहाँ एक बात और स्मरणीय है कि हत्या करके द्वव्य-हिंसा का दोषी तो एक ही बार बना लेकिन मन में जितनी बार हत्या का विचार आया भाव - हिंसा के कारण पंचेन्द्रिय जीव वध के दोष का भागी उतनी ही बार हुआ ।
न द्रव्य हिंसा हो और न भाव हिंसा :
यह हिंसा की चौथी अवस्था होती है जिसमें न द्रव्य - हिंसा होती है तथा नही भाव - हिंसा । यह अवस्था हिंसा का दृष्टि से शून्य भंग है । ऐसी परिपूर्ण अहिंसा मुक्तावस्था में होती है। यह सर्वोच्च आदर्श स्थिति है।
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प्राय: जैन धर्म को अहिंसा पर जो आक्षेप किये जाते हैं वह ऊपर वर्णित हिंसा के भेद समझ लेने पर निराधार सिद्ध होते है ।
जैन शास्त्रों में वर्णित अहिंसा के कतिपय सूत्र :
"सर्व प्राणियों को आयु प्रिय है ।
सुख सबको साताकारी - अनुकूल है और दुख सबको प्रतिकूल । वध सबको अप्रिय है और जीवन सबको प्रिय ।
सर्व प्राणी जीने की कामना करते हैं ।
सबको जीवन प्रिय है ।
अतः किसी प्राणी की हिंसा मत करो । १
१. आचारांग के सूक्त, लोकविजय – सूत्र ३७
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