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प्रवृत्ति में कठोर वाक्यों का भी प्रयोग करें तो उसे हम हिंसा की श्र ेणी में स्थान नहीं देंगे, बशर्ते कि दण्ड देने वाला शत्रु का हृदय रखकर दण्ड न दे ऐसे अनेकों प्रसंग हैं । जब जैन-धर्मं निग्रह में हिंसा नहीं मानता ।
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रावण सीता का अपहरण करता है, उसके सतीत्व को भंग करने की तैयारी हो रही है । राम द्वारा समझौते के सारे प्रयास विफल हो जाते हैं । ऐसी स्थिति में राम के सामने प्रश्न खड़ा होता है कि यदि युद्ध करता हूँ तो एक तरफ युद्ध में होने वाली घोर हिंसा है और दूसरी ओर मात्र सीता की रक्षा का प्रश्न है । ऐसी समस्या का समाधान यदि जैन-धर्म से पूछा जाये तो वह यही कहेगा कि तुम सीता को बचाने जा रहे हो तो वहाँ एक सीता का नहीं बल्कि हजारों सीताओं का प्रश्न है । अन्याय, अत्याचार, बलात्कार का प्रतीकार करना ही चाहिए। राम का उद्देश्य युद्ध करना नहीं, केवल सीता को प्राप्त करना है । वे तो कहते हैं- मुझे कुछ नहीं चाहिए। न पृथ्वी, न सुन्दर ललनाएँ और न ही तेरी सोने की लंका का एक माशा भी सोना; मुझे तो मेरी सीता लौटा दे । राम का लक्ष्य पूर्ण न होने पर ही युद्ध का श्रीगणेश होता है। राम अपना कर्त्तव्य पालन करते हैं तो जैन-धर्म कर्त्तव्य से, युद्ध से राम को नहीं रोकना । अहिंसावादी जैन-धर्म अत्याचारी को न्यायोचित दण्ड देने का अधिकार गृहस्थ को देता है ।
वास्तव में जैन धर्म की "अहिंसा" पर जो भद्दी छींटाकशी की जाती है वह उसके सही स्वरूप को न समझने के कारण ही है । अब देखिए कृष्ण को युद्ध का देवता माना जाता है कि कृष्ण के बिगुल बजाते ही महाभारत प्रारम्भ हो गया जबकि हम तो कृष्ण के मार्ग को जैन-धर्म का ही आंशिक रूप मानेंगे। महाभारत शुरू होने से पहले कृष्ण स्वयं शांतिदूत बनकर दुर्योधन की सभा में पहुँचते हैं और देखिये झोली फैलाकर क्या माँगते हैं
"मैं खून का दरिया नहीं बहाना चाहता । खून का दरिया बहाते हुए जो नजारा दिखा देता है वह मैं नहीं देखना चाहता। मैं नहीं चाहता कि नौजवानों की ताकत खत्म हो जाये, बड़े बूढ़ों की इज्जत खत्म हो जाये और
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