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पुस्तक लेखिका ने विषय-विवेचन में वैज्ञानिक पद्धति अपनाई है । अपने निष्कर्षो की पुष्टि में लेखिका ने जहाँ जैन साहित्य से प्रमाण दिये हैं वहाँ सुप्रसिद्ध इतिहासकारों और गीता, महाभारत, मनुस्मृति, पुराण आदि ग्रन्थों के उद्धरण भी दिये हैं । अनेक ग्रन्थों के पृष्ठों और मुगलों के फरमानों की फोटो कॉपियां भी दी गई हैं । ग्रन्थ में दस परिशिष्ट दिए गए हैं जिनमें पत्रों, फरमानों, शिलालेखों आदि को संकलित किया गया है। इनमें एक पत्र महाराणा प्रताप का भी है ।
नई दुनिया, इन्दौर ५-९-१९९१
८. "इतिहास द्दष्टि से पोषित एक सार्थक शोध कृति " भारतीय धर्म एवं संस्कृति ने सदैव विश्व-मानवता के कल्याण कामना को सर्वोपरि महत्व प्रदान किया है "बसुधैव कुटुम्बकम्" के उद्गाता और "सर्वे भवन्तु सुखिन: ' के सार्थवाह इस देश ने हमेशा व्यष्टि को नहीं समष्टि At at अपने चिन्तन का आधार माना है । यही कारण है कि चाहे एशिया मूल के हों या योरोप के जो भी धर्म भारतीय धर्मों की संस्कृति के सम्पर्क में आये वे प्रभाबित हुए बिना नहीं रहे हैं ।
" मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति पर जैन सन्तों का प्रभाव" कृति भी इस सत्य को संवाहिका है। शोध परक यह कृति सुश्री नीना जैन की है, जिसे शिवपुरी के आचार्य श्री विजयेन्द्र सूरि शोध संस्थान मै प्रकाशित किया है । दो सौ पृष्ठों की इस कृति में न केवल मुगल बादशाहों द्वारा जैन साधुओं को दिये गये फरमानों की फोटो कापिज है, वरन् तत्कालीन हिन्दु राजामहाराजाओं और मेवाड़ के राणा के पत्र के दुर्लभ चित्र भी संकलित हैं । इसी प्रकार शिलालेखों स्त्रोतों के चित्र भी दिये गये हैं । श्रमण शब्द का विवरण भी शोध - शैली में रोचक एवं जानकारी वर्द्धक है। मुगल सम्राटों धार्मिक नीति पर जैन सन्तों- आचार्यों-मुनियों के प्रभाव का यह समाकलन सन् १५५५ से १६५८ की सौ वर्षों से अधिक की कालावधि को सात अध्यायों में समेटे हुये हैं ।
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