Book Title: Vibhinna Dharm Shastro me Ahimsa ka Swarup
Author(s): Nina Jain
Publisher: Kashiram Saraf Shivpuri
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “विभिन्न धर्म-शास्त्रों में अहिंसा का स्वरूप” लेखिका :डॉ. (क.) नीना जैन -एम.ए., पी. एच. डी. व्याख्याता, व्ही.टी.पी. उ.मा.वि. शिवपुरी (म.प्र.) Jainmaniaantaramianemanianrn ICELANDIC WWGENDER Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “विभिन्न धर्म-शास्त्रों में अहिंसा का स्वरूप" -: लेखिका :डॉ. (कु.) नीना जैन एम. ए. पी. एच. डी. व्याख्याता. व्ही.टी.पी. उ.मा.वि. शिवपुरी (म.प्र.) -: प्रकाशक :श्री काशीनाथ सराक आचार्य श्री विजयेन्द्रसूरि शोध संस्थान शिवपुरी (म. प्र.) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक - श्री काशीनाथ सराक पता - श्री विजयधर्म सूरि समाधी मंदिर, शिवपुरी ( म०प्र०) संस्करण - प्रथम वर्ष - विक्रम सम्वत् 2051, वीर सम्वत् 2520, आत्म सम्वत् 99, वल्लभ सम्वत् 41, समुद्र सम्वत् 18, सन् 1995 © लेखिका 0 ufa-1000 आर्थिक सौजन्य-पू. आचार्य श्री विजय नित्यानन्द सूरिजी महाराज के सदुपदेश से मूल्य - 50 /- रुपये मात्र मुद्रक - नेहा प्रिन्टर्स, पाटनकर बाजार, 325271 लश्कर ग्वालियर Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा नावाची है जगत में नाम ये रोशन सदा तेरा गुरू। तारते उसको सदा जो ले शरण तेरा गुरू ।। 580003 28888888888888888888888 8888 03 23. 100000000 853800:09 शास्त्र विशारद जैनाचार्य श्रीमद् विजय धर्मसूरिजी प्राजकीfe शाजा ofsise Bाकी Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास तत्व महोदीथ जैनाचार्य श्री विजयेन्द्रसूरिजी महाराज की एण्य स्मति में प्रकाशित जन्म सम्वत् पौष शुक्ल ११ स्व. बैशाख वदी५ २०२३ (सन् १८८०) (सन् १६६६) १६३७ 3030888 S 989 303886283838 38868800388 2089 3888888888888 838086284886033933 500000068680888 888 8698 Jain Educa इतिहास तत्व महोदी आचार्य श्री विजयेन्द्रसूरिजी ainelib, Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पू. आचार्य श्री विजय नित्यानन्द सूरिजी एवं उनके प्रधान शिष्य मुनि श्री चिदानन्द विजय जी (भाई महाराज ) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्म, वल्लभ, समुद्र, इन्द्र सद् गुरुम्योनमः स्व. श्रीमती काश्मीरावन्ती जैन Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण परम पूजनीय माँ के कर कमलों में सादर समर्पित O - कु. नीना जैन Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय वक्तव्य प्रस्तुत पुस्तक शोध संस्थान का द्वितीय प्रकाशन है। यह पुस्तक भारतीय संस्कृति की दृष्टि से लिखवाकर प्रकाशित की जा रही है। पस्तक प्रकाशित करने का विशेष प्रयोजन वर्तमान परिस्थितियां हैं, क्योंकि इस समय जन-साधारण के साथ-साथ शासक वर्ग का रुझान भी अहिंसा वत्ति की ओर से हटता जा रहा है। जगह-जगह कत्लखाने खुलते जा रहे हैं, उसके लिये दलील यह दी जाती है कि अनुपयोगी पशुओं के लिये चरागाह की समस्या पैदा होगी। यदि इस विचारधारा को सही मान लिया जाये तो जो नवयुवक वृद्ध मां-बाप को अनुपयोगी समझकर घर से निष्कासित कर देते हैं, उचित ही मानना चाहिये । इसीलिये मैं आशा करता हूँ कि सुविज्ञ पाठकों को यह पुस्तक पसन्द आयेगी। पिछले कुछ वर्षों से ही इस पुस्तकालय का सदुपयोग शोध-कर्ताओं ने किया है जिनमें सर्वप्रथम स्व. डॉ. सीतारामजी दांतरे का नाम आता है। द्वितीय, विद्वान डॉ. एम. एल. शर्मा, प्राचार्य शासकीय कन्या महाविद्यालय शिवपुरी ने किया। तत्पश्चात क्रमश: पी.एच.डी. हेतु डॉ श्यामसुन्दर शर्मा, व्याख्याता, व्ही. टी. पी. उ. मा. वि. शिवपुरी, डॉ. (कु.) नीना जैन, व्याख्याता, व्ही. टी. पी उ. मा. वि. शिवपुरी, डॉ. (कु.) मीरा जैन, ग्वालियर, श्रीमती मीना श्रीवास्तव, डिग्री कॉलेज मोहना, ने किया। मेरे पहले प्रकाशन "मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति पर जैन सन्तों (आचार्यों एवं मुनियों) का प्रभाव" पर कुछ पत्र-पत्रिकाएं तथा विद्वानों के अभिप्राय इस पस्तक के अन्त में दिये जा रहे हैं। बम्बई रहकर आचार्य श्री विजयेन्द्र सरिजी द्वारा रचित ग्रन्थों एवं पत्रों का प्रकाशन किया। आज भी देश-विदेश के विद्वानों के सैकड़ों अप्रकाशित पत्र मेरे संग्रहालय में मौजूद हैं जिनमें आचार्य श्री द्वारा लिखित तीर्थंकर महावीर का अंग्रेजी अनुवाद भी शामिल है। पुस्तक के प्रकाशन में आदरणीय श्री कमलचन्दजी गुगलिया का सहयोग मिला इस हेतु उन्हें धन्यवाद ! -काशीनाथ सराक Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन विश्व के समस्त धर्म अहिंसा सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं अहिंसा को धर्मो में जो महत्व मिला है वह यों ही नहीं मिल गया । वास्तव में अहिंसा मानव जीवन की सर्वोत्कृष्ट नीति हैं और कहना चाहिए कि वह अनिवार्य नीति भी है। अहिंसा के सहारे ही मानबजाति का अस्तित्व टिका हुआ है। प्रस्तुत पुस्तक में विभिन्न धर्म - शास्त्रों के आधार पर लेखिका कु. नीना जैन ने इसी तथ्य को सिद्ध किया है। आज के वातावरण को देखते हुए यह पुस्तक अति उपयोगी है। पुस्तक के प्रचार-प्रसार की शुभकामनाओं के साथ ही । आसोज वदीं ग्यारस जैन उपाश्रय जानीशेरी बड़ौदरा विजयेन्द्र दिन्न सूरिका धर्मलाभ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन : ___ * जयन्तु वीतरागा: * * श्री आत्म-वल्लभ-समुद्र-इन्द्रदिन्न सद्गुरूभ्यो नम: * विजय नित्यनन्द सूरि बीकानेर सत्य, करुणा, त्याग, परोपकार, नैतिकता इत्यादि कुछ ऐसे सात्विक गुण हैं । जो कि प्रत्येक धार्मिक परम्परा में आदरणीय तथा आचरणीय रहे हैं। धर्म के साश्वत आधार-ही ये सद्गुण हैं, इसीलिए सन्त समाज भी इन्हीं सद्गुणों की उपासना के उपदेश देते हैं । किन्तु सृष्टि के प्राणी मात्र को अपने साथ जोड़ने के लिए अहिंसा की प्राथमिक भूमिका रही है। अहिंसक व्यक्ति यही विचार कर हिंसा से दूर रहता है कि सेजै मुझे मारना, पीटना, ताड़ना, वध करना, कटु बोलना, अप्रिय लगता है वैसे ही प्रत्येक प्राणी को अहितकर लगता है आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् .भिन्न-भिन्न परम्पराओं और शास्त्रों में अहिंसा की परिभाषाएँ एवं स्वरूप अलग-अलग होते हुए भी उद्देश्य एक ही है तदपि जितना अहिंसा का विराद विवेचन जैन धर्म के ग्रन्थों में मिलता है उतना सम्भवतः अन्यत्र नहीं । आज जहाँ मानव अपने स्वार्थ के लिए मूक जीवों का वध कर रहा है । जहाँ आतंकवाद का कट्टर जन-जन पर बरप रहा है ऐसे युग में अहिंसा का अनिवार्यता और इसके प्रचार को अत्यन्त आवश्यकता है। ... "विभिन्न धर्मशास्त्रों में अहिसा का स्वरूप' नामक पुस्तक इसी दिशा में एक सफल प्रयास है। समस्त धर्म ग्रन्थों में अहिंसा सम्बन्धि विचारों को स्वयं में समाहित करने वाला यह धर्म ग्रन्थ एक ओर अहिंसा जैसे दुरुह विषय पर धार्मिक एकता को प्रमाणित करता है तो दूसरी ओर यह कि धर्म कभी हिंसा नहीं सिखाता । लेखिका का इस ग्रन्थ में धर्म ग्रन्थों का विशाल अध्ययन, मनन एवं चिन्तन परिलक्षित होता है । यह ग्रन्थ साहित्य की अमूल्य निधि बनेगा ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। पाठक वर्ग प्रस्तुत पुस्तक का स्वाध्याय कर अहिंसा को समझने का प्रयास करेगा एवं अपने जीवन को अहिंसात्मक बनाएगा, यही शुभभावना ! -नित्यानन्द सूरि का धर्मलाभ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका तटस्थ और तत्ववेत्ताओं का कहना है पञ्चैतानि पवित्राणि सर्वेषां धर्मचारिणाम् । अहिंसा सत्यमस्तेयं त्यागो मैथुनवर्जनम् ॥ अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, त्याग और ब्रह्मचर्यं इन पांचों को समस्त धर्म वालों ने पवित्र माना है । इसका कारण यही है कि ये पांचों मनुष्यों के स्वाभाविक धर्म है । इन स्वाभाविक धर्मों में किसी भी दर्शनकार या साम्प्रदायिक लोगों की मत भिन्नता नहीं हो सकती। किसी भी देश, धर्म, जाति अथवा सम्प्रदाय का मनुष्य यह कदापि न कहेगा कि हिंसा करने में, झूठ बोलने में, चोरी करने में, परिग्रह में और ब्रह्मचर्य नहीं पालने में धर्म है । इन पाँचों में अहिंसा हमारा विषय है, जिसकी विवेचना इस पुस्तक में की गई है। ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर विदित होता है कि जब तक इस देश पर अहिंसा प्रधान जातियों का राज्य रहा तब तक प्रजा में सुख शांति व्याप्त रही । सम्राट चन्द्रगुप्त एवं अशोक अहिंसा धर्म के प्रचारक थे । उनके काल में भारत कभी पराधीन नहीं हुआ। दक्षिण भारत के पल्लव चालुक्य वंश के प्रतापी राजा कुमारपाल अहिंसा धर्म के प्रचारक थे। इनके राज्यकाल में किसी भी विदेशी शक्ति को आक्रमण करने का साहस न हुआ । गुजरात और राजपूताने के इतिहास पर दृष्टि डालने से भली-भांति ज्ञात होता है कि इन देशों के स्वतंत्र और समुन्नत रहने के निमित्त अहिंसावादियों ने कितने बड़े-बड़े पराक्रम युक्त कार्य किये थे । गुजरात के इतिहास का वही भाग सबसे अधिक चमक रहा है जिसमें अहिंसक राजाओं व मं त्रयों के शासन का वर्णन है। गुजरात के इतिहास में दण्डनायक विमलशाह मंत्रा मुजाल, मंत्री शांतु, महामात्य उदायन और बाहद, वस्तुपाल और तेजपाल Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) आदि अहिंसकों को जो स्थान प्राप्त है वह शायद ही किसी अन्य को होगा। इतिहास डंके की चोट से इस बात को स्वीकार करता है कि भारतवर्ष के लिये अहिंसा प्रधान युग ही स्वर्ण युग रहा है। यद्यपि अनेकों विद्वानों को अव्यवहारिक और कायरता की जननी समझकर राष्ट्रनाशक बताया है। उनकी इस धारणा को केवल एक ही प्रमाण देकर निराधार सिद्ध किया जा सकता है। गांधीजी ने किस मार्ग का अनुसरण करके भारत को आजाद कराया ? इतिहास साक्षी है, एक स्वर से आवाज आयेगी-अहिंसा का मार्ग अपनाकर । असहयोग आन्दोलन चल रहा था। चौरा-चौरी नामक स्थान पर हिंसात्मक घटना सुनते ही गांधीजी ने आन्दोलन स्थिगित करने का आदेश दे दिया। फिर चाहे उन्हें मनता के साथ-साथ बड़े-बड़े नेताओं का भी विरोध क्यों न सहना पड़ा । लेकिन आन्दोलन में हिंसा उन्हें बर्दाश्त नहीं थी। अहिंसा मार्ग पर चलते हुए ही अंग्रेजों को झुक जाने को मजबूर किया और देश आजादी का परिणाम हमारे समक्ष है। .. ऐसे अहिंसा प्रधान देश में आज मांसाहार की प्रवृत्ति किस कदर अपना फन फैला रही है, यह किसी से छिपा नहीं है। हमारे यहां भगवान महावीर, राम, कृष्ण, हनुमान, एवं महादेव के मन्दिर नगर-नगर एवं गांव-गाँव में मिलेंगे। इसी प्रकार इस्लाम की मस्जिदें, ईसाइयों के गिरजाघर, बुद्ध के देवालय एवं गुरुद्वारों की कमी नहीं है। इन सभी स्थानों को पवित्र धर्म स्थान की संज्ञा दी गयी हैं । स्वधर्म सम्बन्धि श्रद्धाशील उपासक जन उनमें अगरबत्ती, धूप-दीप, श्रीफल इत्यादि पूजा का सामान लेजाकर अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। क्या कभी ऐसा भी देखा अथवा सुना गया है कि अमुक भक्त ताजे मांस का थाल सजाकर पूजा करने की भावना से किसी एक पर गया है । ऐसा क्यों नहीं। कारण यही है कि मांस-मदिरा जैसी घिनौनी चीजों को देखते ही हृदय में दुविचारों के कीड़े कुलबुलाते हैं। इसीलिये आर्य एवं अनार्य दोनों Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्परा संस्कृतियों ने अपने धार्मिक स्थानों में इन चीजों के ले जाने का निषेध किया है। जब पाषाण निर्मित मन्दिरों में मांस ले जाने का निषेध है तो मन मन्दिर का महत्व तो जगजाहिर है। विश्व के समस्त धर्म दर्शनों ने मन मन्दिर को आत्मदेव का देवालय के रूप में स्वीकार किया है । इस मन-मन्दिर में मांस जैसी घिनौनी चीजें भरकर उसे अपवित्र बनाना कहाँ की बुद्धिमत्ता है ? ....मैंने इस पुस्तक को रचना किसी पक्षपात के वशीभूत होकर नहीं की और न ही यह किसी सम्प्रदाय विशेष के लिये है। लिखने का मेरा उद्देश्य • यही है कि हमारे धर्म-शास्त्र क्या-क्या फर्माते हैं ? और हम उन अर्थों का आज कितना अनर्थ कर रहे हैं। हम अपने महापुरुषों की जयन्तियाँ तो बड़े धूम-धाम से मनाते हैं लेकिन अपने अन्तर्मन को टटोलकर देखें कि हम उनके उपदेशों का कितना अनुसरण कर रहे हैं ? क्षमा चाहूगी, छोटे मुह बड़ी बात कर रही हूँ क्योंकि मैंने जो कुछ लिखा है, स्वयं पूर्णरूपेण उसके अनुकूल नहीं हूँ। फिर भी स्वयं के साथ-साथ पाठकों से भी आशा करूंगी कि पुस्तक का मनन कर हम इसके अनुरूप चलने का प्रयत्न करें। इतिहासवेत्ता पू. आचार्य श्री. विजयेन्द्र सूरिजी महाराज का जन्म स्थान पंजाब प्रदेश के सियालकोट जिले के अन्तर्गत संखत्रा नामक कस्बे में (जो वर्तमान में पाकिस्तान में चला गया है) हुआ। उन्हीं के नाम पर यह शोध संस्थान कायम किया है। इस संस्था को पू. आचार्य शांतिदूत श्रीमद् विजय नित्यानन्द सूरीश्वरजी महाराज साहिबा का आशीर्वाद प्राप्त है, जिसका सम्बन्ध संखो से अति निकट का है क्योंकि उनकी माताजो पू. श्री अमित गुणा श्री जी का जन्म स्थान भी संखत्रा ही है। पू. आचार्य श्री जी का प्रधान शिष्य पू मुनि श्री चिदानन्द विजयजी (मेरे सांसारिक भाई) का जन्म स्थान मध्यप्रदेश का शिवपुरी नगर है, जहां यह शोध संस्थान कायम है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्था के संस्थापक श्री काशीनाथजी सराक ने मुझे पुस्तकं लिखने की प्रेरणा दी क्योंकि उनकी हार्दिक भावना है कि संस्था से समय-समय पर जनोपयोगी सामग्री प्रकाशिक होती रहे । ४ पूज्य पिता श्री खजानचीलालजी का मुझ पर पूर्ण आशीर्वाद है । यथासमय वे मुझे प्रोत्साहित करते रहते हैं मेरी आदरणीय चाचाजी श्रीमती शीलावतीजी एवं समस्त पारिवारिक जन मेरे कार्य से हार्दिक प्रसन्न है । अनन्त चतुर्दशी सम्वत् २०५७ > प्रस्तुत पुस्तक में जिन विद्वानों के साहित्य से मुझे असीम सहायता प्राप्त हुई, उनकी मैं हार्दिक आभारी हूँ । आदरणीय श्री नेमीचन्दजी जैन ( गोदवाले) के प्रति भी आभारी हूँ जिन्होंने अपने पुस्तकालय महावीर जिनालय में पुस्तकें उपलब्ध कराई । सन् १९९४ धर्म सम्वत् ७२ -नीना जैन Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र. 2. अनुक्रमणिका अध्याय 1. हिन्दू धर्मग्रंथों में अहिंसा इस्लाम धर्म में अहिंसा का स्वरूप 3. अहिंसा और सिख धर्म 4. ईसाई धर्म और अहिंसा 5. पारसी धर्म एवं अहिंसा 6. बौद्ध धर्म ग्रंथ एवं अहिंसा 7. जैन ग्रंथ एवं अहिंसा 8. उपसंहार 9. सहायक ग्रंथ सूची 10. परिशिष्ट पृष्ठ संख्या 1-47 48-54 55-57 58-61 62-00 63-80 81-132 133-148 149-153 154-164 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दू धर्म-ग्रंथों में अहिंसा मानव जाति के हृदय में दया का स्त्रोत स्वाभाविक गति से बह रहा है। चाहे कर से क्रूर मनुष्य क्यों न हो उसके हृदय में भी दया का संचार अवश्य होगा। फिर भी संसार में बहुत से मनुष्यों की प्रवृत्ति इसके विपरित देखने में आती है अर्थात् किसी को शिकार, किसी को माँसाहार, किसी को देवियों के आगे पशु वध करते हुए और किसी को यज्ञ के निमित्त जीव-हिंसा करते हुए देखा जाता है। इसका कारण क्या है ? जो शास्र जगत के समस्त प्राणियों को अपनी आत्मा के समान समझने की आज्ञा देते हैं, जो शास्र ‘मा हिंस्यात् सर्वभूतानि' का उपदेश देते हैं, क्या वे किसी भी काल में जीवों की हिंसा में धर्म बता सकते हैं ? क्या शास्रीय सिद्धान्त और युक्तियां ऐसा करने की छूट देते हैं ? इन्हीं बातों पर विचार करना इस विषय का प्रमुख लक्ष्य है। । इस विषय के प्रतिपादन में शास्रीय प्रमाणों के साथ-साथ युक्तियों का भी आश्रय लिया जायेगा क्योंकि नीतिकारों का कहना है कि केवल शास्रों का आश्रय लेकर ही किसी विषय का निर्णय नहीं किया जाना चाहिये क्योंकि युक्ति रहित विचार से धर्म की हानि होती है । ___वैदिक काल के इतिहास का अवलोकन करने पर विदित होता है कि उस काल में लोगों का धार्मिक कृत्य यज्ञ था। यज्ञ शब्द यज धातु' को 'न' प्रत्यय लगने पर बनता है और इसका अर्थ होता है-पूजा अथवा दान । यज्ञ में भोजन के पदार्थ वृक्ष के नीचे या खुले आकाश में देवताओं को अर्पित किये जाते थे। प्रारम्भ में तो यज्ञ की विधि बड़ी सादी थी। यह अनुष्ठान देवताओं १. अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् । होमो देवो बलि भौंतो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् ।। ७ ।। मनुस्मृति हिन्दी टीका पं. रामेश्वर भट्ट अध्याय ३ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) की पूजा के निमित्त किया जाता था, उसमें घृत, यव,ब्रीहि आदि से बने पुरोडाश की आहुतियाँ दी जाती थीं परन्तु जैसे-जैसे पुरोहितों को इन अनुष्ठानों से अधिकाधिक लाभ होता गया वैसे-वैसे वे अनेक बड़े-बड़े यज्ञों की सृष्टि करते गये । प्रारम्भ में प्रत्येक अधिकार प्राप्त वैदिक धर्मानुयायी ग्रहस्थ अपने धर में पाँच प्रकार के यज्ञ करते थे। "पढ़ना-पढ़ाना ब्रह्म यज्ञ है, (अन्न व जल से) तर्पण पितृयज्ञ है हवन देव यज्ञ है, बलिवैश्वदेव भूत यज्ञ है और अतिथि पूजन मनुष्य यज्ञ है।" इन पाँच यज्ञों को शास्रों में महायज्ञ के नाम से निर्दिष्ट किया गया है। भारतीय वैदिक धर्म की सभ्यता की जड़ ये ही पाँच महायज्ञ थे। लेकिन उत्तर वैदिक काल तक आते-आते कर्म-काँड का विस्तार हुआ कई प्रकार के लम्बे, खर्चीले और पेचीदे यज्ञ होने लगे जिनमें बड़ी संख्या में पशुओं का भी होम किया जाने लगा। यद्यपि उस काल के लोगों के आहार का एक विशिष्ट अंग माँस भी था जैसा कि भगवत शरण उपाध्याय लिखते हैं"भेड़-बकरी का माँस अधिकता से खाया जाता था। मांस आर्य लोग अपने देवताओं की पूजा में भी व्यवहृत करते थे । यज्ञों में देव पूजन से अवशिष्ट माँस ऋत्विज और यजमान दोनों को ही भक्ष्य था। उत्सवों में और अतिथियों के स्वागत के अवसर पर भोजन के निमित्त गाय का बछड़ा मारा जाता था। अतिथिग्व इसी कारण उसकी संज्ञा हो गयी थी। परन्तु अपनी उपादेयता के कारण शीघ्र ही गाय की संज्ञा अन्या हो गई। ऋषियों ने उसकी स्तुति में गीत गाये और उसका वध निषिद्ध हो गया।" इसी बात को डॉ राजबलि पांडेय ने भी कहा है ।२ यज्ञों में गो-बलि का विधान कब से प्रारम्भ हुआ, इस विषय पर यहाँ महात्मा बुद्ध का दृष्टांत उल्लेखनीय है बुद्ध जब श्रावस्ती के अनाथ पिंडक १. प्राचीन भारत का इतिहास-भगवत शरण उपाध्याय पृ० ३२ २. भारतीय इतिहास की भूमिका-डॉ. राजबलि पांडेय पृ० ६० Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के जेतमन बिहार में अपने शिष्यों सहित विराजमान थे तब कौशल देश के कुछ ब्राह्मण उनसे प्राचीन काल के ब्राह्मणों के आचार-विचार के बारे में पूछते हैं प्रत्युत्तर में भगवान कहते हैं कि वे ब्राह्मण यज्ञ क्रिया तो करते थे लेकिन उस यज्ञ में कभी गौ नहीं मारी जाती थी। क्षत्रियों को अति वैभवसम्पन्न देखकर ब्राह्मणों की प्रकृति बदली तो उन्होंने वेद मंत्रों की रचना करके महाराजा इक्ष्वाकु के पास जाकर उन्हें यज्ञ करने का परामर्श दिया । राजा ने अश्वमेघ, पुरुषमेघ, वाजपेय आदि यज्ञ किये और नाना प्रकार की दक्षिणा ब्राह्मणों को दी। अब ब्राह्मणों की तृष्णा और भी बढ़ी उन्होंने और बहुत से वेद-मंत्रों की रचना करके राजा के पास जाकर सब वस्तुओं को उपयोगी सम्पत्ति के साथ-साथ गाय को भी उपयोगी सम्पत्ति बताकर यज्ञ में गौ हनन के लिये कहा। कहा गया है लोभ पाप का मूल है. लोभ मिटावत मान । लोभ कबहूँ नहीं कीजिये.जा में नरक निदान । ब्राह्मणों की भी जब लोभ-वृत्ति जागी तो धर्म अधर्म का ख्याल न करके राजा को कैसा परामर्श दिया। महात्मा बुद्ध कहते हैं- "इस प्रकार ब्राह्मणों से प्रेरित होकर महाराज इक्ष्वाकु ने कई लाख गौवों का यज्ञ में घात किया। जो गौ भेड़ के समान नम्र होती है. अपने पैर, सींग या अन्य किसी अंग से दूसरे को दुःख नहीं देती, वरन् दूध के घड़े भर देती है, ऐसी परम् उपयोगी सीधी-सादी गौवों को, ब्राह्मणों के कहने के अनुसार राजा ने सींग पकड़पकड़ कर शस्रों से हनन किया। इस हृदय-विदारक लोमहर्षण दुष्कृत्य को देखकर देवता. पितर, इन्द्र, असुर, राक्षस सब चिल्ला उठे और कहने लगे कि "बढ़ा अनर्थ हो रहा है, जो ऐसे परम उपयोगी पशुओं पर शस्र चलाया जा रहा है।" इस दुष्कृत्य से पहले इस संसार में तीन ही रोग थे अर्थात्, इच्छा, भूख और वृद्धावस्था । परन्तु गौवों का हनन होने से अट्ठानवे प्रकार के रोग हो गये हैं। यह अट्ठानवे प्रकार के रोग रूप दंड का देने वाला गौ-हिंसा युक्त पाप-यज्ञ महाराज इक्ष्वाकु के समय का पुराना है, जिसमें निरपराधी गौ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) मारी जाती हैं । इसी के कारण याजक ब्राह्मण लोग धर्म से पतित हो गये । इस प्रकार यह याज्ञिक धर्म पुराना होने पर भी बुद्धिमान पुरुषों के सामने तुच्छ और गर्हित है और जहाँ धर्मज्ञ मनुष्य इन याज्ञिक ब्राह्मणों को देखते है, वहीं उनकी निन्दा करता है । यदि पंच महायज्ञों का उद्देश्य पूरा करने वाले केवल पुरोहित वर्ग ही रहे होते तो मूल वैदिक संस्कृति में जो प्रचुर परिवर्तन हुआ वह न होता, लेकिन कुछ ऋषि-मुनियों ने वेदों की मौलिकता और वैदिक संस्कृति की उतनी चिन्ता नहीं की जितनी कि अपने विचारों और उद्देश्यों की । देवताओं ने जब गौ-मेध किया और गौ-मेध अमेध्य हो गया, उसके बाद याज्ञवल्क्य के सिवाय न किसी ब्राह्मण ने गौ का यज्ञ में बलिदान दिया, न गौ-माँस ही खाया क्योंकि सभी ब्राह्मण विद्वान दीक्षित अवस्था में माँस न खाने और गौवध न करने के विषय में एकमत थे फिर भी याज्ञवल्क्य उनके साथ नहीं रहे, उन्हें अन्न और माँस में कोई अंतर नहीं दिखायी दिया। जब देवताओं ने याज्ञवल्क्य से कहा- गाय बैल अनेक प्रकार से संसार के उपयोगी प्राणी हैं हमने इनमें सभी प्राणियों की शक्ति रख दी है अतः गाय-बैल को न मारना चाहिये न खाना चाहिये तब उसने अपना वाजसनेय नामक सम्प्रदाय चलाकर यज्ञों में पशु वध करना निर्दोष माना और कहा- जो गाय और बैल माँसल होता है उसको मैं खाता हूँ । गौ अमेध्य के अतिरिक्त शतपथ ब्राह्मण में देवताओं द्वारा बलि किये हुए उत्क्रान्त मेध्य पशुओं की नामावलि दी है जो इस प्रकार है-“पहिले-पहल देवताओं ने मनुष्य को बलि दिया। जब वह बलि दिया गया तो यज्ञ का तत्व उसमें से निकल गया और उसने घोड़े में प्रवेश किया । तब उन्होंने घोड़े को बलि किया । जब घोड़े को बलि किया तो यज्ञ का तत्व उसमें से निकल गया और उसने बैल में प्रवेश किया। तब उन्होंने बैल को बलि दिया । जब बैल को बलि दिया गया तो यज्ञ का तत्व उसमें से निकल कर भेड़ी में प्रवेश १. बुद्धचर्या - ब्राह्मण धम्मिय सुत्त हिन्दी अनुवाद - राहुल सांकृत्यायन Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया । जब भेड़ी बलि दी गयी तो यज्ञ का तत्व उसमें से भी निकल गया और उसने बकरे में प्रवेश किया । तब उन्होंने बकरे को बलि दिया। जब बकरा बलि दिया तो यज्ञ का तत्व उसमें से भी निकल गया और तब उसने पृथ्वी में प्रवेश किया, तब उन्होंने उसे खोजने के लिये पृथ्वी को खोदा तो उसे चावल और यव के रूप में पाया । इसीलिये अब भी लोग इन दोनों को खोदकर पाते हैं जो मनुष्य इस कथा को जानता है उसको (चावल आदि का) हण्य देने से उतना ही फल होता जितना कि इन पशुओं के बलि करने से।"१ यद्यपि देवताओं द्वारा उपरोक्त पशु अमेध्य सूचि में आ गये थे फिर भी यदि किसी ऋषि ने परिस्थितिवश मांश खाने की अनुज्ञा दी तो भावी पीढ़ी ने तत्कालीन परिस्थिति को समझने की कोशिश न करते हुए यही तर्क उपस्थित किया कि फला ऋषि ने माँस खाने की छूट दी है । जब अगस्त्य ऋषि ने नर्मदा और विन्ध्याचल को लाँघकर वैदिक धर्म के प्राचारार्थ दक्षिणापथ में प्रवेश किया और धर्म का प्रचार शुरू किया तब उनके समक्ष अनेक कठिनाइयाँ आई क्योंकि वहाँ के मनुष्य जंगली और मांसाहारी थे, अतः भोजन की समस्या पैदा हुई । अब यदि अकेले अगस्त्य का स्वयं का ही प्रश्न होता तो वे कन्द, फल आदि खाकर भी रह सकते थे किन्तु उनके आदमियों से इस प्रकार रहना कठिन था मजबूरन उन्होंने यज्ञ में पशु वध कर उसके माँस से नौकरों का पेट भरने की व्यवस्था की । अब देखिये अगस्त्य ने तो परिस्थितिवश ऐसा किया लेकिन मनु ने इसका क्या अर्थ लिया___"ब्राह्मणों को यज्ञ के लिये और स्त्री, सेवक आदि के पालन के लिये शास्रोक्त मृगपक्षी मारने चाहिये क्योंकि पहिले अगस्त्यजी ने ऐसा ही किया था।"२ १. शतपथ ब्राह्मण -- अध्याय ८, पृ० १७८ २. यज्ञार्थ ब्राह्मणैर्वध्याः प्रशस्ता मृगपक्षिणः। भृत्यानां चैव वृत्त्यर्थमगस्त्यो ह्याचरत्पुरा ।। मनुस्मृति अध्याय ५. श्लोक २२ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य आत्माराज जी ( आनन्द विजय जी ) ने अपनी पुस्तक "अज्ञानतिमिर भास्कर" के प्रथम भाग में वेद, स्मृति, उपनिषद और पुराण आदि शास्रों में बताये यज्ञों के स्वरूप का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। वे लिखते हैं-- 'द्यावा पृथ्वी देवता के वास्ते धेनु अर्थात् गौ-वध करके यज्ञ होता है।" वायु देवता के वास्ते बछड़े का बध करना। यह इस प्रकार से गाय यज्ञ होता है सो गौसव नाम यज्ञ है। प्रजापति देव पशु को उत्पन्न करा है तिस पशु को लेके अन्य देवताओं ने यज्ञ करा तिस से तिन की मनोकामना पूरी हुई है। प्रजापति देवता को घोड़ा योग्य पशु है तिस वास्ते प्रजापति देवता के ताई घोड़े का बंध होता है ऐसा करने से समृद्धि मिलती है । एकादश अर्थात् ग्यारह पशु का भी यज्ञ होता है। अनेक प्रकार के देवते है तिनको अनेक प्रकार के पशु यज्ञ में वध करने दिये जाते हैं । आरण्य जंगलो पशु दश भी होते हैं। ग्राम्य पशु भी यज्ञ में वध करके दिये जाते हैं । गाम के तथा जंगल के दोनों ठिकाने के रहने वाले पशु यज्ञ के वास्ते वध करने योग्य है । अश्वमेघ यज्ञ जो करता है तिसका तेज बंधता है। जंगल के पशु लेकर यज्ञ करना तिसमें गाय विशेष करके यज्ञ के योग्य है, जिस वास्ते जेकर अच्छा दिन होवे तो गाय का हो वध करना। कुत्ते को लाठी से मारके घोड़े के पगतले गेरना जो अश्वमेघ यज्ञ करता है जिसके घर में पशुओं को वृद्धि होती है। बकरे का बच्चा, तीतर पक्षी, सफेद बगुला और काला टपका वाला मीढ़ा ये सर्वत्वाष्टा देवता के वास्ते यज्ञ में वध करे जाते हैं। इस यज्ञ के करने से यह लोक में तथा परलोक में सुख मिलता है ब्रह्म देवता के वास्ते ब्राह्मण का भी होता है। अठारह पशु का भी यज्ञ होता है ।१ १. अज्ञानतिमिर भास्कर-पूज्य आत्माराम जी पृ०८ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....यज्ञों के नाम पर हिंसा यजुर्नेद में बीज रूप में थी, परन्तु शतपथ आदि ब्राह्मण ग्रंथों में और श्रोत सूत्रों में इसने फैलकर बड़े वृक्ष का रूप धारण कर लिया। आश्वलायन श्रोत सूत्र के द्वितीय अध्याय में कोई तीस से अधिक याज्ञिक पशुओं का वर्णन मिलता है । डॉ० प्रसन्न कुमार आचार्य लिखते हैं-- "पाक यज्ञों में मांस की भी अग्नि में आहुति की जाती है ... .. .. श्रावणी में साँपों को जो उस समय अधिक दिखाई पड़ते हैं अग्नि में होम किया जाता है ........ सुलगावा या ईशान बलि में ईशान (शिव) को गौ-मांस और पका हुआ चावल दिया है...""हविर्यज्ञ में माँस मिश्रित हवि अग्नि को दी जाती है .."चातुर्मास्य यज्ञ पशु और सोम यज्ञों जैसा भी होता है जब उसमें माँस और सुरा की आहुतियाँ दी जाती हैं..."पशुबंध यज्ञ में देवताओं को विशेषकर माँस की आहुति देते हैं..."सौत्रामणिक यज्ञ के सोम स्वरूप में अधिक से अधिक पाँच पशुओं की बलि दी जाती है । आगे लिखते हैं-पंच महायज्ञों के देव यज्ञ का यह यज्ञ विकसित रूप है। इसके सात साधारण भेद हैं... १. अग्निष्टोम–दो पशुओं की बलि दी जाती है । २ अत्यग्निष्टोमतीन पशुओं की बलि। ३. उक्थय–दो पशुओं की बलि । ४. षोडशिनतीन पशुओं का बलिदान । ५. वाजपेय-सत्रह पशुओं का बलिदान । ६. अतिरात्र यज्ञ-चार पशुओं की बलि जिनमें चौथा पशु भेड़ होता है । ७. आप्तोर्याम यज्ञ-चार पशुओं को बलि ।१ । अनेक स्वच्छन्दचारी, स्वकपोल कल्पित पंथ चलाने वाले स्वकपोल कल्पित अर्थ बना कर वैदिकी हिंसा छिपाने के लिये मनमानी कल्पना करके मूर्ख जनों को भ्रम की अंधकूप में डालते हैं उनका कहना है कि इस जगत में वेदोक्त हिंसा नियत की गई है उसको अहिंसा ही जानना चाहिये क्योंकि वेद से ही धर्म की उत्पत्ति हुई है । वेदों में हिंसा का उपदेश है ही नहीं जो कुछ है सब ब्रह्म रूपी है । जब एक ही ब्रह्म हुआ तब कौन किसको मारता है ? १. भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता-डॉ प्रसन्न कुमार आचार्य पृ० ५६-६१ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) अतः यथारूचि से यज्ञों में जीव हिंसा करो और उन जीवों का मांस भक्षण करो इसमें कुछ दोष नहीं क्योंकि देवोद्देश करने से माँस पवित्र हो जाता है । इस तरह में अनर्गल तर्क देकर यज्ञों में निर्दोष पशुओं का होम होने लगा। यज्ञों की संख्या व परिमाण बढ़ने के साथ-साथ उनकी अवधि भी कुछ दिनों से लेकर सौ-सौ वर्षों तक की होने लगी। अनेकों पुरोहित अपने सहायकों के साथ यज्ञ मंडप में विधि क्रियाओं की देख-रेख करने लगे। जनता इन यज्ञों में अपना धन पानी की तरह बहाने लगी। कहने का तात्पर्य है कि यज्ञों की विधि इतनी पेचीदा हो गई कि सर्व साधारण जनता की समझ से परे हो गई। बस जनता को तो वेदोक्त हिंसा को हिंसा नहीं बल्कि अहिंसा मानने वालों का यही तर्क याद रहा कि शास्र विधि से यज्ञों में पशु होम करने से सर्व देवता तृप्त हो जाते हैं और स्वर्ग की प्राप्ति होती है । हमारा विषय तो यहाँ यह देखने का है कि क्या वास्तव में इस तरह से यज्ञ में बलि दिये पशु स्वर्ग में जाते हैं ? यदि ऐसा है तो यहाँ यह दृष्टांत उचित है जो यज्ञ में होम किये जाते हुए एक पशु का पक्ष लेकर कवि पशु को तरफ से कहता है कि--"मैं स्वर्ग-फल के भोग का प्यासा नहीं हूँ और न मैंने तुमसे यह प्रार्थना की है कि तुम मुझे यज्ञ में डालकर स्वर्ग में पहुचाओ । मैं तो घास खाकर जोवन व्यतीत करने में संतुष्ट हूँ । इसलिये हे सज्जन पुरुष तुझे यह कार्य करना उचित नहीं है। यदि तुम्हारे द्वारा होमे जाने वाले प्राणी स्वर्ग में ही जाते हैं तो फिर तुम अपने प्यारे से प्यारे माता-पिता, पुत्र और : भाईयों द्वारा यज्ञ पूरा क्यों नहीं करते अर्थात् उनको इस यज्ञ में डालकर स्वर्ग में क्यों नहीं पहुंचाते । बृहस्पति जी कहते हैं-- "पशुश्चेनिहताः स्वर्गम् ज्योतिष्टोमे गमिष्यति । स्वपिता यजमानेन, तत्रकस्मान्न हन्यते ॥" अर्थात् यज्ञ में मारा हुआ पशु यदि स्वर्ग में जायेगा तो यजमान अपने पिता को ही उस यज्ञ में क्यों नहीं मारता । वास्तव में धर्म की आड़ में कैसी विडम्बना? और फिर यदि Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "यूपं कृत्वा. पशून हत्वा, रूधिर कईमम् । यो गम्यते स्वर्ग, नरके केन गम्यते" ॥ अर्थात यदि यूप करके, पशुओं की हत्या करके, रूधिर का कीचड़ करके स्वर्ग में जाते हैं तो नर्क में कौन जाते हैं ? ____ हम तो एक बात और कहेंगे कि यदि स्वर्ग प्राप्ति का मार्ग इतना सीधा व सरल है तो मनुष्य स्वर्ग प्राप्ति के लिये कठोर तपस्या क्यों करते हैं। भगवान की वेदी पर अपनी ही बलि चढ़ा दिया करें कुछ क्षणों का ही तो कष्ट हैं फिर तो अनन्तकाल तक सुख ही सुख है । यह तो निःसंदेह है कि वैदिकी यज्ञ में बहुत हिंसा होती है । मत्स्य पुराण के १४३ वें अध्याय में कहा गया है "हिंसा स्वभावो यज्ञस्य" अर्थात यज्ञ का स्वभाव ही हिंसा है। इसी अध्याय में इस प्रकार का वर्णन है - निषियों ने सूतजी से पूछा कि त्रेता युग की आदि में यज्ञों की प्रवृत्ति कैसे होती थी ! जब सतयुग संध्या समाप्त होने पर त्रेतायुग की प्राप्ति होती है। नत्र बहुत सी औषन्नि उत्पन्न होती है, अधिक वर्षा होती है, ग्रामपुर आदि में उत्तम प्रतिष्ठित बातें होती हैं उस समय सब वर्णाश्रम इकट्ठे होकर अन्न को हकष्टा करके वेद संहिताओं से यज्ञों को कैसे प्रवृत्ति करते हैं ? ऋषियों के वचन सुनकर सूतजी कहते हैं --हे ऋषि लोगों, इस संसार के और परलोक के कर्मों में मंत्रों को युक्त करके विश्व का भोगने वाला इन्द्र ने सर्व साधनों और देवताओं से युक्त होकर जब यज्ञ किया तो उसमें बड़े- बड़े ऋषि आये। ऋत्विक ब्राह्मण यज्ञों के कर्मों को करके उस बड़े यज्ञ की अग्नि में बहुत प्रकार से हवन करने लगे । सामवेदी ब्राह्मण उच्च स्वर से पाठ करने लगे । अध्वर्यु आदि अन्य ब्राह्मण अपने कर्म करने लगे। यज्ञ में कहे हुए पशुओं का आलम्भन होने लगा। यज्ञभोक्ता ब्राह्मण और देवता आने लगे। उस यज्ञ में जब अध्वर्यु के प्रेरणे का समय आया तब ऋषि लोग खड़े हो गये और उन दीन पशुओं को देखकर विश्व भुक देवताओं से बोले कि तुम्हारे इस यज्ञ की कैसी विधि है ? यह हिंसा करना तो महा अधर्म है । हे इन्द्र तेरे इस - Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) यज्ञ में यह विधि उत्तम नहीं है, तूने पशुओं को मारने का यह अधर्म प्रारम्भ किया है । इस हिंसा रूपी यज्ञ से धर्म नहीं होता है, यदि तुम उत्तम कर्म चाहते हो तो शास्रों के अनुसार धर्म करो। हे इन्द्र तूने त्रिवर्ग की नाश करने वाली महादुर्व्यसन रूप हिंसा सम्बन्धि विधियाँ करके अपने यज्ञ को रचा है । लेकिन ऋषियों से शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद भी इन्द्र ने अपने अभिमान में उनके वचनों को स्वीकार नहीं किया। उस समय ऋषियों का और इन्द्र का बड़ा भारी विवाद हुआ कि यह यज्ञ पशुओं से होना चाहिये अथवा स्थावर वस्तुओं के शाकल्यादिकों से ? तब बड़े-बड़े ऋषि उस विवाद से दुःखी होकर आकाश में विचारने वाले वसु राजा' को इन्द्र के समान ही जानकर उससे यह पूछने लगे कि हे महाप्राज्ञ ! यदि तुमने यज्ञ की विधि देखी है तो हमारे संदेह को दूर करो। ___सूतजी कहते हैं कि वह वसु राजा ऋषियों के वचन सुनकर उचितअनुचित का न विचार कर वेद शास्र को स्मरण कर यज्ञ के तत्व को कहने लगा कि शास्र में यज्ञ के योग्य उत्तम पशुओं करके अथवा मूल, फल आदि को करके यथार्थ विधि से यज्ञ करना चाहिये । यज्ञ का स्वभाव ही हिंसा है, इसी से वेद में हिंसको चिन्ह वाले मंत्र कहे हैं । यह मैंने तत्वज्ञ ऋषियों के ही प्रमाण से कहा है इसको आप क्षमा कीजिये, हे द्विजोत्तम लोगों। यदि तुम अपने ही वचन और मंत्रों को मुख्य मानते हो तो, अन्यथा ही यज्ञ करो, मेरे वचनों को सत्य मत मानो। इस प्रकार का जवाब मिलने पर ऋषि अपनी आत्मा को तपोवृद्धि करके युक्त कर और अवश्यम्भावो को देखकर उस वसु को नीचे जाने का शाप दिया तब वह वसु राजा पाताल लोक में चला गया। ऋषियों के शाप से ऊपर के लोकों का विचरने वाला होकर नीचे के लोकों को प्राप्त हो गया । इसलिये अकेले बहुत जानने वाले पुरुष को भी बहुत सी धारणा वाले धर्म का खण्डन करना योग्य नहीं है क्योंकि धर्म की बहुत सूक्ष्म गति है ऋषि लोग यज्ञ में कभी हिंसा नहीं करते करोड़ों ऋषि तपस्या के प्रभाव से ही स्वर्ग में गये हैं इसीलिये बड़े महात्मा ऋषि हिंसा धर्म की प्रशंसा नहीं करते। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कितने दुःख की बात हैं कि वसु राजा 'यज्ञ के योग्य उत्तम पशुओं को करके यज्ञ करना चाहिये' इस वचन के कहने मात्र से ही अधोगति को प्राप्त हुआ। तो जो लोग वेदशास्र और धर्म के नाम से दीन, अनाथ, निशधार बकरे गाय. घोड़े आदि पशुओं को यज्ञ में हवन करके निर्दय होकर यज्ञ शेष को खाते हैं अथवा खाते थे उनकी क्या गति होती होगी अथवा हुई होगी? ___विष्णु पुराण के छठवें अंश में जहाँ नरक यंत्रणा का वर्णन हैं वहाँ स्पष्ट लिखा है कि जो माँस भोगी होता है, वह मरण के पीछे विष्ठा और मूत्र का जहाँ भोजन है, उस विण्मूत्र नामक नरक में जाता है। ___मांस-भोजी मनुष्य अपना बचाव करने के लिये पशुओं की हिंसा करने में धर्म की आड़ आगे लगाते हैं । यदि यह हिंसा उचित होती तो उद्दालक, आरूणि, श्वेतकेतु, आरूणेय, सप्तकेतु, जाबाल, दप्त और नालाकि आदि जो उस काल के महापुरुष हुए हैं वे इस व्यर्थ के प्राण-दंड के विरूद्ध आवाज न उठाते । भगवतशरण उपाध्याय लिखते हैं - "मुण्डक उपनिषद (१,२,७) में तो क्रियात्मक यज्ञकर्ताओं को मूर्ख तक कहा गया है। बृद्धारण्यक तो यज्ञ करने वालों को देवताओं के पशु कहता है।" वास्तव में देव-देवियों का नाम आगे करके बलिदान के नाम बेचारे मूक व निर्दोष पशुओं का संहार कितना ऋ र कृत्य है । यह भी विचारणीय है कि जो लोग बलिदान करते हैं उनकी मान्यता होती है कि देवी-देवता प्रसन्न होकर उनकी मनोकामना पूरी करेंगे किन्तु उनकी यह मान्यता नितांत भ्रमपूर्ण है क्योंकि देवी, जो जगत के समस्त प्राणियों को माता है उसका भाव अपने समस्त प्राणियों के प्रति वात्सल्य युक्त है। ऐसी स्थिति में उन्हीं पुत्रों को निर्दोष पशुओं को) उसके सामने ले जाकर उसी के नाम से वध करना कितनी क्रूरता और तुच्छता का कार्य है । क्या देवी के समक्ष उसी के पुत्रों को ले जाकर बलि देने से देवी कभी प्रसन्न हो सकती है ? नीतिकार तो यहाँ तक कहते हैं१. प्राचीन भारत का इतिहास पृ० ५७ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) 'अश्वम् नैव गजं नैव सिंह नैव च नैव च । अजा सुतं बलिंदधात हा देवो दुर्बल घातकः॥ अर्थात आज तक किसी भी मानव ने देवों को घोड़े की बलि नहीं दी और न ही हाथी, सिंह आदि बलवान जानवरों की बलि तो नहीं दी और न ही उनका नाम लिया आश्चर्य तो इस बात का है कि गरीब, दुर्बल बकरी के बच्चे की आहुति और देवों को बलि दी जाती है । खेद है कि देवता भी दुर्बल पशुओं को बलि चाहते हैं। सत्य तो यह है कि "देवोद्देशेन यथा विधी पूजोपहार त्यागो. बलि" अर्थात देवो के निमित्र से विधी पूर्वक पूजा की वस्तुओं का त्याग करना, उसी का नाम है बलि । अर्थात भक्त की ओर से देवी-देवता की प्रीति के लिये जो समस्त प्रकार की पूजा की वस्तुएं भेंट की जायें उसका नाम है बलिदान। राजबोल पॉडेय ने तो यहां तक लिखा है कि स्वयं वेदों में देवताओं की शक्ति में अविश्वास किया गया है। उपनिषदों ने वेदों की गणना अपरा, (निचली) विद्या में की है और आत्मज्ञान के लिये त्रयी* (तीनों वेद) और कर्मकाँड को आवश्यक नहीं समझा है।"१ वेदों में जो यज्ञों के नाम पर पशु बलि देकर माँस खाने की छूट है उसका खण्डन तो मनुस्मृति में भी किया गया और वेदों के मानने वाले मनुस्मृति को झूठा नहीं मान सकते क्योंकि वेदों में मनु को काफी प्रशंसा की गयी है.। अब जो लोग यह तर्क देते हैं कि अविधि माँस नहीं खाना चाहिये परन्तु .. विधि माँस खाने में कोई हर्ज नहीं तो उनका यह कथन सर्वथा. अनुचित है । १. भारतीय इतिहास को भूमिका पृ० ९३ * प्राचीन काल में वेद तीन ही थे इसीलिये प्राचीन काल में वेदों को वेद त्रयी और वेद विद्या को त्रयी विद्या लिखा है। विशेषज्ञों का मत है कि अथर्व वेद की रचना तांत्रिक काल में हुई है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) जैसा क मनु कहते हैं- "माँस को उत्पत्ति अर्थात शुक्र शोणित का परिणाम ही माँस है, ऐसा तथा जीव हत्या के समय वध-बन्ध से होने वाला दु:ख, उसका आर्त्तनाद इत्यादि जान करके सब प्रकार के माँस से निवृत्त होना चाहिये ।"१ यहाँ सर्व शब्द से विधि - अविधि दोनों प्रकार के माँस का निषेध समझना चाहिये क्योंकि जो वस्तु अग्राह्य होती है वह अग्राह्य ही रहती है । माँस भी मनुष्य जाति की स्वाभाविक खुराक न होने से हर परिस्थिति में त्याज्य ही है । विधि युक्त अथवा अवधि युक्त किसी प्रकार का माँस खाना मनुष्य के लिये योग्य नहीं । क्योंकि मनु कहते हैं-" प्राणियों की हिंसा किये बिना माँस उत्पन्न नहीं होता और प्राणियों का वध स्वर्ग सुख को देता नहीं अतः माँस खाना सर्वथा छोड़ देना चाहिये ।"२ मत्स्याहारी सर्वभक्षी :- जो लोग मत्स्याहार करते हैं वे मत्स्य के मारे बिना तो माँस प्राप्त कर नहीं सकते । विचार करने पर विदित होता है कि मछली, पल्ला आदि जल में होने वाले जीवों को खाने वाले मनुष्य के हृदय में निष्ठुरता बहुत ही हो जाती है क्योंकि मछली का जीव इतना कठोर होता है कि वह तुरन्त शरीर से अलग नहीं होता। ऐसे जीव को निर्दयतापूर्वक मारने वाले, पकाने वाले और खाने वाले का हृदय कितना कठोर होता होगा, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है । यह भी सत्य हैकि जो मछली, पल्ला आदि जीवों को खाने वाले हैं वे न केवल उन्हीं को खाते हैं अपितु समस्त तुच्छ वस्तुओं के भक्षक हैं । मत्स्य भक्षण का निषेव मनु ने इस १ समुत्पत्ति च माँसस्य वध बन्धौ च देहिनाम् । प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्व माँसस्य भक्षणात् ॥ ४९ ॥ मनुस्मृति अध्याय ५ २. नाकृत्वा प्राणिणां हिंसां मासमुत्पद्यते क्वचित । न च प्राणि वध: स्वयंस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत ॥ ४८ ॥ मनुस्मृति अध्याय ५ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) प्रकार किया है- "जो मनुष्य जिसका माँस खाता है वह उसके माँस का खाने वाला कहाता है परन्तु मत्स्य का भक्षक तो सर्वभक्षी है अतः मत्स्य भक्षण का त्याग करना चाहिये ।" १ मनु का कथन सर्वथा सत्य है । एक मनुष्य जिसका भक्षण करता है वह उसी का भक्षण कहलाता है किन्तु मत्स्य खाने वाला सर्वभक्षो ही है, इसलिये कि मत्स्य सब प्रकार के बुरे पदार्थों को खाता है। पानी में किसी का मुर्दा पड़ा है तो उसे भी खायेगा और गटरों का पानी जिसमें विष्ठा और पेशाब आदि भी मिला रहता है, नदियों में जाते ही मछलियाँ उन्हें अपने पेट में ले लेती है । अब यदि मछली खाने वाले को सर्वभक्षी कहा जाये तो गलत भी क्या है । इसीलिये शास्त्रकारों ने कहा है • मात्स्यमांसे सदा लुब्धो नरो निषाद उच्चते” अर्थात मत्स्य और माँस में लुब्ध मनुष्य- मनुष्य नहीं 1 परन्तु निषाद है । मनु न केवल माँस भक्षक को अपितु उससे सम्बंधित सभी को घातक मानते हैं "सम्मति देने वाला, काटने वाला, मारने वाला, मोल लेने और बेचने वाला, पकाने वाला, लाने वाला और खाने वाला में सब घातक होते हैं ।"२ अत: अपने सुख, जिव्हेन्द्रिय की लोलुपता के लिये बेचारे मूक पशुओं का घात नहीं करना चाहिये । - क्या मनुस्मृति में माँस खाने की अनुमति है :- ऐसे माँसाहारी भी हैं जो अपने स्वाद की तृप्ति के लिये धर्मशास्त्रों का विपरित अर्थ निकालते हैं और अपने प्रमाण के लिये मनुस्मृति के एक श्लोक का अर्थ इस प्रकार करते "माँस भक्षण में दोष नहीं है मद्य में नहीं है और न ही मैथुन में क्योंकि यह मनुष्यों की प्रवृत्ति है अगर उससे निवृत्ति अर्थात त्याग हो तो वह १. यो यस्य माँस मन्शति स तन्मांसाद उच्यते । मत्यादः सर्वमाँसा दस्तस्मान्मत्स्यान्विवर्जयेता ।। १५ ।। अध्याय ५ २. अनुमंता विशसिता निहन्तात्रय विक्रयी । संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः ।। ५१ ।। अध्याय ५ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) बहुफलदायक है । " १ जैनाचार्य श्रीमद् विजय धर्म सूरि जी ने इस अर्थ का प्रतिकार इस प्रकार किया है - " इस श्लोक का अर्थ यदि यही रखा जाये कि माँस खाने, मद्य पीने और मैथुन सेवन से दोष नहीं है तो इस श्लोक का पूर्वार्द्ध उत्तरार्द्ध से संघटित नहीं हो सकेगा क्योंकि उत्तरार्द्ध में तो निवृत्ति बहुत फल वाली दिखलाई । लेकिन यहाँ विचार करने विषय है कि यदि प्रवृत्ति में दोष न होता, तो निवृत्ति में महाफल होता ही कैसे ? अर्थात यदि प्रवृत्ति सदोष ठहरेगी तब ही तो निवृत्ति में महाफल सिद्ध हो सकेगा ? लेकिन यह बात इस श्लोक में तब ही निकाल सकते हैं- सिद्ध कर सकते हैं - कि जब इसका अर्थ वास्तविक - जैसा चाहिये वैसा किया जाये । अर्थात इसका अर्थ यों किया जाये - 'न माँस भक्षणे दोषो' इस पदमें मांस भक्षणे' और 'दोषो' इन दो शब्दों के बीच में 'अ' कार का लोप हुआ है ( ' एदोत: पदान्तेऽस्य लुक' सिद्धहेम, १-२ - २७) अब इसका अर्थ यही होगा कि - 'माँस भक्षण में अदोष नहीं किन्तु दोष ही हैं। वैसे मद्य में भी अदोष नहीं किन्तु दोष ही है और मैथुन में भी अदोष नहीं किन्तु दोष ही है, क्योंकि प्राणियों की अज्ञान जन्म प्रवृत्ति है. यदि निवृत्ति करे तो महाफल है। यह तो इसका वास्तविक अर्थ । परन्तु यदि प्रवृत्ति में दोष नहीं है, किंतु निवृत्ति में फल है. ऐसा अर्थ किया जाय तो यह अर्थ किसी बुद्धिमान को जगा ही नहीं ।"२ इसी प्रकार "पशुपुष्पैश्च गंधेश्च" पशु-पुष्प-गंध करके माता की पूजा करनी चाहिये | ऐसा दुर्गासप्तति में कहा है इसका समाधान भी आचार्य श्री जी ने इस प्रकार किया " जैसे पुष्प की पूजा, अखण्ड पुष्प चढ़ाकर करते हैं ( अर्थात् पुष्प की पत्तियाँ अलग-२ नहीं कर देते हैं) जैसे ही पशु से भी पूजा करनी चाहिये अर्थात माता के सामने उस पशुको अभय कर देना चाहिये । " ३ १. न माँस भक्षणे दोषो न मद्य े न च मैथुने । प्रवृत्ति रेषा भूतानां निव त्तिस्तु महाफला ।। ५६ ।। अध्याय ५ आदर्श साधू (श्री विजय धर्मसूरि जीवन वृत्त)- मुनि श्री विद्या विजयजी ३. वही पृ० ४७ २. पृ० ४६ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तव में जिसकी जैसी प्रवृत्ति होती है वह सास्र कथनों का भी अपने स्वार्थानुकूल अर्थ निकाल लेते हैं । मांस भक्ष्य या अभक्ष्य ? मनु के इस एक ही श्लोक का अर्थ दोनों पक्षों ने अपने-अपने हित में लिया। यह तो वही बात हुई जैसा कि हम एक वाक्य कहें 'चोरी करना नहीं, करोगे तो दण्ड मिलेगा। इस वाक्य में यदि कहीं कोमा (') न लगाया जाये तो चोर इसका अर्थ लेगा कि चोरी करना, यदि नहीं करोगे तो दण्ड मिलेगा जबकि साधक इसका अर्थ इस प्रयोग में लेगा कि चोरो करना नहीं यदि करोगे तो दण्ड मिलेगा। कैसा परिहास है कि उचित-अनुचित में अपने विवेक का प्रयोग न करके मानव केवल स्वार्थ देखता है । विचारणीय है कि यदि मनु मांस भक्षण में दोष न मानते तो सर्व प्रकार के मांस का निषेध कैसे करते ? जैसा कि पिछले पृष्ठों में कहा गया है अत: मनुस्मृति में माँस खाने की अनुमति नहीं है मनु ने तो यहाँ तक कहा है कि यदि पशु-भक्षण की इच्छा हो तो धृत का व चून का पशु बनाकर भक्षण कर लें, परन्तु पशु को वृथा मारने की इच्छा न करनी चाहिये। यहाँ एक बात हमारी समझ से परे है कि जहाँ एक ओर मनु स्मृति अध्याय ५ के ३७ वें श्लोक में पशु को मारने का निषेध है वहीं ३९ वें श्लोक में यज्ञ के लिये माँस भक्षण को दैव विधी कहकर उचित ठहराया गया है कि — ब्रह्माजी ने आप ही यज्ञ के लिये और सब यज्ञों की सिद्धि के लिये पशुओं को बनाया है इसलिए यज्ञ में पशु-वध की हिंसा नहीं होती।" इसी प्रकार याज्ञवल्क्य स्मृति: के सातवें प्रकरण में जहाँ भक्ष्याभक्ष्य का वर्णन है वहां १७१ - श्लोक में यज्ञ में आहूत पशु के माँस का निषेध किया गया है वहीं १८० में श्लोक में यज्ञ में पशुबलि को उचित ठहराते हुए कहा गया है कि जो अवधि अथवा देवता या यज्ञ के लिये नहीं अपितु स्वयं के लिये पशु का वध करता है वह उतने दिन तक घोर नरक में वास करता है जितने रोएं उस पशु के शरीर में रहे हों। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) मनु ने ५ों अध्याय के ३२० श्लोक में कहा है मोल लेकर, स्वयं उत्पन्न करके अथवा किसी ने भेट दिया हो ऐसा माँस देवता तथा पितरों को समपण करके जो मनुष्य खाता है वह दोष का भागी नहीं होता। यह तो सारे कथन मिथ्याद्दष्टियों के हैं । हमारी दृष्टि में तो जान-बूझकर किसी जीव को मारना हिंसा ही है उसे कैसे भी उचित नहीं ठहराया जा सकता । वसिष्ठ स्मृतिकार भी जो यज्ञ में किये जाने वाले प्राणि-वध को वध नहीं मानते हम उनके मत से भी सहमत नहीं हो सकते। यदि प्राणि-वध स्वरूप से ही अस्वयं है तो यज्ञमें करने पर भी अस्वयं ही रहेगा और उसमें हिंसाजन्य दोष अनिवार्य है क्योंकि वैदिक मंत्रों से आमंत्रित करने पर भी बध्य पशु को वध के समय दुःख तो होता ही है इसमें कोई संशय नहीं। और पर प्राणों को दुख देना यह दोष है इसे स्वीकार करने से भी कोई इंकार नहीं कर सकता। दयाधर्मी आस्तिकमत वालों को तो मांस देखना भी योग्य नहीं तो फिर देवता, पितरों की पूजा मांस से करनी यह भावना तो धर्मी कभी स्वप्न में भी नहीं सोच सकता । अतः देवताओं को माँस चड़ाना, यह बुद्धिमानों का काम नहीं क्योंकि देवता तो बड़े पुण्यवान होते हैं जब वे कवल का आहार ही नहीं करते तो फिर जुगुप्सनीय मांस क्यों खायेंगे। अत: जो मूढ़मति कहते हैं कि देवता मांस खाते हैं हमारी दृष्टि में तो वे महा अज्ञानी है। इसके अलावा जो पितर हैं वे तो अपने-अपने पुण्य-पाप के प्रभाव से सद्गति-दुर्गति को प्राप्त हो चुके । हर व्यक्ति अपने किये कर्मों का भोक्ता स्वयं ही है। पुत्र के किये दुष्कर्मों अथवा सुकर्मों का फल पिता को नहीं मिलता क्योंकि आम के सींचने से केले में फल नहीं लगेगा। ___अतिथि की भक्ति के लिये जो मांस देने को कहते हैं वह नरक का हेतू और महा अधर्म के सिवाय कुछ नहीं अब यदि कोई तर्क दे कि जो बात श्रुति, स्मृति में आई है वो माननी चाहिये, यह भी उचित नहीं क्योंकि जो Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) बात श्रुति में अप्रमाणिक हो उसे बुद्धिमान कदापि न मानेंगे और माननी भी नहीं चाहिये जैसा कि हम शुरू में ही कह आये हैं कि केवल शास्रों का आश्रय लोकर ही किसी विषय का निर्णय नहीं कर लेना चाहिये। ___यहाँ एक बात और विचारणीय है कि जिन शास्रों में मांस भक्षण को उचित ठहराया गया है वहाँ केवल पशु पक्षियों के माँस का ही उल्लेख है किन्तु मनुष्य मांस खाने का जिक्र कहीं नहीं मिलता इसका कारण क्या हो सकता है। कारण यही रहा होगा कि अपने माँस की रक्षा के लिये मनुष्य का माँस खाना नहीं लिखा होगा क्योंकि शास्रकारों में इतनी बुद्धि तो थी ही कि यदि मनुष्य मांस-भक्षण का लिखेंगे तो मनुष्य कभी उन्हें ही न खा लें। इसीलिये मनुष्य ने अपनी सुरक्षा के लिये मनुष्य-वध निषेध के कानून बनाये, उसके लिये दण्ड देने का प्रावधान रखा । यदि आज कोई किसी मनुष्य की हत्या करता है तो उसे मौत की सजा सुना दी जाती है । इतना कुछ होने पर भी मनुष्य अपने स्वार्थ के लिये मनुष्य हत्या भी करता है और धोखे से लोगों को उसका मांस खिला भी देता है जिसका प्रमाण दिल्ली के माननीय डॉ. हाकिम अजमल खाँ साहब (प्रसिद्ध स्वतन्त्रा सेनानी) के दृष्टांत से समझा जा सकता है। उनके पास चाँदनी चौक बल्ली मारान का रहने वाला एक मरीज दरियागंज स्थित उनके दवाखाने पहुँचा । उस 'बोमार को देखकर हाकिम साहब ने परीक्षण करके कहा कि इस बीमारी की दवा मेरे पास नहीं है। मरीज निराश हो वापिस आ गया और मौत को नजदीक जानकर हर चीज का सेवन करने लगा। उसी मुहल्ले में एक कबाब (माँस) बेचने वाला बैठता था, उससे माँस लेकर रोज खाने लगा। कुछ ही दिनों में वह स्वयं को स्वस्थ्य अनुभव करने लगा तो पुनः हाकिम साहब के पास पहुँचा। उसे देखते ही आश्चर्य चकित हो डॉ. साहब ने उसके स्वस्थ होने का राज पूछा, मरीज ने आप बीतो सुना दी । हाकिम साहब को तो आश्चर्य होना ही था क्योंकि उस बीमारी का इलाज मनुष्य माँस के सिवाय और कुछ था ही नहीं, Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसीलिये लाइलाज बताकर उस मरीज को मना कर दिया था। डॉ. साहब द्वारा पुलिस अधिकारियों से उस मांस बेचने वाले को जाँच कराने पर पता चला कि वह माँस बेचने वाला मनुष्य का मांस ही बेचता था। मनुष्य का मांस था इसलिये इतनी जाँच हुई यदि पशु माँस होता तो किसी को पीड़ा न होती। अत: जो व्यक्ति मनुष्य माँस और पशु माँस में अंतर नहीं मानता उसके समान कोई धर्मी नहीं इसके विपरित जो दोनों में भेद मानकर माँस खाते हैं उनके समान कोई पापी नहीं। _ विधि सहित यज्ञ में वध किये पशु का माँस खाने में दोष नहीं मानने वालों को भागवत के इस दृष्टांत पर ध्यान देना चाहिये -प्राचीन बहर्षि राजा ने नारदजी से पूछा कि मेरा मन स्थिर क्यों नहीं रहता हैं ? तब नारद जी ने योगबल से देखकर कहा कि आपने जो प्राणियों के वध वाले बहुत से यज्ञ किये हैं इसी से आपका चित्त स्थिर नहीं रहता है। ऐसा कहकर योगबल से राजा को यज्ञ में मारे हुए पशुओं दृश्य आकाश में दिखलाया और नारद जी ने कहा कि हे राजन ! दया रहित होकर हजारों पशुओं को तुमने जो यज्ञ में मारा है वे पशु इस समय क्रुद होकर यह रास्ता देख रहे हैं कि राजा मरकर कब आये और हम लोग उसको अस्रों से काटकर कब अपना बदला चकावे ।१ इसके बाद प्राचीन बहर्षि राजा भयभीत होकर नारद के चरणों में गिर पड़ा और कहने लगा कि हे भगवान ! अब मैं हिंसा नहीं करूंगा किन्तु मेरा .१. भो-भो प्रजापते राजन्पशन्पश्य त्वयाध्वरे । संज्ञापिताजीवमघ्डान्निधुणेन सहस्त्रशः ॥ ७ ।। एते त्वां संप्रतीक्षन्ते स्मरन्तो वैशसं तव । संपरेतमय: कूटैश्छिन्दन्त्युत्थितमन्यवः ।। ८ ।। श्रीमद् भागवत स्कन्ध ४, अध्याय २५ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) उद्दार कीजिये तब नारदजी ने ईश्वर-भजन आदि कृत्यों को बतलाकर उसका उद्दार किया। हिन्दू धर्म-शास्रों पर दृष्टिपात करने से भी यही प्रतीत होता है कि पूज्य पुरुषों द्वारा देवी-पूजा के समय पशु-वध का कहीं उल्लेख नहीं है कृष्ण ने गोलोकस्थ रास-मण्डल में भगवती दुर्गा की पूजा की। मधुकेटभ युद्ध में विष्णू ने पूजा की । महाघोर तप त्रिपुर काल में महादेव जी ने पूजा की। वृत्रासुर के वध-काल में प्राण-संकट के समय इन्द्र और देवगणों ने पूजा की। परन्तु देवी की इन सब पूजाओं के समय किसी ने भी पशु-वध नहीं किया । इतना ही क्यों, रावण के वध के समय भी रामचन्द्रजी ने देवी पूजा की थी लेकिन इन स्थानों पर भी पशु-वध का कहीं भी जिक्र नहीं है । महात्माओं ने जिस कृत्य को अधर्म समझ कर नहीं किया, यदि मनुष्य उसे अपने स्वार्थ के लिये धर्म समझ कर करे तो यह उसके लिये निन्दनीय ही है। यह तो निश्चित है कि सकाम अथवा निष्काम किसी भी प्रकार से देवी-देवताओं की पूजा में पशु वध करना अनुचित है, अधर्म है। . ____ उपनिषदों के समय यज्ञ-विरोधी आन्दोलन शुरू हुए। उपनिषदों ने आचार पर बल देते हुए ज्ञान मार्ग की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करके यज्ञों का घोर विरोध किया। छान्दोग्य उपनिषद में देवकी पुत्र कृष्ण को घोर अंगिरस यज्ञ की एक सरल रीति बताई जिसकी दक्षिणा थी-तपश्चर्या, दान अहिंसा एवं सत्य । उपनिषदों ने तो यज्ञों को संसार सागर से पार होने के लिये फूटी नाव की तरह बताया। रामायण के समय तक यज्ञों की काफी महत्ता थी। महाभारत के समय में भी वे सर्वथा लुप्त नहीं हुए थे फिर भी विचारकों ने यह स्पष्ट रूप से कहना प्रारम्भ कर दिया था कि उन क्रूरतापूर्ण यज्ञों को करने से क्या लाभ जो स्वर्ग के स्वप्न मात्र की भाँति हैं। सच्चा यज्ञ तो अहिंसा, संयम, क्रोध का त्याग है इनकी साधना करने से वह फल प्राप्त होता है जो हजारों यज्ञों से भी नहीं होता। कहने का तात्पर्य है कि महाभारत काल में मुक्ति पाने के लिये पशु-यज्ञ के स्थान पर आत्म-यज्ञ पर बल दिया गया। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) महाभारत में यको' के नाम पर की जाने वाली पक्ष-हिंसा की निन्दा : "जो जगत में सब प्राणियों को अभय की दक्षिणा देता है वह मानों समस्त यज्ञों का अनुष्ठान कर लेता है तथा उसे भी सब ओर से अभय दान प्राप्त हो जाता है । प्राणियों की हिंसा न करने से जिस धर्म की सिद्धि होती है उससे बढ़कर महान धर्म कोई नहीं है।"१ महाभारत में ऐसे अनेकों प्रसंग हैं जिनमें भीष्म पितामह युधिष्ठिर को उद्बोधित कर रहे हैं। ऐसे ही एक प्रसंग में वे कहते हैं कि जो धर्म की मर्यादा से भ्रष्ट हो चुके हैं, नास्तिक है तथा जिन्हें आत्मा के विषय में संदेह एवं जिनकी कहीं प्रसिद्धि नहीं है ऐसे लोगों ने ही हिंसा का समर्थन किया है । धर्मात्मा मनु ने तो सम्पूर्ण कर्मों में अहिंसा का प्रतिपादन किया है । मनुष्य अपनी ही इच्छा से यज्ञ की बाह्य वेदी पर पशुओं का बलिदान करते हैं। “अहिंसा सर्व भतेभ्यो ज्चायसी मता" अर्थात् सम्पूर्ण प्राणियों के लिये जिन धर्मों का विधान किया गया है उनमें अहिंसा ही सबसे बड़ी मानी गयी है । मनुष्य यूप निर्माण के उद्देश्य से जो वृक्ष काटते और यज्ञ के उद्देश्य से पशु-बलि देकर माँस खाते हैं, यदि वह व्यर्थ नहीं अपितु धर्म ही मान लिया जाये तो यह उचित नहीं क्योंकि बुद्धिमान ऐसे धर्म की प्रशंसा नहीं करते। स्पष्ट है यज्ञ में किसी भी प्रकार का पशु-वध अशास्रीय एवं अनुचित है यह तो मांस-लोलुपी मनुष्य अपने बचाव के लिये धर्म की आड़ आगे ले आते हैं। महाभारत में शांति पर्व के २६३ वें अध्याय में वैश्य तुलाधर ने जाजलि मुनि को आत्म-यज्ञ विषयक धर्म का ही उपदेश दिया है। आत्मा तो यज्ञ का यष्टा अर्थात् करने वाला है, तथा तपरूप अग्नि है, ज्ञान रूप घृत है. कर्म रूपी ईधन है, क्रोध, मान, माया और लोभ पशु है । सत्य बोलने रूप यूप अर्थात् यज्ञ स्तम्भ है तथा सर्वजीवों की रक्षा करनी यह १. महाभारत-शांति पर्व अध्याय २६२ श्लोक २९. ३० Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) दक्षिणा है तथा ज्ञान, दर्शन और चरित्र यह रत्नत्रयी रूप त्रिवेदी है । यह यज्ञ वेद का कहा हुआ है। ऐसा यज्ञ जो योगाभ्यास संयुक्त करे तो करने वाला मुक्त रूप हो जाता है और जो राक्षस तुल्य होकर छागादि मारकर यज्ञ करता है वह मरकर घोर नरक में चिरकाल तक महादुख को भोगता है । महाभारत के शांति पर्व में हिंसा की निन्दा और अहिंसा की प्रशंसा की गई है । युधिष्ठिर जग भीष्म पितामह से पूछते हैं कि जिस यज्ञ का प्रयोजन केवल धर्म हो ऐसा कौनसा यज्ञ है ? प्रत्युत्तर में भीष्म उंछवृत्ति का वृत्तान्त बताते हुए कहते हैं कि उत्तर राष्ट्र विदर्भ में कोई ब्राह्मण ऋषि निवास करता था । वह इधर-उधर से दानों को बीनकर अपना निर्वाह करता था । किसी समय इस ब्राह्मण ने यज्ञ करने का निश्चय किया । अतः वन में जाकर भोजन के लिये साँव (एक प्रकार का धान्य) दाल के लिये सूर्य पर्णी (जंगली उड़द) और साग के लिये सुवर्चला ब्राह्मोलता ) प्राप्त की । यद्यपि ये सब कटु एवं रस रहित थे परन्तु ब्राह्मण की तपस्या से ये सब सुस्वादु हो गई थी । इन्हीं चीजों से उसने किसी प्राणी की हिंसा न करते हुए स्वर्ग प्राप्ति कराने वाले यज्ञ का अनुष्ठान किया । इस ब्राह्मण के पुष्करधारिणी नामक स्त्री थी । यद्यपि यह स्त्री सभी बातों में पति के विचारानुकूल होते हुए भी यज्ञ के विषय में पति से भिन्न विचार रखतो थी लेकिन शाप के डर से पति स्वभाव का अनुसरण करती थी । उसने किसी समय पति की आज्ञा से यज्ञ का फल नहीं चाहते हुए यज्ञ करना आरम्भ किया । उस वनमें सत्य (उंछवृत्ति) का सहवासी एक मृग था । उसने मनुष्य की बोली में सत्य से कहा "ब्राह्मण तुमने यज्ञ के नाम पर यह दुष्कर्म किया है क्योंकि यदि किया हुआ यज्ञ मन्त्र और यज्ञ से हीन हो तो वह यजमान के लिये दुष्कर्म ही है तू मुझे अग्नि में होम दे और स्वर्ग में जा । उसके बाद साक्षात् सावित्री देवी ने पधार कर उस मृग की आहुति देने की सलाह दी । लेकिन ब्राह्मण द्वारा मृग के वध का इंकार करने से सावित्री Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) देवी यज्ञाग्नि में प्रविष्ट हो गई। मृग में पुन. अपनी आहुति देने की याचना की लेकिन ब्राह्मण ने उसे हृदय से लगाकर वहाँ से जाने के लिये कहा । मृग आठ कदम आगे जाकर फिर वापिस आया और ब्राह्मण से कहने लगा सत्य, तुम विधिपूर्वक मेरी हिंसा करो, मैं यज्ञ के वध को पाकर उत्तम गति पा लूंगा । मैंने तुम्हें दिव्य दृष्टि प्रदान की है इससे तुम अप्सराओं और गंधर्वों के विचित्र विमानों को देखो । ब्राह्मणों ने बड़ी देर तक वह रमणीय दृश्य देखा । बस फिर क्या था मन में निश्चय किया कि हिंसा करने पर मुझे स्वगं का सुख मिल सकता है। वास्तव में उस मृग के रूप में साक्षात् धर्मं थे, जो मृग का शरीर धारण करके बहुत वर्षों से वन में निवास करते थे । पशु-हिंसा यज्ञ की विधि के प्रतिकूल कर्म है । भगवान धर्म ने उस ब्राह्मण का उद्दार करने का निश्चय किया । मैं उस पशु का वध करके स्वर्गलोक प्राप्त करूँगा । यह सोकचर मृग की हिंसा करने के लिये उद्दत उस ब्राह्मण का महान तप तत्काल नष्ट हो गया इसीलिये हिंसा यज्ञ के लिये हितकर नहीं है। तत्पश्चात भगवान धर्म ने स्वयं सत्य का यज्ञ कराया फिर सत्य ने तपस्या करके अपनी पत्नी पुष्करधारिणी के मन की जैसी स्थिति थी, वैसा ही उत्तम समाधान प्राप्त किया अर्थात् उसे यह द्दढ़ विश्वास हो गया कि हिंसा से बड़ी हानि प्राप्त होती है, अहिंसा ही परम कल्याण का साधन है । १ इसीलिये कहा है " अहिंसा सकलो धर्मों" अर्थात् अहिंसा ही सम्पूर्ण धर्म है, हिंसा अधर्म है और अधर्म अहितकर होता है। दूसरे जीवों को दुःख पहुँचाकर धर्म करना अथवा सुख की इच्छा करना यह कैसे हो सकता है ? " सण्वे जीवावि इच्छंति जीविउं, न मरिज्जउं" अर्थात् सब जीव जीना चाहते हैं मरना कोई नहीं चाहता । जो जिस योनि में है उसे उसी योनि में सुख मिलता है । एक कीड़ा जो गाड़ी की लीक में बड़ी तेजी से भागा जा रहा है, देखकर व्यास जी पूछते हैं हे कीट, किस भय से और कहाँ भागे जा रहे हो ? प्रत्युत्तर में कीट कहता है- महामते, इस बैलगाड़ी की घर्घराहट सुनकर १. शांति पर्व अध्याय २७२ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) भय लग रहा है कि कहीं यह आकर मुहे कुचल न दे, प्राण रक्षा के लिये जल्दी-जल्दी भाग रहा हूँ, कहीं ऐसा न हो कि मैं सुख से दुःख में पड़ जाऊँ। व्यास जी कहते हैं, हे कीट तुम्हें सुख है कहाँ ? मेरी समझ में तो तुम्हारा मर जाना ही तुम्हारे लिये सुख है क्योंकि तुम तो अधम कीट योनि में पड़े हो । तुम्हें शब्द, स्पर्श, रस, गंध तथा अनेकों भोगों का भोग नही होता तुम जोकर क्या करोगे ? देखिये कोट क्या जवाब देता है सर्वत्र निरतो जीव इतश्चापि सुखं मम् । चिन्तयामि महाप्राज्ञ तस्मादिच्छामि जीवितुम ॥ अर्थात् जीव सभी योनियों में सुख का अनुभव करते हैं । मुझे भी इस योनि में सुख मिलता है और यही सोचकर जीवित रहना चाहता हूँ। ____ सत्य ही तो है, प्राणियों के लिये मृत्यु बड़ी दुखदायिनी होती है। अपना जीवन सबको बड़ा ही दुर्लभ लगता है चाहे पंचेन्द्रिय जीव हो अथवा तिर्यच योनि के अधम कीट आदि । हर योनि में शरीर के अनुसार सारे विषय उपलब्ध होते हैं । हम यह नहीं कह सकते कि अवम योनि के जोवों को सुख नहीं है मनुष्यों और स्थावर प्राणियों के भोग अलग-अलग हैं । अत. निर्दोष मूक पशुओं का संहार करना निन्दनीय ही है । शास्त्रों में तो ऐसे-ऐसे उदाहरण हैं जिन्होंने पशु-पक्षियों की रक्षा के लिये अपने प्राणों का मोह छोड़ दिया। बाज के डर से भागा हुआ कबूतर महा शिबी की शरण में आता हैं । बाज के अनुनय विनय करने पर भी राजा शरणागत का त्याग नहीं करते। कबूतर के प्राणों की रक्षा के लिये कबूतर के बराबर अपने शरीर का माँस तौलकर देने को तैयार हो जाते हैं। ___ कहाँ एक मूक पक्षी के प्राणों की रक्षा के स्वयं के प्राणों की बाजी लगा देने वाले महाराज शिबी और कहाँ जिव्हेन्द्रिय की लोलुपता के लिये पशुबलि देने वाले ये नराधम । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) महाभारत में अहिंसा की प्रशंसा एवं माँस-भक्षण त्याग की महिमा : किसी समय युधिष्ठिर बृहस्पति जी से पूछते हैं-अहिंसा, वेदोक्त कर्म, ध्यान, इंद्रिय संयम, तपस्या और गुरू शुश्रु षा इनमें से कौनसा कर्म मनुष्य का विशेष कल्याण कर सकता है ? प्रत्युत्तर में बृहस्पति जी कहते हैं-जो मनुष्य अहिंसा युक्त धर्म का पालन करता है वह मोह, मद और मत्सरता रूप तीनों दोषों को अन्य समस्त प्राणियों में स्थापित करके एवं सदा काम क्रोध का संयम करके सिद्धि को प्राप्त हो जाता है । भीष्म पितामह भी अहिंसा की प्रशंसा करते हुए कहते हैं-मन, वाणी, कर्म से हिंसा न करना एवं मांस न खाना इन चार उपायों से अहिंसा धर्म का पालन होता है। इनमें से किसी एक अंश की भी कमी रह जाने पर अहिंसा धर्म का पूर्णत: पालन नहीं होता। वास्तव में अहिंसा धर्म तो इतना विस्तृत है कि उसमें सभी धर्मों का समावेश ठीक उसी प्रकार से हो जाता है जिस प्रकार हाथी के पैर के चिन्ह में सभी पादगामी प्राणियों के पद चिन्ह समा जाते हैं । महाभारत में कहा है "अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम तप है, अहिंसा परम सत्य है क्योंकि उसी से धर्म की प्रवृत्ति होती है ।''१ ___ जगत में अपने प्राणों से अधिक प्रिय कोई दूसरी वस्तु नहीं है अत: मनुष्य जैसे अपने पर दया चाहता है वैसे ही दूसरों पर भी दया करे। जो जीवित रहने वाले प्राणियों के मांस को खाते हैं वे दूसरे जन्म में उन्हीं प्राणियों द्वारा भक्षण किये जाते हैं । उर्धाम्नाय संहिता में कहा है कि जो मनुष्य बकरे का नाश करता है उसका बकरा परजन्म में खडग को धारण करके हनन करता १. अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परं तपः। अहिंसा परम सत्यं यतो धर्म प्रवर्तते ।। अनुशासन पर्व अध्याय ११५, श्लोक २३ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) है । ऐसा ही उल्लेख महाभारत में भी आता है- "माँस भक्ष्यते यस्माद भक्षयिष्ये तमप्यहम् " अर्थात् आज मुझे यह खाता है तो कभी मैं भी उसे खाऊँगा । माँस शब्द की व्युत्पत्ति ही किसी आचार्य ने बड़े हृदयस्पर्शी ढंग से प्रस्तुत की है - माँस शब्द में दो अक्षर हैं- 'माँ' और 'स' ! 'माँ' का अर्थ मुझको और 'स' का अर्थ वह होता है। दोनों अक्षरों को मिलाकर गूढ़ार्थं निकलता है कि जिसको मैं यहाँ मारकर खाता हूँ, वह मुझे भी कभी न कभी मारकर खायेगा । यही माँस का माँसत्व है । जो माँस के रस में होने वाली आशक्ति से अभिभूत होकर उसी अभीष्ट फल माँस की अभिलाषा रखते हैं तथा उसके बारम्बार गुण गाते हैं उन्हें ऐसी दुर्गति प्राप्त होती है जो कभी चिन्तन में नहीं आई और न ही जिसे वाणी द्वारा व्यक्त किया जा सकता है। तृण से, काठ से अथवा पत्थर से माँस पैदा नहीं होता वह तो जीव की हत्या करने पर ही उपलब्ध होता है । जोव का वध करने के तुरन्त बाद उसके माँस में अनन्त जीवों की परम्परा पैदा होने लगती है । माँस की डली का टुकड़ा कच्चा हो या पक्का उसमें उसी जाति के असंख्य जीव निरन्तर पैदा होते रहते हैं । अतः माँस-भक्षण घोर हिंसा के कारण नरक का हेतु है । शास्त्रों में कहा गया है " वध किया पशु-प्राणी का, काटे उसी को देह क्रकच चलाता परमाधामी, फल में नहीं संदेह" कई लोग यह तर्क देते हैं कि माँस हमारे निमित्त से नहीं बना था, इसलिये हम दोष के भागी नहीं । विचारणीय है कि हत्यारा किसके लिये पशुओं की हिंसा करता है ? खाने वालों के लिये ही तो, यदि कोई माँस-भक्षक न हो तो कोई पशु - हिंसक भी न होगा। कहा भी गया है- “न वधको भक्षकं बिना ।" अत: यदि अभक्ष्य समझकर माँस खाना सभी छोड़ दें तो पशु-हत्या स्वतः ही बन्द हो जायेगी । न केवल वधिक और न ही केवल भक्षक बल्कि अनुमोदन कर्त्ता भी हिंसा दोष का ही भागी माना जाता है महाभारत कहता Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) है-"जो माँस को स्वयं नहीं खाता पर खाने वाले का अनुमोदन करता है वह भी भाव दोष के कारण पाप का भागी होता है इसी प्रकार जो मारने वाले का अनुमोदन करता है वह भी हिंसा दोष से लिप्त होता है ।"१ मांस-भक्षण के त्याग का फल तो सौ वर्षों तक कठोर तपस्या के फल से भी बढ़कर है । जो मांस-भक्षण नहीं करता उसे जिस पुण्य की प्राप्ति होती है उसे सम्पूर्ण वेद और यज्ञ भी नहीं प्राप्त करा सकते, ऐसा बृहस्पति जी का कहना है । महाभारत में भीष्म अहिंसा की प्रशंसा में कहते हैं--"सम्पूर्ण यज्ञों में जो दान किया जा सकता है, समस्त तीर्थों में जो गोता लगाया जाता है तथा सम्पूर्ण दानों का जो फल है- यह सब मिलकर भी अहिंसा के बराबर नहीं हो सकता। इतना ही क्यों वे तो यहाँ तक कहते हैं- "हे कुरूपुगव (कुरूश्रेष्ठ) अहिंसा के फल का कहाँ तक वर्णन करें, यदि कोई मनुष्य सौ वर्षों तक उसका वर्णन करे तो भी वह सम्पूर्ण रोति से कहने में समर्थ नहीं हो सकता ।"२ पद्मोत्तर खण्ड में देवी भगवती का कहना है कि जो मेरा निमित्त (देवी भगवती) लेकर पशु को मारकर अपने बंधुओं के साथ माँस-भक्षण करता है उसका शरीर पशु के शरीर के रोम जितने वर्षों तक असिपत्र नामक नरक में वास करता है । शंकर जी ने पार्वती को धर्म का रहस्य बताते हुए अहिंसा धर्म की ही प्रशंसा की है-"अहिंसा धर्मशास्त्रेषु सर्वेषु परमं पदन" अर्थात् सम्पूर्ण धर्म शास्रों में अहिंसा परम पद है। जो प्राणियों पर दया करने वाले तथा हिंसामय आचरणों को त्याग देने वाले हैं वे स्वर्ग में जाते हैं। जब १. अखादन्ननुमोदंश्च भावदोषेण मानवः । योऽनुमोदति हन्यन्तं सोऽपि दोष लिप्यते ।। अनुशासन पर्व अध्याय ११५, श्लोक ३९ २. एतत् फलम् हिंसाया भूयश्च कुरू पुरङ व। न हिं शक्या गुणा वक्तुमपि वर्ष शतरपि ।। अनुशासन पर्व अध्याय ११६, श्लोक ३२ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) पार्वती जी शंकर जी से पूछती हैं कि माँस खाने में क्या दोष है ? शंकर जी प्रत्युत्तर देते हैं- "जो पराये माँस से अपने माँस को बढ़ाना चाहता है, वह जहाँ कहीं भी जन्म लेता है वहीं उद्व ेग में पड़ा रहा है ।" १ अतः प्रत्येक विज्ञ पुरुष को यह समझना चाहिये कि जैसे अपने माँस को काटना अपने लिये पीड़ाजनक होता है वैसे ही दूसरों का माँस काटने पर उसे पीड़ा होती है। पद्मोत्तर खण्ड में पार्वती जी का कहना है कि जो स्वयं फल की इच्छा वाले होकर, अज्ञान से मोह को पाया हुआ जो मनुष्य मेरे नाम से विविध जीवों की हिंसा करता है उसका राज्य, वंश, सम्पत्ति आदि सब ऐश्वर्य थोड़े ही समय में नष्ट हो जाता है और वह मृत्यु पाकर नरक में जाता है । शिवपुराण में लिखा है "भुक्त' हलाहलं तेन कृतं चाभक्ष्या भक्षणम्" अर्थात् माँस तुल्य जिसने अभक्ष्य का भक्षण किया उसने हलाहल जहर भक्षण किया । अहिंसा धर्म का पालन तो वही कर सकता है जो संसार की सब आत्माओं को अपनी आत्मा के समान समझे । गीता में श्री कृष्ण ने कहा है- अगर तुम संसार में रहकर हिंसा से बचना चाहते हो तो संसार की सब आत्माओं को अपने समान समझो । हे अर्जुन जो योगी अपनी भाँति सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुख को भी सम देखता है वह योगो, श्र ेष्ठ माना गया है । २ स्पष्ट है कि धर्म - शास्त्र हिंसा निषेध के लिये क्या क्या फरमा रहे हैं । अफसोस तो इस बात है कि सब कुछ जानते, समझते हुए भी लोग रसनेन्द्रिय के लालच में धर्म को निमित्त बनाकर पशु वध करते हुए जरा भी संकोच १. स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति । उद्विग्नवासं लभते यत्र यत्रोपजायते ॥ २ - अनुशासन पर्व पृ० ५९९० आत्मौपम्येन सर्बत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुखं स योगी परमोमतः ॥ गीता - अध्याय ६, श्लोक ३२ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९ ) नहीं करते। अब देखिये बंगाल की अधिकांश जनता मछली खाती है और उसे नाम क्या देतो है-जल तोरई । त्याज्य माँस नहीं समझती। उफ, विधाता ने सम्पूर्ण प्राणियों में केवल मानव को ही वाणी एवं विवेक से काम लेने की क्षमता प्रदान की है और यह मानव ऐसा है कि अपने स्वार्थ में अंधा होकर दानव बना बैठा है कोई भी धर्म ग्रंथ ऐसा नहीं जिसमें अहिंसा की प्रशंसा न की गई हो। - यजुर्वेद में अहिंसा का स्वरूप:- वैदिक कालीन लोगों का प्रमुख धार्मिक कृत्य यज्ञ था। आश्चर्य है कि जिन वेदों को आधार मानकर यज्ञ करके उसमें सैकड़ों पशुओं को होम किया जाता है, उन वेदों में भी अहिंसा का अपना ही स्थान है । अपने मत की पुष्टि में यहाँ यह यजुर्वेद के कुछ उदाहरण प्रस्तुत करेंगे "वह मेरा मन सबके लिये कल्याण का संकल्प धारण करने वाला हो" "हे प्रभो सभी मनुष्यों और पशुओं के लिये कल्याण हो" "सब प्राणियों को मित्र को दृष्टि से देखू" "सब प्राणियों को अपना ही रूप समझो" "सब जीवों में आत्मा का ही रूप जानो"१ इस प्रकार यजुर्वेद में अहिंसा शब्द की कई प्रकार व्याख्या की गई है । किसी को मारना, किसी से वैर-विरोध करना तथा किसी को ऊँच-नीच समझना हिंसा माना गया है । चींटी से लेकर मनुष्य तक सबके अंतर्गत आत्मा को ही अपना स्वरूप मानने के लिये आदेश दिया गया है। १. तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु ॥ ३४/१ शन्नोऽअस्तु द्विपदेशं चतुष्पदे ॥ ३६/८ मित्रस्यमा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् ।। ३६/१८ यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्ने वानुपश्यति ॥ ४०/६ यस्मिन सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्वि जानतः ॥ ४०/७ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) यह कहना अनुचित न होगा कि वैदिक वाङमय का परिशीलन करने पर विदित होता है कि पुरातन भारत में हिंसा और अहिंसा की दो विचार धाराएँ शुक्ल पक्ष एवं कृष्ण पक्ष के समान विद्यमान थीं । उल्लेखनीय है कि जहाँ बाल्मीकि के आश्रम में वसिष्ठ के लिये गौ-माँस खिलाने का वर्णन है, राजर्षि जनक को माँस रहित मधुपर्क के लिये कहा गया है। वेदों में ऐसे अनेकों मन्त्र पाये जाते हैं जिनमें हिंसा को महापाप एवं घोर नकं में ले जाने वाला बताया गया है। जिन वेदों में इस प्रकार के असंदिग्ध शब्दों में हिंसा को महापाप बताया गया हो उन्हीं वेदों में हिंसा का समर्थन कैसे किया जा सकता है ? हमें तो तथ्य यह प्रतीत होता है कि वेद किसी एक ही ऋणि द्वारा एक ही समय में रचे हुए नहीं है, वरन् इनकी विभिन्न ऋचाएँ विभिन्न समयों में, विभिन्न ऋषियों द्वारा रची गयी है । जिस ऋषि की जैसी मनोवृत्ति हुई उन्होंने वैसी ही ऋचाएँ बना दी। जो ऋषि दयालु व संयमी थे उन्होंने हिंसा करना पाप बताया । जो ऋषि माँस लोलुपी व इंद्रियों के दास थे उन्होंने पशुओं की बलि देने के समर्थन में ऋचाएँ बनाई । बहुत से स्थानों पर ऐसा भी 'हुआ है कि एक ही शब्द के दो अर्थ होने के कारण व्यक्तियों ने अपनीअपनी मनोवृत्ति के अनुकूल इन द्वयर्थंक शब्दों के अर्थ लगा लिये। उदाहरण के लिये 'अज' शब्द का अर्थ है- पुराना धानं, जो फिर से न उग सके । इसका दूसरा अर्थ है- बकरा | जो विद्वान संयमी तथा दयालु थे उन्होंने इसका अर्थ पुराना धान माना, जो माँस-लोलुपी थे उन्होंने बकरा माना । अनेक प्रसंग ऐसे भी हैं कि एक ही ऋषि एक समय में माँस खाने का समर्थन करता है तो वही ऋषि दूसरी जगह माँस छोड़ने का सुफल बताता है । जैसाकि हम पहले भी कह आये हैं कि याज्ञवल्क्य कहते हैं- जो गाय और बैल मांसल होता है उसे मैं खाता। | जहाँ शतपथ ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य इस प्रकार कह रहे हैं वहीं याज्ञवल्क्य संहिता में वे इस प्रकार कह रहे हैं - "जो Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) ब्राह्मण मांस को छोड़ता है, उसकी सर्न इच्छाएँ पूर्ण होती हैं, अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है, और वह घर में रहता हुआ भी मुनि कहलाता है ।"१ कहने का तात्पर्य है कि कोई धर्म ग्रन्थ ऐसा नहीं जो अहिंसा की प्रशंसा न करे । विष्णु धर्मोत्तर नामक महापुराण, जो नैष्णव महापुराण का ही उत्तर भाग है उसमें भी मांस-मदिरा भक्षण निषेध और अहिंसा धर्म का ही प्रतिपादन किया गया है। शंकर जी परशुराम से कहते हैं- "हे राम ! अहिंसा, सत्य वचन, प्राणियों पर दया और सहानुभूति ये गुण जिस मनुष्य में होते हैं उस पर भगवान केशव (श्री विष्णु) सदा प्रसन्न रहते हैं। जो मनुष्य अपने माता-पिता गुरूओं के साथ सद्व्यवहार करता है और शराब तथा माँस का त्यागी होता है उस पर केशव सदा खुश रहते हैं । हे भार्गव ! जो मानव सूअर आदि स्थलचर और मत्स्य आदि जलचर प्राणियों का माँस नहीं खाता तथा मद्यपान नहीं करता उस पर केशव सदा संतुष्ट रहते नि:संदेह हर धर्म ग्रन्थ में सभी ऋषि-मुनियों द्वारा अहिंसा धर्म की महानता का बखान किया गया है । हाँ यह बात अलग है कि जो ऋषि अपनी माँस-लोलुपी प्रवृत्ति पर नियन्त्रण न पा सके उन्होंने मन्त्रों की उन्हीं १ सर्वान् कामानवाप्नोति, हयमेधफलं तथा । गृहेऽपि निवसन् विप्रो, मुनिर्मास-विवर्जनात् ।। याज्ञवल्क्य संहिताः प्रकरण ७, श्लोक १८१ २. अहिंसा सत्य वचनं दया भूतेष्वनुग्रहः । यस्यैतानि सदा राम ! तस्य तुष्यति केशवः ॥१॥ माता-पितृ गुरूणांचय: सम्यगिह वर्तते। वर्जको मधु-मांसस्य तस्य तुष्यति केशवः ॥२॥ वाराह-मत्स्य-माँसानि यो नात्ति मृगुनन्दन । विरतो मद्यपानाच्च, तस्य तुष्यति केशवः ॥ ३॥ श्री विष्णु धर्मोत्तर खंड १. अध्याय ९५८ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) ऋचाओं में से अपने लिये सुरक्षित मार्ग निकाल लिया । धर्म की आड़ में स्वयं को बचा लिया। इतना होने पर भी वे ही ऋषि अहिंसा की प्रशंसा करने में मूक नहीं रह सके । रह भी कैसे सकते थे ? क्योंकि इस सत्य को स्वीकार करना ही पड़ेगा कि करूणा का स्त्रोत प्राणि मात्र के हृदय में स्वाभाविक गति से बहता है । धर्मोपदेशकों को स्वार्थी भावना :- वैदिक युग में स्वर्ग प्राप्ति के लिये लोगों को स्वार्थी विप्र वर्ग पशुओं की बलि करने का मार्ग बताता था । इससे स्वार्थी व्यक्तियों ने मिथ्यात्ववश अपना भविष्य उज्जवल मान अगणित पशुओं का संहार किया। चौलुक्यवंशी राजा कुमारपाल के समय में भी धर्म के नाम पर यज्ञ में पशुबलि दी जाती थी । एक बार पूर्व परम्परा का कारण बताते हुए नवरात्रि में देवी के आगे बलि देने के लिये कुमारपाल को स्वार्थी पंडों ने मजबूर किया । राजा कुमारपाल पर जैनाचार्य श्री हेमचन्द्र सूरिजी का क्या प्रभाव था, यह बताने की आवश्यकता नहीं । आचार्य श्री को सम्मति से इस कुप्रथा के नाश के लिये राजा ने देवी के मंदिर में जीवित बकरे डलवा - कर दरवाजा बन्द करवा दिया। यदि वास्तव में देवी बलि चाहती होगी तो रात को इनमें से इथेच्छ ग्रहण कर लेगी, किन्तु प्रात काल दरवाजा खोलने पर सभी बकरे जीवित पाये गये तो पंडों के स्वार्थ का भंडा फूट गया । राजा ने धर्म के नाम पर बलि प्रथा का निषेष कर दिया । धर्मोपदेशकों द्वारा धर्मोपदेश सुनने को राजाओं की प्रवृत्ति प्राचीन समय से ही है उन्हीं उपदेशों से वे अपने कर्त्तव्यों को समझते थे और उपदेशकों को यथोचित पुरस्कार देते थे । यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि इन पंडितों की जीविका का साधन राजा की खुशामद करना था । सच्चा उपदेश देने के बजाय अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये उनकी हाँ में हाँ मिलाते । राजाओं की मनोदशा के अनुकूल यही फरमाया- "महाराज ! अयं तु राज्ञां धर्मः" अर्थात् महाराज ! यही राजाओं का धर्मं है । राजाओं ने भी अपना विवेक खोकर, धर्म-अधर्म का निर्णय न करके खुशामद को ही धर्म समझ लिया । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) यहाँ यह प्रसंग उल्लेखनीय है कि एक राजा हमेशा किसी ब्राह्मण से उपदेश सुना करता था । एक दिन किसी कारणवश जाने में असमर्थ ब्राह्मण ने अपने पुत्र को राजा के पास भेजा । पुत्र बड़ा निपुण था उसने उपदेश देते हुए प्रसंगवश कहा तिल भर मछली खाय के कोटि गौ दे दान | काशी करवट ले मरे तो भी नरक निदान ॥ अर्थात् थोड़ी-सी मछली खाकर चाहे कोई करोड़ों गायों का दान करे और काशी जाकर करवट ले मरे तब भी वह नरक में ही जायेगा । मत्स्यभक्षी राजा को यह बात भला कैसे अच्छी लग सकती थी ? अगले दिन पंडित के पर राजा ने क्रोधित हो पूर्व की घटना बताते हुए कहा कि क्या ऐसे देश सुनने के लिये ही आपको बुलाया है ? अब देखिये पंडित अपना स्वार्थ साधने के लिये क्या अर्थ बताते हैं -- महाराज ! लड़के ने आपको पूर्ण सत्य कहा कि तिल भर यानि थोड़ी-सी मछली खाकर तो नरक में जाये, यदि ज्यादा खाये तो कोई हर्ज नहीं । यानि नरक में जाने का विधान तो थोड़ी मछली खाने वालों के लिये है, ज्यादा खाने वालों के लिये नहीं । पंडित जी ने अपने स्वार्थ के लिये अर्थ का कैसा अनर्थ किया। अपने स्वार्थ के लिये शास्त्र, नोति और धर्म को ताक में रखने वालों को उपदेशक कहना कहाँ का न्याय है ? पशु बलि देकर देवी की मानता मानना कहाँ तक उचित बहुधा अज्ञानी लोग अपनो कार्य सिद्धि के लिये देवी के समक्ष प्रार्थना करते हैं कि मेरा अमुक कार्य हो जाने पर देवी को एक बकरा भेंट करूँगा । भला बताइये, ऐसी कौन-सी जननी होगी जो अपनी संतति रूप जीवधारियों के रक्त और माँस से आनन्दित होगी । मान लीजिये पुत्र की रूग्णावस्था पर एक पिता देवी से प्रार्थना करे कि पुत्र के निरोग हो जाने पर एक बकरा देवी को उपहार स्वरूप दूँगा । अब यदि आयुष्य प्रबलता के कारण पुत्र स्वस्थ हो Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता है तो उस निर्दोष बकरे को क्रूरता पूर्वक मारना क्या उचित है ? क्या ऐसी मानताओं के बाद सब जीवित ही रहते हैं ? यदि रोगी का आयुष्य शेष होगा तो मानता नहीं रखते हुए भी उसका मरण नहीं होगा और यदि उसका आयुष्य पूर्ण हो गया है तो सैंकड़ों मानताओं के बावजूद भी वह बचेगा नहीं। कई लोग पुत्र प्राप्ति के लिये भी देवी से बकरे के बदले पुत्र मांगने की बेहूदा मानता करते हैं । यह तो हुई बात हुई कि "माता पासे बेटा माँगे कर बकरे का साटा। अपना पूत खिलावन चाहे पूत और का काटा"। अब विचारिये कि बकरे के बदले में बेटा मांगना, दूसरे के पुत्र को काटकर अपने पुत्र को स्वस्थ रखना ऐसी अनीति-अन्याय दुनियाँ में और क्या हो सकता है। आज भी भारत में काली पूजा एवं नवरात्रि के दिनों में देवियों के नाम पर इतनी हिंसा होती है कि मानों रूधिर की नदी बह रही हो। कैसी विडम्. बना है कि जौ नौ दिन पवित्र माने गये हैं उन्हीं दिनों में धर्म के नाम पर लाखों जीवों का संहार किया जाता है । इसी प्रकार विजया दशमी के दिन महिषासुर वध का अनुकरण करते हुए भाले और तलवार से भैंसों को थोड़ाथोड़ा काटकर अत्यन्त निष्ठुरतापूर्वक हत्या करते हैं । और ऐसे माँस-भक्षण को उचित ठहराते हुए उसे माता के प्रसाद का नाम देते हैं । ___ जरा विचारिये कि क्या माता इस प्रकार के प्रसाद को चाहती है? क्या उसका भक्षण करती है ? देवी-देवताओं की तो ऐसी प्रवृत्ति होती ही नहीं। उनके इस तर्क में तो इस दृष्टि से भी कोई सार नहीं कि यदि प्रसाद ही है तो फिर खाने वाले को उसका कोई दुष्परिणाम नहीं होना चाहिये, उन्हें प्रसाद का ही फल मिलना चाहिये, परन्तु ऐसा होता नहीं। प्रहलाद ने अपनी भक्ति के बल से विष का अमृत रूप में पान किया उसके शरीर में विष का थोड़ा भी प्रभाव नहीं पड़ा। यही बात कृष्ण उपासिका मीरा पर भी लागू होती Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। सच्ची भक्ति अथवा कहें कि सच्चा प्रसाद तो यही है, बाकि तो मांसभक्षी अपनी तृप्ति के लिये देवी का नाम आगे रखकर देवी को ही कलंकित करते हैं। क्या माँस मन ष्य प्रकृति के अन कूल है ? । यदि आदि काल से मानव आहार पर एक दृष्टि डाली जाये तो यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि किसी भी काल में माँस मनुष्य प्रकृति के अनुकूल नहीं रहा । इसका सबल प्रमाण सुप्रसिद्ध इतिहासवेत्ता राखालदास वंदोपाध्याय ने दिया है । वे लिखते हैं - यह निश्चित है कि मानव-जीवन के प्रारम्भ में हमारे पूर्व पुरुष फलाहारी थे-मांस भोजन नहीं करते थे। तत्पश्चात युग परिवर्तन के कारण मानव के जन्म के बाद बहुत समय होने पर, ग्रीष्म प्रधान अथवा शीतोष्ण ऐसा देश समूह क्रमश: अथवा यकायक शीत प्रधान हुआ। इस कारण से, आदि मनुष्यों के लीला क्षेत्र समूह में जीवनोपयोगी फल-मूल का अभाव हुआ। इस परिवर्तन के युग में आदि मनुष्य को फल-मूल के बदले में पशु-मांस के भोजन में प्रवृत्ति करनी पड़ी। मांसाहारी जीवों को जन्म काल से, जिस प्रकार के तीक्ष्ण नख- दाँत होते हैं, वैसे मनुष्यों को किसी भी अवस्था में नहीं होते। इससे उन आदि मनुष्यों को जीवन यात्रा निर्वाह के लिये पशु हत्या के उपयोगी शस्रों का अन्वेषण करने की प्रवृत्ति करनी पड़ी। आदि मनुष्यों ने उस समय कृत्रिम उपाय से भी अग्नि को उसन्न करने की शिक्षा प्राप्त नहीं की थी। सुतरां, धातु का व्यवहार अज्ञात था। उसी युग विप्लव के समय में हमारे पूर्व पुरूषों ने जिन आयुध किंवा प्रहरण का संग्रह किया था, वह तीक्ष्ण धार वाले पत्थर के टुकड़े मात्र थे।"१ राखालदास जी के उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि प्राचीन तत्वों की खोज करने वाले जिस समय को आदि समय मानते हैं उस समय में भी १. बंगाल इतिहास भागा-श्री राखालदास बंदोपाध्याय पृ० ३ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) मनुष्य मांसाहारी नहीं थे। परन्तु खास कारण से फल-मूल आदि का अभाव होने से उनकी पशु-माँस में प्रवृत्ति हुई थी। साथ ही उनका यह भी कहना है कि मांसाहारी प्राणियों के नख और दाँत जिस प्रकार के होते हैं वैसे मनुष्यों के नहीं होते इससे उन्हें अपना जीवन निर्वाह करने के लिये कृत्रिम उपाय उत्पन्न करने की आवश्यकता हुई। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य की प्रकृत्ति फलाहारी ही है लेकिन जैसे-जैसे काल का अतिक्रम होता गया वैसे-वैसे मनुष्यों में कारणों को लेकर नयी-नयी कला और उद्योगों का आविर्भाव हो गया। साथ ही साथ अनिवार्य कारणों से आहार व्यवहार में भी परिवर्तन हुआ। ___ ऐसे ही समय परिवर्तन के कारण अज्ञानी मनुष्यों में माँसाहार की प्रवृत्ति चल पड़ी, जिसे बाद में उन्होंने अपने भोजन का आवश्यक अंग बना लिया जबकि वस्तु-स्थिति तो यह है कि मांसाहार मनुष्यों की स्वाभाविक खुराक है ही नहीं। बारीकी से देखने पर भी निष्कर्ष यही निकलता है कि माँसाहारी प्राणियों जैसी एक भी स्वाभाविक वस्तु मनुष्य के पास नहीं है । यथा मांसाहारी जीवों की भोजन प्रणाली बहुत ही छोटी होती है अर्थात् बदन की लम्बाई से तिगुनी लम्बी और अंतडिया चिकनी होती हैं इस कारण शारीरिक त्याज्य वस्तुएँ जल्दी सड़कर बहुत ही थोड़ी देर में इस प्रणाली से बाहर निकल जाती हैं। मनुष्य की यह भोजन प्रणाली बदन की लम्बाई से बारह गुणी लम्बो होती है और आँतें थलीनुमा होती हैं । इस कारण त्याज्य वस्तुएँ बहुत देर बाद मल के रूप में निकलती हैं। इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य के लिये माँस का आहार जो बहुत जल्दी सड़ने वाला है, अनुकूल नहीं है। माँसाहार प्रतिकूल ही नहीं बल्कि खतरनाक भी है जिसके कारण बहुत भयंकर रोग मनुष्य के शरीर में फूट पड़ते है । डॉक्टरों का मत है कि माँसाहारी चार सौ प्रकार की प्राण घातक बीमारियों से ग्रस्त होते हैं जबकि Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) शाकाहारी दो सौ साठ, क्योंकि शाकाहारी के शरीर में वे रोग के कीटाणु प्रवेश नहीं कर सकते जो पशु माँस के साथ मांसाहारी के शरीर में स्वाभाविक रूप से प्रवेश कर जाते हैं। ___ मांसाहारी जीवों के मुंह की लार में वयलिन नामक रासायनिक द्वव्य नहीं होता जो कि अनाज सत्व को पचा सके जबकि शाकाहारी प्राणियों की लार में अनाज और दूसरे खाद्य पदार्थों के तत्वों को पचाने के लिये प्रचुर वयलिन है। मांसाहारी प्राणियों की जठराग्नि इतनी तेज होती है कि उनको मांस का पाचन हो जाता है, मनुष्यों की जठराग्नि वैसी नहीं होती। सिंह, बाध, कुत्ते आदि मांसाहारी प्राणी जीभ से चाटकर तरल पदार्थ पीते हैं। क्या मनुष्य ही इसी प्रकार पीता है ? नहीं। मनुष्य ही क्यों पशुओं में भी गाय, भैंस, घोड़ा आदि शाकाहारी पशु होठों के माध्यम से सुबड़कर तरल पदार्थ पीते हैं। ..... माँसाहारी प्राणियों के दाँत स्वाभाविक ही टेढ़ वक्र के होते हैं जिससे माँस को सुगमता से फाड़ा जा सके शाकाहारी जीवों के दांत छोटे, खुडे मिले हुए और बराबर होती हैं उनके पंजे और दाँत जीवित प्राणियों को मारने लायक नहीं होते। - मांसाहारियों की आँखें भी निरामिषभोजियों से भेद रखती हैं । मांसाहारी प्राणियों को नेत्र ज्योति सूर्य का प्रकाश सहन नहीं कर सकती, लेकिन रात में भी दिन की भाँति देख सकती हैं । रात्रि में आँखें दीपक की भांति अंगारे जैसी चमकती है जबकि मनुष्य दिन में भली-भाँति देख सकता है । सूर्य का प्रकाश उसमें बाधक न होकर सहायक है और फिर मनुष्य की आँखें रात में चमकती भी नहीं तथा न ही वे प्रकाश के बिना देख सकती हैं। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) _मांसाहारी जीव का बच्चा जब पैदा होता है तो उसकी आँखें बहुत दिनों तक बंद रहती हैं जबकि निरामिषियों के बच्चे पैदा होते ही थोड़ी देर में आँखें खोल देते हैं। चूंकि मनुष्य प्रकृति से ही शाकाहारी है जिसका प्रमाण मनुष्य एवं मांसाहारी पशु दोनों को भोजन-शैली पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता पशुओं की उपयोगिता पशु राष्ट्र की अनमोल सम्पत्ति हैं । इसीलिये हमारे संविधान की धारा ५१ (A) G के अनुसार हर पशु-प्राणी जीव-जन्तुओं पर दया, करूणा, प्रेमभाव युक्त सम्बन्ध रखने का आदेश दिया गया है। हमें देखना यह है कि आज इस देश का पालन कहाँ तक हो रहा है ? साधारण जनता को तो बात छोड़ो शासन की ओर से ही इस नियम का पालन नहीं हो रहा है। इसी कारण जहाँ एक ओर भोजन में पौष्टिक तत्वों का अभाव हुआ वहीं दूसरी ओर पृथ्वी को उर्वरा शक्ति क्षीण हो गई। जो भारत धन-धान्य से पूर्ण था, दूध की नदियां बहा करती थी उसी भारत में पशुओं का संहार होने से दूध, दही, घी, अनाज का अभाव बढ़ता ही जा रहा है। परिणामस्वरूप हम सब प्रकार को शक्तियों से क्षीण होते जा रहे हैं । अज्ञानी प्रवृत्ति के कारण देवियों के समक्ष पशु-वध, यज्ञादि के निमित्त पशु-वध होता ही है । उस पर प्रतिबंध लगाना तो दूर, शासन तो स्वयं ही बूचड़खानों को खोलने का लायसेंस देती है। आज स्थिति यह है कि भारत में प्रतिदिन लाखों पशुओं का संहार होता है। जो पशु हमारे रक्षक हैं, हमारे पोषक हैं, उनका संहार करना मनुष्य जाति के लिये लज्जा नहीं तो और क्या है ? __ पशु न सिर्फ आने दूध द्वारा या माल ढोने, हल चलाने आदि कार्यों द्वारा समाज की आर्थिक उन्नति में सहायक होते हैं बल्कि उपलब्ध आँकड़े इस सत्य को प्रमाणित करते हैं कि बूढ़ा, बच्चा अथवा दूध न देने वाला पशु Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी सिर्फ अपने गोबर और गौ-मूत्र से प्रतिवर्ष बीस हजार रुपये तक का लाभ पहुँचा सकता है। गाय जिसके मारने का न केवल उपयोगिता की दृष्टि से अपितु धार्मिक द्दष्टि से भी निषेध किया गया है, मानव इस तुच्छ लक्ष्मी के लालच में उसके प्राण लेने में जरा भी संकोच नहीं करता। ऐसे निर्दयी लोग तर्क देते हैं कि गाय में आत्मा नहीं, पर हम तो यही कहेंगे कि ऐसा तक देने वालों में ही आत्मा नहीं। महाभारत के अनुशासन पर्व में गायों की महत्ता बताते हुए कहा गया है कि "गौओं का दान करने से जैसा उत्तम फल मिलता है, वैसे ही गौओं से द्रोह करने पर बहुत बड़ा कुफल भोगना पड़ता है, इसलिये गौओं को कभी कष्ट नहीं पहुँचाना चाहिये।"१ "गोएँ दूध देकर सम्पूर्ण लोकों का भूख के कष्ट से उद्धार करती हैं। ये लोक में सबके लिये अन्न पैदा करती हैं। इस बात को जानकर भी जो गौओं के प्रति सौहार्द्र का भाव नहीं रखता वह पापात्मा मनुष्य नरक में पड़ता है।"२ गाय का स्वयं वध न करके कसाई के हाथ बेचने वाले यह तर्क दें कि हमने वध नहीं किया, अतः पाप के भागो नहीं, जरा विचार करें कि गाय किस प्रयोजन से कसाई को दी है ? स्वयं वध किया, कराया अथवा करते हुए का अनुमोदन किया, समान रूप से पाप के भागी बताये गये हैं। महाभारत कहता है१. प्रदान फलवत् तत्र द्रोहस्तत्र तथा फलः । अपचारं गवां तस्माद् वर्जयेत युधिष्ठिर। ॥ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय ७०, श्लोक ३३ गावो लोकांस्तारयन्ति क्षरन्त्यो गावश्चान्नं संजनयन्ति लोके । यस्तं जानन्न गवां हार्दमेति स वैगन्ता निरयं पापचेताः ॥ अनुशासन पर्व अध्याय ७१, श्लोक ५२ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० } "गौ को हत्या करने वाले, उसका माँस खाने वाले तथा गौ हत्या का अनुमोदन करने वाले लोग गौ के शरीर में जितने रोएँ होते हैं उतने वर्षों तक नरक में डूबे रहते हैं ।" १ अत: उपयोगिता एवं धार्मिकता किसी भी दृष्टि से पशु वध को उचित नहीं कहा जा सकता । पशु उपयोगिता के कारण ही आज पाकिस्तान में गौवध पर पूर्ण प्रतिबंध है क्योंकि वहाँ कृषि के लिये बैल नहीं मिलते थे । परतन्त्र भारत में मुसलमानी शासक होते हुए भी अकबर ने अपने राज्यकाल में वर्ष में छ: महीने के लिये पशु वध एवं गौ-वंध पर पूर्ण नियंत्रण लगा दिया था । केवल नियंत्रण ही क्यों उसके वधिक के लिये प्राण दंड का विधान था । प्रमाण स्वरूप आइने - अकबरी के भाषांतरकार पंडित रामलाल पाण्डेय अपने लेख ' अकबर की धार्मिक नीति" जो विश्ववाणी १९४२ नवम्बर + दिसम्बर संयुक्त अंक में छपा है, पृष्ठ ३४९ पर लिखते हैं "महाभारत के भाषांतरकार सुल्तान थानेसुरी ने जब गौ हत्या की तो थानेश्वर के हिन्दुओं की शिकायत पर उसे देश निर्वासन का दण्ड दिया गया था, उसकी महान विद्वता और प्रभाव उसे इस दण्ड से न बचा सके ।" आज स्वतन्त्र भारत में त्राहि-त्राहि होने पर सरकार इस पर पूर्ण रूपेण अंकुश लगाने में असमर्थ है । पं. मदनमोहन मालवीय जी के शब्दों में "गो-वध की नीति ने हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को गम्भीर आघात पहुँचाया है। यही नहीं भारत में रहने वाली तमाम जातियों को भारी आर्थिक हानि उठानी पड़ी है। समस्त राष्ट्र के कल्याण के लिये गौ वध बंदी पर गम्भीरता से विचार करना चाहिये । १. घातकः खादको वापि तथा यश्चानुमन्यते । यावन्ति तस्या रोमाणि तावद् वर्षाणि मज्जति ॥ अनुशासन पर्व अध्याय ७४ श्लोक ४ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) लाला लाजपतराय "गौ-रक्षा भारत के समस्त स्त्री-पुरुषों का कर्त्तव्य है । जिस क्रूरता से गाय एवं गौ वंश का नाश किया जा रहा है उसे देखते हुए लगता है कि हमारी संतानें कैसी जी पायेगी और यह एक चिन्ता का विषय है ।" गांधीजी गाय को सम्पन्नता और सौभाग्य की जननी मानते थे। उनके - शब्दों में गाय का सम्बन्ध - धार्मिक और आर्थिक दोनों पक्षों से है । गाय: की सुरक्षा प्राणी मात्र के विकास में योगदान देने के समान है । गाय के विनाश के साथ ही हमारा भी विनास निश्चित हो जायेगा । गौ हत्या और मानव - हत्या में कोई अन्तर नहीं है, जब गौ हत्या होती है मुझे ऐसा लगता है कि मेरी हत्या की जा रही है। जब तक हम गाय को बचाने का कोई उपाय ढूंढ़ नहीं लेते तब तक स्वराज्य शब्द का कोई अर्थ नहीं और भारत में वास्तविक स्वराज्य आने से पहले हिन्दुत्व की परीक्षा और सिद्धि इसी कसौटी पर की जाती है ।" सन् १९२६ में मद्रास में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करने की एक शर्त के रूप में मुस्लिमों ने गौ वध करने के अपने अधिकार को स्वीकार करने की माँग रखी थी और कहा था कि इसी ६ शर्त पर समझोता मुमकिन हो सकता है। इस पर गांधीजी ने कहा- हिन्दूमुस्लिम एकता के लिये मुझे हर शर्त मंजूर हैं। सायंकालीन प्रार्थना के बाद गाँधोजी विश्राम के लिये गये । प्रात काल उठकर उन्होंने महादेव भाई को उठाया। गाँधीजी ने कहा मैंने बड़ी भारी भूल कर डाली । मुझे याद है कि कल हिन्दू मुस्लिम एकता के मसौदे में गौ वध बंदी की माँग को एक तरफ हटा दिया गया । वे गौ-हत्या करें, यह मैं कैसे सहन करता है। अलबत्ता हम बल प्रयोग नहीं कर सकते किन्तु उन्हें समझा तो सकते हैं। मैं स्वराज्य के बदले अपना गौ-रक्षा का आदर्श कदापि नहीं छोड़ सकता। आप फौरन जाइये और उनसे कहिये कि यह करार मुझे नामंजूर है। कुछ भी हो किन्तु मैं इस प्रकार गौ-माता के साथ विश्वासघात नहीं कर सकता । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) यह था गांधीजी के सपनों का भारत । जिस देश को उन्होंने अहिंसा के बल पर आजाद कराया, उस देश में हिंसा का यह कैसा ताण्डव ? पशु-संहार से भोजन में पौष्टिक तत्वों की कमी के साथ ही ऊनी कपड़े अथवा कम्बलों का भी अभाव हो रहा है। भेड़ों तथा बकरों के बालों की बनी हुई ऊँची कम्बलों का आज नाम नहीं। पशमीने की चादरें और हाथ निर्मित गरम कम्बलों का नितान्त अभाव हो गया है। इन सब दुःखों का मूल कारण क्या है ? पशु-वध ! और पशु-वध का मूल कारण है ? मांसाहार ! यदि हमें पृथ्वी की हरी-भरी चादर की रक्षा करनी है तो सर्व प्रथम मांसाहार को त्याग कर पशु-धन को सुरक्षित रखना होगा शेष सब बातें तो बाद की है। आत्मरक्षार्थ हिंसा-हिंसा नहीं हिंसा शब्द का अर्थ प्रायः किसी के प्राण लेने से ही लिया जाता है किंतु वास्तव में ऐसा नहीं है । मन, वच, काया से किसी को पीड़ा पहुँचाना भी हिंसा का ही रूपान्तर है। अतः प्राणियों के प्राणों के वियोग करने मात्र को हिंसा समझना अयुक्त है । मानवता का सच्चा पुजारी तो किसी प्रकार की भी हिंसा नहीं करता। अहिंसा का क्षेत्र इतना विशाल है कि इस पर पूर्ण रूप से चलना छुरी की धार पर चलने के समान । बड़े-बड़े संत महात्मा भी सब सुख ऐश्वयं का त्याग करके इस महाव्रत का पालन करने में अनेक विघ्न बाधाओं का सामना करते हैं । बैरिस्टर सावरकर लिखते हैं हिंसा और अहिंसा के कारण दुनियां चलती है । अपनी-अपनी सीमा के अन्दर दोनों आवश्यक हैं। इनके बिना संसार चल नहीं सकता। माता अपने वक्षस्थल से बच्चे को दूध पिलाती है. उसके त्याग में अहिंसा जरूर है, परन्तु जिस समय उस पर कोई दूसरा आक्रमण करने के लिये आता है तो वह मुकाबले पर हिंसा के लिये तैयार हो जाती है। इस प्रकार हिंसा-अहिंसा दोनों एक स्थान पर विद्यमान हैं । समस्त सृष्टि हिंसा-अहिंसा पर खड़ी है। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) इससे तो यह प्रतीत होता है कि माता जो आक्रमणकारी की हिंसा के लिये उतरती है, वह उचित है ।" १ इस प्रसंग पर यदि विचार किया जाये तो आक्रमणकारी के मुकाबले के लिये माता का पराक्रम प्रशंसनीय ही माना जायेगा | अन्याय वृत्ति से परराष्ट्र वाला अपने देश पर आक्रमण करे उस समय अपने आश्रितों की रक्षा के लिये संग्राम में प्रवृत्ति करना हिंसा की श्र ेणी में नहीं आता क्योंकि यदि वह आत्म रक्षा और अपने आश्रितों के संरक्षण में चुप होकर बैठ जाये तो न्यायोचित अधिकारों की दुर्दशा होगी। जान, माल, मातृ जाति का सम्मान आदि सभी संकटपूर्ण हो जायेंगे । इस प्रकार अन्त में महान धर्म का ध्वंस होगा । इसीलिये देश और धर्म में से देश की रक्षा पर जोर दिया गया है क्योंकि देश स्वतन्त्र होने पर धर्म की रक्षा स्वत: ही हो जायेगी । यही कारण है कि देश रक्षा, आत्म-रक्षा व न्याय-रक्षा के लिये जहाँ शस्त्रादि का प्रयोग किया जाये वहाँ हिंसा नहीं मानी जाती। ऐसे समय यदि तलवार न उठाई जाये तो शत्रु का उत्साह दुगुना हो जाता है और फिर एक प्रकार से अपती दुर्बलता द्वारा शत्रु को प्रोत्साहन देना भी तो हिंसा ही है। दुष्टों को यदि दंड न दिया जाये तो मे पाप कर्म में उत्साहित होकर हिंसा हो तो फैलायेंगे । यदि हम पचास सज्जनों को हिंसा से बचाने के लिये एक दुष्ट आततायी का वध करते हैं तो यह अहिंसा धर्म का पालन ही कहलायेगा क्योंकि इस कर्त्तव्य पालन द्वारा पचास सज्जनों की जान बचती है। धर्मशास्त्र भी यही फरमाते हैं कि 'आत्मरक्षार्थं हिंसा - हिंसा न भवति' जिसके कुछ प्रमाण हम यहाँ दे रहे हैं 'हे इन्द्र ! पापी, छली तथा हमें चूसने वाले को तू माया से पराजित कर । २ १. विशाल भारत सन् ४१ २. “मायामिरिन्द्रमायिनं त्वं शुण्णमवातिरः " * ऋग्वेद - मण्डल १. सूत्र ११, मंत्र ७ T Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ::( joj ) यजुर्वेद में कहा है "हे प्रभो जो हमारी हिंसा करता है उसका आप नाश करें और उसके प्रतिकार में हम भी उसकी हिंसा करते हैं । " "जो असुर दुष्ट लोग धोखा देने के लिये कई तरह के रूप बनाकर झूठे साधू-संत बनकर हमारे धन-पदार्थ को खाते उड़ाते हैं जो हम पर बाहर व भीतर से आक्रमण करते हैं ऐसे स्वदेशी या परदेशी दुष्टों को हे वीर तू दूर भगा दे । " "जो दुष्ट - हमें लूटता है हमसे द्व ेष करता है जो हमारी निन्दा करता है व जो हमारी हिंसा करना चाहता है उस दुष्ट को मारकर भस्म करो । १ इसी प्रकार अथर्ववेद में भी लिखा है कि "जो दुष्ट हम भले पुरूषों पर आक्रमण करते हैं, वे नीचे गिरें और नीचे हों। उन शत्रुओं का मैं विज्ञान की सहायता से नाश करता हूँ और अपने साथियों की मदद कर उन्हें ऊपर उठाता हूँ ।"२ अतः आतताइयों अथवा दुष्टों को दंड देना धर्म है क्योंकि इससे अहिंसा के व्रत को बल मिलता है। गुप्तकाल की कठोर दंड व्यवस्था इस बात का प्रमाण है कि उस काल में लोग पाप से बचकर अधिक सन्मार्गोन्मुख होते थे । यदि दंडनीयों को उचित दंड न दिया जाये तो संसार में इतनी खलबली मच जायेगी और लूट खसोट होने लगेगी कि सर्व साधारण का तो जीना ही दूभर हो जायेगा । कान में भी आत्मरक्षा के लिये यदि किसी का वध कर १. धूरसि धर्व धर्वन्तं घव तं योस्मान् धर्वति तं धर्व यं वयं धर्वामः । १ / ८ रूपाणि प्रतिमुञ्चमाना असुराः संत स्वधया चरन्ति । 2 परापुरो निपुरो से भरन्त्यग्निष्टाँल्लोकात प्रणुद्रात्यस्मात् ॥ २/३० योऽथमभ्य मरातीयाद्यश्च नो द्व ेषते जनः निन्दाद्योऽअस्मान् धिप्साच्च सर्व तं भस्मसा कुरू ।। ११/८० २. नीचैः पद्यन्तामधरे भवन्तु ये नः सूरि मधवानं पृतन्यान् । क्षिणामि ब्रह्मणावित्रान्नयामि स्वानहम | काण्ड ३, अनु० ४, सूत्र १९ मंत्र ३ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५ ) दिया जाये तो वह हिंसा की कोटि में नहीं आता क्योंकि आत्म रक्षा प्रत्येक व्यक्ति का जन्म सिद्ध अधिकार है। ___ मनुस्मृति में कहा गया है 'जब द्विजों के धर्म का मार्ग रूके अथवा समय के प्रभाव से आश्रम वालों का वर्ण विप्लव होने लगे उस समय अपनी रक्षा के लिये तथा दक्षिणा के समय, युद्ध में स्त्रियों तथा ब्राह्मणों की रक्षा के लिये द्विजाति भी शस्र ग्रहण करे क्योंकि धर्म युद्ध में शत्रुओं को मारता हुआ दोष का भागी नहीं होता।" "गुरू, बालक, वृद्ध अथवा बहुश्रु त ब्राह्मण भी यदि मारने के लिये आये और अपनी रक्षा का कोई उपाय न दिखे तो बिना विचारे उसका वध करे।" प्रकाश व गुप्त रीति से आततायी को मारने से मारने वाले को कुछ पाप नहीं होता क्योंकि क्रोध ही क्रोध का नाश करता है अर्थात् क्रोध अपराधी है और क्रोध ही मारने वाला है।"१ - रामायण का वह प्रसंग भी यहाँ उल्लेखनीय है जब ताड़का जंगल के ऋषियों को कष्ट देती है और तरह-तरह की हिंसा करती है तब अहिंसावादी ऋषि विश्वामित्र रामचन्द्रजी को ताड़का को दंड देने का उपदेश देते हैं। महाभारत भी कहता है कि जो जैसे करे उससे वैसा ही करो। जो तुम्हारी हिंसा करता है तुम भी उसकी हिंसा करो। इससे मैं अहिंसा धर्म के पालन में कोई दोष नहीं देखता क्योंकि शठ के साथ शठता ही करनी चाहिये । १. शस्त्रं द्विजातिमिर्ग्राह्य धर्मों यत्रोपरूध्यते । द्विजातिनां च वर्णानां विप्लवे कालकारिते ॥ ८/३४८ आत्मनश्च परित्राणे दक्षिणानां च संगरे । स्त्री विप्राभ्युपपत्तौ न घ्नन्धर्मेण न दुष्यति ।। ८/३४९ गुरू वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वां बहुश्रु तम् । आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारियन् ॥ ८/३५० नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन । प्रकाशं वाप्रकाशं वा मन्युस्तं मन्युमृच्छति ॥ ८/३५१ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) अहिंसा के वास्तविक अर्थ को समझने में असमर्थ होने के कारण ही हमारा राष्ट्र रसातल में गिरा। पहले हम यवनों के गुलाम बने और फिर अंग्रेजों के। जब मेहमूद गजनवी ने सोमनाथ के मंदिर पर आक्रमण किया । तब हजारों ब्राह्मण शिव-शिव जाप करते रहे, किन्तु शस्र उठाकर आततायी का मुकाबला करने का साहस न जुटा पाये, जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि यवनों ने लाखों व्यक्तियों को मौत के घाट उतारा, निरीह स्त्री व बच्चों पर अत्याचार किये लाखों का धर्म भ्रष्ट किया, भारत को दासता की जंजीरों से जकड़ दिया। अहिंसा के वास्तविक अर्थ को न समझने का यह दुष्फल आया हमारे सामने। अहिंसा के पुजारी महात्मा गाँधी ने भी कहा है कि “कायरत को हम अहिंसा नहीं कह सकते। जिस अहिंसा से सौ गुनी हिंसा पैदा हो उससे हमारा काई प्रयोजन नहीं। यदि दुष्ट, चोर अथवा डाकू हमारे घर आकर हमारा सामान उठाकर ले जाना चाहता है अथवा हमारी बहू-बेटियों को कुद्दष्टि से देखता है या हमें मार्ग में सताता है और हम उसे हिंसा के डर से कुछ नहीं कहते तो हम उसकी हिंसा-वृत्ति को प्रोत्साहन देकर उसे और भी अधिक हिंसक बनाते हैं तो क्या यह अहिंसा है या हिंसा?" नि.संदेह इसे हम हिंसा ही कहेंगे। जिस गांधी ने अहिंसा के बल पर भारत को दासता की बेड़ियों से मुक्त कराया उसी गाँधीके अनुयायियों को आततायी कबाइलियों से निरीह कश्मीर की रक्षा के लिये भारत की सैन्य शक्ति का प्रयोग करना ही पड़ा। यहां प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि सैनिक शक्ति के प्रयोग से जो शत्रु-संहार हुआ क्या वह हिंसा नहीं कहलायेगा ? उत्तर नकारात्मक ही होगा क्योंकि न्याय की रक्षा के लिये की गई हिंसा-हिंसा नहीं कहलाती। यहाँ अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के ये शब्द विशेष रूप से ध्यान देने योग्य हैं-"मुझे युद्ध से घृणा है और में उससे बचना चाहता हूँ। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) मेरी घृणा अनुचित महत्वाकांक्षा के लिये होने वाले युद्ध तक ही सीमित है । न्याय रक्षार्थ युद्ध का आव्हान वीरता का परिचायक है । अमेरिका की अखंडता के रक्षार्थ लड़ा जाने वाला युद्ध न्याय पर अधिष्ठित है। अतः मुझे उससे दुख नहीं है ।"१ निष्कर्ष रूप से शस्र उठाकर मारने के लिये उद्यत शत्रु के साथ शत्र द्वारा ही संघर्ष करना हिंसा नहीं प्रत्युत अहिंसा ही है । भारतीय दंड विधान में किसी व्यक्ति को प्राणघातक का अपराधी स्वीकार करते समय उसमें घातक मनोवृत्ति का सद्भाव प्रधानतया देखा जाता है । इसी कारण आत्मरक्षा के भाव से शस्रादि द्वारा अन्य का प्राणघात करने पर भी व्यक्ति दंडित नहीं होता। १. युगधारा, मासिक मार्च ४८, पृ० ५२६ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस्लाम धर्म में अहिंसा का स्वरूप अरब की मरूभूमि इतिहास में प्रसिद्ध है । कारण कि इस मरूस्थली में एक ऐसे महपुरुष ने जन्म लिया जिसे करोड़ों नर-नारी अवतार मानकर पूजते हैं, जिसके एक-एक शब्द पर उसके अनुयायी प्राणोत्सर्ग करने को तत्पर हैं, वे महापुरूष हैं - पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहिब । इन्होंने [ ५७० - ६३२ ] अरब के उन असभ्य लोगों को, जिन्हें इनसे पूर्वं कोई भी वश में करने में समर्थन हुआ था, बत्तीस वर्ष तक अपने कठोर नियंत्रण में रखा। इनसे पूर्व अरब में छोटे-छोटे राज्य आपसी कलह में लगे रहते थे, नाना देवी-देवताओं में विश्वास रखते थे, उन्हें प्रसन्न करने के लिये अनेक विध विधि-विधानों और अनुष्ठानों का प्रयोग करते थे । मुहम्मद साहब ने एक निराकार ईश्वर [ अल्लाह ] की पूजा का प्रचार किया। बालिका वध, द्यत तथा मदरा सेवन आदि बुराइयों तथा हानिकर रूढ़ियों का खण्डन किया । यद्यपि प्रारम्भ में उनके विचारों का विरोध हुआ किन्तु शीघ्र ही सारा अरब उनका अनुयायी हो गया । उनके उपदेशों ने अरब में नवजीवन का संचार किया । हजरत मुहम्मद ने जिस नये धर्म का प्रारम्भ किया उसे ही इस्लाम के नाम से जाना जाता । मुहम्मद उसका रसूल है । प्रत्येक मुसलमान के लिये जिस प्रकार अल्लाह में विश्वास रखना आवश्यक है, उसी प्रकार इस्लाम में इमान लाना भी अनिवार्य है । जो ज्ञान ईश्वर ने अपने रसूल मुहम्मद द्वारा प्रदान किया उसे कुरान कहते हैं, जिसके प्रारम्भ में ही खुदा को "बिस्मि - ल्लाह रहीमान्नुर रहीम" अर्थात् उदार और दयावान कहकर सम्बोधित किया गया है । इस्लाम धर्म के सिद्धांतों की जानकारी मुख्यतः चार ग्रंथों से होती है - कुरान सुन्ना, इज्म और किअस । जिनमें ईश्वर में विश्वास करने, धर्म पथ प्रदर्शकों के विचारों पर आस्था रखने, गरीबों व दुर्बलों पर दयाभाव Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९ ) रखने की ही शिक्षा दी गई है । लोभ, क्रोध, हत्या, झूठा, अभियोग, असत्य भाषण, हिंसा आदि को त्याज्य कहा गया है । ___स्पष्ट हैकि इस्लाम परम्परा में उन तत्वों की अवहेलना की गई जिनसे हिंसा भाव की उत्पत्ति होती है और उन्हीं तत्वों को अपनाया गया है जिनसे अहिंसा भाव की पुष्टि होती है । कुरान में खुदा को सभी जीवों का जन्मदाता कहा गया है तब फिर जो जन्म देता है वह अपनी ही आज्ञा से जीवों को क्यों मरवायेगा ? और फिर यदि जीवों की कुर्बानी उचित होती तो धर्म स्थानों और तीर्थ स्थानों पर उनकी कुर्बानी का निषेष क्यों होता। कुरान में कहा गया है "कक्का और उसकी हद तक किसी को, किसी जीव को नहीं मारना चाहिये और अगर भूल से मरे तो उसके बदले में अपना पाला हुआ जानवर छोड़ना चाहिये अथवा दो समझदार मनुष्य जो उसकी कीमत ठहरावें उतनी कीमत का खाना गरीबों को खिलाया जाये " इस धम ग्रंथ में तो यहाँ तक लिखा हैं कि मक्का शरीफ की यात्रा को जबसे जाओ तबसे जब तक वापिस न लौटो तब तक रोजा रखो और जानवरों को मत मारो तथा धर्म के जो खास-खास दिन गिनाये गये हैं. इन दिनों माँस मत खाओ। विचारणीय है कि यदि जीवों का संहार करने में धर्म होता तो धर्म ग्रंथ कुर्बानी करने की मनाही क्यों करते ? - कुरान स्पष्ट कहता है 'खुदा तक न गोश्त पहुँचता है और न खून ! बल्कि उस तक तुम्हारी परहेजगारी पहुँचती है।"१ कुरान के सूर-ए-अनाम में लिखा है “जमीन में जो चलने-फिरने वाला (हैवान या आकाश में दो पैरों से उड़ने वाला पक्षी है उसकी भो तुम लोगों जैसी जमायतें हैं ।''२ आगे चलकर सूर-ए निशा में लिखा है "खुदा उन्हीं लोगों की तौबा कबूल फरमाता है, जो नादानों से बुरी हरकत कर बैठते हैं भिर जल्द तौबा १. कुरान शरीफ-सूर-ए-अल हज्ज आयत ३७ २. वही, सूर-ए-अनाम आयत ३८ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) कर लेते हैं ऐसे लोगों पर खुदा मेहरबानी करता है । वह सब कुछ जानता है और हिकमत वाला है । ऐसे लोगों की तौबा कबूल नहीं होती जो ( सारी उम्र) बुरे काम करते | यहाँ तक कि जब उनमें से किसी की मौत आ मौजूद हो तो उस वक्त कहने लगे कि अब मैं तौबा करता हूँ ।" १ ये प्रमाण हमें यही दिखला रहे हैं कि सब जीवों पर रहम द्दष्टि रखो । किंवदन्ती है कि एक समय काबुल के अमीर हिन्दुस्तान की यात्रा को आये । उस समय 'ईद' का त्यौहार मनाने वे देहली पधारे। वहाँ के मुसलमानों ने उनके हाथों से कुर्बानी कराने के लिए कई गायें इकट्ठी की मुसलमान समझते थे कि अमीर साहब हम पर प्रसन्न होंगे, किन्तु अमीर साहब ने मुसलमानों की इस तैयारी को देखकर कहा कि कुरान में तो गायों की कुर्बानी I आज्ञा है ही नहीं। गौ-वध इस ख्याल से भी नहीं करना चाहिये क्योंकि हिन्दू हमारे पड़ोसी है और गौ वध से उनके दिल में दुख होगा जबकि कुरान में स्पष्ट फर्मान है कि अपने पड़ोसियों के साथ हिल-मिल कर रहो फिर मैं गौ वध करके कुरान की आज्ञा का उल्लंघन क्यों करू । इसी तरह सुबुक्तगीन के स्वप्न की बात भी सर्वविदित है कि वह एक साधारण स्थिति का मुसलमान था, किन्तु था बड़ा दयालु । खुद दरिद्र होते हुए भी किसी को दुखी देखकर उसकी सहायता करने को तैयार रहता था । एक दिन वह घोड़े पर चढ़कर जंगल में घूमने गया । वहाँ उसने एक हिरणी के बच्चे को देखा तो उसे अपने घोड़े पर ले लिया । बच्चे की माँ कुछ ही दूरी पर घास खा रही थी। जब उसने देखा कि मेरे बच्चे को एक आदमी लिये जा रहा है तो वह घोड़ े के पीछे पीछे चलने लगी । बच्चे के वियोग में उसका चेहरा उतर गया । सुबुक्तगीन को उसके दर्द का अहसास हुआ। उसने सोचा अगर यह हिरणी बोल सकती होती तो अवश्य बच्चे को छोड़ने की प्रार्थना करती । मूक पशु के दर्द को समझते ही उसने बच्चे को धीरे से नीचे रख १ कुरान शरीफ सूर - ए - निशा आयत १७ - १८ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१ ) दिया। हिरणी बड़े आनन्दपूर्वक बच्चे को प्यार करने लगी। इसी दश्य को देखकर सुबुक्तगीन को लगा कि यह हिरणी मुझे आशीर्वाद दे रही है। उसी रात सुबुक्तगीन ने एक स्वप्न देखा । स्वप्न में मानो हजरत मुहम्मद खुद उसके पास जाकर कह रहे है कि सुबुक्तगीन तूने आज हिरणी और असके बच्चे पर जो दया दिखाई है, इससे खुदा तेरे पर बहुत प्रसन्न हुए है, उनकी इच्छा से तू राजा होगा। जब तू राजा हो तब भी तू दुखियों पर उसी प्रकार दया करना । वैसा करने पर खुदा तुझ पर हमेशा खुश रहेंगे । वास्तव में कुछ दिनों बाद सुबुक्तगीन राजा हुआ । मुसलमानों में दया सम्बन्धी इतने प्रमाण मिलने के बावजूद भी क्या कारण है कि उनमें बकरे, भेड़िये, ऊंट आदि की कुर्बानी दी जाती है ? आइये जरा एक नजर इसकी मूल उत्पत्ति पर डालकर देखे तो हमें क्या रहस्य मालूम होता हैं इब्राहिम पैगम्बर जब इमान में आये तब उनके इमान की परीक्षा करने के लिए अल्लाहताला ने उनको कहा कि तुम अपनी प्यारी से प्यारी वस्तु की कुर्बानी दो | तो इब्राहीम पैगम्बर ने अपने इकलौते पुत्र इस्माइल को मारने के लिए तैयार किया और अपनी आँखों पर पट्टी बांधकर छुरी से जैसे ही उसे मारने लगते है, वैसे ही अल्लाहत ला की कुदरतसे लड़के के स्थान पर एक भेड़ (दुम्बा) आकर खड़ा हो गया । वह कट गया और लड़का बच गया । बाद में अल्लाहताला ने उसे दुम्बे को भी जिन्दा कर दिया । + 1 इस कथा से हमें यह नहीं समझ लेना चाहिये कि इब्राहिम पैगम्बर ने अपने लड़के के बदले दुम्बे को मारा तो दुम्बे अथवा बकरे की बलि देना उचित है । कथा का आशय तो यह है कि अल्लाहताला ने इब्राहिम पैगम्बर की परीक्षा लेने के लिए इस प्रकार का प्रयत्न किया था। अब क्या अल्लाहताला ने हुकम दिया है, जैसा कि इब्राहिम पैगम्बर को हुकम दिया था । यदि ऐसा है तो इब्राहिम पैगम्बर की तरह ही अपने पुत्र की बलि देने को तैयार होना चाहिए। बाद में अल्लाहताला को मर्जी उस लड़कों को हटाकर . Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) बकरा अथवा दुम्बा जो भी रखने की होगो, रख लेंगे। शुरू में ही क्यों निर्दोष एवं मूक पशुओं को कुर्बानो के लिये तैयार कर दिया जाये । और फिर यदि स्वर्ग प्राप्ति का माग इतना सुगम है तो जैसा कि धर्म सुधारक कहते हैं पढ़े नमाज रखे फिर रोजा, परायें पुत्र का काढ़ हिया। गर दहिश्त मिले यों ही तो, क्यों न कुटुम्ब हलाल किया। मुहम्मद साहिब जिनका कलेजा रेत में तड़पते हुए एक विच्छ को देख. कप द्रवित हो उठता है, पकड़कर उसे छाया में रखते हैं । बिच्छु उनके हाथ में काटकर फिर धूप में चला जाता है । फिर उठाते हैं बिच्छु काटता है । ऐसा तीन बार करने पर उनका साथी कहता है “यह तो हैवान है, काटता रहता है, फिर भी आप उस हैवान को बचाते हो जा रहे हैं । ऐसे कष्टदायी हैवान को तो मार डालना चाहिये।" मुहम्मद साहब के मुख से क्या निकलता है ? कि बिच्छु जब हैवान होकर भी अपने धर्म को नहीं छोड़ता तो मैं मनुष्य होकर अपने धर्मे को कैसे छोड़ सकता हूँ? विचारणीय हैं कि जिसका अन्त करण इतना दयालु हो क्या वह किसी की प्राण हत्या का आदेश दे सकता है ? धर्म शास्त्रों के ज्ञाता मुसलमान मौलवी स्पष्ट कहते हैं कि मुस्लिम धर्म ग्रन्थों में कहीं भी जीव हिंसा (कुर्बानी) के लिये नहीं कहा गया है। अबुलअला केवल अन्नाहार करता था और दूध तक नहीं पीता था। कारण, वह मानता था कि माता के स्तन से बच्चे के हिस्से का दूध भी दुह लिया जाता है । इसलिये वह पाप मानता था। जहां तक बनता था, वह आहार भी नहीं करता था। उसने मधु का भो त्याग कर दिया था। अण्डा भी नहीं खाता था। आहार और वस्त्र की दृष्टि से वह सन्यासियों की भांति रहता था। पांव में लकड़ो को पावड़ी पहनता था। कारण, पशु को मारना और उसका चमड़ा काम में लाना पाप है। मुस्लिम संतों में राबिया गजब के अहिंसा प्रेमी थे। प्राणी मात्र के प्रति उनके हृदय में आर ममता थी। अल्लाह की इबादत और बंदगी में कोई खलल Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न हो इसके लिये वे घने जंगल में जाकर रहते थे। संत हसन बसरी भी प्रायः जंगल में उनसे मिलने जाया करते थे। एक बार वे राबिया के पास गये। उस समय राबिया ध्यानस्थ थे और उनके चारों ओर वन्य-वशु प्राणी-हित चिन्तक के रूप में बैठे थे। हसन साहब को देखते ही सभी पशु-प्राणी भयभीत होकर भाग गये । हसन साहब को बड़ा आश्चर्य हुआ। राबिया ने हसन से पूछा-किब्ला, आज आपने क्या खाया है? हसन साहब ने कहा-गोश्त । राबिया ने व्यंग्य का चाबुक फटकारते हुए कहा--"हसन साहब ! आप गोश्त खाते हैं, फिर भला ये बेचारे मासूम पशु-प्राणी आपसे भयभीत क्यों नहीं होंगे ? कब्रिस्तान के साथ साक्षात् यमराज को देखकर तो बड़े-बड़े योद्धा भी भाग खड़े होंगे, फिर ये बेचारे पशु-प्राणी भाग जायें तो इसमें आपको इतना आश्चर्य क्यों है ? मुल्तान के एक मौलवी ने मांस खाना छोड़ दिया। जिसका कारण उसने यूबताया “मैं एक दिन मुर्गी हलाल करना चाहता था। ज्योंहि मैंने उसे उठाया, वह मेरे मुह की ओर दुःख भरी आँखों से देखने लगी। मेरे दिल ने कहा कि बेचारी लाचार है, तुझसे रहम की भीख मांग रही है और तू इतना बेरहम है कि फिर भी बेचारी को मार डालेगा। दिल की पुकार को मैंने सुना और उस मुर्गी को छोड़ दिया । उस दिन से मैंने गोश्त न खाने को अहद (प्रतिज्ञा) कर ली।" सत्य ही तो है, मनुष्यों को प्राणों के बदले यदि पर्वत के समान सोना दिया जाये तो वह इतना मूल्यवान सोना भी नहीं लेना चाहेगा। विचारिये, जानवर का जीवन भी तो उतना ही प्यारा है। ___ महामान्य हजरत अली साहब फरमाते हैं किन्तु पशु-पक्षियों की कब्र अपने पेट में मत कर । सुप्रसिद्ध मुस्लिम बादशाह अकबर महान का कहना था Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) “यह उचित नहीं है कि एक आदमी अपने पेट को पशुओं की कब्र बनाये।"१ अकबर व जहांगीर के दया सम्बन्धि विचारों एवं जीव-हिंसा निषेध हेतु किये गये कार्यों के लिये मेरी प्रथम पुस्तक "मुगल समाटों की धार्मिक नीति पर जैन संतों ( आचार्यों एवं मुनियों ) का प्रभाव" देखें। इस्लाम शब्द की उत्पत्ति पर ही ध्यान देने से इस धर्मकी करूणा स्पष्ट रूप से विदित हो जाती है , सीन्, लाम्, मीम्=सल्म = दया करना । सल्म धातु से इस्लाम को पुस्तक अर्थात् कुरान शरीफ में अकारण हरी पत्तो तोड़ना तक पाप हैं। विचारिये, जिस धर्म में सूक्ष्म जीवों को त्रास पहुचाने का निषेध हो क्या व धर्म स्थूल जीवों की कुर्बानी को आज्ञा दे सकता है ? . 1. It is not right that a man should make his stomach the grave of animals. आइन- ए-अकबरी एच.एस. जैरेट द्वारा अनदित भाग ३, पष्ठ ४४३ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा और सिख धर्म - 'सिख' शब्द मूलत संस्कृत के 'शिष्य' शब्द से प्राकृत में परिवर्तन पाकर आया है। सतयुग में लोग तप करते थे, त्रेता में यज्ञ, द्वापर में दान किंतु कलियुग में इन कर्मों के करने से लोग संकोच करते थे और नीच कर्मों में संलग्न हो रहे थे । अज्ञानान्धकार के कारण शुभ कर्मों की निन्दा करते थे धर्म जिसके सहारे सृष्टि खड़ी है, कमजोर होकर पतन के गर्त में जा पहुंचा। जब धर्म रूपी बैल धरतो के नीचे खड़ा चोख-पुकार रहा था तब परमात्मा ने गुरू नानक देव को जगत में भेजा, जो सिख धर्म के प्रणेता हैं। इस परम्परा में उनके पश्चात गुरू अगद, गुरू अमरदास गुरू रामदास, गुरू अर्जुनदेव, गुरू हरगोविन्द, गुरू गोविन्दसिंह हुए । इन गुरूओं के उपदेशों का संकलन 'गुरू ग्रंथ साहिब में है। ___ गुरू ग्रंथ साहिब में संकलित उपदेशों में मूलत अहिंसा, प्रेम और विश्व बन्धुत्व को ही प्रधानता दी गई है । गुरूओं ने कर्मों को प्रधानता देते हुए हिंसा-युक्त कर्म-काँड का विरोध किया है क्योंकि वे यज्ञ के निमित्त हिंसा एवं बलि के विरूद्ध थे यथा-गुरू नानक कहते हैं जो सिर काटे और का अपना रहे कटाय । धीरे-धीरे नानका बदला कहीं न जाय ।। एकदा गुरूनानक कुरूक्षेत्र पहुचे । उस समय सूर्य ग्रहण का मेला लगा हुआ था। गुरूजी ने पंडितों से चर्चा हेतु एक देगची में माँस पकाना शुरू किया। सूर्य ग्रहण के समय देगची में माँस पकता देख हिन्दू पंडितों को आश्चर्य होना स्वाभाविक था। नानू पंडित जो स्वयं को बड़ा विद्वान समझता था, गुरूजी से Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) कहा-मांस खाना घोर पाप है, इसके खाने से तो लोक-परलोक बिगड़ जाता है । तब गुरूजी ने माँस की परिभाषा देकर उसे इन शब्दों में समझाया कि माँ के गर्भ से लेकर मरने तक मांस के साथ किस प्रकार सम्बन्ध रहता है पहिला मासहु निमिआ मास अदरि वासु । जीउ पाई मासु मुहि मिलिआ हड चमु तनु मासु ॥ मारहु वाहरि कढिा मसा मासु गिरास । मुहु माँसै का जीभ माँस की माँसै अदरि सासु ॥ वडा होभा वी आहिआ धरि ल आइमा मासु । मासहु ही मासह ऊपजै मासहु सभी साक ।। . सतिगुरि मिलिए हुकमु वुझीए तां को आवै रासि । आपि छूटे नहीं छूटीए नानक बनि विणासु ॥१ प्रस्तुत पुस्तक में इसी फुटनोट में कहा गया है कि इसका यह भाव नहीं कि गुरूजी ने माँस खाना ठीक या जरूरी बताया। भाव यह है कि जो पुरुष दूसरों को लूट-लूट कर खाता है और अत्याचार करता है उसका यह कहना कि मांस खाना जीव हत्या है, पाखण्ड और धोखा है । सच्चा वैष्णव वही है जो किसी प्रकार भी किसी का हृदय नहीं दुखाता। __ शुद्ध एवं सात्विक भोजन पर बल देते हुए गुरू ग्रंथ साहब में कहा गया है-“कपड़े पर खून का दाग पड़ने से शरीर अपवित्र माना जाता है तो यही खून पेट में जाने से चित्र निर्मल कैसे हो सकता है ।"२ अत्याचारी मुगल शासकों के राज्यकाल के गुरुगोविन्दसिंह जी को स्वतः क्वचित माँसाहार करने की और इस तरह सिखों को वैसा आहार करने की आवश्यकता पड़ी होगी, परन्तु इसे सर्वकालिक छूट मानकर लोग आज उसका १. श्री गुरूनानक देवजो-सोढी तेजा सिंघ जी पृष्ठ ५९ २. जे रत्त लग्गे कप्पड़े, जामा होय पलीत्त । जे रत्त पीवे मानसा, तिन कियो निर्मल चित्त ।। पृष्ठ १४० Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ ) दुरुपयोग स्वाद लोलुपता हेतु करें तो इसे हम गुरुओं का आदेश नहीं मान सकते । इस सम्बन्ध में अरविन्दर कौर लिखतो हैं- “एक दिन मैंने अपनी एक सहेली को (जो सिख है) यह बताया कि मैं मीट या नॉनवेज नहीं खाती हूँ। मेरो बात सुनते ही वह बोली मीट नहीं खाती, कैसी सरदार है तू ? यही बात मैंने कितने लोगों को एक-दूसरे से कहते सुनी है। लेकिन मैं यह सोचती हूँ -मीट खाने पर हमें मनाही हैं फिर भी हम लोगों से उपरोक्त प्रश्न पूछते हैं ।"१ गुरुओं ने तो जीवदया का ही उपदेश दिया है। गुरुनानक के समय कौड़ा राक्षस का उल्लेख आता है जो विन्ध्याचल के नीचे दक्षिणी जंगलों में रहता था और आदमखोर भील जाति का सरदार था एवं आदमियों को मार कर खाता था । गुरुजी ने अपनी आत्मशक्ति ये कौड़े कुकर्मों से हटाकर जीवों पर दया करने का उपदेश देकर राक्षस से देवता बना दिया। सर्व भूतों के प्रति प्रेम भाव का उपदेश देते हुए गुरु गोविन्द सिंह जी कहते हैं- "जिन प्रेम कियो, तिन ही प्रभु पायो।" उन्होंने कभी भी पहले किसी पर आक्रमण नहीं किया लेकिन "आत्मरक्षार्थ हिंसा-हिंसा न भवति" उक्ति का अनुकरण करते हुए आक्रमणकारी का सामना किया। वे कहते हैं - चूँकार अजहमा हीलते दर-गुजशत" अर्थात् जब बातचीत से शांति के सारे प्रयास विफल हो जाये या शांति,से अपनी आजाद तथा धर्म का हक न मिले तो इसको पाने के लिये शस्र उठाना उचित (हलाल) है। जैसाकि सभी धर्मो में कहा गया है-"न किसी से डरो, न डराओ, न किसी का हक मारो न अपना हक छोड़ो। आजादी से जोयो और दूसरों को भी जीने दो।" १ नानका संदेश -लेख -सिख धर्म व आज की स्त्री पृष्ठ १८ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईसाई धर्म और अहिंसा ___आज विश्व में जिस मत के अनुयायी अरबों की संख्या में हैं ऐसे मत के संस्थापक प्रभु ईसामसीह ने ईसाई मत की नींव अहिंसा एवं प्रेम पर ही स्थापित की है । अपने शैल प्रवचन में "तू पाणि-हत्या मत कर" की सुवर्ण शिक्षा दी है । इस मत में जन-सेवा को प्रभु-सेवा माना गया है और इसी को ईश्वर के प्रति प्रेम रूप में पहचाना गया है । प्रेम के बिना अहिंसा और अहिंसा के बिना प्रेम की कल्पना ही नहीं की जा सकती । कौन-सा ऐसा धर्म है जो अपने प्रभु से मिलने के लिये जाते समय और तो सर्वस्व लेकर चले लेकिन अहिंसा को पीछे छोड़ दे । इसीलिये प्रभु योशू को भी कहना पड़ा कि यदि तू प्रार्थना के लिये धर्म मंदिर में जा रहा है और उस समय तुझे याद आ जाये कि मेरी अमुक व्यक्ति से अनबन या खटपट है तो तुझे चाहिये कि तू लौट जा और विरोधी से अपने अपराध की क्षमा याचना किये बिना प्रार्थना करने का तुझे अधिकार नहीं। __जैसे को तैसा का सिद्धांत गलत दर्शाते हुए कहा गया हैं कि आँख के बदलो आँख और दाँत के बदलो दाँत निकाल लेने से समस्या का वास्तविक समाधान नहीं मिल सकता। जो तुम्हारा बुरा करे उसका भी तुम भला हो करो, इसीलिये योशू कहते हैं-"अपने शत्रुओं से प्रेम रखो जो तुमसे बेर रखे उसका भी तुम भला ही करो, जो तुम्हें श्राप दे उनको तुम आशीष दो, जो तुम्हारा अपमान करे उनके लिये प्रार्थना करो, जो तेरे एक गाल पर थप्पड़ मारे उसको ओर दूसरा भी फेर दे और जो तेरी दोहर छोन लो उसको कुरता लेने से भी न रोक, जो कोई तुझसे माँगे उसे दे और जो तेरो वस्तु छीन ले उससे न माँग, और जैसा तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारे साथ करे तुम भी उनके साथ वैसा ही करो।"१ १. बाइबिल लूका ६ : २७-३१. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५९ ) हिंसा भाव की उत्पत्ति होने वाले तत्वों की अवहेलना करते हुए परोपकार के लिए अहिंसात्मक तत्वों को अपनाने पर बल दिया गया है यथा"हत्या न करना, व्यभिचार न करना, चोरो न करना, झूठी गवाही न देना और अपने पड़ौसी से अपने समान प्रेम रखना।"१ ___ समस्त धर्मों की भाँति पाप नरक का हेतु स्वीकार करते हुए बाइबिल में कहा गया है-"परमेश्वर ने उन स्वर्ग दूतों को जिन्होंने पाप किया, नहीं छोड़ा, पर नरक में भेजकर अँधेरे कुडों में डाल दिया ताकि न्याय के दिन तक बंदी रहें ।"२ ___जहां तक मांसाहार का प्रश्न हैं उस पर इस धर्म में कोई प्रतिबन्ध प्रतीत नहीं होता क्योंकि बाइबिल में स्वयं ईसामसीह द्वारा ही अपने भक्तों को मछली भक्षण कराते हुए बताया गया है--"यीशू ने अपने चेलों को बुलाकर कहा, मुझे इस भीड़ पर तरस आता है क्योंकि वे तीन दिन से मेरे साथ है और उनके पास कुछ खाने को नहीं और मैं उन्हें भूखा बिदा करना नहीं चाहता, कहीं ऐसा न हो कि मार्ग में थककर रह जाये। चेलों ने उससे कहा, हमें इस जंगल में कहाँ से इतनी रोटी मिलेगी कि हम इतनी बड़ी भीड़ को तृप्त करें । यीशू ने उनसे पूछा, तुम्हारे पास कितनी रोटि बाँ हैं ? उन्होंने कहा-सात, और थोड़ी सी छोटी मछलियां । तब उसने लोगों को भूमि पर बैठने की आज्ञा दी औ उन सात रोटियों और मछलियों को ले धन्यवाद करके तोड़ा और अपने चेलों को देता गया, और चेले लोगों को । सो सब खाकर तृप्त हो गये और बचे हुए टुकड़ों से भरे हुए सात टोकरे उठाये ।"३ ___यहाँ सहज ही प्रश्न पैदा होता है कि जो यीशू किसी प्राणी की हत्या न करने का उपदेश दे रहे हैं वे ही स्वत. भक्तों को मछली खिला रहे हैं क्या उस समय उन जीवधारियों को प्राणांत का कष्ट नहीं हुआ--ऐसा क्यों ? १ बाइबिल मत्ती १९ : १८-१९ २. वही, पतरस की दूसरी पत्रो २ : ४ ३. मत्ता १५ : ३२-३७ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) चंद महीनों पूर्व लखनऊ में हलवासिया मार्कीट स्थित गिरजाघर में एक नन से मेरी मुलाकात हुई । कुछ प्रश्नों पर चर्चा इस प्रकार हुई१. प्रभु यीशू ने अपने भक्तों को मत्स्य भक्षण क्यों कराया ? प्रश्न पूछने पर प्रत्युत्तर मिला कि प्रभु ने 'मिराकल' किया। मैंने कहा-मिराकल तो केवल रोटियों से भी किया जा सकता था। २. मांसाहार के विषय में चर्चा चलने पर उस नन ने बताया कि यीशू ने जो ४० दिन फास्ट किये उन पवित्र दिनों में मांसाहार का निषेध है । मैंने कहा-मांस जैसी अपवित्र वस्तु का पवित्र दिनों में भक्षण उचित भी कैसे हो सकता है ? ३. अंतिम प्रश्न मैंने पूछा कि क्या आप भी मांस भक्षण करती हैं ? स्वी कारात्मक उत्तर मिलने पर मैंने कहा आपको घृणा नहीं होती ? उन्होंने कहा-हम बनता हुआ नहीं देखते, यदि बनता हुआ देख लं तो कोई सज्जन भक्षण न कर सके । ....... और मैं सोचने लगी कि देखो विवेक, बुद्धि, ज्ञान सर्वस्व होने पर हम जानते हुए भी अनजान बन जाते हैं। परमात्मा ने हमें बड़े प्यारे दो चक्षु दिये हैं लेकिन हम देखने की कोशिश ही नहीं करते और आध्यात्मिक चक्षुओंसे देखने का तो हम कष्ट ही नहीं करते, करें भी क्यों ? क्योंकि फिर हमारी रसनेन्द्रिय का क्या होगा? अत: विवेक चक्षुओं उन्मीलित न करने में ही हमने अपना हित समझ लिया बाइबिल के लूका उपदेश में एक मनुष्य की कथा आती है जिसका छोटा बेटा अपनी सम्पत्ति का भाग लेकर दूर देश में जा कुकर्मों में सम्पत्ति नष्ट कर देता है। अपनी भूल का अहसास होने पर वापिस पिता के पास आता है । पुत्र आगमन की खुशी में पिता दासों से कहता है-“पला हुआ बछड़ा लाकर मारो ताकि हम खावें और आनन्द मनावें " ज्येष्ठ पुत्र इसी बात पर रूष्ट होता है कि उसे तो पिता ने आनन्द मनाने के लिए कभी बकरी का बच्चा भी न दिया और इस नालायक पुत्र के लिए पला हुआ बछड़ा कटवाया। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईसाई साहित्य का परीशीलन करने पर विदित होता है कि इसमें भी वैदिक साहित्य की भांति हिंसा एवं अहिंसा की विचार धाराएं कृष्ण पक्ष एवं शुक्ल पक्ष के समान विद्यमान हैं । एक ओर जहां केवल मनोरंजनार्थ बछड़ा काटा जा रहा है वहीं प्रेरितों के काम' में बलि किए हुए मांस से और लोहू से गला घोंटे हुओं के मांस से और व्यभिचार से बचे रहने की शिक्षा भी बाइबिल में दो गई है। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारसी धर्म एवं अहिंसा पारसियों के विषय में लिखने हेतु विशेष साहित्य तो मुझे उपलब्ध नहीं हुआ, जो कुछ भी प्राप्त हुआ उससे स्पष्ट होता है कि पारसी धर्म के संस्थापक जरथुस्त *(प्रारम्भिक नाम स्पितम) के जन्म के समय ईरान की परिस्थितियां वैसी ही थीं जैसी कृष्ण, महावीर, बुद्ध, नानक के समय भारत की। पारसी भारत में मुसलमानों से पूर्व आये । मूल रूप से सूर्य व अग्नि के उपासक हैं । आज भी इनके मंदिरों में अग्नि निरन्तर प्रज्वलित रहती है । ऐसी मान्यता गुजरात में हैं कि जब ये सर्वप्रथम भारत में आये, यहां बसने की सूरत के राजा से अनुमति मांगी तो राजा ने इस शर्त पर अनुमति दी कि भारत में तुम गायों की रक्षा करोगे। जोव-हिंसा न करने का विधान भी इनमें है । इनके सर्वमान्य 'गाथा' में स्पष्ट दिखलाया है कि जीव जन्तुओं का खास करके रक्षण करना चाहिये। पशु-हिंसा को निन्दनीय कृत्य बताते हुए उन पर अनुकम्पा करने का उपदेश दिया गया है । कहा गया है - ' गाय, आदि का पालना करना, उनको चारापानी देना, हिंसक पशुओं से रक्षा करने से, उसको ईश्वर का आशीर्वाद मिलता है। प्राणी-मात्र की तरफ दया और सहानुभूति से जो देखता है उसी को महात्मा जरथुस्त ने अहिंसा में माना है ।"१ *सोने के रंग का प्रकाश धारण करने वाला १ अशो जरथुस्त पृष्ठ १५-१६ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध धर्म ग्रंथ एवं अहिंसा लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व भारत में महान धार्मिक क्रांति हुई, जिसके प्रवर्तक थे भगवान महावीर एवं महात्मा गौतम बुद्ध । लेकिन विषयान्तर्गत यहां हम केवल महात्मा बुद्ध द्वारा प्रतिपादित बौद्ध धर्म के विषय में ही विचार करेंगे। , बुद्ध के समय भारत की दशा बड़ी विचित्र थी। प्राचीन नैदिक धर्म निरन्तर पतन के गर्त में गिर रहा था। ऋषि-मुनियों द्वारा प्रचलित विधिविधानों में भयंकर विकृति आ चुकी थी। यज्ञोंमें प्रतिदिन सहस्रों मूक पशुओं को होम किया जाता था। गौतम का हृदय इन अमानुषिक अत्याचारों को सहन न कर सका । उन्हें दूर करने के लिये राजपाट को लात मार बोध गया में बोधि द्रम की छाया में सत्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए समाधिस्थ हो गये। बद्धत्व प्राप्त कर सारनाथ नामक स्थान से 'धर्म चक्र प्रवर्तन' करते हए अपने पाँच शिष्यों को विश्व कल्याण की भावना से प्रथम उपदेश इस प्रकार दिया - "भिक्षुओं अब तुम लोग जाओ और बहुतों के कुशल के लिए संसार पर दया के निमित्त देवताओं और मनुष्यों की भलाई, कल्याण और हित के लिए भ्रमण करो। तुम उस सिद्धांत का प्रचार करो जो आदि में उत्तम है. मध्य में उत्तम है और अंत में उत्तम है। सम्पन्न, पूर्ण तथा पवित्र जीवन का प्रचार करो ।' यज्ञों का निषेध : सर्व प्रथम हम वैदिक काल में होने वाले हिंसामय यज्ञों के प्रति बुद्ध के दृष्टिकोण को देखें तो केवल एक ही दृष्टांत से स्पष्टीकरण हो जाता है कि Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) बुद्ध का ऐसे यज्ञों में विश्वास नहीं था । बुद्ध उपदेश देते हुए कहते हैं - वासत्य कल्पना करो कि यह अचिरावती नदी किनारे तक भरकर जा रही है, इसके दूसरे किनारे पर एक मनुष्य आता है और वह किसी आवश्यक कार्य से इस पार आना चाहता है । वह मनुष्य उसी किनारे पर खड़ा हुआ यह प्रार्थना करना प्रारम्भ करे कि ओ, दूसरे किनारे इस पार आ जाओ ! क्या उसके इस प्रकार स्तुति करने से यह किनारा उसके पास चला जायेगा ? हे वासत्य ! ठीक इसी प्रकार एक त्रयी विद्या में निष्णात ब्राह्मण यदि उन गुणों को क्रिया रूप में अपने अंदर नहीं लाता जो किसी मनुष्य को ब्राह्मण बनाते हैं, अब्राह्मणों का आचरण करता है पर मुख से प्राथना करता है- मैं इंद्र को बुलाता हैं, मैं वरूण को बुलाता हूँ, मैं प्रजापति ब्रह्मा, महेश और यम को बुलाता हूँ तो क्या ये उसके पास चले आयेंगे ? क्या इनकी प्रार्थना से हो कोई लाभ हो जावेगा ? अतः स्पष्ट है कि विविध देवताओं का अव्हान कर ब्राह्मण लोग जो उनकी स्तुति करते थे, बुद्ध उसे निरर्थक समझते थे व्यर्थ के कर्मकांड में उनका विश्वास नहीं था । दीघनिकाय में उल्लिखित है कि यज्ञ चालू रखने के लिये कोसल के पसेनदि राजा ( राजा प्रसेनजित ) ने उकट्ठा नाम का गाँव पोक्खरसाति और सालवतिका गांव लोहिच्च ब्राह्मण को पुरस्कार में दिया था । मगध देश के राजा बिंबिसार ने चम्पा ग्राम सोणंदण्ड व्राम्हण को और खाणुमन गाँव कूटदन्त ब्राह्मण को पुरस्कार में दिया था। इसके अतिरिक्त कोसल संयुक्त के नौवें सुत्त से ऐसा प्रतीत होता है कि स्वयं पसेनदि राजा ( प्रसेनजित) यज्ञ करता था किन्तु इन यज्ञों की व्यापकता कोसल एवं मगभ के राजाओं के राजाओं के राज्यों तक ही सीमित थी क्योंकि बड़े-बड़े यज्ञ करना राजाओं और पुरस्कार पाने वाले ब्राह्मणों के लिये ही सम्भव होता हैं । ऐसे बृहत यज्ञ करना साधारण जनता की शक्ति से परे था इसलिये यज्ञों के छोटे संस्करण निकले थे। महात्मा बुद्ध ने ऐसे छोटे-बड़े सभी यज्ञों का विरोध किया । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) संयुक्त निकाय के कोसल संयुक्त में जो ९वा सुत्त ( यसुत्त) है उससे विदित होता है कि जब भगवान श्रावस्ती में थे तब कौशल राजा प्रसेनजित की ओर से एक महायज्ञ होने वाला था। पांच सौ बैल, पाँच सौ बछड़े, पांच सौ बछिया, पांच सौ बकरियाँ और पांच सौ भेड़ सभी यज्ञ के लिये यूप में बंधे थे। जो दास, नौकर और मजदूर थे वे भी लाठो और भय से धमकाये जाकर आंसू गिराते रोते तैयारियां कर रहे थे जब भिक्षुओं ने भगवान को यह सब बताया तो भगवान के मुंह से ये गाथाए निकली अश्व मेध, पुरुष मेध, सम्यक पाश वाजपेय निरगल और ऐसी ही बड़ी-बड़ी करामतें सभी का अच्छा फल नहीं होता है । भेड़, बकरे, और गौवें तरह-तरह के जहां मारे जाते हैं सुमार्ग पर आरूढ़ महर्षि लोग ऐसे यज्ञ नहीं बताते हैं जिस यज्ञ में ऐसी तुले नहीं होती हैं, सदा अनुकूल यज्ञ करते हैं भेड़, बकरे और गौ जहाँ तरह-तरह के नहीं मारे जाते सुमार्ग पर आरूढ़ महर्षि लोग ऐसे ही यज्ञ बताते हैं, बुद्धिमान पुरुष ऐसा ही यज्ञ करे, इस यज्ञ का महाफल है इस यज्ञ करने वाले का कल्याण होता है, अहित नहीं यह यज्ञ महान होता है देवता प्रसन्न होते हैं ।१ वैदिक काल में ऋषि-मुनि अरण्य में रहकर तपश्चर्या करते हुए भी बीच-बीच में सुविधानुसार छोटे-छोटे यज्ञ करते रहते थे। प्रमाण-स्वरूप याज्ञवल्क्य महान तपस्वी होते हुए भी राजा जनक के यज्ञ में भाग लेकर १. संयुक्त निकाय - हिन्दी अनुवाद जगदीश कश्यप, धर्म रक्षित भाग १ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) दस हजार सुवर्ण पादों के साथ एक हजार गायों की दक्षिणा स्वीकार करता है । बुद्ध ने तपश्चर्या के साथ यज्ञ करने को दुगुना दुखदायी बताया है । कन्दकर सुत्त में उन्होंने जो चार प्रकार के मनुष्यों का वर्णन किया है उनमें तीसरे प्रकार के मनुष्य यज्ञ करने वाले हैं जो 'अत्तन्तपो चपरन्तपो च ग्लो' अर्थात् जो अपने को भी कष्ट देते हैं और दूसरे को भी । इस सुत्त में इस प्रकार के मनुष्यों के बारे में भगवान ने इस प्रकार कहा है भिक्षुओ आत्मन्तप और परन्तप मनुष्य कौन सा है ? कोई क्षत्रिय राजा या कोई श्रीमान् ब्राह्मण कोई एक नवीन संस्थागार बनाता है और मुंडन कराके खराजिन ओढ़कर शरीर पर घी तेल चुपड़ता है और मृग के सींग से पीठ खुजलाता हुआ अपनी पत्नी तथा पुरोहित ब्राह्मण के साथ उस सँस्थागार में प्रवेश करता है। वहाँ वह गोबर से लिपी हुई भूमि पर कुछ भी बिछाये बिना सोता है। एक अच्छी गाय के एक अच्छे थन के दूध पर वह रहता है। दूसरे थन के दूध पर उसकी पत्नी रहती है तोसरे से पुरोहित और चौथे से होम करते है । चारों थनों से बचे दूध पर बछड़े को निर्वाह करना पड़ता है ! आगे यज्ञ के समय कहता है मेरे इस यज्ञ के लिये इतने बैल मारो बछड़े, भेड़े बकरे मारो। यूपों के लिये इतने वृक्ष काटो, कुशआसन के लिये इतने दर्भ काटो । उसके दास, दूत एवं कर्मकार दंड के भय से भयभीत हो आँसू बहाते हुए रोते-रोते काम करते हैं। इसे कहते हैं – आत्मन्तप और 1 1 परन्तप । १ (6 विचारणीय है कि कठोर तपश्चर्या के साथ-साथ यज्ञ में निर्दोष पशुओं को होम करने पर क्या उसे तपस्या का सुफल ही मिलेगा, पशुओं को होम करने का दुष्फल नहीं ? या कि तपस्या का पुण्य उसे प्राणि दोष से मुक्त करा देगा ? साधारण जन भी सहज ही कल्पना कर सकते हैं कि पाप-पुण्य को भी यदि एक ओर रख दिया जाये तो भी एक ही यज्ञ में पाँच-पाँच सौ अथवा १. माज्झिमनिकाय पालि भाग - २ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) सात-सात सौ बैलों,बछड़ों की बलि देने पर कृषि की क्या हालत होती होगी? कृषक कैसे करूण क्रन्दन करता होगा? फिर यदि ऐसे अमानुषिक अत्याचारों के विरूद्ध बुद्ध ने आवाज उठाई तो उन्हें वेद निन्दक कहना क्या अनुचित बुद्ध का विचार था कि यज्ञ में पशु-वध करने से यजमान मन, वचन, काया से अकुशल कर्मों का आचरण करता है। इस सम्बन्ध में अंगुत्तर निकाय के मुत्तक निपात में उद्गत शरीर ब्राह्मण का वर्णन आता है जो महायज्ञ को तैयारो करके पांच सौ बैल, बछड़े, बछिया, बकरे, मेढ़ यज्ञ में बलि देने के लिये यूपों में बाँधकर भगवान के पास उनका फल पूछने जाता है तो भगवान यह उत्तर देते हैं—जो यज्ञ प्रारम्भ करता है उसके मन में यह अकुशल विचार आता है कि इतने बैल, बछड़े, इतनी बछिया, बकरे और मेढ़ मारे जाये । इस प्रकार वह सर्वप्रथम दुखोत्पदान अकुशल मन रूपी शस्र उठता है फिर प्राणियों की हत्या के लिए आज्ञा देकर अकुशल वचन रूपी शस्र उठाता है अनन्तर प्राणियों को मारनेके लिये काय शस्र उठाकर मारना शुरू करता है । इस प्रकार यज्ञ में पशुओं को मारने वाला मन, वचन काया से पाप का भागी बनता है । ऐसे अमंगलकारी यज्ञों का महात्मा बुद्ध ने निषेध किया। - बुद्ध द्वारा कैसे यज्ञों की अन मति : बुद्ध ने यज्ञों की निन्दा नहीं की अपितु उसमें होने वाले प्राणि-वध की निंदा की। वे अनुमति देते हैं-अहिंसामय यज्ञों की। यहाँ दीघनिकाय के कुटदन्त सुत्त का प्रसंग देना उचित होगा। एक समय भगवान पांच सौ भिक्षुओं के महा भिक्षु संघ के साथ मगध देश में विचरते हुए खाणुमत नामक ब्राह्मण ग्राम में पहुचे । उस समय कुट. दन्त ब्राह्मण ने महायज्ञ के लिये सात सौ बैल, सात सौ बछिया, सात सौ बछड़े, सात सौ बकरे, सात सौ भेड़े यज्ञ के लिये इकट्ठे किये थे । खाणुमत के Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मण भगवान के दर्शन के लिये कुटदन्त के प्रसाद के आगे से जा रहे थे तो कुटदन्त के मन में विचार आया कि श्रमण गौतम सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ सम्पदा को जानता है । मैं महायज्ञ करना चाहता हूँ क्यों न श्रमण गौतम के पास चलकर सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ सम्पदा को पूछ् । उस समय जो ब्राह्मण कुटदन्त के महायज्ञ का उपभोग करने के लिये इकट्ठे हुए थे वे कुटदन्त से कहते हैं कि आप श्रमण गौतम के दर्शनार्थ जाने योग्य नहीं हैं, श्रमण गौतम ही आपके दर्शनार्थ आने योग्य है। लेकिन कुटदन्त के मुख से बुद्ध की प्रशंसा सुनकर वे ब्राह्मण भी उनके दर्शनार्थ जाते हैं । वहाँ जाकर कुट दन्त भगवान से सोलह परिष्कार सहित त्रिविध यज्ञ सम्पदा का उपदेश सुनने की इच्छा व्यक्त करता है। तब भगवान कहते - पूर्व काल में अति वैभव सम्पन्न महाविजित नामक राजा था। उसके मन में महायज्ञ करने का विचार आता है । तब वह पुरोहित ब्राह्मण को बुलाकर कहता है कि मुझे ऐसा महायज्ञ बताओ जो चिरकाल तक मेरे हित सुरक्षा के लिये हो । पुरोहित ने कहा- इस समय आपके राज्य में शांति नहीं है आप ऐसा यज्ञ करें जिससे लोग आनन्द से जोवन बितायें। पुरोहित की बात सुनकर देखिये राजा क्या करता है और उसका क्या प्रभाव होता राजा के जनपद में जो कृषि, गो-रक्षा करना चाहते थे. उन्हें राजा ने बीज भत्ता सम्पादित किया। जो राजा के जनपद में वाणिज्य करने के उत्साही थे, उन्हें पूजी सम्मादित की। जो राज पुरुषाई में उत्साही हुए उनका भत्ता-वेतन ठीक कर दिया। उन मनुष्यों ने अपने-अपने काम में लग, राजा के जनपद को नहीं सताया। राजा को महान धनराशि प्राप्त हुई । जनपद अकंटक, अपीड़ित क्षेम युक्त हो गया। मनुष्य हर्षित, मोदित, गोद में पुत्रों को नाचत से खुले घर विहार करने लगे। तब राजा महाविजित ने ब्राह्मण पुरोहित को बुलाकर कहा कि मेरे पास महाराशि है। मैं ऐसा महायज्ञ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६९ ) करना चाहता हूँ जो चिरकाल तक मेरे हित सुख के लिये हो । पुरोहित ने कहा इसके लिये आप प्रजा से अनुमति लें । प्रजा को अनुमति मिलने पर पुरोहित ब्राह्मण ने महायज्ञ की तैयारी की, लेकिन पहले राजा को तीन विधियों का उपदेश दिया १. आप यह अफसोस न करें कि इस यज्ञ में बड़ो धन राशि चली जायेगी । २. यज्ञ करते हुए यह अफसोस न हो कि बड़ी धनराशि जा रही है । ३. यज्ञ कर चुकने पर यह अफसोस न हो कि बड़ो धन राशि चलो गयी । पुरोहित ने यज्ञ से पूर्व राजा महाविजित के हृदय से दस प्रकार के विप्रतिसार अलग कराये और सोलह विधियों से राजा के चित्त को समुत्तेजित किया । उस यज्ञ के बारे में भगवान ने बताया- "ब्राह्मण उस यज्ञ में गायें नहीं मारी गयीं, बकरे भेड़े नहीं मारी गयीं, मुर्गे, सूअर नहीं मारे गए, न नाना प्रकार के प्राणी मारे गए। न यूप के लिए वृक्ष काटे गए, न पर हिंसा के लिए दर्भ काटे गए। जो भी उसके दास, प्रेष्य, कर्मकार थे उन्होंने भी दंड तजित, भय तर्जित हो अश्र ु मुख, रोते हुए सेवा नहीं की । जिन्होंने चाहा उन्होंने किया, जिन्होंने नहीं चाहा उन्होंने नहीं किया। जिसे चाहा उसे किया, जिसे नहीं चाहा उसे नहीं किया। घी, तेल, मक्खन, दही, मधु, खांड से वह यज्ञ समाप्ति को हुआ ❤ यज्ञोपरान्त धनी लोग राजा को उपहार देने आये । राजा के इंकार करने पर उन्होंने यज्ञ शाला के चारों ओर धर्मशालाएँ बनवाई और गरीबों को दान धर्म किया। भगवान ने कुटदन्त को दान यज्ञ; त्रिशरण यज्ञ; शिक्षा प्रद यज्ञ; शोल यज्ञ; समावि यज्ञ और प्रज्ञा यज्ञ के महाफलों के विषय में बताया जिसे सुनकर कुटदन्त भगवान बुद्ध का उपासक बन गया और कहने लगा !! हे गौतम ! यह मैं सात सौ बैलों; सात सौ बछड़ों; सात सौ बकरों; सात सौ मेड़ों को छुड़वा देता हूँ, जीवन दान देता हूँ, वह हरी घास चरे; ठंडा पानी पीनें; ठंडी हवा उनके लिए चले ।" १ १. दीघनिकाय - हिन्दी अनुवाद राहुल सांकृत्यायन जगदीश कश्यप יין Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) स्पष्ट है बुद्ध की दृष्टि में लोगों को समाजोपयोगी कार्यों में लगाना, प्रजा को खुशहाल रखना, पशुओं को जोवन दान देना ही सच्चा यज्ञ था। बौद्ध ग्रन्थों में जीव-हिंसा निषेध :___ भगवान बुद्ध द्वारा बौद्ध ग्रहस्थों और भिक्षुओं के लिये पंचशील के नाम से जो पाँच आज्ञाएँ दी गई हैं उनमें पहली आज्ञा है- “कोई किसी जीव को न मारे ।" विनय पिटक के पाचित्तिय भाग में जो ९२वें दोष बताये गये हैं उनमें प्राणि हिंसा के ६१वें और ६२वें दोष में कहा गया है--- जो कोई भिक्षु जानकर प्राणी के जीव को मारे उसे पाचित्रीय है .. जो कोई भिक्षु जानकर प्राणी युक्त जल को पीये उसे पाचित्तीय है।१ संयुक्त निकाय में ब्राह्मण संयुक्त के अहिंसक सुत्त में वर्णन मिलता है जब भगवान श्रावस्ती में थे अहिंसक भारद्वाज ब्राह्मण आकर उनसे कहता है-- हे गौतम मैं अहिंसक हूँ तब भगवान कहते हैं"जैसा नाम है वैसा ही होवो, तुम सच में अहिंसक ही होवों जो शरीर से वचन से और मन से हिंसा नहीं करता वही सच में अहिंसक होता है जो पराये को कभी नहीं सताता"२ कोसल संयुक्तके मल्लिका सुत्तमें भगवान कहते हैं-"सभी दिशाओं में अपने मन को दौड़ा, कहीं भी अपने से प्यारा दूसरा कोई नहीं मिला, वैसे हो दूसरों को भी अपना बड़ा प्यारा है इसलिये अपनी भलाई चाहने वाला दूसरों को मत सतावे ।"३ "सर्व प्राणी सुख को चाहने वाले हैं, इनका जो दंड (मन, वचन, काया) से घात करता है वह अगले जनम में इष्ट सुख को नहीं पाता है। सर्व प्राणी १ विनयपिटक-हिन्दी अनुवाद राहुल सांकृत्यायन जगदीश कश्यप २. संयुक्त निकाय- हिन्दी अनुवाद जगदीश कश्यप, धर्म रक्षित भाग १ ३ वही Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१ ) सुख के चाहने वाले हैं, इनका जो दण्ड से घात नहीं करता है, वह अगले में सुख को प्राप्त करता है ।" १ जन्म " त्रस और स्थावर को मारने की मानसिक, वाचिक, कायिक प्रवृत्तियों को छोड़कर न स्वयं प्राणिघात करता है और न दूसरों से करवाता है, मैं उसे ब्राह्मण कहता हूँ ।"२ " जैसा मैं हूँ वैसे ये हैं, जैसे ये हैं वैसा मैं हूँ इस प्रकार आत्म सद्दश मान कर न किसी का घात करे न करवाये । ३ " जो न स्वयं किसी का घात करता है, न दूसरों से करवाता है, न स्वयं किसी को जीतता है वह सर्व प्राणियों का मित्र होता है उसका किसी के साथ बैर नहीं होता । ४ " सर्व जीव दंड से त्रस्त होते हैं, सब मृत्यु से भयभीत होते हैं अत: अपनी आत्मा का उपमान करके न किसी प्राणी को मारना चाहिये न मरवाना चाहिए; सब जीव दंडसे त्रस्त होते हैं सबको जोवन प्रिय है अत अपनी आत्मा का उपमान करके न किसी प्राणी को मारना चाहिये न मरवाना चाहिये ।" ५ "जिस कार्य के करने से पर प्राणों की हिंसा होती है उस कार्य के करने से कोई आर्य नहीं बनता । सब प्राणों का अहिंसक ही आर्य नाम से पुकारा जाता है । ६ १ उदानं सुत्त १३, पृष्ठ १२ सम्पादक - राहुल सांकृत्यायन, आनन्द कोत्स्यायन, २. सुत्तनिपातो सुत्त ३५, श्लोक ३६, प्रष्ठ६८ सम्पा.जगदीश कश्यप ३. सुत्त ३७, श्लोक २७, प्रष्ठ ७५ ४. इतिवृत्तकं सुत्त २७, प्रष्ठ २०, सम्पादक 躜 11 ५. धम्मपदं प्रष्ठ १९. सुत्त १२, प्रष्ठ३८, सुत्त १५, 33 11 " 11 "" "" " رو 11 " " " 11 "3 33 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) d भगवान ने न केवल, वच, काया से जीव हिंसा का निषेध किया वरन, जीव - हिंसा का दुष्फल नरक गमन बताया। संयुक्त निकाय में गामणी संयुक्त के पाटली सुत्त में भगवान पाटली ग्रामणी को कहते हैं "ग्रामणी में जीव-हिंसा को भी जानता हूँ और जीव- हिंसा के फल को भी । जीव - हिंसा करने वाला मरने के बाद नरक में उत्पन्न हो दुर्गति को प्राप्त होता है, यह भी जानता हूँ ।" १ 1 कवतार सूत्र जिसे जापान के डॉ० ननजिओ ने प्रकाशित किया है, जिसमें भगवान बुद्ध की शिक्षाएँ हैं, लिखा है "लाभार्थ हन्यते प्राणी, मांसार्थ दीयते धनम् । उभौ तौ पापकर्माणौ पच्येते रोखादिषु ॥ तस्मान्मांसं विवर्जयता ॥ अर्थात् लाभ के लिये प्राणी मराता है, मांस के लिये धन दिया जाता है, वे दोनों पापी रौरवादि में पकाये जाते हैं, अतः माँस का त्याग करें । सत्य ही तो है निर्दोष पशुओं को अपने पेट के लिये काटने पर नर्क नहीं तो क्या स्वर्ग मिलेगा ! ऐसे हिसको के लिये ही तो शास्त्रकार कहते हैं पर उस हिंसक जीव को मिला नरक का धाम । बाँध अग्नि में डाल के मारे मार बेकाम ॥ बुद्ध की शिक्षाओं का ही प्रभाव था कि अशोक महान की दृष्टि में केवल मनुष्य ही नहीं अपितु पशु भी अबध्य था उसका जीवन उतना ही मूल्यवान और पवित्र था जितना कि मनुष्य का । यही कारण था कि जिस रसोई में कभी हजारों की तादाद में पशु मारे जाते थे, उसने स्वयं अपनी रसोई में माँ वर्जित कर दिया और शनै शनं. अपने राज्य से ही पशु-वध उठा लिया अशोक के शिलालेख उसकी उदारता की पुष्टि के सबल प्रमाण है । प्रमाण पुष्टि के लिये एक-दो शिलालेखा यहाँ देना उचित रहेगा १. संयुक्त निकाय - हिन्दी अनुवाद जगदीश कश्यप, धर्म रक्षित भाग १ - Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “यह सूचना देवताओं के प्यारे राजा पियदसी की आज्ञा से खुदवाई गई है । यहाँ इस पृथ्वी पर कोई किसी जोव धारी जन्तु को बलिदान अथवा भोजन के लिये न मारे । राजा पियदसो ऐसे भोजन में बहुत से पाप देखता है । पहले ऐसे भोजन की आज्ञा थी और देवताओं के प्रिय राजा पियदसी के रसोईघर में तथा भोजन के लिए प्रतिदिन हजारों जीव मारे जाते थे। जिस समय यह सूचना खोदी जा रही है, उस समय उसके भोजन के लिये केवल तीन जीव अर्थात् दो मोर और एक हिरण मारे जाते हैं और उनमें से हिरण नित्य नहीं मारा जाता । भविष्यत् में ये तीनों जीव भी नहीं मारे जायेंगे।" एक अन्य लेख है "देवताओं का प्रिय राजा पियदसी इस प्रकार बोला--अपने राज्याभिषेक के २६वें वर्ष से मैंने निम्नलिखित जीवों के मारे जाने का निषेध किया है अर्थात्-शूक, सारिका, अस्न, चक्रवाक, हंसनंदिमुख, गैरन; गैलात, (चमगादड़), अम्बक, पिल्लिक, दद्धि, अनस्थिक मछली, वेदबेयक, गंगानदी के पुपुत, शंकुज, कफत, शयक, पमनशश, शीमल, शंदक, ओकपिंड, पलसत, सेतकपोत ग्राम कोपत और सब चौपाये जो किसी काम में नहीं आते और खाये नहीं जाते, बकरी, भेड़ी और शूकरी जब गाभिन हो व दूध देती हो व जब तक उनके बच्चे छ महीने के न हों, न मारो जाये । लोगों के खाने-पीने के लिये मुर्गी को खिलाकर मोटी न करनी चाहिये। जीते हुए जानवरों को नहीं जलाना चाहिये। जंगल चाहे असावधानी से अथवा उसमें र मे व ले जानवरों को मारने के लिये जलाये नहीं जायेंगे। तीनों चतुर्मासों की पूर्णिमा को पूर्णिमा के चन्द्रमा का तिस्य नक्षत्र से और पुर्नवसु नक्षत्र से योग होने पर चन्द्रमा के चौदहवें और पन्द्रहवें दिन और पूर्णिमा के उपरान्त वाले दिन और साधारणतः प्रत्येक उपोसथ दिन में किसी को मछली मारनी व चेचनी नहीं चाहिए। प्रत्योक पक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा को और तिस्य पुन वसु और तीनों चातुर्मासों की पूर्णिमा के दूसरे दिन किसी को साँड, बकरा, भेड़, सूअर व किसी दूसरे बधिये कियो जाने वाले जानवरों को बधिया Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) नहीं करना चाहिये । तिस्य पुर्न वसु और चातुर्मासों की पूर्णिमाओं को और चातुर्मास्यों की पूर्णिमाओं के दूसरे दिन घोड़े व बैल को नहीं दागना चाहिये। अपने राज्याभिषेक के २६वें वर्ष में मैंने २६ बंदियों को छोड़ दिया है।" बौद्ध धर्म का प्रथ्वो भर में इतनी शीघ्रता से फैलने का का कारण बुद्ध भगवान के सिद्धांतों को पवित्रता और सदाचार हैं। प्राणि-हिंसा निषेध के साथ-साथ बुद्ध ने सिंह, गाय आदि महाचर्मों के धारण का निषेध किया है। जिस समय एक दुराचारी भिक्षु-दुराचारी उपासक के घर आकर गाय के बच्चे का चर्म मांगता है, उपासक बछड़ा मारकर चर्म धून कर भिक्षु को देता है, बछड़े की माँ भिक्षु का पीछा करती है । अन्य भिक्षुओं को घटना का पता चलने पर वे सोचते हैं कि भगवान ने तो अनेक प्रकार से प्राणि-हिंसा की निन्दा और प्राणि-हिंसा त्याग की प्रशंसा की है वे भगवान से इस विषय में जिक्र करते हैं तो भगवान भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए कहते हैं "भिक्षुओ ! प्राण-हिंसा की प्रेरणा नहीं करनी चाहिये । जो प्रेरणा करे उसका धर्मानुसार (दंड) करना चाहियो, भिक्षुओ ! गाय का चाम नहीं धारण करना चाहियो, जो धारण करे उसे दुक्कट का दोष हो। भिक्षओ ! कोई भी चर्म नहीं धारण करना चाहिये, जो करे उसे दुक्कट का दोष हो । भगवान ने तो गायों की सींग, कान, पूछ पकड़ना और उसकी पीठ पर बैठने पर भी दुक्कट का दोष बताया है।"१ मांसाहार के प्रति बुद्ध का इष्टिकोण : यद्यपि बुद्ध ने नैदिक हिंसक यज्ञों का विरोध कर अहिंसक यज्ञों की ही प्रशंसा को । जीव-हिंसा का निषेध कर अहिंसा धर्म पालन करने का उपदेश ही भिक्षुओं व गृहस्थों को दिया, लेकिन मांसाहार के प्रति बुद्ध की प्रवृत्ति इसके विपरित जान पड़ती है, जिसका प्रमाण बौद्ध ग्रंथ ही हैं । १. विनय पिटक-चर्म स्कंधक हिन्दी अनुवादक -राहुल सांकृत्यायन Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५ ) विनय पिटक में जहाँ एक ओर बुद्ध ने जानबूझकर जीव-हिंसा में दोष बताया है, वहीं आगे चलकर इसी ग्रंथ में महावग्ग के भैषज्य स्कन्ध में कहा है--"भिक्षुओं अनुमति देता हूँ (अपने लिये मारे को) देखे, सुने, संदेह युक्तइन तीन बातों से शुद्ध मछली और माँस (के खाने) की।" महावग्ग में भेसज्जक्खन्धकं के तरूणपसन्न महामत्त वत्थु सुत्त में लिखा हैकि भगवान साढ़े बारह सौ भिक्षुओं के साथ अंधकरविन्द की ओर चारिका के लिये जाते हैं। उस समय एक श्रद्धालु नौजवान महामात्य बुद्ध सहित भिक्ष संघ को निमंत्रण देता है । विचारता है क्यों न मैं साढ़े बारह सौ भिक्षुओं के लिये साढ़े बारह सौ माँस को थालियाँ तैयार कराऊँ और एक-एक भिक्षु के लिये एक-एक मांस की थाली प्रदान करूँ ? उत्तम खाद्य भोज और साढ़ बारह सौ मांस की थालियां को तैयार करा भगवान को सूचना देता है, बुद्ध संघ सहित उसे खाते हैं। जब देवदत्त के मन में बुद्ध के संघ-भेद का विचार आता है तब वह बुद्ध के पास जाकर जो पांच वस्तुएँ मांगता है उसमें पांचवी वस्तु यही है-जिन्दगी भर मछली-माँस न खाये, जो मछलो-माँस खाये उसे दोष हो। उसे पता था कि श्रमण गौतम इसे स्वीकार नहीं करेंगे तब हम इन बातों से लोगों को समझायोंगे । बुद्ध देवदत्त से कहते हैं-अद्दष्ट १, अश्रु त २, अपरिशंकित ३ इस तीन कोटि से परिशुद्ध माँस की भी मैंने अनुज्ञा दी है।४ ____ महावग्ग के भेसज्जक्खन्धकं के सिंह सेनापति वत्थु सुत्त में वर्णन आता है-सिंह सेनापति भगवान को भोजन के लिए आमन्त्रित करता है। भगवान स्वीकृति जान सिंह सेनापति एक आदमी से कहता है-"गच्छ, भणे. पवत्त१. मेरे लिए मारा गया—यह देखा न हो। २. मेरे लिए मारा गया-यह सुना न हो। ३. मेरे लिए मारा गया-यह सन्देह न हो । ४. बिनय पिटक -सँघ-भेद स्कन्धक । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) मंसं जानाहि ति" अर्थात् हे आदमी तू जा, तैयार मांस को देख तो। आगे चलकर लिखा है-"न भिक्खवे, जानं उद्दिस्स-कतं मंसं परिभुजितब्बं । यो परिभुजेय आपत्ति दुक्कटस्स । अनुजानामि, भिक्खवे तिकोटि परिसुद्धं मच्छमंसं-अदिळं, असुतं, अपरि सकि तं" अर्थात् नहीं भिक्षु हम अपने प्राण के लिये जानबूझकर प्राण (किसी के) नहीं मारेंगे, जो मारे उसे दुक्क : का दोष हो । तीन कोटि से परिशुद्ध मछली-माँस की अनुज्ञा है। कहने का तात्पर्य है कि बौद्ध धर्म में जहाँ जोव हिंसा पर प्रतिबन्ध है वहाँ माँस-भक्षण पर पूर्णतया नहीं। हम इसे अहिंसा को कोटि में नहीं गिन सकते, कारण कि स्वयं मारकर न खाया अथवा अपने निमित्त से मरा हुआ जानकर न खाया लेकिन मिल गया तो खा लिया । जरा विचारिये कि जो प्राणि-वध करते हैं वे क्या स्वयं के खाने के लिये ही करते हैं. जिस वस्तु का कोई भक्षक ही न होगा वह वस्तु बनाई ही क्यों जायेगी। उत्पादक किसके लिए वस्तु का उत्पादन करता है? उपभोक्ताओं के लिये ही तो, अब यदि उस वस्तु का कोई उपभोग न करेगा तो क्या सारी वस्तु का उत्पादक स्वयं ही उपभोग कर लेगा? दुर्भाग्य से भगवान के जीवन के अंतिम भोजन की घटना जो पावा में चुन्द कर्मार पुत्र द्वारा शूकर मार्दव (सूकर मद्दव) तैयार करवा भगवान को खिलाया गया,१ बड़ो विवादास्पद है जिसे खाते ही भगवान को अतिसार हो गया था सूकर मद्दव पर बुद्धघोषाचार्य की टीका इस प्रकार है-सूकर मद्दव ऐसे सूअर का पकाया हुआ माँस है जो न बहुत तरूण है न वृद्ध, और जो बिल्कुल १. दोघनिकाय-महापरिनिब्बाण सुत्त हिन्दी अनुवाद रा. सां , ज. क. इसी पुस्तक के फुटनोट में सूकर मद्दव शब्द के दो अर्थं दिये हैं१. सूअर का मांस, २. शूकर कन्द का माँस Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) छोटे बच्चे से उम्र में बड़ा । वह मृदु एवं स्निग्ध होता है । उदानं में इसके और अर्थ इस प्रकार हैं - कोई कहते हैं यह नर्म चावल ( ओदन) को पाँच गोरस से जूस पकाने के विधान का नाम हैं, जैसे गोपान ( गवपान) पाक का नाम है । कोई कहते हैं शूकर मार्दव नामक रसायन विधि है, वह रसायन शास्त्र में आती है । उसे चुन्द ने भगवान का परिनिर्वाण न हो, इसके लिये तैयार कराया था ।१ कुछ इस शब्द का अर्थ सूअर का मांस न लेकर सूअरों द्वारा कुचले गये बाँस के अंकुर से लेते हैं । चतुरसेन शास्त्री का कहना है " चेदी लुहार ने भगवान को भोजन के लिये निमंत्रण दिया और उसे मीठे चावल, मीठी रोटियाँ तथा कुछ सूखा, सुअर का माँस खिलाया । गौतम दरिद्रों की वस्तुओं को कभी अस्वीकार नहीं करता था, परन्तु सूअर का माँस उसकी इच्छा के विरुद्ध था लेकिन बुद्ध ने उस भोजन को भी खा लिया और तभी से उसे अतिसार का रोग हो गया ।" 1 श्री चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु लिखते हैं- "भगवान भिक्षु संघ समेत चुन्द के घर पधारे । चुन्द ने भगवान को नाना भाँति के भक्ष्य भोज्य और शूकर माँस जो उसने तैयार किया था, परसना आरम्भ किया था । तब भगवान बोले - हे चुन्द तुमने जो शूकर माँस तैयार किया है वह केवल हमीं को परसना और दूसरे सब प्रकार के व्यंजन राव भिक्षु संघ को परसना, क्योंकि यह शूकर माँस का तुम्हारा उपहार हमारे सिवाय दूसरा कोई भी ब्रह्मा, श्रवण, ब्राह्मण ऐसा नहीं है जो ग्रहण करे ।" १ १. उदानं - चुन्द सुत्तं प्र. ८५, सम्पादक- रा. सा., आ. को.; ज. क. २. बुद्ध और बोद्ध धर्म - आचार्य चतुरसेन शास्त्री पृ० ९२ ३. भगवान गौतम बुद्ध - चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु पृ० २३८-९ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) धर्मानन्द कोसम्बो ने भी अंगुत्तर निकाय के पंचक निपात का हवाला देते हुए यही कहा है कि भगवान बुद्ध सूकर का मांस खाते थे, उग्ग गहपति कहता है “भदन्त, बढ़िया सूअर का यह मांस उत्कृष्ट ढंग से पकाकर तैयार किया हुआ है. मुझ पर कृपा करके भगवान उसे ग्रहण करे, भगवान ने कृपा करके वह मांस ग्रहण किया ।"१ यद्यपि बुद्ध ने बौद्ध भिक्षओं के लिये भोजन में माँस लेने का निषेध नहीं किया और स्वयं भी मांस भोजन करते थे तथापि अंतिम भोजन सूकर-मद्दव अर्थात् सूअर का मांस था यह बात तो सत्य से कुछ परे ही प्रतीत होती है । कारण को मद्दव शब्द माँस के अर्थ में प्रयुक्त होने का कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता। ऐसा लगता है कि मात्र सूकर शब्द के साहचर्य से ही सूकर मद्दव को सूअर का मांस मान लिया गया है । और अपने अन्तिम चातुर्मास में बुद्ध को एक भयंकर बीमारी हुई थी। यद्यपि बीमारी क्या थी इसका कहीं स्पष्टीकरण नहीं मिलता है; फिर अस्सी वर्ष की अवस्था में रोग मुक्त होकर बुद्ध सूअर का मांस खा सकते हैं क्या ? ___ हमारी समझ में तो सूकर मद्दव शकरकन्द का पाक (हलवा) हो सकता है । यह बड़ा मधुर कन्द होता है स्वादिष्ट होने के कारण ही बुद्ध ने इसे अलग से तैयार करवाया होगा। घी,शक्कर आदि डालकर पकाने पर गरिष्ठ हो जाने के कारण बुद्ध की दुर्बल आँतें उसे पचा न सकी । बुद्ध ऐसी उत्तेजक चीजें डालकर बनाये भोजन को अपने भिक्षु-संघ को नहीं खिलाना चाहते थे शायद इसीलिये चुन्द को बुलाकर कहते हैं--“हे चुन्द देव, मार और ब्रह्मा से युक्त इस लोक में श्रमण ब्रह्मणात्मक प्रजा में तथा देव और मनुष्यों में ऐसा मैं किसी को नहीं देखता कि तथागत के बिना दूसरा कोई इस सूकर - - १. भगवान बुद्ध - कोसम्बो पृ० २६८ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७९ ) मद्दव को खाकर पचा सके अतः शेष रहे सूकर मद्दव को गड्डा खोदकर उसमें डाल दो ।"१ यदि हम इस विवाद में न भी पड़े तथापि इतना तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि बौद्ध धर्म में तीन कोटि से परिशुद्ध मांस की अनुज्ञा है और बुद्ध के आहार से भी इसका सम्बन्ध रहा है क्योंकि महावग्ग में वर्णित साढ़े बारह भिक्षुओं के साथ बुद्ध के माँस खाने की घटना को नकारा नहीं जा सकता, शायद यही कारण है कि बौद्ध धर्मानुयायी चीन और जापान माँस भक्षो देशों की गणना में सबसे आगे हैं । समाचार पत्रों से भी ऐसा विदित होता है कि वे लोग आहार के नाम पर किसी जीव को नहीं छोड़ते । वे सर्व भक्षी के साथ साथ सर्प भक्षी भी हैं। वे तो अपनी इच्छा तृप्ति के लिये कृत्रिम उपायों से मलिन वस्तुओं में कीटादि उत्पन्न करते हैं । इसके लिये वे शायद यही तर्क दें कि भगवान ने माँस-भक्षण की छूट दी है क्योंकि सुत्तनिपात में भी प्राणियों की हत्या को दोषपूर्ण बताते हुए मांस भक्षण को पाप नहीं कहा है । - इन देशों में अहिंसा के नाम पर एक और बड़ी विचित्र धारणा है जिसे डॉ. रघुवीर ने अपने लेख : "जापान में बुद्ध - अहिंसा - सिद्धांत का परिपालन" शीर्षक लेख मार्डन रिव्यू फरवरी १९३८ प्रष्ठ १६५ पर बताया था कि जापानी लोग चेरी नामक वृक्ष की लकड़ियों को खुदाई के काम में लाते हैं इसलिये टोकियों में उनकी आत्मा की शांति के लिये प्रार्थना की जाती है। टूटी हुई पुतलियों तथा सुइयों में आत्मा का सद्भाव स्वीकार करके उनकी शाँति निमित्त बुद्ध देव से अभ्यर्थना की जाती है जिन-जिन जानवरों को जापानी लोग खा जाते हैं उनकी शांति निमित्त वे प्रार्थना करते हैं । मनुष्य माँस की आज्ञा तो हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुकूल ही बुद्ध ने भी नहीं दी । जब सुप्रिया उपासिका एक रोगी भिक्षु के स्वस्थ होने के लिये अपना माँस देतो है, क्योंकि उस दिन तैयार माँस मिला नहीं । बुद्ध को पता १. उदानं - चुन्द सुत्त पृ० ८५ ! Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८० ) चलने पर वे भिक्षु को फटकारते हुए कहते हैं "कैसे तूने मोध पुरुष ! बिना समझे-बूझे मांस को खाया। मोध पुरुष ! तूने मनुष्य के मांस को खाया। मोध पुरुष ! न यह अप्रसन्नो को प्रसन्न करने के लिये है।" आगे कहते हैं "भिक्षुओं ! मनुष्य माँस नहीं खाना चाहिये, जो खाये उसे थुल्लच्चय का दोष हो।"१ इसके अलावा हाथी, घोड़ा, कुत्ता; सांप, सिंह, बाध, भालू, चीता, तड़क ( लकड़बग्घा ) इन नौ जानवरों के मांस भक्षण का निषेध भी विनय पिटक में किया गया है। १. विनय पिटक- भैषज्य स्कंधक अभक्ष्य मांस हिन्दी अनुबाद-राहुल सां. Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रंथ एवं अहिंसा अहिंसा जैन जगत का प्राण हैं । पुण्य जीवन को यदि भव्य भवन कहा ये तो अहिंसा तत्व ज्ञान को उसकी नींव मानना होगा, साधन का प्राण अथवा जीवन रस अहिंसा है । अहिंसात्मक वृत्ति के बिना न व्यष्टि का कल्याण है और न ही समष्टि का । यही कारण है कि विश्व के सभी धर्मों ने घूम फिर कर ही सही अन्तोगत्वा अहिंसा को ही आश्रय लिया है । जैन धर्म का नाम लेते ही जो अहिंसा की स्मृति सर्वसाधारण को हुआ करती है वह भू-मण्डल पर जैन धर्म के अहिंसा सम्बन्धि महान प्रतिनिधित्व का परिचायक है । जैन धर्म में अध्यात्मिक जोवन के निर्माण के लिए किये जाने वाले व्रत विधान में पहला स्थान अहिंसा का है । अहिंसा के वास्तविक स्वरूप को समझने से पहले हिंसा को समझना भी आवश्यक है क्योंकि हिंसा का विरोधी भाव अहिंसा है । हिंसा एवं अहिंसा का अर्थ : " हिंसा शब्द हननार्थक "हिंसी" धातु से बना है। इससे हिंसा का अर्थ किसी प्राणी को मारना या सताना होता है। भारतीय ऋषियों ने हिंसा शब्द की स्पष्ट व्याख्या इस प्रकार की है- “प्राण वियोग प्रयोजन व्यापारः ' अथवा " प्राणि दुख साधन व्यापारी हिंसा" अर्थात् प्राणी को प्राण से रहित करने के निमित्त जो प्रयत्न किया जाता है, उसे हिंसा कहते हैं । इसके वितरित किसी भी जीव को दुख या कष्ट नहीं पहुँचाना अहिंसा कहलाती है। मानव और दानव में अहिंसा और हिंसा का ही तो अंतर है । अहिंसा मानवी है तो हिंसा दानवी । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२ ) यहां यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि केवल प्राणी को प्राण से रहित करना ही हिंसा नहीं है बशर्ते कि जब तक उसमें हिंसा रूप भाव न हो अर्थात् जब तक हम प्रमादो और अयत्नाचारी न हों तब तक किसी का घात हो जाने मात्र से हम हिंसक नहीं कहलाये जा सकते । । यदि कोई मनुष्य सावधानी से अपना काम कर रहा है और मन में किसी को कष्ट पहुँचाने का भाव नहीं है फिर भी यदि उसके द्वारा किसी को कष्ट पहुँचता है अथवा कोई प्राणी प्राण रहित हो जाता है तो वह हिंसक नहीं कहलायेगाजैसा कि शास्त्रकारों ने लिखा है कि "जो मनुष्य आगे देख भाल कर रास्ता चल रहा है उसके पर उठाने पर अगर कोई जीव पैर के नीचे आ जावे और कुचलकर मार जावे तो उस मनुष्य को उस जोव के मरने का थोड़ा सा भी पाप आगम में नहीं कहा । किन्तु यदि कोई मनुष्य अयत्नाचार से कार्य कर रहा है उसे इस बात ht for परवाह नहीं है कि उसके इस कार्य से किसी को हानि पहुँच सकती है या किसी के प्राण जा सकते हैं, चाहे उस समय किसी को हानि न भी पहुँच रही हो फिर भी वह हिंसा के पाप का भागी बनेगा ही । अर्थात् प्राणों का विनाश न होने पर भी केवल प्रमत्तयोग से ही हिंसा कही जाती है। "जीव मर जाये या जीता रहे तो भी यत्नाचार से रहित पुरुष के नियम से हिंसा होती है और जो यत्नाचारपत्रक प्रवृत्ति करता है, हिंसा के हो जाने पर भी उसे बंध नहीं होता । " १ कहने का तात्पर्य है कि अपने से किसी जीव का घात हो जाने पर भी तब तक हिंसा नहीं कहलाती जब तक अपने भाव उसे मारने के न हों किन्तु यदि हमारे भाव किसी को मारने के हों ओर प्रयत्न करने पर भी हम 9. मरदु व जियदु व जीवौ अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा | पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामित्तेण समिदस्स ॥ सर्वार्थसिद्धि - पृष्ठ ३५१ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३ ) उसका अनिष्ट न कर सकें तब भी हम हिंसक ही समझे जायोंगे । कहा भो है कि "प्रमाद से युक्त आत्मा पहले स्वयं अपने द्वारा ही अपना घात करता है इसके बाद दूसरे प्राणियों का वध होवे या मत होवे ।"१ निष्कर्ष रूप से कह सकते हैं कि किसी के द्वारा किसी जीव का मर जाना अपने आप में हिंसा नहीं है किन्तु क्रोध, मान, माया; लोभ यदि मन में हो और मारने की दुर्वृत्ति के साथ जीवों का मारा अथवा सताया जाये तो हिंसा होती है अर्थात् हिंसा का मूल आधार कषाय भाव हैं ! शास्रों में भी हिंसा का स्वरूप इस प्रकार बताया है "प्रमत्तयोग से प्राणों का विनाश करना हिंसा है ।"२। यद्यपि प्राणों का विनाश हिंसा है पर वह प्रमत्तयोग अर्थात् राग-द्वेष प्रवृत्ति के कारण ही तभी हिंसा है अन्यथा नहीं। आचार्य भद्रबाहुस्वामी ने भी ओघनियुक्ति में कहा है— 'अहिंसा और हिंसा के सम्बन्ध में यह निश्चित सिद्धांत है कि आत्मा ही अहिंसा है और आत्मा ही हिंसा है । जो आत्मा विवेकी है, सजग, सावधान, अप्रमत्त है वह अहिंसक है और जो अविवेकी, सुप्त, असावधान एवं प्रमाद में पड़ी है, वह हिंसक है ।" वास्तव में देखा जाये तो हिंसा और अहिंसा का रहस्य मनुष्य की मनोभावना पर अवलम्बित है । जिस भाव से प्रेरित होकर मनुष्य जो कर्म करता है उसी के अनुसार उसे उसका फल मिलता है। कर्म की शुभाशुभता उसके स्वरूप पर नहीं प्रत्युतकर्ता की मनोभावनाओं पर निर्भर है। स्पष्ट है कि जो १. स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् । पूर्व प्राण्यन्तराणान्तु पश्चात्स्याद्वान वा वधः ।। सवार्थसिद्धि-पृष्ठ ३५२ २. "प्रमत्तयोगात प्राणव्यपरोपणं हिंसा" तत्वाथ सूत्र अध्याय ७, श्लोक ८ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) सर्व व्रती और पूर्ण त्यागी मनुष्य है उससे यदि सूक्ष्म कायिक हिंसा होती भी है तो वह उसके फल का भोक्ता नहीं हो सकता क्योंकि उससे होने वाली उस हिंसा में उसके भाव रंच मात्र भी अशुद्ध नहीं होने पाते और हिंसक भावों से रहित होने वाली हिंसा - हिंसा नहीं कहलाती । आवश्यक महाभाष्य में लिखा है कि किसी जीव को कष्ट पहुँचाने में जो अशुभ परिणाम निमित्त भूत होते हैं उन्हीं को हिंसा कहते हैं और बाह्य दृष्टि से हिंसा मालूम होने पर भी जिसके अंतर्परिणाम शुद्ध रहते हैं वह हिंसा नहीं कहलाती । धर्मरत्न मंजूषा में कहा है-समिति * गुप्त युक्त महावृत्तियों से किसी जीव का वध हो जाने पर भी उन्हें उसका बंध नहीं होता, क्योंकि बंध में मानसिक भाव ही कारण भूत होते हैं कायिक व्यापार नहीं। इसके वितरित जिसका मन शुद्ध अथवा संयत नहीं है, जो विषय तथा कषाय से लिप्त है वह बाह्य स्वरूप में अहिंसक दिखाई देने पर भी हिंसक ही है। उसके लिये स्पष्ट कहा गया है - जिसका मन दुष्ट भावों से भरा हुआ है वह यदि कायिक रूप से किसी को नहीं मारता है तो भी हिंसक ही है । जैन धर्म की दृष्टि से यही हिंसा एवं अहिंसा का अर्थ है । हिंसा के भेद : तीर्थकरों एवं जैनाचार्यों ने मूल में हिंसा के दो भेद किये हैं१. भाव हिंसा २. द्रव्य हिंसा । दशकालिक चूर्ण के प्रथम अध्ययन के द्रव्य - हिंसा और भाव- हिंसा को लेकर हिंसा के चार विकल्प किये गये हैं जिसे आगम की परम्परा में चौभंगी कहा गया है जो इस प्रकार है १. भाव हिंसा हो, द्रव्य हिंसा न हो । २. द्रव्य हिंसा हो; भाव हिंसा न हो । * जैन पारिभाषिक शब्दों में समिति शब्द से तात्पर्य उपयोग पूर्वक (विवेक पूर्वक) कार्य करने से लिया जाता है । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८५ ) ३. द्रव्य हिंसा भी हो और भाव हिंसा भी हो। ४. न द्रव्य-हिंसा हो और न भाव-हिंसा हो। यहां इनका विश्लेषण भी आवश्यक है अत: अब हम क्रमश: इनका विश्लेषण करेंगे। १. भाव हिंसा हो, द्रव्य हिंसा न हो : मन में हिंसा के विचार पैदा होना और अपने जीवन के दुर्गुणों एवं वासनाओं के द्वारा अपने सद्गुणों को बर्बाद कर लेना ही भाव-हिंसा कहलाता है किन्तु इससे दूसरे का कुछ अनिष्ट नहीं होने पाता अत: द्रव्य हिंसा नहीं होने पाती। इस प्रकार की हिंसा को समझने के लिए तंदुलमच्छ का प्रसिद्ध उदाहरण जैन ग्रन्थों में आता है। बड़े-बड़े समुद्रों में हजार-हजार योजन के विशालकाय मच्छ मुंह खोले पड़े रहते हैं । उनके श्वांस खींचने और छोड़ने के साथ ही हजारों मछलियां उनके पेट में चली जाती हैं और बाहर निकल जाती हैं इस तरह प्रत्येक श्वास के साथ हजारों मछलियाँ अन्दर आती और बाहर जाती हैं । आचार्यों का कहना है कि ऐसे किसी मच्छ की भौंह अथवा कान के ऊपर वह तन्दुल मच्छ रहता है जिसकी अवगाहना चावल के बराबर होती हैं उसके सिर, आँखें, कान, नाक, शरीर और मन सहित सभी इन्द्रियाँ हैं । जब वह विशाल. काय महामत्स्य को भौंह अथवा कान पर बैठा यह दृश्य देखता है तो मन में विचारता है कि ओह ! इतना भीमकाय यह मच्छ, कितना सूर्ख और आलसी है इसे जीवन का होश नहीं, कितनी मछलियाँ आई और यों ही चली गयीं। काश ! मुझे ऐसा शरीर मिला होता तो मैं एक को भी न छोड़ता । किन्तु जब मछलियों का प्रवाह आता है तो वह सिमक जाता है, डर जाता है कि कहीं मैं झपट्ट में न आ जाऊँ, मर न जाऊँ । कुछ न करने पर भी केवल विचारों से ही अपनी हजारों जिन्दगियां बर्बाद कर लेता है। अन्तर्मुहूर्त भर की Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) उसकी नन्हीं सी जिन्दगी है जिसमें वह सातवें नकं की तैयारी कर लेता है । यह जैनागमों की विचारधारा है । यहाँ द्वव्य हिंसा कुछ भी नहीं, भाव हिंसा ही 'महतो महीयान' है । २. द्रव्य हिंसा हो, भाव हिंसा न हो :-- दूसरा विकल्प आता है जिसमें द्रव्य हिंसा हो, किन्तु भाव - हिंसा न हो । एक साधक के मन में हिंसा की प्रवृत्ति न हो किन्तु सावधानी के साथ प्रवृत्ति करते हुए भी हिंसा हो जाये तो आगमों का कहना है कि ऐसी स्थिति में सिर्फ पुण्य प्रकृति का ही बंध होता है, पाप प्रकृति का नहीं क्योंकि हिंसा तो कषाय भाव में है । किसी के द्वारा किसी जीव का मर जाना अपने आप में हिंसा नहीं है किन्तु क्रोध, मान, माया अथवा लोभ भाव से किसी जीव के प्राणों को नष्ट करना हिंसा है। कहने का तात्पर्य है कि कषाय भाव में न होने पर यदि किसी साधक से हिंसा हो जाती है तो यह केवल द्रव्य-हिंसा है, भाव - हिंसा नहीं । यह राग-द्व ेष की स्थिति से सर्वथा अलग है। प्राणी के प्रति दुर्भाव नहीं अपितु सद्भाव है अतः उनके शरीरादि से होने वाली हिंसा - हिंसा नहीं है क्योंकि हिंसा की नहीं गई पपितु हो गई है अथवा यूं कहें कि जीवों को मारा नहीं गया अपितु मर गये हैं तो मर जाने में पाप बँध नहीं है किन्तु मारने में पाप बँध है । जैसाकि आचार्य भद्रबाहू कहते हैं - !! ईर्या समिति से युक्त कोई साधक चलने के लिये पाँव उठाये और अचानक कोई जीव पाँव के नीचे आकर, दबकर मर जाये तो उस साधक को उसकी मृत्यु के निमित्त से जरा भी बँध नहीं होगा, क्योंकि वह साधक पूर्ण रूप से उपयोग रखने के कारण निष्पाप है ।" १ यही बात आचार्य वट्टकेर ने इस प्रकार कही है - " कमलिनी का पत्ता जल में ही उत्पन्न होता है और जल से ही बढ़ता है, फिर भी वह जल से लिप्त नहीं होता क्योंकि वह स्नेहगुण से युक्त है । इसी प्रकार समिति युक्त १. ओधनियुक्ति, श्लोक ७४८, ४९ 2 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ८७ ) साधू जीवों के मध्य में विचरण करता हुआ भी पाप में लिप्त नहीं होता क्योंकि उसके अन्त:करण से करूण का अखण्ड स्रोत प्रवाहित होता रहता ___ शास्त्रों में तो यहां तक कहा गया हैकि यतनापूर्वक प्रवृत्ति करने से पाप का स्पर्श तो होता ही नहीं बल्कि पूर्व के बँधे हुए कर्मों का क्षय भी होता है। गीतार्थ साधक के द्वारा यतमान रहते हुए भी यदि कभी हिंसा हो जाती है तो वह पाप कर्म के बँध का कारण न होकर निर्जरा का कारण होती है क्योंकि बाहर में हिंसा हुए भी यतनाशील के अन्दर भाव-विशुद्धि रहती है, फलतः वह कम निर्जरा का फल अर्पण करतो है।"१ . “कोई मुनि ईर्यासमिति पूर्वक यत्न से गमन करते हों और उनके पैर के नोचे कोई उड़ता हुआ जीव वेगपूर्वक आ गिरे तथा मर जाये तो मुनि को उसकी हिंसा नहीं लगती । बाह्य दृष्टि से देखा जाये तो हिंसा हुई है परन्तु मुनि के हिंसा का अध्यवसान नहीं होने से उन्हें बँध नहीं होता।"२ ___स्पष्ट है कि मन में अहिंसा का सागर लहरें मार रहा हो, कषाय भाव नहीं हों, जागरूकता हो फिर भी यदि शरीर से हिंसा हो रही हो; मार नहीं रहे हैं, सिर्फ मर रहे हैं ऐसी परिस्थितियाँ जहाँ होंगी वहाँ केवल द्रव्य-हिंसा होगो, भाव -हिंसा नहीं । जैन धर्म मुख्यत: हिंसा की वृत्ति को छोड़ने के लिये हो कहता है । इसी बात का स्पष्टीकरण आचार्य शिरोमणि भद्रबाहुस्वामी ने इस प्रकार किया है “अहिंसा और हिंसा के सम्बन्ध में यह निश्चित सिद्धांत है कि आत्मा हो अहिंसा है और आत्मा ही हिंसा। जो आत्मा विवेकी है,सजग है, सावधान है अप्रमत्त है वह अहिंसक है और जो अविवेकी है, जाग्रत एवं सावधान नहीं है, प्रमाद भाव में पड़ा है, वह हिंसक है ।"३ १. ओधनियुक्ति, श्लोक ७५९ २. समयसार-बँध अधिकार प्रष्ठ ४२३ ३. ओधनियुक्ति, श्लोक ७५४ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८८) द्रव्य हिंसा भी हो और भाव हिंसा भी : इस जहाँ इस प्रकार की दोहरी हिंसा हो, वह हिंसा का तीसरा विकल्प कहलाता है । हृदय में मारने का भाव पैदा हुआ और मार भी दिया, 1 प्रकार की दोहरी हिंसा का फल भी भाव - - हिंसा के समान जीवन को बर्बाद करने वाला होता है। नाथूराम गोडसे के मन में गाँधीजी की हत्या का विचार आया और हत्या कर भी दी, इस प्रकार की हिंसा दोहरी हिंसा कहलायेगी । यहाँ एक बात और स्मरणीय है कि हत्या करके द्वव्य-हिंसा का दोषी तो एक ही बार बना लेकिन मन में जितनी बार हत्या का विचार आया भाव - हिंसा के कारण पंचेन्द्रिय जीव वध के दोष का भागी उतनी ही बार हुआ । न द्रव्य हिंसा हो और न भाव हिंसा : यह हिंसा की चौथी अवस्था होती है जिसमें न द्रव्य - हिंसा होती है तथा नही भाव - हिंसा । यह अवस्था हिंसा का दृष्टि से शून्य भंग है । ऐसी परिपूर्ण अहिंसा मुक्तावस्था में होती है। यह सर्वोच्च आदर्श स्थिति है। ३. ४. ? प्राय: जैन धर्म को अहिंसा पर जो आक्षेप किये जाते हैं वह ऊपर वर्णित हिंसा के भेद समझ लेने पर निराधार सिद्ध होते है । जैन शास्त्रों में वर्णित अहिंसा के कतिपय सूत्र : "सर्व प्राणियों को आयु प्रिय है । सुख सबको साताकारी - अनुकूल है और दुख सबको प्रतिकूल । वध सबको अप्रिय है और जीवन सबको प्रिय । सर्व प्राणी जीने की कामना करते हैं । सबको जीवन प्रिय है । अतः किसी प्राणी की हिंसा मत करो । १ १. आचारांग के सूक्त, लोकविजय – सूत्र ३७ - Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८९ ) " दूसरे प्राणियों को आत्मतुल्य देख । अतः किसी भी प्राणी को हिंसा न कर, न दूसरे से करा ।" १ 1 " हे पुरुष ! जिसे तू मारने की इच्छा करता, विचार कर वह भी तेरे जैसा ही सुख-दुख का अनुभव करने वाला प्राणी है; जिस पर हुकूमत करने की इच्छा करता है, विचार कर वह भी तेरे जैसा ही प्राणी है । जिसे अपने वश में रखने की इच्छा करता है, विचार कर वह भी तेरे जैसा ही प्राणी है । जिसे अपने वश में रखने की इच्छा करता है, विचार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है, जिसके प्राण लेने की इच्छा करता है, विचार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है ।"२ "आत्मा में अर्थात् मन में सर्व प्रकार से सब सुख - दुख आदि रहते हैं, और हर एक जीव को अपने प्राण अत्यन्त प्रिय है, ऐसा जानकर किसी भी प्राणी के प्राणों का घात न करे तथा भय और वैर से सदा उपरत रहे ।" ३ "सब जीव जीना चाहते हैं, कोई भी मरना नहीं चाहता अतएव निर्ग्रन्थ मुनि भयंकर प्राणि- वध का परित्याग करते हैं ।" ४ "अपने लिये अथवा दूसरों के लिये क्रोध से अथवा भय से, दूसरे को पीड़ा पहुँचाने वाला असत्य वचन न स्वयं बोलना चाहिये और न दूसरों से बुलवाना चाहिये । ५ हेमचन्द्राचार्य ने योगशास्त्र में कहा है- "जिस प्रकार अपने को सुख प्रिय और दुख अप्रिय लगता है, उसी प्रकार दूसरे प्राणियों को भी लगता है । १. आचारांग के सूक्त, शीतोष्णीय - सूत्र ४२ वही, लोकासार—सूत्र ५९ २. ३ उत्तराध्ययन–अध्याय ६, श्लोक ७ ४. दशवैकालिक - अध्याय ६, श्लोक ११ ५. वही - अध्याय ६, श्लोक १२ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९० ) इस कारण कर्त्तव्य है कि हमारी आत्मा की ही तरह दूसरों की आत्मा को समझकर उनके प्रति हिंसक आचरण न करे ।" १ इसीलिये अहिंसा व्रत को स्तुति करते हुए वे आगे कहते हैं--अहिंसा माता के समान सब जीवों की हित कारिणी है, अहिंसा मरूधर भूमि में अमृत के समान है, दुखरूप दावानल को शांत करने के लिये वर्षा ऋतु में मेघ के समान है और भव भव में परिभ्रमण करने रूप रोग से मुक्ति दिलाने हेतु परम औषधि के समान है।"२ ७ - उपरोक्त सब सूत्रों का सार एक ही है कि किसी प्राणी को कष्ट न पहुँचाना चाहिये। जैसा कि भगवान महावीर अहिंसा का स्वरूप इस प्रकार फर्माते हैं- "सब प्राणियों को आयु प्रिय है । सब सुख के अभिलाषी हैं. दुख सबके प्रतिकूल है, वध सबको अप्रिय है; सब जोने की इच्छा करते हैं, अत: किसी को मारना अथवा कष्ट न पहुँचाना चाहिये । वास्तव में जीवों का वध अपना ही वध है और जीवों पर दया अपने पर ही दया है इसलिये महापुरुषों का कहना है कि विकण्टक के समान हिंसा को दूर से ही त्याग देना चाहिये और अहिंसा धर्म को जानकर मोक्ष की इच्छा करने वालों को निष्प्रयोजन हिंसा नही करनी चाहिये । हिंसक यज्ञों का विरोध :-- भगवान महावीर के समय की परिस्थितियाँ किसी से छिपी नही हैं । वैदिक यज्ञों के नाम पर किस तरह पशुओं का संहार किया जाना था यह हम पिछले पृष्ठों में बना आये हैं। "जीवो जीवस्य भोजनम्" का शोषणात्मक सिद्धांत अपनी चरम पराकाष्ठा पर था । ऐसे समय में करुणामय महावीर ने संसार कारिणी हिंसा के विरुद्ध अपनी आवाज उठाकर समाज कल्याण के लिये "जीयो और जीने दो” का नारा बुलन्द किया । वेदों को आधार बनाकर जो यज्ञ किये जाते थे उनमें निर्दोष सैंकड़ों पशुओं का होम किया जाता था यही कारण जान पड़ता है जो कि जैन वेदों १. योगशास्त्र – प्रकाश २, श्लोक २० वही - प्रकाश २, श्लोक ५०-५१ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९१ ) का नाम लेने से कतराते हैं । वेद-विहित यज्ञों में हिंसा के साथ-साथ जातिमद का भी बोल-बाला था आगमों में इस प्रकार को वर्ण व्यवस्था का भी निषेध है। उत्तराध्ययन सूत्र में हरिकेशबल नामक चंडाल कुलोत्पन्न नामक जैन का उल्लेख आता है जो किसी यज्ञशाला में भिक्षा मांगने गये लेकिन वहाँ जाति-मद से उन्मत्त राजपुरोहित ने उन्हे भिक्षा देने से इंकार कर दिया और कहा कि यज्ञ करने वाले जाति और विद्यायुक्त ब्राहमण ही दान के सत्पात्र है। इस पर मुनी उन्हें उपदेश देते हैकि क्रोध आदि वासनाओंके मन में रहते हुए केवल वेद पढ़ लेने से अथवा अमुक जाति में पैदा होने से कोई उच्च नहीं हो सकता। जल में स्थान करने यज्ञ आदि के प्राणियों की हिंसा करने से अन्त:करण को शुद्धि नहीं होतो । असली यज्ञ तो भाव यज्ञ है उसका स्वरूप इस प्रकार है--इंद्रिय निग्रह तप उस यज्ञ की अग्नि है, जीव अग्नि स्थान है, मन वचन और काय योग उसकी कड़छी है, शरीर अग्नि को प्रदीप्त करने वाला साधन है; वर्म ईधन है तथा संयम शांति मंत्र है । जितेन्द्रिय पुरुष धर्म रूपी जलाशय में स्नानकर, ब्रह्मचर्य रूपी शांति तीर्थ में नहाकर यज्ञ करते हैं, वहीं वास्तविक यज्ञ है ।"१ इसी सूत्र के २५वें अध्याय में जयघोष मुनि और विजयघोष ब्राह्मण (दोनों भाइयों का) सुन्दर सम्वाद आता है । जयघोष, विजयघोष जो वेदोक्त यज्ञ करने में लगा था, कि यज्ञशाला में भिक्षा मांगने गये लेकिन विजय घोष उसका प्रतिषेध करते हुए भिक्षा देने से इंकार कर देते हैं । तब जयघोष मुनि तब उसे प्रतिबोध देते हुए कहते हैं- “सर्ववेद पशुओं के वध-बंधन के लिये हैं और यज्ञ पाप कर्म का हेतु है वे वेद या यज्ञ वेद पाठी व यज्ञकर्ता के रक्षक नहीं हो सकते अपितु पापकर्मों को बलवान बनाकर दुर्गति में पहुँचा देते हैं।"२ १. उत्तराध्ययन-अध्याय १२ २. वही -अध्याय २५ श्लोक ३० Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसमें वेदों के कर्मकांड की आलोचना की गई है। चारों वेद पशुओं के वध बंधनार्थ ही देखे जाते हैं । अश्वमेध आदि यज्ञों में यूपों का वर्णन आता है जो यज्ञमण्डप में गाड़े जाते हैं और उनके साथ बाध्य पशु बाँधे जाते हैं अतः ऐसा प्रतीत होता है कि वेद प्राय पशुओं के वध बंधनार्थ ही निर्मित हुए हैं । यज्ञ के लिये पशुओं की नियुक्ति का उल्लेख मनु आदि । स्मृतियों के "यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः" इत्यादि वाक्यों में स्पष्ट रूप से पाया है। इसके अतिरिक्त भी "एवेत छागमाल भेत वायट्यां दिशि भूतिकामः" इत्यादि बैदिक वाक्यों से यज्ञ विषयक हिंसा का उल्लेख प्रत्यक्ष पाया जाता है। इन हिंसाजनक क्रियाओं के अनुष्ठान से कर्मों का तीव्र बंध होता है, जिससे आत्मा दुर्गति में जाती है । अत: प्रमाणित होता है कि वेदोक्त हिंसामय यज्ञों से किसी प्रकार के भी पुण्य फल को प्राप्ति नहीं हो सकती। - जयघोष मुनि के उद्बोधन मे विजय घोष ने वैद की हिंसात्मक यज्ञ छोड़कर भाई के पास दीक्षा ग्रहण की। __यहां एक बात और ध्यान देने योग्य है कि १२वें अध्याय में (हरिकेशीबल) में वेदों को हिंसा के विधायक नहीं माना किन्तु यह कहा है कि तुम वेदों को पढ़ते हों लेकिन तुम्हें उनके अर्थों का ज्ञान नहीं जबकि २५वें अध्याय में उसके विरुद्ध यह लिखा है कि समस्त वेद पशुओं के बंधनार्थ हैं और उससे प्रतिपादित यज्ञ आदि पाप के हेतु है। अत: ऐसा प्रतीत होता है कि जयघोष मुनि के समय हिंसात्मक वैदिक यज्ञों की प्रथा चल पड़ी थी और उसका प्रचार अधिक हो चुका था इसलिये मुनि जयघोष ने उनका विरोध किया। जैन-धर्म में पंच अणुव्रत एवं पंच महाव्रत : गृहस्थों के लिए यह सम्भव नहीं कि ने समस्त पापों को त्यागकर सकें अत: उनके लिए पंच अणुव्रत-अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत एवं परिग्रहपरिमाण अणुव्रत का विधान है ये ही पंच महाव्रत Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के नाम से साधुओं के लिए है । प्रथम व्रत "अहिंसा" का हम यहाँ संक्षेप में विवेचन करेंगे। जैन धर्मानुसार प्रत्येक व्यक्ति के लिये अहिंसा व्रत का पालन करना आवश्यक है किन्तु सांसारिक मनुष्यों के लिये स्थूल अहिंसा का विधान है जिसका तात्पर्य है कि निरपराधियों की हिंसा न की जावें। जैन ग्रन्थों के अनुसार अनेक सेनाध्यक्ष अहिंसाणुव्रत का पालन करते हुए भी अपराधियों को दण्ड देते रहे हैं । उदाहरण स्वरूप जिसका गुजरात के अन्तिम सौलंकी राजा भीमदेव के समय उनकी अनुपस्थिति में राजधानी अनहिलपुर पर मुसलमानों का आक्रमण हुआ, उस समय सेनाध्यक्ष के पद पर "आन" नामक श्रीमाली वणिक था जो कि पक्का धर्माचरणी था। रानी ने उसे बुलाकर आने वाले संकट की सूचना देकर उससे निवृत्ति के लिये सलाह पूछो । सेनाध्यक्ष ने विनम्र शब्दों में कहा--यदि रानी साहिबा मुझ पर विश्वास करके युद्ध सम्बन्धि पूर्ण सत्ता मुझे सौंप देगी तो मुझे विश्वास है कि मैं अपने देश की दुश्मनों के हाथों से पूरी तरह रक्षा कर लूंगा। रानी ने उसी समय युद्ध सम्बन्धि सम्पूर्ण सत्ता उसके हाथों में सौंपकर युद्ध की घोषणा कर दी। सेनाध्यक्ष आभू ने सैनिक संगठन कर लड़ाई के मैदान में पड़ाव डाल दिया। सेना की व्यवस्था करते समय शाम हो गई। वह व्रतधारी श्राबक था अत: दोनों समय प्रतिक्रमण करने का उसका नियम था। अत: संध्या होते ही कहीं एकांत में जाकर प्रतिक्रमण करने का निश्चय किया, लेकिन युद्ध स्थल छोड़ने पर सेना में विश्रंखला होने की सम्भावना थी। अत: अन्यत्र जाने का विचार छोड़ हाथो के हौदे पर हो बठे बठे प्रतिक्रमण प्रारम्भ कर दिया जिस समय वह प्रतिक्रमण में आये हुए "जे में जीवा विराहिया एगिदिया, * मन, वचन व काया से सूत्रों को आदर भाव से बालकर किये दुष्कृत्यों का पश्चाताप द्वारा विसर्जन करना। फिर से ऐसी भूलें न हों, ऐसी भावना का संकल्प करना। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९४ ) बेइंदिया"+ आदि सूत्र का उच्चारण कर रहा था उसी समय किसी सैनिक ने इन शब्दों को सुन लिया। उस सैनिक ने दूसरे सरदार से जाकर कहाइस युद्ध के मैदान में जहाँ मार-मार की पुकार और शस्त्रों की खनखनाहट के सिवाय कुछ भी सुनाई नहीं देता वहां हमारे सेनापति एगिदिया, बेइ दिया कर रहे हैं । शनै -शनैः बात रानी के कानों तक जा पहुंची लेकिन अन्य कोई विकल्प न देखकर रानी चुप रही। दूसरे दिन प्रात: युद्ध प्रारम्भ होते ही सेनाध्यक्ष ने इतने पराक्रम और शौर्य के साथ शत्रु पर आक्रमण किया कि कुछ ही घड़ियों में शत्रु सेना का भयंकर संहार हो गया। मुसलमान सेनापति से हथियार रख युद्ध बन्द करने की प्रार्थना की। आभू को विजय पर अनहिलपुर की सारी प्रजा में उसका जय-जयकार होने लगा। रानी ने एक बड़ा दरबार करके आभू को उचित सम्मान प्रदान किया। इस अवसर पर रानी ने कहा-दण्डनायक ! जिस समय युद्ध में व्यूह रचना करते समय तुम एगिदिया, बेइंदिया का पाठ करने में लगे थे उस समय तो अपने सैनिकों को तुम्हारी ओर से बड़ी निराशा हो गई थी आज तुम्हारी वीरता को देखकर सभी को आश्चर्य हो रहा है । देखिये सेनाध्यक्ष क्या जवाब देते हैं "महारानी ! मेरा अहिंसा व्रत मेरी आत्मा के साथ सम्बन्ध रखता है। एगिदिया; बेइंदिया में वध न करने का जो व्रत मैंने ले रखा है वह मेरे व्यक्तिगत स्वार्थ की अपेक्षा से है । देश की रक्षा के लिये अथवा राज्य को भलाई के लिये यदि मुझे वध करना अथवा हिंसा करने की आवश्यकता पड़े तो वैसा करना मैं अपना परम कर्त्तव्य समझता हूँ। मेरा यह शरीर राष्ट्र की सम्पत्ति है । इस कारण राष्ट्र को आज्ञा और आवश्यकतानुसार इसका उपयोग होना आवश्यक है । शरीरस्थ आत्मा और मन मेरी निजी की सम्पत्ति है । इन दोनों को हिंसा-भाव से अलग रखना ही मेरे अहिंसाव्रत का लक्षण है।" + इस सूत्र का अर्थ है-मेरे द्वारा एक इंद्रिय, दो इंद्रिय"पंचेन्द्रिय तक यदि जीव हिंसा हुई हो तो उसके लिये क्षमा मांगना। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९५ ) इस ऐतिहासिक उदाहरण से गृहस्थ के जैन धर्म की अहिंसा का यथार्थ रूप समझ में आ जाता है । अत: अहिंसा कायरता है या जैन सेना में भर्ती नहीं हो सकते, इत्यादि आरोप निराधार है। हम डंके की चोट पर कह सकते हैं-"अहिंसा वीरस्य भूषणम् ।" जैन मुनियों के लिये अहिंसावत बहुत ही महत्व रखता है इसका सम्यक् प्रकार से पालन करने के लिये निम्नलिखित सावधानियां आवश्यक मानी गई है १. इर्या समिति-चलते हुए इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि कहीं हिंसा न हो जायें इसलिये उन्हीं स्थानों पर चलना चाहिये जहाँ मार्ग व्यवस्थित हों क्योंकि वहाँ जीव-जन्तुओं के पैर से कुचले जाने की सम्भावना बहुत कम होगी। २. भाषा समिति-सदा मधुर एवं प्रिय भाषा बोलनी चाहिये क्योंकि कठोर वाणी से वाचिक हिंसा होती है साथ ही यह सम्भावना बनी रहती है कि शाब्दिक लड़ाई से बढ़ते-बढ़ते कहीं शारीरिक लड़ाई न हो जाये। ३. एषणा समिति-भिक्षा ग्रहण करते हुए मुनि को यह ध्यान रखना चाहिये कि भोजन में किसी प्रकार की हिंसा तो नहीं को गई है अथवा भोजन में किसी प्रकार के कृमि तो नहीं है। ५ आदान क्षेपणा समिति-मुनि को अपने धार्मिक कर्तव्यों का पालन करने के लिये जिन वस्तुओं का अपने पास रखना आवश्यक है उनमें निरन्तर यह देखते रहना चाहिये कि कहीं कोड़े तो नहीं हैं। ५. व्युत्सर्ग समिति-पेशाब व मल त्याग करते समय भी यह ध्यान रखना चाहिये कि जिस स्थान पर वे ये कार्य कर रहे हैं वहां जीवजन्तु तो नहीं हैं। नि:संदेह अहिंसा की जितनी गहरी मीमांसा, जितना सूक्ष्म विवेचन एवं आचरण जैन धर्म में है किसी जेनेतर परम्परा में नहीं। पंचव्रतों के Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९६ ) दूसरे व्रत सत्य को ही लीजिये -असत्य बोलने से कैसे हिंसा होती है इसका बड़ा सुन्दर प्रसंग प्रस्तुत किया है, जैनाचार्य श्रीमद् विजय धर्मं सूरीश्वरजी ने—जब वे कलकत्ता में अहिंसा का उपदेश दे रहे थे, तब रायबहादुर रामदास सेन सान्याल जी ओलाजिकल गार्डन के सुपरिन्टेन्डेन्ट इनसे मिले और कहा कि महाराज ! जीव - हिंसा की अपेक्षा झूठ बोलने में महान पाप है । महाराज श्री ने तुरन्त उत्तर दिया- जीव को मारना' इसका नाम हिंसा नहीं है, क्योंकि जीव तो कदापि मरता ही नहीं । हम हिंसा के लिये यहाँ तक कहते हैं कि " द्वेषबुद्धया अन्यस्य दुःखोत्पादनं हिंसा" अर्थात द्वेष बुद्धि से दूसरे को दुख देना इसी का नाम हिंसा है । अब विचार करिए कि झूठ बोलने से क्या दूसरे को दुख उत्पन्न नहीं होता । होता ही है और जब होता ही है तो उसका नाम हिंसा है इसी उपदेश के परिणामस्वरूप सुपरिन्टेन्डेन्ट साहब ने मछली व माँस खाना छोड़ दिया । १ सच पूछा जायें तो अहिंसा जैन धर्म की आत्मा है उसमें किसी भी समय परिवर्तन नहीं हो सकता । अतः " जैन धर्म" को समझने के लिए "अहिंसा" को भली-भाँति समझना आवश्यक है और "अहिंसा" को समझने के लिये “जैन धर्म" को समझना आवश्यक है क्योंकि दोनों एक रूप हैं इन्हें अलग नहीं किया जा सकता । जैन धर्म का प्रश्न आते ही हमारे मस्तिष्क में अहिंसा घूम जाती है और यदि कहीं अहिंसा का प्रश्न हो तो जैन धर्म याद आ जाता है । न केवल जैन अपितु जैनेतर भी जब कभी अहिंसा का स्मरण करते हैं तो जैन धर्म को याद करना नहीं भूलते लेकिन अहिंसा तत्व इतना सूक्ष्म हैं कि लोग उसे ठीक से समझ नहीं पाते क्योंकि वे उसके सूक्ष्स रूप को न समझकर केवल स्थूल रूप को पकड़ लेते हैं । अतएव के सम्बन्ध में तीर्थ करों अथवा आचार्यों ने जो स्पष्टीकरण दिए हैं उनका यथार्थ रूप समझ लेने पर कहीं भी गलती नहीं होगी । १. विजय धम सूरि जीवन रेखा - रघुनाथ प्रसाद सिंहानिया पृ. २६-२७ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९७ ) पंच- प्रतिक्रमण अतिचारों* में एक अतिचार आता है "हँसी, मशकरी नहीं करना" अचानक ही दिमाग में प्रश्न पैदा हुआ कि जन धर्म तो हँसी-मजाक को भी मना करता है इसका अर्थ तो यह है कि मिट्टी के बुत बने बेठे रहो किसी से कुछ कहो ही मत । कई बार सोचती कि ऐसा क्यों लिखा गया है ? एक बार एक गुरुदेव से पूछ ही लिया, गुरुदेव बोले ठीक ही तो है - द्रोपदी ने दुर्योधन से मशहरी ही तो की थी कि “अन्धे के पुत्र अन्धे" और इसी पर महाभारत हुआ । कहने का तात्पर्य है कि तीर्थंकरों के उपदेश तो सारगर्मित हैं, हम उन्हें समझ में अपनी बुद्धि - विवेक का उपयोग कहाँ तक करते हैं ये हमारे ऊपर निर्भर करना है । यही कारण है कि जो बात बुद्धि परे हो उस विषय में अनर्गल बातें दिमाग में आती हैं । यूँ तो प्राणों की हिंसा का पाप पग-पग पर तैयार है। गृहस्थ की बात छोड़िये साधू लोग भी इससे नहीं बच पाते। आहार - बिहार करने, बोलने, उठने-बैठने आदि हर क्रिया में कुछ न कुछ प्राण हानि का पाप आवश्य होता है, उससे बच नहीं सकते । इसी बात से परेशान होकर शिष्य भगवान पूछता है— से "हे भगवन ! जीव किस प्रकार से चले किस प्रकार से खड़ा हो ? किस प्रकार से बैठे ? किस प्रकार से सौवे ? किस प्रकार से भोजन करे ? और किस प्रकार से बोले ? जिससे कि उसे पापकर्म का बन्ध न हो ।" १ इसके उत्तर में भगवान कहते हैं * जैन धर्म श्रावक-श्राविकाओं के लिये जिन कार्यों का निषेध किया गया है उन कार्यों को जाने-अनजाने में करने पर जो भी दोष लगा हो, उनके लिये क्षमा माँगना ही अतिचार कहलाता है । १, कहंचरे कहंचिट्ठे, कहमासे कहं सा कहं भुजं तो भासतो, पावकम्मं न बंधइ ||७|| दशवैकालिक सूत्र - अध्याय ४ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९८ ) "जीव यत्नपूर्वक चले, यत्नपूर्वक खड़ा होवे, यत्नपूर्वक बैठे, यत्नपूर्वक सोवे, यत्नपूर्वक भोजन करे और यत्नपूर्वक भाषण करे तो वह पाप कर्म को नहीं बाँधता है ।१ अहिंसा का उत्सर्ग व अपवाद मार्ग :- . आध्यात्मिक जीवन में साधना का विशेष महत्व है और साधना की सीमा में प्रवेश करते हो उसके प्रमुख अंगों उत्सर्ग व अपवाद पर हमारा ध्यान केन्द्रित हो जाता है । वस्तुत ये दोनों अंग साधना के प्राण हैं । जिस तरह चलने के लिये दाँये व बाँये पैर की आवश्यकता होती है। एक के अभाव में मनुष्य पंगु बन जाता है उसी प्रकार साधना के लिये दोनों अंग आवश्यक हैं। एक के भी अभाव में साधना विकृत एवं एकांगी बन जायेगी। साधक के जीवन के लिए उत्सर्ग एवं अपवाद को आवश्यक ही नहीं बल्कि अपरिहार्य मानना चाहिए। उत्सर्ग व अपवाद शब्दों का तात्पर्य क्या है ? प्रस्तुत विषय में आचार्य हरिभद्र का कथन है कि "द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि की अनुकूलता से युक्त समर्थ साधक के द्वारा किया जाने वाला कल्पनीय (शुद्ध) अन्नपान गवेषणादि, रूप उचित अनुष्ठान उत्सर्ग है, और द्रव्यादि अनुकूलता से रहित का यतनापूर्वक तथाविध अकल्प्यसेवन रूप उचित अनुष्ठान अपवाद है ।"२ . जयंचरे जयं चिळे, जयमासे जयं सए जय भुजतो भासंतो. पावकम्मं न बंधइ ॥८॥ दशकालिक सूत्र- अध्याय ४ बुद्ध ने भी ऐसा ही कहा है- भिक्षु यतना से खड़ा रहे, यतना से बैठे, यतना से सोए, यतना से संकुचित और यतना से फैलाये........... इतिवृत्तकं पृ. १०१ पद---गाथा ७८४ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९९ ) आचार्य मल्लिषेण स्पष्टीकरण करते हैं : सामान्य रूप से संयम की रक्षा के लिये नवकोटि विशुद्ध आहार ग्रहण करना उत्सर्ग है परन्तु यदि कोई मुनि तथाविध द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सम्बन्धि आपत्तियों से ग्रस्त हो जाता है और उस समय गत्यन्तर न होने से उचित यतना के साथ अनेषणीय आहार जादि ग्रहण करता है, यह अपवाद मार्ग है। किन्तु अपवाद भी उत्सर्ग के समान संयम को रक्षा के लिये होता है।"१ आचार्यों के अभिप्राय का निष्कर्ष यही है कि सामान्य उत्सर्ग है और विशेष अपवाद । प्रतिदिन की साधना में जो नियम संयम की रक्षा के लिए होते हैं, आपत्ति काल में उनमें परिवर्तन आवश्यक हो जाता है फिर बाह्य तौर पर उनका आचरण चाहे संयम के विपरीत ही जान पड़ता है लेकिन हम उसे संयम का उल्लंघन नहीं कह सकते क्योंकि वह आचरण भी संयम की सुरक्षा के लिए ही किया जाता है। अपवाद मार्ग को यू भी कहा जा सकता है- “अकरणीय कार्यों को विशेष परिस्थितियों में करने को ही अपवाद कहते हैं ।" स्मरणीय रहे कि उत्सगं और अपवाद दोनों का लक्ष्य एक ही है--संयम को रक्षा करना । उत्सर्ग मार्ग को विशेष परिस्थितियों में छोड़कर अपवाद मार्ग अपनाया जाता है लेकिन विशेष परिस्थितियां समाप्त होते ही साधक को उत्सगै मार्ग पर आ जाना चाहिए । कहने का तात्पर्य है कि आपत्तिकाल में जितना आवश्यक हो उतना हो अपवाद मार्ग का सेवन करना चाहिए। अपवाद मार्ग की सीमाओं को एक पौराणिक कथा द्वारा सहज ही समझा जा सकता है एक समय बारह वर्षीय भयंकर अकाल पड़ा। सर्वत्र त्राहि-त्राहि होने लगी। लोग भूखे मरने लगे। क ऋषि भूख से त्रस्त अन्न के लिये भटक रहे थे। उन्होंने देखा कि राजा के कुछ हस्तिपक (पीलवान) बैठे हैं, मध्य १. स्याद्वाद मंजरी-कारिका ११ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० ) में अन्न का ढेर है, सब उसो में से एक साथ लेकर खा रहे हैं और पास ही जल पात्र रखा है बीच-बीच में सब उसी में मुह लगाकर पानी भी पी रहे हैं। ऋषि ने पीलवानों से अन्न की याचना की। पीलवानों ने कहा-महाराज अन्न तो जूठा है, कैसे दें ? ___ ऋषि ने कहा-"आपत्ति काले मर्यादा नास्ति" अत: पेट भरने के लिये जूठा ही दे दो। एक ओर बैठकर अन्न खाकर जब ऋषि जाने लगे तो पीलवानों ने कहा-महाराज ! जल भी पीते जाइये । ऋषि बोले-जल जूठा है मैं नहीं पी सकता। ऋषि की बात सुनकर पीलवानों ने ठहाका मारकर कहा-महाराज ! अन्न पेट में पहुँचते ही बुद्धि लौट आई । जो अन्न आपने खाया क्या वह जूठा नहीं था ? अब पानी पीने में आप जूठे-सुच्चे का विचार किस आधार पर कर रहे हैं ? ऋषि ने शांत भाव से प्रत्युत्तर दिया-बन्धुओं तुम्हारा सोचना ठीक है किन्तु मेरी एक मर्यादा है। अन्न अन्यत्र नहीं मिल रहा था और इधर भूख से व्याकुल प्राण मे कण्ठ मेरे आ गये थे और अधिक सहन करने की क्षमता मुझ में नहीं रह गई थी। अत: अपवाद की स्थिति को स्वीकार कर मैंने जूठा अन्न ही स्वीकार कर लिया। जल तो मुझे मेरी मर्यादा के अनुसार शुद्ध (सुच्चा) मिल सकता है अत: मैं जूठा जल पीकर व्यर्थ ही मर्यादा का उल्लंघन क्यों करूं ? ___ सार रूप में कह सकते हैं कि जहाँ तक हो सके उत्सर्ग मार्ग पर ही चलना चाहिये । जब चलना दुष्कर हो जाये तो अपवाद मार्ग ग्रहण करना चाहिए। जैसे ही परिस्थितियां सामान्य हों उत्सर्ग मार्ग पर लौट आना चाहिए । अव हम यहाँ अहिंसा, के उत्सर्ग और अपवाद मार्ग पर सक्षेप में प्रकाश डालेंगे-भिक्षु का उत्सर्ग मार्ग है कि मन, वच, काया से किसी प्रकार के Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) स्थूल एवं सूक्ष्म जीवों को हिंसा न करें लेकिन इसके कुछ अपवाद मार्ग भी | जैसे - भिक्षु के लिये हरी वनस्पति के स्पर्श का निषेष है । यह तो हुआ भिक्षु का उत्सर्ग मार्ग किन्तु इसका अपवाद मार्ग इस प्रकार है 1 "एक भिक्षु जो किसी अन्य मार्ग के न होने पर किसी पर्वत आदि के विषम पथ से जा रहा है । यदि कदाचित् वह स्खलित होने लगे तो स्वयं को गिरने से बचाने के लिये झाड़, गुच्छ, गुल्म, लता, बेल, घास, बूट, हरित आदि को पकड़कर उस विषम रास्ते को पार करे ।" १ यहाँ प्रत्यक्ष में देखा जाये तो भिक्षु जब अपवाद मार्ग ग्रहण करके हरी वनस्पति का स्पर्श करता है तो उसमें हिंसा होती है लेकिन सूक्ष्मता से विचार करने पर विदित होता है कि जो हिंसा हुई है वह हिंसा के लिये नहीं प्रत्युत अहिंसा के लिये ही हुई है । गिर जाने पर अंग-भंग हो सकता था फिर आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान का संकल्प - विकल्प आ सकता था अथवा गिरते हुए अन्य जीवों की हिंसा हो सकती थी । अतः भविष्य में होने वाली हिंसा की लम्बी श्रंखला से बचने के लिए भिक्षु ने जो अपवाद मार्ग ग्रहण किया मूलत: वह अहिंसा के लिए ही किया । भिक्षु के लिए गृहस्थ के घर में मल-मूत्र त्याग करने का निषेध है । विशेष परिस्थिति पैदा होने पर यहाँ भी इस प्रकार से छूट है— “अव्वल तो मल-मूत्र की बाधापूर्वक साध गोचरी (भिक्षा) के लिए जावे ही न । यदि वहाँ जाने पर बाधा हो जाए, तब प्रासुक मल-मूत्र का स्थान जानकर और गृहस्थ की आज्ञा लेकर ही मल-मूत्र का त्याग करे ।"२ मल-मूत्र का बलात निरोध करना स्वास्थ्य और संयम दोनों ही दृष्टियों से वर्जित है । मूत्रावरोध से नेत्र रोग और पुरिषावरोध से अनेक रोग तथा जीवोपघात आदि होते हैं । १. आचारांग सूत्रम - श्रुत स्कन्द २, अध्ययन १२, उद्देश २, श्लोक ७४७ २. दश्वैकालिक सूत्र - अध्याय ५, गाथा १९ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) चातुर्मास में साधुओं को निष्प्रयोजन बिहार न करके एक ही स्थान पर रहने की जिनाज्ञा है लेकिन विशेष धर्म प्रभावना और अनिष्टकारक संयोग होने से आचार्य, गीतार्थादि महानुभावों को देश-काल भाव विचार कर बिहार करने की भी अपवाद मार्ग से जिनाज्ञा है । जब विष्णु कुमार मुनि को ज्ञात हुआ कि नमुचि नामक ब्राह्मण राजा हस्तिनापुर में जैन श्रमणों को महान कष्ट पहुँचा रहा है तो वे वर्षाकाल की परवाह न करके अपना ध्यान भंगकर हस्तिनापुर आये नमुचि से तीन पैर स्थान माँगकर उसे समुचित दण्ड देकर श्रमण संघ की रक्षा की। इसी प्रकार जब आचार्य श्री जिनचन्द्र सूरिजी को मुगल बादशाह अकबर का निमंत्रण मिलता है तो वे लोक कल्याण की भावना से चातुर्मास में ही बिहार कर बादशाह के दरबार में पहुचते हैं । जलीय जीवों की विराधना होने से भिक्षु के लिए तो सचित्त जल का स्पर्श मात्र भी निषिद्ध है लेकिन “बाल, वृद्ध और ग्लानादि (बीमार ) के लिए भिक्षार्थ जाना अत्यावश्यक हो तो उचित यतना के साथ ( कम्बली आदि देह पर लेकर) गमनागमन किया जा सकता है ।" १ अहिंसा के अपवाद मार्ग को भली-भाँति समझ लेने पर निःसंदेह कहा जा सकता है कि अपवाद में व्रत-भंग अथवा संयम नष्ट नहीं होता, बशर्ते कि अपवाद भी उत्सर्ग को भाँति अन्तर्तम की शुद्ध भावना पर आधारित हो । प्रत्यक्ष में भले ही स्फटिक जैसा उज्जवल रूप न दिखाई दे किन्तु अन्तर्मन तो निष्कलंक है । जैसा कि महापुरुषों का भी कहना है कि अन्तिम मुहर तो अन्दर ही लगती है । शास्त्रों द्वारा भी पुष्टि होती है कि - " जिस प्रकार प्रतिषेध का पालन करने पर आचरण विशुद्ध माना जाता है, उसी प्रकार अनुज्ञा के अनुसार अर्थात अपवाद मार्ग पर चलने पर भी आचरण को विशुद्ध ही माना जाना चाहिए ।"२ १. योगशास्त्र - प्रकाश ३, श्लोक ८७ २. निशीथ सूत्रम - भाग १, गाथा २८७ - भाग ३, गाथा ४१०३ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३ ) क्या अहिंसा केवल अनु ग्रह में ही है : इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि अनुग्रह में अहिंसा है, लेकिन यदि सिर्फ अनुग्रह में अहिंसा है तो क्या निग्रह में हिंसा ही है ? यहाँ हमें यही देखना है कि जैन-धर्म निग्रह के विषय में क्या कहता है ? __साधारण तौर पर देखा जाये तो जिसे दण्ड दिया जाता है उसे कष्ट होना स्वाभाविक है और जैन धर्मानुसार किसी प्राणी को कष्ट देना हिंसा की कोटि में माना जाता है जबकि जैन धर्म में हिंसा को कोई स्थान नहीं। इस दृष्टि से तो यही जान पड़ता है कि निग्रह में हिंसा है लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं। - जैसा कि पहले भी कहा जा चका है कि जैन धर्म में किसी कार्य के पीछे छिपी उसकी भावना अथवा संकल्प को महत्व दिया जाता है । यदि दण्ड में हिंसा मान ली जाये तो फिर जैन धर्म में आचार्य अथवा माता-पिता का कोई स्थान ही न रह जाये । जब आचार्य किसी साधक की गलती पर उसे दण्ड देते हैं तो उसके मूल में छिपी भावना उस साधक को सही मार्ग दिखाकर कल्याण की होती है, न कि उसे कष्ट पहुँचाने की। यही बात माता-पिता पर भी लागू होती है। दण्ड देने वाला भी अगर समझदार है तो अवश्य समझता है कि जिनका मुझ पर अनुग्रह था यदि वे दण्ड देते हैं, तो मेरे कल्याण के लिए ही । उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है “आचार्य महाराज मेरे को कोमल अथवा कठोर वाक्यों से जो शिक्षा करते हैं यह सब मेरे लाभ के लिये है। इस प्रकार से विचार करता हुआ शिष्य प्रयत्नपूर्वक गुरुजनों की शिक्षा को ग्रहण करे।" सार यही है कि किसी प्रकार की भूल हो जाने पर उसके सुधार के निमित्त गुरुजन यदि किसी प्रकार की शिक्षा देने में प्रवृत्त हों तथा उस शिक्षा - १. उत्तराध्ययन ---अध्याय १, श्लोक २७ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) प्रवृत्ति में कठोर वाक्यों का भी प्रयोग करें तो उसे हम हिंसा की श्र ेणी में स्थान नहीं देंगे, बशर्ते कि दण्ड देने वाला शत्रु का हृदय रखकर दण्ड न दे ऐसे अनेकों प्रसंग हैं । जब जैन-धर्मं निग्रह में हिंसा नहीं मानता । 1 रावण सीता का अपहरण करता है, उसके सतीत्व को भंग करने की तैयारी हो रही है । राम द्वारा समझौते के सारे प्रयास विफल हो जाते हैं । ऐसी स्थिति में राम के सामने प्रश्न खड़ा होता है कि यदि युद्ध करता हूँ तो एक तरफ युद्ध में होने वाली घोर हिंसा है और दूसरी ओर मात्र सीता की रक्षा का प्रश्न है । ऐसी समस्या का समाधान यदि जैन-धर्म से पूछा जाये तो वह यही कहेगा कि तुम सीता को बचाने जा रहे हो तो वहाँ एक सीता का नहीं बल्कि हजारों सीताओं का प्रश्न है । अन्याय, अत्याचार, बलात्कार का प्रतीकार करना ही चाहिए। राम का उद्देश्य युद्ध करना नहीं, केवल सीता को प्राप्त करना है । वे तो कहते हैं- मुझे कुछ नहीं चाहिए। न पृथ्वी, न सुन्दर ललनाएँ और न ही तेरी सोने की लंका का एक माशा भी सोना; मुझे तो मेरी सीता लौटा दे । राम का लक्ष्य पूर्ण न होने पर ही युद्ध का श्रीगणेश होता है। राम अपना कर्त्तव्य पालन करते हैं तो जैन-धर्म कर्त्तव्य से, युद्ध से राम को नहीं रोकना । अहिंसावादी जैन-धर्म अत्याचारी को न्यायोचित दण्ड देने का अधिकार गृहस्थ को देता है । वास्तव में जैन धर्म की "अहिंसा" पर जो भद्दी छींटाकशी की जाती है वह उसके सही स्वरूप को न समझने के कारण ही है । अब देखिए कृष्ण को युद्ध का देवता माना जाता है कि कृष्ण के बिगुल बजाते ही महाभारत प्रारम्भ हो गया जबकि हम तो कृष्ण के मार्ग को जैन-धर्म का ही आंशिक रूप मानेंगे। महाभारत शुरू होने से पहले कृष्ण स्वयं शांतिदूत बनकर दुर्योधन की सभा में पहुँचते हैं और देखिये झोली फैलाकर क्या माँगते हैं "मैं खून का दरिया नहीं बहाना चाहता । खून का दरिया बहाते हुए जो नजारा दिखा देता है वह मैं नहीं देखना चाहता। मैं नहीं चाहता कि नौजवानों की ताकत खत्म हो जाये, बड़े बूढ़ों की इज्जत खत्म हो जाये और Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५ ) हजारों-लाखों माताओं, बहनों को रोना पड़े। दुर्योधन ! तुम अन्याय कर रहे हो, तुम अत्याचार पर उतारू हो। यह मार्ग ठीक नहीं है। राज्य पर पांडवों का अधिकार है। अगर तुम उनका राज्य उन्हें नहीं लौटा सकते तो पांच गाँव ही उन्हें दे दो। मैं पांडवों को समझा दूंगा और उन्हें इतने में ही संतुष्ट कर लूंगा। . अब बताइये, जिस कृष्ण के अन्त:करण से इस प्रकार के उद्गार निकले हों, उन्हें हिंसा का देवता मानना क्या उनके साथ अन्याय करना नहीं ? अन्याय और अत्याचार को रोकने का जब कोई दूसरा मार्ग न रह गया तब युद्ध का मार्ग अपनाया गया। इस दृष्टि से जैन-धर्म कृष्ण को अहिंसा का देवता ही मानता है। यदि किसी राजा पर कोई अत्याचारी विदेशी राजा आक्रमण करता है तो क्या वह श्रावक राजा उस अत्याचारी पर अनुग्रह करके अन्याय के सामने घुटने टेक देगा ? नहीं ! जैन-धर्म इस सम्बन्ध में कहता है कि ऐसे प्रसंगों पर हिंसा मुख्य नहीं अपितु अन्याय का प्रतीकार मुख्य हैं इसीलिये देश और धर्म दोनों की रक्षा का प्रश्न सामने होने पर देश रक्षा पर बल दिया गया है क्योंकि देश को रक्षा होने पर धर्म की रक्षा स्वत ही हो जायेगी देश न रहने पर धर्म का अस्तित्व कहाँ टिकेगा? अतः अहिंसा का दायरा इतना संकीर्ण नहीं कि किसी को कष्ट न पहुँचाना ही अहिंसा है, बल्कि अन्याय, अत्याचार का प्रश्न उपस्थित होने पर एक अंश में निग्रह भी अहिंसा का रूप धारण कर लेता है। इसके विपरित कभीकभी अनुग्रह भी हिंसा का रूप धारण कर लेता है। उदाहरण स्वरूप एक माँ स्नेहवश बच्चे को वह चीज खाने को देती है जो उसके स्वास्थ्य के प्रतिकूल है तो यहाँ उस माँ के अनुग्रह का क्या तात्पर्य हुआ। कहने का तात्पर्य है कि हर जगह एक सी बात नहीं होती। कभी अनुग्रह निग्रह भी हो सकता है और कभी निग्रह भी अनुग्रह । मूल में वही भावना जगत की बात आ जाती है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) जगत् कल्याण की कसौटी अहिंसा : प्राय: जैन-धर्म की अहिंसा पर कायरता अथवा दुर्बलता का दोषारोपण किया जाता है । लेकिन यह आरोप उतना ही निराधार है जितना सूर्य पर अन्धकार का पिण्ड होने का आरोप लगाना । बहुत से प्रतिष्ठित विद्वान इसको अव्यवहारिक और कायरता की जननी समझ राष्ट्रनाशक बताते हैं ऐसे लोगों के लिए हम तो यही कहेंगे कि उन्होंने अहिंसा के यथार्थ रूप को समझने का कष्ट ही नहीं किया । अहिला पर लगाये ये आरोप प्रमाण रहित और शक्ति शून्य हैं । 1 भारत का प्राचीन इतिहास डंके की चोट से बतला रहा है कि जब तक इस देश पर अहिंसा प्रधान जातियों का राज्य रहा तब तक यहाँ की प्रजा में शान्ति, शौर्य, सुख पूर्ण रूप से व्याप्त था । इतिहास साक्षी है-आर्य महागिरो ने सम्प्रति राजा को, बप्पभट्टी ने आम राजा को, सिद्धसेन दिवाकर ने राजा विक्रमादित्य को, कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य ने राजा कुमारपाल को और विजय हीर सूरि ने अकबर महान को प्रतिबोध देकर जो लोक कल्याण के कार्य करवाये वे किसी से छिपे नहीं हैं । आखिर ये सब महापुरुष कौन थे ? अहिंसा व्रतधारी जैन धर्माचार्य हो तो थे । इसी प्रकार आधुनिक युग में भी न्यायाम्भोनिधि जैनाचार्य पूज्य श्री विजयानन्द सूरि (श्री आत्मारामजी) जगत् पूज्य, शास्त्र विशारद् जैनाचार्य श्रीमद् विजय धर्म सूरिजी एवं कलिकाल - कल्पतरू श्री विजय वल्लभ सूरिजी ने भी अहिंसा धर्म का अनवरत प्रचार किया । महात्मा गाँधी तो आजीवन भगवान महावोर के मुक्त कण्ठ से प्रशंसक बने रहे । विलायत जाते समय गाँधीजी ने जैन सन्त श्रीमद् राजचन्द्र भाई से मद्य, मांस तथा पर स्त्री सेवन त्याग की प्रतिज्ञा ली थी और जिसके प्रभाव से गाँधीजी के जीवन में अहिंसात्मक उज्जवल क्रांति का जागरण हुआ था उसे फाँस के विश्व-विख्यात लेखक रोम्यारोला " जैनों की प्रतिज्ञा त्रयी" कहते हैं । कलकत्ता में काली मन्दिर में देवी के आगे रक्त की वैतरिणी देख गाँधीजी व्याकुल हो उठे थे । उनका करुणापूर्ण अन्त:करण रो पड़ा था । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७ ) अपनी अन्तर्वेदना को व्यक्त करते हुए वे अपनी आत्मकथा में लिखते हैं"जब हम मन्दिर में पहुँचे तब खून की बहती हुई नदी से हमारा स्वागत हुआ । यह दृश्य मैं नहीं देख सका मैं बेचैन और व्याकुल हो उठा। मैं उस दृश्य को भी नहीं विस्मृत कर सकता हूँ।" क्या वे अहिंसा के पुजारी नहीं थे ? वस्तुत: अहिंसा में कायरता के लिये तो स्थान है ही नहीं। इसका तो प्रथम पाठ ही निर्भयता का है। शौर्य आत्मा का एक गुण है, जब वह आत्मा के ही द्वारा प्रकट किया जाता है तब अहिंसा कहलाता है और जब शरीर के द्वारा प्रकट किया जाता है तब वीरता! जैन-धर्म की अहिंसा या तो वीरता का पाठ पढ़ाती है या क्षमा का। निशीथ चूणि में कालकाचार्य की कथा आती है—एक बार उनकी साध्वी बहन को पकड़कर उज्जयिनो के राजा गर्दभिल्ल ने अपने महल में रखवा दिया। कालकाचार्य इसे कैसे सहन कर सकते थे ? गर्दभिल्ल को समझाने के जब सारे प्रयास विफल रहे तो कालकाचार्य ईरान पहुँचे और वहां से ९६ शाहों को लाकर गर्दभिल्ल पर चढ़ाई कर दो । तत्पश्चात शाहों को उज्जयिनी के तख्त पर बैठाकर अपनी बहन को पुन: धर्म में दीक्षित किया ।१ इस कथानक के जो चित्र उपलब्ध हुए हैं उनमें स्वयं कालकाचार्य अपने साधू के उपकरण लिये हुए अश्वारूढ़ होकर शत्रु पर बाण छोड़ते हुए दिखाये गये हैं। क्या यह प्रसंग कालकाचार्य को वीरता प्रदर्शित नहीं करता? क्या उन्होंने अन्याय का प्रतिकार नहीं किया ? जैन धर्म उन क्षत्रियों का धर्म है जो युद्ध स्थल में दुश्मन का सामना तलवार से करना और उसे क्षमा करना भी जानते थे। जैन क्षत्रियों के लिए शास्त्रों में आदेश है-“अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर युद्ध भूमि में जो शत्रु बनकर आया हो या अपने देश का दुश्मन हो, उसो पर राजागण अस्त्र प्रहार करते हैं । कमजोर निहत्थे कायरों और सदाशयी पुरुषों पर नहीं।"२ १. निशीथ सूत्रम-भाग ३, उद्देशक १०, गाथा २८६० २, यशस्तिलक पृ. ९६ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८ ) जैन ग्रन्थों में ऐसे अनेकों प्रसंग आते है जब श्रमणियां भिक्षा के लिये पर्यटन करतो थी तो नगरी के तरूण जन उनका पीछा करते थे उनके साथ हँसी-मजाक करते थे। ऐसे आपद्धर्म के अवसर पर बताया गया कि अस्त्रशस्त्र में कुशल तरूण साधू श्रमणी के वेष में जाकर उद्दण्ड लोगों को अमुक समय पर अमुक स्थान पर मिलने का संकेत देकर उन्हें समुचित दण्ड दे ।१ __ सुकुमालिया साध्वी की कथा भी शास्त्रों में आती है। जो अत्यन्त रूपवती थी, अत: भिक्षा के लिए जाते समय तरूण लोग उसका पीछा करते थे और कभी-कभी तो उपाश्रय में ही प्रवेश कर जाते थे। आचार्य को जब यह मालुम हुआ तो उन्होंने सुकुमालिया के साधू भ्राताओं को बहन की रक्षा हेतु नियुक्त किया। दोनों भाई राजपुत्र होने के कारण सहस्त्र योधी थे, अतएव जो कोई उनकी बहन से छेड़-छाड़ करता उसे वे उचित दण्ड देते थे। ये तो रहे प्राचीनकाल के कुछ उदाहरण । वर्तमान में भी जब से भारत ने अहिंसा के बल पर स्वतन्त्रता प्राप्त की है तब से अहिंसा के महत्व की महिमा सर्वत्र सुनाई पड़ती है। विश्व के अप्रतिम विद्वान जार्ज बर्नाड शॉ जैन तत्व ज्ञान पर अत्यन्त अनुरक्त प्रतीत होते हैं, जब वे जन अहिंसा के सिद्धान्त को शिरोधार्य कर श्री देवदास गांधी से कहते हैं--"जैन-धर्म के सिद्धान्त मुझे अत्यन्त प्रिय हैं। मेरी आकांक्षा है कि मृत्यु के पश्चात मैं जैन परिवार में जन्म धारण करू। गाँधीजी के विचारों पर तो जैन-धर्म का गहरा प्रभाव था ही। इस एटम के युग में भी अहिंसा के प्रति उनकी अपूर्व निष्ठा को देखकर पश्चिम के बड़े-बड़े विद्वान गांधीजी को जैन-धर्म का अनुयायी मानते हैं। भारतीय गणतन्त्र शासन के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा दिया गया सन्देश बड़ा उद्बोधक है कि “जैन-धर्म ने संसार को अहिंसा की शिक्षा १. बृहत्कल्पभाष्य---भाग २, पृष्ठ ६०८ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०९ ) दी है। किसी दूसरे धर्म ने अहिंसा की मर्यादा यहाँ तक नहीं पहुँचाई । आज संसार को अहिंसा की आवश्यकता महसूस हो रही है, क्योंकि उसने हिंसा के नग्न तांडव को देखा है और आम लोग डर रहे हैं क्योंकि हिंसा के साधन आज इतने बढ़ते जा रहे हैं और इतने उग्र होते जा रहे हैं कि युद्ध में किसी के जीतने या हारने की बात इतने महत्व की नहीं होती, जितनी किसी देश या जाति के सभी लोगों को केवल नि:सहाय बना देने की ही नहीं पर जीवन के मामूली सामान से वंचित कर देने को होती है।" इसीलिये वे कहते हैंजिन्होंने अहिंसा के मर्म को समझा वे ही इस अंधकार में कोई रास्ता निकाल सकते हैं। पाश्चात्य इतिहासकार स्मिथ लिखते हैं-"जैन आचार-शास्त्र सब अवस्था वाले व्यक्तियों के लिए उपयोगी है। वे चाहे नरेश, योद्धा, व्यापारी, शिल्पकार अथवा कृषक हैं, वह स्त्री-पुरुष की प्रत्येक अवस्था के लिये उपयोगी हैं । जितनी अधिक दयालुता से बन सके अपना कर्त्तव्य पालन करो। सूत्र रूप में वह जैन-धर्म का मुख्य सिद्धांत है।"१ अधिक क्या, चन्द महीनों पूर्व थाइलैण्ड का ही उदाहरण लीजिये, वहाँ सर्वसम्मति से चुने गये प्रधानमन्त्री का अमेरिकी पिट्ठओं द्वारा बहिष्कार किये जाने पर पाँच पार्टियों ने मिलकर सेना के प्रमुख जनरल सुचिंदा को देश का विना निर्वाचित प्रधानमन्त्री घोषित कर दिया। लेकिन ऐसे प्रधानमन्त्री को उन पाँच पार्टियों के अतिरिक्त किसी ने भी स्वोकार न किया । अत: देश में व्यापक स्तर पर प्रदर्शन होने लगे। केवल इतना ही नहीं भूतपूर्व सांसद चालक वारचाक ने आमरण अनशन प्रारम्भ कर दिया। पूरे देश में उस समय एक हलचल सी पैदा हो गई जब प्लांग धर्म राजनीतिक पार्टी के नेता मेजर जनरल चमलौंग श्री मुआंग ने वारचाक के साथ बैठने का फैसला किया। दूसरे दिन अखबारों की सुर्खियों में था-“एक और गाँधी द्वारा अनशन ।" १. भारत का इतिहास-विन्सेन्ट-ए-स्मिथ पृ. ५३ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) स्मरणीय रहे कि चमलौंग पूर्णतया गाँधीवादी प्रवृत्ति के नेता हैं शुद्ध शाकाहारी एवं खद्दरधारी हैं। उनके अनशन पर बैठते ही पूरा देश उनके पीछे हो लिया । ५ मई १९९२ को हुई रैली में करीब डेढ़ लाख लोगों ने चमलौंग का साथ दिया। शान्तिपूर्वक चलने वाले आन्दोलन का रुख उस समय बदल गया जब १८ मई, को अपरान्ह में प्रदर्शनकारियों का मुकाबला करने के लिये “बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स" को तैनात कर दिया गया । १८ मई की रात को सैनिकों ने प्रदर्शनकारियों पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी तथा चमलौंग को हथकड़ी लगाकर अज्ञात स्थान पर भेज दिया गया। आखिर जनता की कुर्बानी रंग लायी। २० मई की रात को थाईलैण्ड के राजा श्री भूमि बोल अदुल्य देज ने जनरल सुचिंदा, मेजर जनरल चमलौंग एवं भूतपूर्व प्रधानमन्त्री जनरल प्रेम की आपातकालीन बैठक बुलाई । २५ मई को संसद का अधिवेशन बुलाकर यह फैसला हुआ कि प्रधानमन्त्री संसद सदस्य ही होना चाहिए। क्या यह थाईलैण्ड में अहिंसा की जीत नहीं कहलायेगी ? उपरोक्त प्रमाणों के आधार पर हम नि:संकोच कह सकते हैं कि यदि विश्व में कोई कल्याण का पथ है तो वह अहिंसा ही है। आज जो विश्व में विपत्ति और संकट का नग्न नृत्य दिखाई दे रहा है उसका मूल कारण यही है कि लोगों में "आत्मवत् सर्वभूतेषु" की भावना प्रसुप्त हो गई है और उसके स्थान पर स्वार्थ साधन की जघन्य एवं सकीर्ण दृष्टि जाग्रत हो उठी है। आज जिस उन्नति का उच्चनाद सर्वत्र सुन पड़ता है वह आत्म जागरण अथवा सच्ची जीव रक्षा की उन्नति नहीं है किन्तु प्राणघात के कुशल उपायों की वृद्धि है। अहिंसा की समस्त मर्यादाओं को आज जीवन से निकाल दिया गया है यही कारण है कि आज हमें अहिंसा भगवती के चमत्कार दृष्टिगोचर नहीं होते । हों भी कैसे ? किसी औषध का सेवन किये बिना उसकी कार्य शक्ति का बोध कैसे हो सकता है ? आज अहिंसा केवल हमारे कण्ठ पर ही निवास कर Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११ ) रही है । जीवन के व्यवहार से इसका कोई सम्बन्ध नहीं रह गया है। "दया धर्म का मूल है" अथवा "अहिंसा परमो धर्म" जैसे महामंत्रों का उच्चनाद से उद्घोष करते हैं लेकिन अपने वैयक्तिक जीवन को अहिंसा को पवित्र भावनाओं से अछूता ही रखते हैं। जबकि अहिंसा को परम धर्म कहने के बजाय नित्य धर्म कहना अधिक उपयुक्त होगा। यद्यपि यह असत्य नहीं कि अहिंसा परम धर्म है किन्तु यदि उसे जीवन का अंग न बनाया जाये तो उसकी महानता का क्या अर्थ है ? भगवान महावीर ने जहां अहिंसा को परम धर्म कहा था वहीं उसे नित्य धर्म भी बनाकर दिखा दिया था इसोलिये वे जगत में क्रांति का ध्वज लहरा पाये और आत्मा से महात्मा तथा महात्मा से ऊपर उठकर परमात्मा स्वरूप तक हो गये। आज की विकट परिस्थितियों में परित्राण का क्या उपाय हो सकता है ? नि:सन्देह आज को मानवता के कल्याण का एक मात्र उपाय अहिंसा ही है। मांसाहार के प्रति जैन दृष्टिकोण : यदि इस विषय पर मैं तुरन्त ऐसा ही कह दूं कि जैन-धर्म में माँसाहार का पूर्णतया निषेध है और जैनों ने कभी मांसाहार किया ही नहीं तो मुझ पर साम्प्रदायिकता का लांछन लगना स्वाभाविक है। अत: मैं चाहूँगी कि इस विषय पर सूक्ष्म एवं गहन दृष्टि से विचार किया जाये । जैन शास्त्रों में स्थल-स्थल पर हिंसा निषेध के साथ-साथ मांसाहार का भी निषेध किया गया है। प्रमाणस्वरूप कुछ उदाहरण प्रस्तुत करते हैं- “यदि सच्चा साधू बनना है तो मद्य, मांस से घृणा करे, किसी से ईर्ष्या न करे, बारम्बार पौष्टिक भोजन का परित्याग और कायोत्सर्ग करता रहे तथा स्वाध्याय योग में प्रयत्नवान बने ।"१ १, दशवैकालिक सूत्र- चूलिका २, गाथा ७ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) " हिंसा करने वाला, झूठ बोलने वाला, छल-कपट करने वाला, चुगली करने वाला और धूर्तता करने वाला तथा मदिरा और माँस खाने वाला मूर्ख अज्ञानी जीव इन उक्त कामों को श्रेष्ठ समझता है ।" १ " मदिरा और माँस का सेवन करने वाला बलवान होकर दूसरे का दमन करता है, जैसे- पुष्ट हुआ वह बकरा अतिथि को चाहता है, उसी प्रकार कर्कर करके बकरे के मांस को खाने वाला तथा जिसका पेट रुधिर और माँस के उपचय से बढ़ा हुआ है ऐसा जीव अपना वास नरक में चाहता है ।"२ “मुझे मांस अत्यन्त प्रिय था, इस प्रकार कहकर उन यम पुरुषों ने मेरे शरीर के माँस को काटकर, भूनकर और अग्नि के समान लाल करके मुझे अनेक बार खिलाया । " ३ " जो रस गृद्ध होकर माँस का भोजन करता है, वह अज्ञानी पुरुष केवल पाप का सेवन करता है । जो कुशल पण्डित है, वह ऐसा नहीं करता ८ माँस भक्षण से दोष नहीं हैं", ऐसी वाणी पण्डित नहीं बोलता । " ४ आचारांग सूत्र में तो साधू को उस स्थान पर जाने का ही निषेध किया गया है जहाँ माँसादि मिलने की आशंका हो । कहा गया है कि “गृहस्थ के घर भिक्षा के लिये जाते हुए मुनि को यदि ज्ञात हो जाये कि यहाँ माँस वा मत्स्य अथवा मद्य वाले, भोजन मिलेंगे तो मुनि को उधर जाने का इरादा नहीं करना चाहिये ।"५ माँसाहार को नरक प्राप्ति का कारण बताते गया है १. उत्तराध्ययन - अध्याय ५, गाथा ९ २. वही - अध्याय ७, गाथा ६-७ ३. वही - अध्याय १९, गाथा ७० हुए ठाणांग ४, सूत्रकृतांग - श्र तस्कन्ध २, अध्याय ६, गाथा ३९ ५. आचारांग सूत्र - श्र तस्कन्ध २, अध्याय १०, उद्ददेशक ४, सूत्र ५६१ --- सूत्र में कहा Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३ ) “इन चार कारणों से जीव नारक योग्य कर्म बाँधता है - १. महारम्भ, २. महापरिग्रह, ३. पंचेन्द्रिय वध, ४, माँसाहार ।" १ गौतम के प्रश्न करने पर भगवान महावीर कहते हैं - महाआरम्भी, महापरिग्रही, माँसाहार एवं पंचेन्द्रिय वध करने वाला नरक गामी होता है ।"२ विपाक सूत्र के चतुर्थ अध्याय में वर्णित है कि छणिक नामक छागलिक माँस-विक्रेता और भक्षक चतुर्थ नरक में गया । इसी सूत्र के आठवें अध्याय में उल्लेख मिलता है कि श्रीयक नामक माँस भोजी रसोइया काल करके छटवें नरक में गया । राजा श्रेणिक के बारे में सूक्त मुक्तावलि में व्यसन सम्बन्धि सूक्तों में एक श्लोक में कहा गया है कि माँस के कारण श्रेणिक राजा नरक में गया । हेमचन्द्राचार्य ने माँसाहार के सम्बन्ध में सुभूम और ब्रह्मदत्त का उदाहरण देते हुए बताया है कि दोनों माँसाहारी सातवी नरक में गये | ३ योग शास्त्र की टीका में सुभूम और ब्रह्मदत्त की कथा विस्तार से दी गई है । माँसाहार तो दूर 'जैन-शास्त्रों में तो उससे सम्बन्धित व्यक्ति को भी पाप का भागी कहा गया है । हेमचन्द्राचार्य लिखते हैं- "मारने वाला, मांस को बेचने वाला, पकाने वाला, खाने वाला, खरीदने वाला, अनुमति देने वाला तथा दाता ये सभी घातक है, ऐसा मनु का वचन है ।४ इसीलिये वे आगे लिखते हैं- "जीवों के घात के बाद, तत्काल उत्पन्न होते सम्मूर्छित १. ठाणाँग सूत्र - अध्याय ४, उद्द ेशक ४, सूत्र ३७३ २. भगवती सूत्र - शतक ८, उद्देशा ९, सूत्र ८० श्लोक २७ ३. योगशास्त्र - प्रकाश २, ४. वही - प्रकाश ३, श्लोक २० Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) अनन्त जन्तु के सन्तान से दूषित, नरक गति के मार्ग के लिये पाथेय तुल्य मांस का भक्षण कौन सज्जन करे।"१ . शास्त्रों में तो यहां तक कहा गया हैमाँस-भक्षी को नरक में भारत है तलवार । खिलावे माँस उसे उसी का लेले टेश लगार ।। ऐसा ही उल्लेख श्री भरतेश्वर वृत्ति में मिलता है-“सातों नरक में शस्त्र बिना परस्पर से की हुई क्षेत्र की वेदना है। पांच नरक में शस्त्र से और तीन में परमाधामी से वेदना होती है। महारम्भ, महापरिग्रह, गुरु अवहेलना, पंचेन्द्रिय वध और माँसाहार से जीव नारक योग्य कर्म बांधता है।" जैन तो मांसाहार से मृत्यु श्रेष्ठ समझते हैं । इस सम्बन्ध में जैन शास्त्रों में जिनदत्त श्रावक का प्रसंग आता है। अस्वस्थ अवस्था में वैद्य उससे मांस खाने को कहते हैं इस पर जिनदत्त कहते हैं-"जलती आग में प्रवेश करना मुझे स्वीकार हैं, पर चिर संचित व्रत भन्न करना मुझे स्व कार नहीं । परिशुद्ध कर्म को करते हुए मर जाना मुझे स्वीकाय है, पर शील व्रत का स्खलन करके जीना स्वीकार नहीं है।" उपरोक्त प्रमाणों पर एक दृष्टि डालने से मांसाहार के प्रति जैन दृष्टिकोण स्पष्ट विदित हो जाता है अब इस सम्बन्ध में और अधिक प्रमाणों की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। वर्तमानकाल में जैनो के अहिंसा सिद्धांत पर माँसाहार का दोषारोपण : जो धर्म अपने प्रारम्भिक काल से ही अहिंसा प्रधान रहा हो उस पर वर्तमानकाल में कुछ विद्वानों द्वारा हिंसा का आरोप लगाना हमारी मति से परे है । सर्वप्रथम यूरोपियन विद्वानों ने जब जैन साहित्य पर काम करना १. वही - प्रकाश ३, श्लोक ३३ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) शुरू किया, उस समय आचारांग सूत्र के अनुवादक डॉ. हर्मन याकोबी ने कुछ सूत्रों का अनुवाद मांस और मछली के रूप में किया। तथापि वे इसने संयमी रहे कि किसी पर खाने का आरोप नहीं लगाया और जब उन अर्थों का जैन समाज ने विरोध करते हुए वास्तविक अर्थ प्रतिपादित किया तो उन्होंने अपनी भूल स्वीकार करने में संकोच नहीं किया। • डॉ. याकोबी द्वारा किया गया आचारांग सूत्र का अंग्रेजी अनुवाद १८८४ में प्रकाशित हुआ। जिसमें उसने “बहु अट्ठिएण मंसेण वा बहुकण्ट रण" शब्दों का अर्थ "बहुत हड्डिवाला मांस-मछली और बहुत कांटों वाला" किया है इस अर्थ के विरुद्ध याकोबी के पास इतने प्रमाण और विरोध पत्र पहुँचे कि उन्हें अपना मत परिवर्तन करना पड़ा । अपने १४-२-२८ के पत्र में उसने अपनी भूल स्वीकार करते हुए नयी मान्यता को पुष्टि की। विवादग्रस्त अंश का अर्थ इस प्रकार किया “जिस पदार्थ का थोड़ा भाग खाया जा सके और अधिक भाग त्याग कर देना पड़े, उस पदार्थ को साधू को भिक्षा रूप में ग्रहण नहीं करना चाहिए।"१ ___ याकोबी के स्पष्टोकरण के पश्चात ओस्लो के विद्वान डॉ. स्टेनकोनो ने जैनाचार्य श्रीमद् जिययेन्द्र सूरिजो को २१ मार्च, १९३६ को एक पत्र लिखा जिसका एक अंश इस प्रकार है - ___“जैनों के मांस खाने की बहुविवाद ग्रस्त बात का स्पष्टीकरण करके प्रो. याकोबी ने विद्वानों का बड़ा हित किया है। प्रकट रूप में यह बात मुझे कभी स्वीकार्य नहीं लगी कि जिस धर्म में अहिंसा और साधुत्व का इतना महत्वपूर्ण अंश हो, उसमें मांस खाना किसी काल में भी धर्म संगत माना जाता रहा होगा। प्रो. याकोबी की छोटी सी टिप्पणी से सभी बात स्पष्ट हो जाती है। उसकी चर्चा करने का मेरा उद्देश्य यह है कि मैं उनके स्पष्टीकरण की ओर जितना सम्भव हो, उतने अधिक विद्वानों का ध्यान आकृष्ट १. तीर्थंकर महावीर भाग २-आचार्य श्री विजयेन्द्र सूरिजो पृ. १७९-८१ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना चाहता हूँ। पर निश्चय ही अभी भी ऐसे लोग होंगे जो पुराने सिद्धांत पर हड़ रहेंगे। मिथ्याद्दष्टि से मुक्त होना बड़ा कठिन है, पर अन्त में सदा सत्य की विजय होती है।" डॉ. स्टेनकोनो अपने विचारों पर आजीवन इड़ रहे जब-जब किसी ने जैन सूत्रों का अनर्गल अर्थ किया तो स्टेनकोनो ने उसका खण्डन करते हुए वास्तविक अर्थ से परिचित कराया। डॉ. वाल्थेर शूबिंग की जर्मन भाषा में प्रकाशित पुस्तक “दाईलेह देर जैनॉज" की आलोचना करते हुए स्टेनकोनो ने लिखा है कि "मैं केवल एक ही तहसील का उल्लेख करूंगा, क्योंकि यूरोपीयनों के साधारण विचार का जैन लोग बड़ा विरोध करते हैं। "बहु अट्ठिय मंस और बहु कण्ठग मच्छ” का उल्लेख आचारांग में आया हैं । उससे लोग यह तात्पर्य निकालते हैं कि पुराने समय में इनकी अनुमति थी। यह विचार पृष्ठ १३७ पर दिया है। "रिव्यू ऑव फिलासफी एण्ड रेलिजन" वॉल्यूम १४, संख्या २, पूना १९३३ में प्रोफेसर कापड़िया ने याकोबी का १४ फरवरी, १९२८ का एक पत्र प्रकाशित किया है। मेरे विचार से उक्त पत्र से सारा मामला खतम हो गया। मछली में मांस ही खाया जा सकता है। उसका सेहरा और हड्डियां नहीं खाई जा सकती। यह एक प्रयोग है जिससे व्यक्त होता है कि जिसका अधिकांश भाग परित्याग कर देना पड़े उसे नहीं लेना चाहिए। आचारांग के ये शब्द टैक्निकल शब्द हैं । इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि मांस अथवा मछली खाने की अनुमति थी।"१ . विचारणीय है कि जिस धर्मानुयायियों द्वारा अनजाने में भी एकेन्द्रिय, बेन्द्रिय आदि जीवों की हत्या हो जाने पर उनका हृदय द्रवित हो उठता है, क्या उनके धर्म शास्त्रों में मांस-मछली खाने की अनुमति हो सकती है ? - स्वयं यूरोपियन विद्वानों द्वारा अपनी ही भूल स्वीकार किये जाने पर पुन: इस प्रश्न को उठाया धर्मानन्द कौसम्बी ने। उन्होंने ने तो जैन श्रमकों १. लैटर्स टू विजयेन्द्र सूरि पृ. २९२ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ST. Eda hiq chi FM-UA Gimle Terrasse 5, Oslo, March 21st 1936 My dear friend, Many thanks for your kind letter. I was glad to hear that my review of Schubring's book gave you pleasure. It seems to me that Prof. Jacobi has done a great service to scholars in clearing up the much discussed question about meateating among Jainas. On the face of it, it has always seemed incredible to me that it had at any time, been allowed in a religion where ahimsa and also ascetism, play such a prominent role. But the explanations of the passages in the Sacred Writings which Jainas gave us were not satisfactory. Prof. Jacobi's short remarks, on the other hand make the whole matter clear. My reason for mentioning it was that I wanted to bring his explanation to the knowledge of so many scholars as possible. But there will still, no doubt, be people who stick to the old theory It is always difficult to do away with a false ditthi but in the end truth always prevail. Many thanks also for kindly sending me the Jaina dharma nu utkrista swarup. The copy you sent me was however incomplete pp. 1-16 of the english text were missing, & instead pp. 17-32 were there in two copies, Gujarati I can only read with difficulty but I have tried to understand Sri Vijaya dharma's letter & as always in his case, I am filled with admiration & reverence. I often remember the happy days I spent with you & other Jains in India, when my dear wife was still with me. I should love to renew my visit but I shall soon be too old. But I shall always think of you as a Kelyanamitra a leader on the common way towards truth. In this search we are all brothers & friends. With kindest regards, & all good wishes, Yours sincerely, STEN KONOW Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७ ) पर ही मांसाहार का आरोप लगाते हुए "भगवान बुद्ध" नामक पुस्तक में आचारांग सूत्र का यह उद्दरण दिया है-- "से भिक्य्व वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण जाणेज्जा बहु अट्ठियं मंसंवा मच्छंवा बहुकंटकं अरिमं खलु पडिगाहितंसि अप्पे सियामोयणजाए बहुउज्झिय धम्मिए । तहप्पगारं बहुअद्वियं वा मंसं, मच्छंवा बहुकंटकं लाभेवि संते णो पडिगाज्जा । से भिक्खू वा भिक्षुणी वा गाहावइकलं पिंडवायपडियाए अणुपविजें समाणे परो बहुअट्ठिएण मंसेण मच्छण उवणिमंतेज्जा आइसंतो समणा अमिकंखसि बहुअद्वियं मंसं पडिगाहेत्तए ? एयप्पगारं णिधोसं सोच्चाणिसम्म से पुण्खमेव आलोएज्जा. आउसोत्ति वा भइणीत्ति वा णो खलु में कप्पइ बहुठ्ठियं मंसं पडिगाहेत्तए. अभिकंखसि से दाडंजावइयं तावइयं पोग्गलं दलयाहि मा अट्ठियाई। से सेवं वदंतस्य परो अमिहठ्ठ अन्तो पडिग्नहगंसि बहुअट्ठियां मंसं परिभाएत्ता णिहट्ट दलएज्जा, तहप्पगारं पडिग्गहगं परहत्थंसि वा परपासि वा अफासुगं अणेसणिज्जलाभे संते जाव णो पडिगाहेज्जा। से आहच्च पडिगाहिए सिया, तं णो "हि" ति वएज्जा, णो “अहि"त्ति वइज्जा। सि-तमायाए एगत मवक्क मेज्जा। अवक्कमेत्ता अहे आरामंसि वा अहेउवस्सयंसिवा अप्पंडए जाव संताणए मंसगं मच्छगं भोच्चा अट्ठियाइंकंटए गहाय से तमायाए एगंतमवक्क मेउजा। अवक्कमेत्ता अहेज्झामथं डिलंसि वा अहिरासिंसि वा किरासिंसि वातुसरासिंसि वा गोमयासिंसि वा अण्ण यरंसि वा तहप्पगार सि थंडिलंसि पडिलेहिय पडिलेहिय पमज्जिय पमज्जिय तओ संजयामेव पमविजय पमज्जिय परिवेज्जा। इसका अनुवाद इस प्रकार किया है “पुन: उस भिक्षु को या उस भिक्षुणी को बहुत हड्डियों वाला मांस या बहुत काँटों वाली मछली मिलने Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) पर यह ज्ञात हो जायेगा कि इसमें खाने का पदार्थ कम और फेंकने का अधिक है । इस प्रकार बहुत हड्डियों वाला मांस या बहुत काँटों वाली मछली मिल जाये तो उन्हें वह नहीं लेनी चाहिए। वह भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर भिक्षा के लिये जाये तो गृहस्थ कहेगा, “हे आयुष्मान श्रमण, क्या यह बहुत हड्डियों वाला मांस लेने की इच्छा तुम रखते हो? इस प्रकार का भाषण सुनकर वह पहले ही कहदे कि; "हे आयुष्मान, (या स्त्री हो तो) हे बहन, यह बहुत हड्डियों वाला माँस लेना मुझे शोभा नहीं देता । यदि तुम्हारी इच्छा हो तो, मुझे केवल मांस दे दो, हड्डियां मत दो। इतना कहते हुए भी यदि वह गृहस्थ आग्रह के साथ देने को तैयार हो जाये तो उसे आयोग्य समझकर नहीं लेना चाहिए। यदि वह पात्र में उसे डाल दे तो उसे लेकर एक ओर जाना चाहिए और आराम या उपाश्रय में ऐसे स्थान पर बैठकर जहां प्राणियों के अंडे बहुत कम होंगे, केवल मांस और मछली खाकर हड्डियां तथा काँटे लेकर एक ओर जाना चाहिये। वहाँ जाकर जलाई हुई भूमि पर हड्डियों के ढेर पर, जंग खाये हुए लोहे के पुराने टुकड़ों के ढेर पर, तुस के ढेर पर, सूखे हुए गोबर के ढेर पर या इसी प्रकार के अन्य स्थंडिल पर (टीले पर) स्थान को अच्छी तरह साफ करके वे हड़ियाँ या वे काँटे संयमपूर्वक रख देने चाहिए।" . इसी का सूत्र का अर्थ पन्यास श्री कल्याण विजय जी ने अपनी पुस्तक "मानव-भोज्य मीमांमा" के तीसरे अध्याय में इस प्रकार किया है-“वह भिक्षु या भिक्षुणी ऐसा फल मेवों का गूदा जिसमें सारभाग ले लिया गया है अधिक मात्रा में गुठली तथा बीज शेष रहे हैं, ऐसा फल, मेवा आदि मिलता हो तो ग्रहण न करे। गृहस्थ के घर में भिक्षार्थ गये भिक्षु-भिक्षुणी को उस प्रकार के अधिक बीज गुठली वाले फल मेवा लेने के लिये गृहस्वामी अथवा उसकी स्त्री उसे निमंत्रण करे कि हे आयुष्मान ! श्रमण यह अधिक बीज वाला फल मेवा तुम चाहते हो क्या ? इस प्रकार का शब्द सुनकर वह पहले ही सोचकर कह दे, हे आयुष्मान ! अथवा हे बहन ! मुझे नहीं कल्पता बहु गुठली और काँटों वाला फल मेवा, यदि तुम मुझे देना चाहते हो तो Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११९ ) इसमें गूदा और गर्भ रूप जो सारभाग है उसे दे दो, गुठली आदि नहीं। यह कहते हुए भी गृहस्थ एक दम वह कचरे वाली चीज के बहुत विभाग करके पात्र में डाल दे तो वह पात्र यदि दूसरे के हाथ में अथवा दूसरे के पात्र में रखा हो तो उसे कहना-यह अप्रासुक, अनेषणीय है, हमें नहीं कल्पता। यदि वह पात्र सहसा अपने हाथ में ले लिया हो तो न भला कहे न बुरा कहे, वह उसको लेकर एक तरफ हटकर किसी उद्यान में वृक्ष के नीचे उपाश्रय में जहां कीड़े आदि सूक्ष्म जन्तुओं के अंडे न हों तथा मकड़ी के जाले न हो वहाँ फल का गर्भ तथा मेवा का गूदा खाकर गुठलियां बीज आदि कूड़ा कर्कट लेकर एकान्त में जा जली भूमि आदि निर्जीव भूमि को झाड़कर वहां रख दे।" उपर्युक्त दोनों अनुवादों में अर्थ भिन्नता यह है कि कोसम्बी ने "बहुअट्ठियं मंसंवा मच्छंवा बहुकण्टक" का अर्थ किया है "बहुत हड्डियों वाला माँस या बहुत काँटों वाली मछली" जबकि कल्याण विजय जी ने इन्हीं शब्दों के अर्थ "अधिक बीज वाला फल का गूदा या बहुत काँटों वाला फल" किया है। सहज ही प्रश्न उठता है कि अट्ठियं को बीज (गुठली) और मंसं को गूदा क्यों कहा गया ? अदिव्यं (अस्थि) शब्द का विश्लेषण : जिस प्रकार मनुष्य आदि प्राणधारियों के शरीर में सात धातु माने जाते हैं, उसी प्रकार अति प्राचीन काल में वनस्पतियों के भी रस आदि सात धातु माने जाते थे। प्राणधारियों के शरीर में रहने वाले कठोर भाग को अस्थि कहते हैं वैसे ही वनस्पतियों के शरीर में होने वाले कठोर दारू भाग को अस्थि कहते थे तथा वनस्पतियों के फलों में रही हुई गुठलियों तथा बीजों को भी अस्थिक के नाम से जाना जाता था। प्रमाण स्वरूप यहाँ कुछ उदाहरण देना उपयुक्त होगा-- "कच्चा कटहल, कषाय रस वाला, स्वादिष्ट और शोत वीर्य होता है। कफ पित्त का नाशक है। इसके फल का अस्थि (गुठली) भी फल के Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) जैसा गुणवान होता है।"१ ‘अस्थि और बीज वाले वृक्षों के बीजों को गोबर का लेप करके बोना चाहिये ।"२ “पके आम में केशर अस्थि, मांस अस्थि, मज्जा पृथक-पृथक दिखाई देते हैं।" वृक्ष के कठिन भाग को तथा फलों के बीजों को तो अस्थि शब्द से निर्दिष्ट किया ही है किन्तु कहीं-कहीं फल के भीतर के कठिन पर्दे को भो अस्थि नाम से सम्बोधित किया गया है जैसे क्षेमकुतूहल में कहा गया है कि कपास का फल अति उष्ण प्रकृति वाला, कषाय तथा मधुर रस वाला और गुरू होता है। वह वात, कफ को दूर करने वाला तथा रूचिकर होता है। इसमें से अस्थि (भीतर का कठिन परदा) निकाल कर प्रयोग करने से विशेष लाभदायक होता है।" इसी तरह प्रज्ञापना सूत्र एवं जीवाजी वाभि. गम सूत्र में भी एगट्ठिया शब्द का अर्थ बीज से ही लिया गया है। मांस शब्द का विश्लेषण : "मांस शब्द से भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए क्योंकि प्रारम्भ में यह शब्द किसी भी पदार्थ के गर्भ अर्थात भीतरी सारभाग के अर्थ में प्रयुक्त होता था। जैसे प्राणधारियों के रुधिर से बनने वाला ठोस पदार्थ मांस कहलाता है। उसी भांति वनस्पतियों में मिलने वाला सारभाग (गूदा) मांस कण्टाफलंपटां तु कषायं स्वादशीतलम् । कफपित्तहरं चैव तत्फलास्थ्यपि तगणम् ।। राजवल्लभ निघण्टु श्लोक १७३ । अस्थिबीजानां शकृदालेपः शाखिनां गत्तदाहो गोऽस्थिशकृद्रिः काले दोहदं च। कौटिल्य अर्थशास्त्र पृ. ११७ ३. चूतफले परिपक्वे केशर माँसास्थि मज्जानः पृथक-पृथक द्दश्यन्ते। सुश्र ति संहिता अध्याय ३, श्लोक ३२ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१ ) कहलाता था। चरकसंहिता में फलों के गूदे को मांस कहा गया है-“खजूर का गूदा और नारियल की गिरी।"१ "प्रज्ञापना सूत्र में “मंस" शब्द का अर्थ “गूदे" से लिया गया है ।२। बृहदारण्यक उपनिषद ने तो वनस्पति को पुरुष का रूप देकर उसके प्रत्येक अवयव का वर्णन इस प्रकार किया है- “जसा वनस्पति वृक्ष होता है सचमुच पुरुष भी वैसा ही होता है। वनस्पति पुरुष के पत्र उसके रोम हैं, पुरुष के शरीर में जो त्वचा है उसको समता में वृक्ष के बाहरी भाग में छाल है । छाल के उखड़ने से इसमें से जो रस स्त्राव होता है वह वनस्पति पुरुष का रुधिर है। जिस प्रकार वृक्ष पर प्रहार देने से रस स्त्राव होता है वैसे हो इसके प्ररोह में से रस स्त्रवता है। इसमें रहे हुए सारभाग के टुकड़े इसका माँस है और इसमें से निकला हुआ ठोस स्त्राव जो किनाट कहलाता है इसका मेदो धातु है । वनस्पति के अन्दर की लकड़ियां इसकी अस्थियां हैं और इसके बीजों तथा लकड़ी में से निकलने वाला स्नेह इसकी मज्जा है। यह वृक्ष रूपी धनद पुरुष मूल से नया-नया उत्पन्न होता है ।"३ आप्टेज संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी मांस शब्द का अर्थ "दफ्लेशी पार्ट ऑफ ए फट दिया गया है।४ स्पष्ट है कि प्राणधारियों के शारीरिक अवयव जिन नामों से पहिचाने जाते थे उन्हीं नामों से वनस्पतियों के भिन्न-भिन्न अवयवों का व्यवहार होता था। १. खजूर मांसान्यथा नारिकेलम । २. विंट स मंस कडाहं एयाई हवन्ति एग जीवस्य। ३. बृहदारण्यक उपनिषद अध्याय ३, बा. ९, मंत्र २८ (ईशादि दशोपनिषद भाष्यं निर्णय सागर) पृ. २०२ ४. आप्टेज संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी भाग २, पृष्ठ १२५५ । ऐसा ही अर्थ सस्कृत-शब्दार्थ कौस्तुम (चतुर्वेदी द्वारिका प्रसाद शर्मा-सम्पादित) पृ. ६५५ तथा वृहत हिन्दी कोष (ज्ञान मण्डल काशी) पृ. १०२० में भी दिया है। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२ ) कोसम्बी ने अपनी “भगवान बुद्ध" नामक पुस्तक के २६४ वें पृष्ठ पर दशवकालिक सूत्र की कुछ गाथाओं का अर्थ इस प्रकार किया है-“बहुत हड्डियों वाला मांस, बहुत कांटों वाली मछली, अस्थि वृक्ष का फल, बेल का फल, गन्ना, शामिल आदि पदार्थों (जिनमें खाने का भाग कम और फेंकने का अधिक होता है) के बारे में देने वाली को यह कहकर रोका जाये कि ये मेरे लायक नहीं है।" हमने ऊपर “अस्थि" व "मांस" शब्द का विश्लेषण कर किया है अत: इन शब्दों का अर्थ अच्छी तरह से समझ लेने पर हम इस सूत्र का अर्थ इस प्रकार करेंगे “बहु गुठली वाला फल तथा मेवों का सारभाग तथा पिष्ट से बनाये गये सकंटक मत्स्य, अस्थिक वृक्ष, तिन्द वृक्ष और बिल्ब वृक्ष के फल तथा गन्ने का टुकड़ा शिम्बा (फली) आदि भोजन पदार्थ (जिसमें खाने का भाग कम और फेंकने का अधिक होता है) के बारे में देने वाली को यह कहकर रोके कि ये मेरे लायक नहीं है।" ___ वर्तमान काल में भी माँस मछली लेना तो दर किनार जैसे साधू कितने फल सब्जी भी नहीं लेते । जैसे कटहल, सेजने की फली, बैंगन आदि क्योंकि कटहल की बनावट देखने से ही अजब सी प्रतीत होती है, उसका आधे से भी अधिक भाग फेंकना पड़ता है और यह बहु काँटों वाला फल है। सेजने की फली की भी ऐसी ही स्थिति है उसमें भी फली को चूसकर फक दिया जाता है क्योंकि उसे चबाकर निगला नहीं जा सकता। बैंगन बहु बीजाफल है। कौसम्बी ने जो यह अर्थ का अनर्थ किया है इसका मूल कारण उनका स्वयं का संस्कार जान पड़ता है क्योंकि वे गोवा के निवासी थे, जहां मांस-मदिरा का प्रचलन तो आम बात है इसके अलावा वे जिस धर्म से सम्बन्धित थे उसमें भी मांसाहार पर पूर्णतया प्रतिबन्ध नहीं है। यद्यपि उस समुदाय में भी ऐसे साधू थे और आज भी हैं जो मांसाहार नहीं करते जैसे-भदन्त आनन्द कौशल्यायन, जगदीश कश्यप। ये दोनों साधू जब आचार्य श्री विजयेन्द्र सूरिजी से मिले तो स्वयं बताया कि जब हम श्रीलंका में अध्ययन Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) करने गये तो हमें आहारादि में बड़ी परेशानी आई क्योंकि वहां तो चावल में भी झींगा मछली पकाई जाती है, हम तो फलों के साथ रोटी खाकर गुजारा करते थे। यह चर्चा श्री विजय धर्म सूरि समाधि मन्दिर शिवपुरी (म. प्र.) के व्यवस्थापक श्री काशीनाथजी सराक के समक्ष हुई। आचारांग सूत्र के अतिरिक्त भगवती सूत्र के एक उद्दरण को लेकर गोपालदास जीवाभाई पटेल ने भगवान महावीर पर मांस-भक्षण का दोषारोपण किया है और उनका समर्थन किया है- धर्मानन्द कौसम्बी ने । उस पर विचार करने से पहले यहाँ भगवती सूत्र का वह उद्दरण देना उपयुक्त होगा; जो इस प्रकार है "तुमं सीहा ! मेढिय गाम नगरं रेवतीए गाहावत्रिणीए गिहे, तत्थणं रेवतीया गाहावतिणीए ममं अट्ठाए दुवे कवोय सरीरा अवक्खडिया तेहिंनो अट्ठो, अस्थि से अन्ने परियासियाए मज्जारकडा कुक्कुडमसए तमांहराहि एएणं अहो।" श्री पटेल द्वारा इसका अर्थ यह है- “उस समय महावीर स्वामी ने सिंह नामक अपने शिष्य से कहा-तुम मेढिय गाँव में रेवती नामक स्त्री के पास जाओ उसने मेरे लिये दो कबूतर पकाकर रखे हैं, वे मुझे नहीं चाहिए। तुम उससे कहना कि कल बिल्ली द्वारा मारी गई मुर्गी का मांस तुमने बनाया है, उतना दे दो।" यह उस समय का प्रसंग है जब भगवान महावीर अपनी बीमारी की अन्तिम हालत में अपने शिष्य सिंह मुनि को मेढ़िया गाँव की निवासिनी रेवती नामक श्राविका के घर भेजकर जो औषधि मँगाते हैं । अब हम इस घटना का विस्तृत कर्णन करेंगे। भगवान किस रोग से पीड़ित थे ? जिस समय भगवान श्रावस्ती के साण कोष्ठक चैत्य में थे उसी समय उन्हें महान पीडाकारी, अत्यन्त दाह करने वाला पित्त ज्वर हुआ। जिसकी Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) पीड़ा सहन करना कठिन था। उसी के साथ भगवान को रक्तातिसार (खून की पेचिश) हो गया। भगवान के रोग से सम्बन्धित कुछ प्रमाण यहाँ देते हैं"मेण्डिक ग्राम नगरे विहरतः पित्तज्वरो दाह बहुलो बभूव लोहित वर्चश्च प्रावर्ततः।"१ "स्वामी तु रक्तातिसार पित्तज्वर वशात् कृशः।"२ . "समुप्पलो पित्तजरो तस्वसेण य पाउठभू ओ रूहिरा इसारो।"३ "ततः प्रभो षणमासी यावदती सारोऽजानि । तस्मिन्नती सारेऽत्यर्थ जायमाने ।" "गोशालक विनिर्मुक्त तेजोलेश्याऽति सारिणः।"५ "समणरस भगवओ महावीरस्य सरीरगंसि विपुले रोगायं के पाउन्भूए उउजले जाव दुरहिया से पित्तज्जर परिगय सरीरे दाह वक्कंतीए याविविहरति आवियाई लोहिय वच्चाईपिपकरेइ।"६ ये प्रमाण स्पष्ट करते हैं कि भगवान पित्त ज्वर, दाह और रक्तातिसार से पीड़ित थे। भगवान को खून के दस्त लगते थे यह तो कौसम्बी ने भी स्वीकार किया है। पीड़ा का निदान : रोग के लक्षण जान लेने पर यह देखना है कि क्या इस स्थिति में माँस उसकी दवा हो सकती है ? १. ठाणांग सूत्र सटीक, उत्तरार्ध पृष्ठ ४५७ २. त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र-हेमचन्द्राचार्य पर्व १०, सर्ग ८, __ श्लोक ५४३ ३. महावीरचरियं-गुणचन्द्रगणि रचित पृ. २८२ ४. भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति-भाग २, पृ. ३२९ ५. दानप्रदीप-नवम प्रकाश, श्लोक ४९९ ६. भगवतो सूत्र सटीक खण्ड ३, शतक १५, पृ. ३९२ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२५ ) निघण्टु रत्नाकर (भाग १, पृ. १५२), शब्दार्थ चिन्तामणि कोष (भाग ३, पृ. ५७४) वैद्यक शब्द सिन्धु कोष (पृ. ७३६) आदि ग्रन्थों में माँस को गरम, देर में हजम होने वाला और वायुनाशक बताया गया है। इसका पित्त ज्वर से कोई सम्बन्ध न होने के कारण पित्त ज्वर में देने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता । सुश्रुत संहिता ( मुरलीधर - सम्पादित पृ. ४१४ ) में मुर्गे के माँस को भारी और गरम बताया गया है । अत: वैद्यक दृष्टि से भी पचने में भारी और उष्ण प्रकृति वाले पदार्थ को कोई अतिसार तथा दाह प्रधान पित्त ज्वर में देने की बात नहीं कर सकता । फिर जिनका शरीर छै: महीनों से दाह ज्वर से ग्रस्त है बाह्याभ्यन्तर तापमान बहुत बढ़ा हुआ है ऐसे महावीर अपने शिष्य के द्वारा बासी मुर्गे का मांस मँगाकर खाने की इच्छा करे यह बात डॉक्टरों, वैद्यों के अलावा हमारी बुद्धि से भी परे है क्योंकि ये पदार्थ रोग को दूर तो क्या अच्छे-भले आदमी को बीमार और कर देंगे । दूसरा कारण यह भी है कि उस समय वैदिक धर्म शास्त्रानुसार ग्राम्य कुक्कुट एवं मार्जाराघ्रात भोजन अभक्ष्य माना जाता था, जिसका प्रमाण आप स्तम्बीय धर्मं सूत्र एवं गौतम धर्म सूत्र में मिलता है । अब प्रश्न उठता है कि भगवती सूत्र में आये कवोय, शब्दों का क्या अर्थ होगा ? कवोय का अर्थ : कवोय का संस्कृत रूप 'कपोत ' है । इस शब्द से आजकल कबूतर का बोध होता है किन्तु प्राचीन काल में कपोत पक्षी मात्र का वाचक था और सौवीर नामक श्वेत सुर्मा भी कपोत कहलाता था । सुरनें का वर्ण कपोत से मिलता-जुलता होने के कारण वह कपोत नाम से प्रसिद्ध हुआ । इसी प्रकार सज्जी का वर्ण भी कपोत जैसा होने के कारण वह कपोत नाम से विख्यात हुआ । अब यदि इनका शाब्दिक अर्थ ही लिया जाये तो वे श्वेत कपोतिका, कृष्ण कपोतिका का अर्थ श्वेत तथा कृष्ण मादा पक्षी कपोत का कुक्कुट आदि Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) ही बोध होगा लेकिन 'कल्पद्रुकोशः' से इसका वास्तविक अर्थ बोध होता है “जो स्वल्प आकार और लाला अंग वाली होती है-वह श्वेत कपोतिका कहलाती है । श्वेत कपोप का दो पत्तों वाली कन्द के मूल में उत्पन्न होने वाली, ईपदरक्त तथा कृष्ण पिंगला, हाथ भर ऊँची, गौ के नाक सी और फणधारी साँप की आकृति वाली, क्षार युक्त, रोंगटों वाली, स्पर्श में कोमल, जिव्हा चखने पर ईख जैसी मीठी होती है । इसी प्रकार के स्वरूप और रसवाली कृष्ण कपोतिका को कहना चाहिये कृष्ण कपोतिका काले सांप के रूप में, वाराही कन्द के मूल में उत्पन्न होतो है, वह एक पत्ते वाली महावीर्य दायिनी और अति कृष्ण अंजन समूह सी काली होती है । पत्र मध्य से उत्पन्न प्ररोह पर लगे हुए गहरे नील मयूर पंख जैसे वारह पत्रों से छत्राति छत्र वाली, राक्षसों का नाश करने वाली, कन्द-मूल से उत्पन्न होने वाली, जरा-मरण के निवारण करने वाली दोनों कपोतिकाएँ जाननी चाहिये ।"१ स्पष्ट है कपोतिका का अर्थ वनस्पति अथवा औषधि से लिया गया है। वैद्यक ग्रन्थों में कपोतिका का अर्थ कूष्मांड* दिया है और उसके गुण को सुश्रुत संहिता में इस प्रकार बताया गया है “उनमें छोटा पेठा पित्तनाशक है और मध्य (अधपका) कफकारक है तथा खूब पका हुआ गरम कुछ-कुछ खरोंहा होता है, दीपन है और वस्ति (मूत्र स्थान) को शोधन करता है और सब दोषों (वात, पित्त कफ) को शांत करता है हृदय कोहित है और १. कल्पद्रु कोश: भाग १, श्लोक ५९१-५९५, पृष्ठ ३१५-३१६ * यह वह फल है जिससे वर्तमान में पेठा बनता है उसे आगरा में कुम्हड़ा के नाम से जाना जाता है। आज भी बंगाल में दुर्गा देवी के सामने जहाँ पशु बलि नहीं दी जाती उसके स्थान पर गन्ना एवं कूष्मांड फल चढ़ाया जाता है । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२७ ) पित्त के विकार (मृगी, उन्माद आदि) के रोग वालों को पथ्य ( सेवन करने योग्य) है | १ भगवती सूत्र सटीक शतक १५ पृष्ठ ३९२ में भी कपोत का अर्थ कूष्मांड फल से ही लिया गया है । आगे बढ़ने से पहले यहाँ हम कुछ ऐसे शब्दों की सूचि देना चाहेंगे जो प्राणधारी और वनस्पति के वाचक हैं प्रसिद्ध अर्थ बकरा राजवंश विशेष नाम अज इक्ष्वाक कपि कपोतक कपोतसार ७ काक कापोत कुक्कुटी कुक्कुर खर गोशीर्ष ताम्रचूड़ तुरंग द्विज नीलकण्ठ मण्डूक मातंग मार्जार मार्जारी बन्दर छोटा कबूतर कबूतर का सत्व कौआ कबूतर सम्बन्धि मुर्गी कुत्ता गदहा गाय का सिर मुर्गा घोड़ा ब्राह्मण शिव, मोर अप्रसिद्ध अर्थ सोनामाखी कड़वी तुम्बी शिलारस मेंढ़क हाथी बिल्ली बिल्ली १. सुश्रुत संहिता, सूत्र स्थान, शाक वर्ग श्लोक ३, पृष्ठ ४३८ अगस्त वृक्ष सफेद सुर्मा, सज्जी खार शाल्मली वृक्ष ग्रान्थिपर्ण सफेद सुर्मा सुर्मा कण्टिक वृक्ष चन्दन विशेष ककरोंदा वृक्ष सेन्धा नमक सोनापाठा वृक्ष ढाक का पेड़ अगस्त्य वृक्ष, हिंगोटा वृक्ष कस्तूरी तुम्बरू वृक्ष मूलो Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम मूर्ख मग राजपुत्र राजपुत्री वायसी ( १२८ ) प्रसिद्ध अर्थ निर्बुद्धि मनुष्य हिरन राजकुमार राजकुमारी मादा कौआ खरगोश तोता सूअरी जानकी जी चन्द्रमा अप्रद्धि अर्थ माष (उड़द) कस्तूरी कलमी आम कड़वी तुम्बी कलम्बु नाम की औषधि लोध्र शिरीष वृक्ष वाराह क्रांता मदिरा कॉजी सुवर्ण, गंधक, चम्पक वृक्ष शश शुक शूकरी सीता सोम सुरभि मज्जारकडए : भगवती सूत्र के पाठ में 'मज्जारकडए" शब्द आया है, जिसका संस्कृत रूप "मार्जारकृत" है। मार्जार से “बिल्ली" और कृत से “मारा हुआ" अर्थ करके कुछ लोगों द्वारा इसका अर्थ किया गया है-“बिल्ली द्वारा मारा हुआ।" जबकि पशु द्वारा मारा हुआ मांस वैद्यक ग्रन्थों में दूषित बताया गया है और मांसाहारियों के लिये भी निषिद्ध है तो फिर अहिंसा के पुजारी भगवान महावीर पर बिल्ली द्वारा मारे गये माँस-भक्षण का आरोप लगाना हास्यास्पद नहीं तो और क्या है ? हमने ऊपर प्राणधारी और वनस्पति वाचक शब्दों की जो सूचि दी है उसमें मार्जार का वनस्पति वाचक अगस्त्य वृक्ष हिंगोटा वृक्ष कहा है । प्राचीन कोशों से भी यह बात सिद्ध होती है। वैजयन्ती भूमिकांड वनाध्याय के १५६ वें श्लोक में भी मार्जार हिंगोटा वृक्ष और अगस्त्य वृक्ष के रूप में आया है । हिंगोटा वृक्ष में औषधीय गुण होते हुए भी हम रेवती द्वारा बनाये खाद्य में उसके होने की सम्भावना कम ही समझते हैं क्योंकि इंगुदी कड़वी Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२९ ) होती है और रेवती उस समय ऐसी बीमार नहीं थी कि कड़वी औषधि डालकर पाक बनाये । जबकि अगस्त्य की फली मधुर होती है अत: उसका मावा निकाल कर उसके उपादान से खाद्य बनाने की सम्भावना ही जान पड़ती है। अगस्त्य के तथा अगस्ति की शिम्बा के गुणों के बारे में “मदनपाल निघण्टु" में कहा गया है - 1 अगस्त्य बंगसेन, मधु शिग्रु, मुनिद्रम इन नामों से पहिचाना जाता है | अगस्त्य पित्त और कफ को जीतने वाला है, चातुर्थिक ज्वर को दूर करता है और शीत वीर्य है । इसका स्वरस प्रतिश्याय श्लेष्म पित्त राज्यान्ध्य नाशक है ।" शालिग्राम निघण्टु में भी ऐसा ही वर्णन किया गया “अगस्ति की शिवा सारक कही है, बुद्धि देने वाली, भोजन की रुचि उत्पन्न करने वाली; हल्की, पाक काल में मधुर, तीखी, याद शक्ति बढ़ाने वाली, त्रिदोष को नाश करने वाली, शूल रोग, कफ रोग को हटाने वाली, पाण्डु रोग को दूर करने. वाली, विष को नष्ट करने वाली श्लेष्म गुल्म को हटाने वाली होती है,.. परन्तु पकी हुई शिम्बा रुक्ष और पित्त प्रद होती है ।" भगवती सूत्र में भी स्पष्ट वर्णन मिलता है कि मज्जार शब्द वनस्पतिः वाचक अर्थ में प्रयुक्त होता था । इस सूत्र के टीकाकार ने मार्जारकृत को वायुशमवतार बताया है । १. कुक्कुडमं सए : कुक्कुड का संस्कृत रूप कुक्कुट है । यह शब्द सामान्यतः मुर्गा के अर्थ में ही प्रसिद्ध है । लेकिन कोशों तथा निघण्टुओं में इसके अन्य अर्थ भी मिलते हैं । यथा-वैद्यक शब्द सिंधु में मधुकुक्कुटी शब्द आता है । वहाँ इसका अर्थ मातुलिंग और बिजौरा दिया है। मधुकुक्कुटी का यह अर्थ शब्दार्थ : चिन्तामणि कोष (भाग ३, पृ. ५०६ ) में भी मिलता है । संस्कृत शब्दार्थकौस्तुभ पृष्ठ ६३७ में इसका अर्थ नींबू का पेड़ विशेष दिया है। मधु शब्द १. भगवती सूत्र सटीक शतक १५, पृ. ३९२ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३० ) कुक्कुटी का विशेषण है । विशेषण को हटाकर भी संस्कृत में प्रयोग हुआ करते हैं । सुश्रुत संहिता में मातुलुग का गुण इस प्रकार बताया गया है _ “मातुलुग हल्का है, खट्टा है, दीपन है, हृदय लिये हितकारी है। उसका छिलका कड़ा, दुर्जर तथा वायु-कृमि-कफ नाशक है। उसका मांस (गूदा) मधुर शीतल, गुरुस्निग्ध है । वायु और पित्त को जीतने वाला है । मेधाजनक है, शूल, वायु, छदि, कफ और अरुचिनाशक है। उसका केसर दीपन है, हल्का, ग्राही है, गुल्म बवासीर नाशक है। शूल अजोण विबंध मंदाग्नि तथा कफ वायु के रोगों में और विशेषकर अरुचि में इसका रस लेना श्रेष्ठ कहा है और कच्चा बिजौरा जिसका जीरा खिला न हो, पित्त वात कर्ता तथा पित्तल है ।"१ कुक्कुट नाम सुनिषण्ण क नामक वनस्पति के नामों में भी परिणित है। उसके गुण बताते हुए भाव प्रकाश में लिखा है- “सुनिषण्णक ठण्डा, दस्त रोकने वाला, मोह तथा त्रिदोष का नाशक, दाह को शांत करने वाला, हल्का, स्वादिष्ट, कषाय रस वाला, रुक्ष अग्नि को बढ़ाने वाला, बलकारक, रुचिकारक और ज्वर श्वास, प्रमेह, कुष्ठ और भ्रम का नाशक है।" ___इस विषय में अन्य निघण्टुकार लिखते हैं- “सुनिषण्णक हल्का, दस्त बन्द करने वाला, बलकारक, अग्नि बढ़ाने वाला, त्रिदोष का नाश करने वाला, बुद्धि प्रद, रुचिदायक, दाह ज्वर को हटाने वाला और रसायन होता है।" भगवती सूत्र के टीकाकार ने अपनी टीका में बीजोरापाक से ही अर्थ लिया है।"२ ऊपर वर्णित कवोय, मज्जार कडए. कुक्कुड मंसए शब्दों का अर्थ स्पष्ट हो जाने पर स्वीकार करना ही पड़ेगा कि भगवान महावीर ने रेवती के घर से जो खाद्य पदार्थ मँगवाया था वह उनकी बीमारी को शान्त करने १. सुश्रुत संहिता सूत्र स्थान, अध्याय ४६; श्लोक ११-१४ पृ. ४२९ २. भगवती सूत्र शतक १५, पृष्ठ ३९३ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३१ ) वाला इन्हीं मार्जार तथा कुक्कुट वनस्पतियों से बना हुआ वानस्पतिक माँस (गूदा ) था । अतः भगवती सूत्र के इस पाठ का अर्थ यह हुआ - "हे सींह ! तुम मेढिय ग्राम में रेवती गृह पत्नी के घर जाओ, उसने मेरे लिये दो कुम्हड़े का पाक तैयार किया है मुझे उसको आवश्यकता नहीं है । उसने अपने लिये बिजौरे का पाक तैयार किया है उसे ले आओ मुझे उसकी आवश्यकता है। यदि उक्त विद्वानों में समन्वयकारक बुद्धि होती और सभी पहलुओं से विचार किया होता तो वे ऐसी हास्यास्पद भूल कभी न करते । भगवती शतक उद्द ेश, २, सूत्र ८९ में निर्ग्रन्थ साधू को 'मडादि' खाने वाला कहा है जिसका तात्पर्य है कि निर्ग्रन्थ साधू किसी भी सजीव को नहीं खाते । अग्नि अथवा अन्य किसी प्रकार से खाद्य अथवा पेय पदार्थ निर्जीव होने के पश्चात् हो जैन श्रमण उन्हें ग्रहण करते हैं और इस अपेक्षा से उन्हें 'डादि भक्षक' कहा गया है । जबकि ' मडादि भक्षक' का शाब्दिक अर्थ होता है 'मृत को खाने वाला ।' अब यदि इन विद्वानों की दृष्टि भगवती सूत्र के इस पाठ पर जाती तो वे जैन श्रमणों को 'मुर्दा खाने वाला ' बताने में भी संकोच न करते । भ्रमात्मक शब्दों का स्पष्टीकरण बहुत आवश्यक होता है अन्यथा भावी पीढ़ी भी भ्रमित हो जाती है । इस सन्दर्भ में आज के एक शब्द को लेकर कालान्तर में जो भ्रम पैदा होगा उसका स्पष्टीकरण में आज ही कर देना चाहूँगी पंजाब में पनीर की छोटी-छोटी, गोल-गोल एक प्रकार की मिठाई होती है जिसे मुर्की छैना के नाम से जाना जाता है। अब आज से कई सौ वर्षों पश्चात् लोगों को यह भ्रम होना स्वाभाविक है कि अमुक समय में पंजाब में मुर्की का छैना (बच्चों ) खाया जाता था। मुर्की शब्द का अर्थ कान की बाली से लिया जाता है लेकिन भावी पीढ़ी को सही अर्थ ज्ञात न होने पर वह तो इसका अर्थ किसी प्राणी के बच्चे से ही लगायेगी । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) भाषा में भ्रम पैदा होने का एक कारण यह भी है कि भगवान महावीर का प्रवचन जन साधारण की भाषा (प्राकृत) में था। उनकी वाणी लिपिवद्ध की गई उनके सैकड़ों वर्षों पश्चात्, और लिपिबद्ध करने का स्थान उस स्थान से सैंकड़ों मील दूरी पर यू. पी. में मथुरा और सौराष्ट्र में बल्लभी था । आज जब १२ कोस की दूरी पर भाषा बदलने के साथ ही अर्थ भी बदल जाता है तो क्या यह सम्भव नहीं कि सैंकड़ों मीलों को दूरी में भाषा न बदली हो । यह भी सम्भव है कि एक ही शब्द का भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न अर्थ लिया जाता है। उदाहरणार्थ-वर्तमान में गुजरात में मीठू नमक को कहा जाता है जबकि हिन्दी भाषी स्थानों में मीठ का अर्थ तोते से लिया जाता है । अत: हमें उस काल के इन अर्थों को मिलाने के लिये जैन साहित्य के साथ-साथ वैदिक, बौद्ध, कोश तथा आयुर्वेदिक ग्रन्थों को देखना चाहिये। ___ भगवान महावीर के पश्चात् अहिंसा के महान उपासक महात्मा गाँधी द्वारा स्थापित अहमदाबाद में गुजरात विद्यापीठ में बैकर उन्हीं के सिद्धांतों की चीरा-फाड़ी करने वाली चंडाल-चौकड़ी जो वहाँ इकट्ठी हुई थी, जिनमें गोपालदासे जीवाभाई पटेल, श्रीयुत धर्मानन्द कौसम्बी, प्रज्ञाचक्षु पं. सुखलालजी एवं बेचरदासजी आदि प्रमुख थे। इन लोगों ने जैन साहित्य पर कार्य करते समय इन अर्थों का अनर्गल अर्थ कर दिया जिसे धर्मानन्द कौसम्वो ने अपनी “भगवान बुद्ध" पुस्तक में, स्वीकार भी किया है। उसी पुस्तक के भूमिका लेखक काका कालेलकरजी ने इन शब्दों को स्पर्श तक नहीं किया । अत: मुझे अफसोस के साथ लिखना पड़ रहा है कि जिन लोगों ने इन शब्दों का अनर्थ किया है उन्हें अपनी विद्वता का अजीर्ण हो गया था। मैंने अपनी तुच्छ बुद्धि से जो कुछ लिखा उसका निर्णय पाटकों पर छोड़ती हूँ। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार अहिंसा मानव जाति के उर्ध्वमुखी विराट चिन्तन का सर्वोत्तम विकास है । लौकिक और लोकोत्तर दोनों ही प्रकार के मंगल जीवन का मूलाधार अहिंसा ही है। पशुत्व से ऊपर उठने के लिये अहिंसा का आलम्बन अनिवार्य है । यही कारण है कि विश्व के सभी धर्मों ने घूम-फिर कर ही सही अन्ततोगत्वा अहिंसा का हो आश्रय लिया है। वर्तमान परिस्थितियों में भी यह हमारे लिये उतना ही उपयोगी है, उतना ही मूल्यवान है जितना कि अनादिकाल में था बल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि वर्तमान काल में परिस्थितियों को देखते हुए उसकी महत्ता और भी बढ़ जाती है। वह पुरातन को प्राप्त नहीं हो गया है। जिसका मूल्य होता है वह कभी प्राचीन नहीं होता, उसका उपयोग सदा और सब क्षेत्रों में बना रहता है। वैदिक, जैन, बौद्ध, सिख तक कि इस्लाम और ईसाई धर्म के महापुरुषों ने भी अहिंसा के महत्व और उपादेयत्व को स्वीकार किया है। निःसन्देह सभी धर्म शास्त्रों का एक ही सार है- शांतिपूर्वक जीयो और दूसरों को जीने दो। आज संसार विनाश के कगार पर खड़ा है । जरा सी भी भूल होने पर सारा संसार नष्ट हो सकता है। यह कहना अतिशयोक्तिन होगा कि वर्तमान परिस्थितियों में अहिंसा सिद्धान्त ही वसुधा को यथार्थ सौभाग्यशाली बना सकता है "जीयो और जीने दो" यह सिद्धान्त अमृत का निर्झर है । पुष्करावर्त बादल है, कल्पवल्ली का तरुवर है। चिन्तामणि है रत्न, इसे पारसमणि जानो। जा-जीवन के वृक्ष मूल में, जल-सम इसको मानो । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) व्यास जी ने तो अठारह पुराणों का सार दो वचनों में ही कह दिया है-"परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् ।" दूसरों को पीड़ा देने वालों के लिये तो सन्त कवि तुलसीदास ने कहा है-"पर-पीड़ा सम नहीं अधमाई।" दान के पाँच प्रकारों में अभयदान को ही प्रथम कोटि में रखा गया है, जिसका तात्पर्य है प्राणियों को मृत्यु के भय से मुक्त करना क्योंकि प्रत्येक प्राणी को जीवितव्य अत्यन्त प्रिय है और मरण अप्रिय । “भयभीत जीवात्माओं को भय मुक्त करने जैसा धर्म इस भूतल पर अन्य एक भी नहीं।"१ इसीलिये ज्ञानियों ने कहा है द्रव्य, गाय, पृथ्वी आदि का दान देने वाले दातार सुलभ हैं, अनेक हैं, पर प्राणियों को अभय देने वाले दुर्लभ हैं, अति दुर्लभ हैं, अति अल्प हैं। दूसरे दानों का फल क्षीण हो सकता है पर अभय दान का फल कभी क्षीण नहीं होता वह तो अक्षय है। इच्छित पदार्थ का प्रदान, प्रिय वस्तु का प्रदान, तपश्चर्या, तीर्थसेवा, श्रुताध्ययन ये सभी अभयदान की सोलहवीं कला को भी स्पर्श नहीं करते । तराजू के एक पल्ले में सभी धर्म एवं दूसरे पल्ले में अभयदान रखा जाय तो अभयदान का पलड़ा भारी रहेगा। . सभी वेद, सभी यज्ञ, सभी तीर्थाभिषेक जो कार्य नहीं कर सकते वह प्राणियों की दया रूपी धर्म कर सकता है । जिन शासन पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक के सभी जीवों को अभयदान देने की बात कहता है। महावीर, बुद्ध, मुहम्मद, ईसा, सभी ने भाव-शुद्धि पर बल दिया है। इसके अभाव में जप-तप, व्रत-नियम, क्रिया-काण्ड सब व्यर्थ है । जैसे अंधे १, अ. राजेन्द्र कोष प्रथम भाग पृष्ठ ७०६ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ ) के लिये दर्पण व्यर्थ है उसी प्रकार मन की शुद्धि बिना सारी धार्मिक क्रियाएँ निरर्थक हैं । इसीलिये महापुरुषों ने कहा है “जो मन की शुद्धि किये बिना मुक्ति के लिये तपस्या करते हैं, वे नाव को छोड़कर हाथों से महासागर को पार करना चाहते हैं । कहने का भाव है कि अहिंसा का केवल आवरण ओढ़ लेने से ही हम अहिंसक नहीं कहला सकते । हमारे अन्तर्मन के भाव क्या हैं ? क्योंकि संसार में रहते हुए मानव अनेकों क्रियाएँ ऐसी करता है जो प्रत्यक्ष में हिंसक दिखाई देने पर भी मलिन भाव से न करने पर हिंसा की कोटि में नहीं आयेगी । जैसाकि बुद्ध ने भी कहा है- "यदि हाथ में घाव न हो तो उस हाथ में विष लेने पर भी शरीर में विष का प्रभाव नहीं होता है । इसी प्रकार मन में पाप न रखने वाले को बाहर से कर्म का पाप नहीं लगता ।" १ अहिंसा की पूर्ण उद्घोषणा जैन धर्म करता है, यह जगत् प्रसिद्ध है । प्रायः उनके इस सिद्धान्त पर छींटाकशी की जाती है। जैनियों के पानी छानकर पीने के तर्क को लेकर अक्सर लोग उपहासजनक वाक्यों में कहते हैं- "जन पानो पीते छानकर, जीव मारते जानकर ।” यूँ तो जैन-धर्म में पानी उबालकर पीने का विधान है. चूँकि प्रत्येक गृहस्थ के लिये यह सम्भव न होने पर भी वे पानी छानकर तो पीते ही हैं । तो यह जैन-धर्म की कोई नवीन बात नहीं । पुराण आदि लौकिक शास्त्रों में भी पानी छानकर उपयोग में लाने का माहात्म्य इस प्रकार बताया गया है १. वेद के पारगामी ब्राह्मण को समग्र विश्व का दान करने से जो पुण्य होता है इससे करोड़ गुना पुण्य पानी छानकर उपयोग करने वाले को होता है । २. सात गाँव जलाने से जो पाप कर्म का बन्ध जीव को होता है, उतना ही पाप बिना छना पानी के घड़े का उपयोग करने से होता है। १. धम्मपद पृष्ठ १६. सुत्त ९ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) ३. मच्छीमारी का धन्धा करने वाले मच्छीमार को एक साल में जितने पाप कर्म का बन्ध होता है, उतना पाप का बन्ध बिन छने पानी का संग्रह करने वाले को होता है । ४. जो छने पानी से कार्यं करता है वह मुनि है, वह महासाधू है, वह योगी है, वह महाव्रती है। ५. अठारह देशों के स्वामी राजा कुमारपाल ने अपने ग्यारह लाख घोड़े आदि जानवरों को पानी छानकर पिलाने का प्रबन्ध किया था । ६. बिना छने पानी में प्रतिसमय दो इन्द्रियादि त्रसकाय सम्मूच्छन जीव निरन्तर स्वभाव से ही उत्पन्न होते रहते हैं और आयु पूर्ण कर मरण को प्राप्त होते रहते हैं। मनु का कथन भ है - "वस्त्र पूतं जलं पिबेत्” अर्थात् वस्त्र से छानकर जल पीना चाहिये । आज पानी छानकर पीने का विधान तो एक ओर रहा, ज्ञान-विज्ञान को भी ताक में रख दिया गया है । स्वार्थ सिद्धि के लिये मानव अपनी बुद्धि को ही सर्वोपरि मानने लगा है । अहिंसा की आड़ में हिंसा के प्रचार हेतु तर्क देता है कि मुर्गी के अण्डे में जीव नहीं है । हास्यास्पद नहीं तो और क्या फिर भी अण्डा पैदा हो जाये है ? मुर्गे के वी मुर्गी को कुक्षि में न रहें, तो संयोग बिना ही मुर्गी को वर्षो तक प्रतिदिन अण्डा देना चाहिये । परन्तु ऐसा न कभी हुआ और न ही हजार प्रयत्न करने पर होगा । इस बात को भली-भाँति जानते हुए भी सरकार द्वारा यह प्रचार कि 'अण्डे शाकाहारी हैं' अथवा 'सण्डे हो या मण्डे रोज खाओ अण्डे' कितनी विडम्बना है ? इस प्रकार के अनर्गल प्रचार से भ्रमित हुए लोगों की बुद्धि पर तरस खाते हुए यह कहने में संकोच नहीं कि "यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किं" अर्थात् जिसको स्वयं की बुद्धि नहीं होती, शास्त्र उसका क्या करे ? Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७ ) पश्चिमी वैज्ञानिक यह पूरी तरह से सिद्ध कर चुके हैं कि अंडों में जीव होता है और इनके सेवन से दिल की बीमारी, उच्च रक्त चाप, गुर्दों की बीमारी, पित्त की थैली में पथरी आदि अनेक रोग पैदा हो जाते हैं । कतिपय वैज्ञानिकों की राय : A १. अंडों से दिल की बीमारी - वैज्ञानिक परीक्षणों द्वारा यह सिद्ध हो गया है कि एक अंडे में लगभग ४ ग्रेन कोलेस्टरोल नामक भयानक तत्व पाया गया है । कोलेस्टरोल की इतनी अधिक मात्रा के कारण अंडे - दिल की बीमारा, हाईब्लड प्रेशर धमनियों में जख्म, गुर्दों की बीमारी, पित्त की थैली में पथरी आदि रोग पैदा करते हैं... — Dr. Robert Gross, Prof. Irving Davidson. -→Dr. Ketherine Nimmo, D. C. R. N, Oceano California (U.S.A.) २. अंडों से पेट में सड़ान - अंडों में कार्बोहाइड्रेट्स - बिल्कुल नहीं होते और कैलशियम भी बहुत कम मात्रा में होता है । अतः इनसे पेट में सड़ान पैदा होती है. -Dr. E. V. Mc. Collum-A great Medical Authority Newer Knowledge of Nutrition - Page 171. ३. अंडों में डी. डी. टी. विष-१८ महीनों के परीक्षण के बाद तीस प्रतिशत अंडों में डी. डी. टी. विष मिला । ... Agriculture Deptt. Florida - America, Health Bulletin, October 1967. ....... ४. अंडों से एग्जिमा और लकवा - अंडे की सफेदी में एवीडिन नामक भयानक तत्व होता है जो एग्जिमा पैदा करता है। जिन जानवरों को अंडे की सफेदी खिलाई गई उनको लकवा मार गया और चमड़ो सूज गई । Dr. R. J. Williyam, England. इनका निष्कर्ष है “सम्भव है अंडा खाने वाले शुरू में अधिक चुस्ती अनुभव करें किन्तु बाद में उन्हें हृदय रोग, एग्जिमा, लकवा जैसे भयानक रोगों का शिकार हो जाना पड़ता है ।" Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम पदार्थ Green gram मूँग Black gram उड़द Red gram अरहर Field bean dry वाल Lentil मसूर Peas मटर Bengal gram चना Cowgram लोभिया Soya Beans सोयाबीन Almond बादाम Cashewnut काजू Coconut नारियल Gingelly fa Groundnut मूँगफली पौष्टिक तत्व तुलनात्मक चार्ट viwiziĤ Wia (Vegetarian food) प्रोटीन % 24.0 24.0 22.3 24.9 25.1 22.9 22.5 24.6 43.2 20.8 21.2 4.5 18.3 31.5 चिकनाई खनिज कार्बोहाइ- कैल्शियम फास्फोरस लवण ड्र ेट्स % % % % % 1.3 1.4 1.7 0,8 0.7 1.4 5.2 0.7 19.5 58.9 46.9 41.6 43.3 39.8 3.6 3.4 3.6 3.2 2.1 2.3 2.2 3.2 4.6 2.9 2.4 1.0 5.2 2.3 56.6 60.3 57.9 60.1 59.7 63.5 58.9 55.7 22.9 10.5 22.3 13.0 25.2 19.3 0.14 0.20 0.14 0.06 0.13 0.03 0.07 0.07 0.24 0.23 0.05 0.01 1.44 0.25 0.28 0.37 0.26 0.45 0.25 0.36 0.31 0.49 0.69 0.49 0.45 0.24 0.57 0.39 लोहा % 8.4 9.8 8.8 2.0 2.0 5.0 8.9 3.8 11.5 3.5 5.4 1.7 10.5 1.6 कैलोरी % 334 350 353 347 346 358 372 327 482 655 596 444 564 549 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pistochionut faxar Walnut अखरोट Cumin जीरा Fenugreek मेथो Cheese पनीर Ghee घी Skimmed milk powder edzı fæch 91337 Egg 3031 Fish मछली Mutton बकरी का मांस Pork सूअर का मांस 19.8 15.6 18.7 26.2 24.1 38.0 13.3 22.6 18.5 18.7 53.5 64.5 15.0 5.8 25.1 98.0 0.1 2.8 1.8 5.8 3.0 4.2 13.3 0.6 13.3 4.4 6.8 16.2 11.0 36.6 44.1 6.3 माँसाहारी खाद्य (Flesh food) 1.0 0.8 1.3 1.0 15.0 0.14 0.10. 1.08 0.16 0.79 1.37 0.06 0.02 0.15 0.03 0.43 0.38 0.49 0.37 0.52 1.00 0.22 0.19 0.15 0.3 13.7 4.8 31.0 14.1 2.1 1.04 2.1 0.9 2.5 2.3 626 687 356 333 348 900 347 173 91 194 114 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४० ) आज हम प्रत्येक तर्क को धर्म की अपेक्षा वैज्ञानिक कसौटी पर कसना चाहते हैं यद्यपि यह अनुचित भी नहीं लेकिन अफसोस तो इस बात का है कि वैज्ञानिक प्रमाण सामने आने पर भी आज २१ वीं सदी का मुख्य आहार अण्डा माना जाने लगा है। आज यह कहने में संकोच नहीं कि अधिकांश प्रशासक वर्ग ही हिंसक वृत्ति वाला है अत: उन्हीं के निर्देशन में घोर हिंसा हो रही है। जहाँ पाश्चात्य देश अण्डे से होने वाली हानियों को जानकर इसे त्याग रहे हैं, वहीं भारत इनका सेवन कर आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है। सरकार पोलल्ट्री फार्मों को खोलने में मदन करती है जहाँ ये मुर्गियां स्वेच्छा से अण्डा नहीं देती बल्कि उन्हें विशिष्ट हार्मोन्स और एन्टीबायटिक इंजेक्शन दिये जाते हैं जिनके कारण वे लगातार अण्डे दे पाती हैं । अण्डे में उपस्थित पीले रंग की जर्दी अधिक आकर्षक और चटकीली दिखे इसके लिये एक हानिकारक रसायन “साइट्रानार्क सेनिधिन" मुर्गियों को दिया जाता है । ___मानव जाति तो पशु से भी बदतर हो गई। कई पशु-पक्षी जातियाँ ऐसी हैं जो आजीवन वनस्पतियाँ और घास-भूसा खाकर ही जीवन निर्वाह करती हैं । गाय, भैंस, घोड़ा, ऊँट, बकरी, कबूतर, तोता आदि शाकाहारी जीवन जीते हैं । शाकाहारी भोजन के अभाव में वे भूखे चाहे रह जाये लेकिन मांस जैसी घिनौनो चीजों का भक्षण कदापि नहीं करते। कुछ बुद्धिहीन यह कुतर्क देते हैं कि भगवान ने बकरे-बकरी, गाय-भंसे, मुर्गी, मछली, अण्डे आदि खाने के लिए ही तो पैदा किये हैं। बढ़ती हुई जनसंख्या में खाद्य-सामग्री की पूर्ति में वे मांस भोजन को अनिवार्य मानते हैं । रसनेन्द्रिय के वशीभूत होकर तक देते हैं कि निरामिष भोजन की उपज अपर्याप्त है । यदि माँसाहारी न होते तो अनाज एवं हरी साग सब्जयों के अभाव में शाकाहारी भूखे मर जाते । अतः वे मांसाहार करके अन्नादि बचाने का पुण्य कार्य ही करते हैं। इस प्रकार का अनर्गल प्रलाप करने वाले शायद इस तथ्य से अनभिज्ञ हैं कि लगभग दो लाख ठन प्राणिज प्रोटीन Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४१ ) प्राप्त करने के लिये बीस लाख टन वनस्पति जन्य प्रोटीन उन पशुओं को खिलाना पड़ता है । सात किलो अनाज की बर्बादी पर एक किलो माँस पैदा होता है। गेहूँ या चावल के रूप में प्रोटीन की एक ईकाई उत्पन्न करने के लिये ऊर्जा की दो से दस ईकाइयां खर्च होती हैं जबकि बीफ मटन के माँस के रूप में उतना ही ( एक ईकाई ) प्रोटीन उत्पन्न करने के लिये लगभग १० से ७८ ईकाई ऊर्जा नष्ट हो जाती है । ऊर्जा के गम्भीर संकटकाल में ऊर्जा की इस प्रकार बर्बादी करना मूर्खता नहीं तो और क्या है ? कुछ लोग माँसाहार को उपयुक्त ठहराने के लिये देश कारण की आड़ लेते हैं। तर्क देते हैं कि हमारे देश में माँसाहार न करें तो हम जी ही नहीं सकते । जबकि यह पूर्णतया असत्य है । यूरोप में हजारों लोगों ने माँसाहार का पूर्णतया त्यागकर शाकाहार का सेवन प्रारम्भ किया है तो क्या वे जी नहीं रहे ? बंगाल के लोगों का मुख्य भोजन माँस-मछली और भात है वहां विधवा के लिये मांस-मछली भक्षण पर प्रतिबन्ध है तो क्या उनका जीवन नहीं रहता ? सिंध में जो सिंधी वैष्णव हो जाते हैं वे मछली, पल्ला, गोश्त कुछ नहीं खाते तो क्या वे मर जाते हैं ? सत्य तो यह है कि रसनेन्द्रिय की लोलुपता जब छूटती नहीं तो अपने कुतर्कों का औचित्य सिद्ध करने के लिये कुयुक्तियाँ लड़ाई जाती हैं। तर्क दिये जाते हैं कि माँसाहार बल व वीरता को बढ़ाता है । इस तर्क को निराधार सिद्ध करने के लिये यहाँ भारत सरकार की खोज "शाकाहार सर्वश्रेष्ठ आहार है” का पौष्टिक तत्व वाला तुलनात्मक चार्ट भारत सरकार द्वारा प्रकाशित हैल्थ बुलेटिन नं. २३ देना उपयुक्त होगा । एक समय विदेश में एक स्कूल के छात्रों को दो भागों में विभाजित कर यह परीक्षण किया गया कि माँसाहारी और फलाहरी में से किसकी कार्यक्षमता अधिक है ? परिणाम आया कि माँसाहारी से फलाहरी की क्षमता अधिक है । इसी कारण यूरोप, अमेरिका में अनेकों वेजीटेरियन सोसायटियाँ स्थापित होती जा रही है और वे पुस्तकों एवं पत्र- त्र-पत्रिकाओं द्वारा शाकाहार Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२ ) का प्रचार कर रहे हैं। "वनस्पति का आहार ही मनुष्य जाति के लिये अधिक लाभदायक है।" इस मत के अनुयायी पाश्चात्य देशों में प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे हैं । खास तौर पर इन सोसाइटियों द्वारा जनता में दो बातों का प्रचार किया जाता है १. मांसाहार से शारीरिक तन्दुरुस्ती का नाश होता है । ___२. पशुओं के संहार से मनुष्यों को आर्थिक दृष्टि से भी बहुत हानि उठानी पड़तो है। स्पष्ट है कि यदि धार्मिक विचार को पृथक रखा जाये तो भी माँसाहार सर्व प्रकार से अनुचित एवं हानिकारक हैं । अधिक क्या कहा जाये, आज तो यह भी करने में संकोच नहीं कि हम हृदय-होन और बधिर हो गये हैं। हजारों पशु चीत्कार करते हैं किन्तु उनका करूण क्रन्दन हमें सुनाई ही नहीं देता। आजकल अरब में गौ-माँस की माँग अत्याधिक बढ़ी हुई है। भारत के गौ-मांस की कीमत वहाँ दस गुनी मिलती है । अरबियों को जवान पशुओं का बढ़िया कोमल माँस चाहिए। जिसके लिये भारत के सभी प्रान्तों में कानूनी, गैर-कानूनी तौर से लाखों गाय-बैलों को मारा जाता है। कहाँ लुप्त हो गये हमारे शास्त्रों के यह उपदेश “घोड़े को मत मारो ! गाय को मत मारो ! भेड़ को मत मारो! इस दो पैर वाले पशु को अर्थात् मनुष्य अथवा पक्षी को मत मारो। एक खुर वाले घोड़ा, गदहा आदि पशुओं को मत मारो। किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो।"१ "प्राणियों की तरफ से बेपरवाह मत होओ।"२ १. यजुर्वेद-अध्याय १३, श्लोक ४७-४८ २. अथर्ववेद -कांड ८, सूत्र १, मंत्र ७ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४३ ) विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार माँस, मछली या अण्डे के सेवन से लगभग १६० रोग हो सकते हैं, इस जानकारी को "विश्व स्वास्थ्य" जैसे सामयिक में प्रकाशित किया गया है । डॉ. डी. सी. जैन ने शाकाहार दया के लिये सन् १९८४ में नई दिल्ली में एक परिसंवाद का आयोजन किया था जिसमें उन्होंने यह बताया था कि हमारे देश में जीवित प्राणियों की हिंसा अनावश्यक है । उनके इस विधान का अनुमोदिन देशी-विदेशी सभी विशेषज्ञों ने किया था । यहाँ प्रश्न तो यह उठता है कि क्या केवल अनुमोदन ही किसी समस्या का हल है । बाबजूद इसके सब कुछ पूर्ववत् चल रहा है। सरकार मूक प्राणियों के रक्त में डबी विदेशी मुद्रा अर्जित कर देश का उद्धार करना चाहती है । भीषण बूचड़ खाने खुलवाकर तथा लाखों जीवों को मौत के घाट उतारकर भारत को सुखी बनाने का स्वप्न देखना कितनी अधमता है । क्या यह सरकार के प्रशासन पर कलंक नहीं ? और फिर यदि पशु-हत्या वाणिज्य या व्यापार उचित है तो मनुष्य हत्या भी वाणिज्य व्यापार उचित होना चाहिए। यदि पशु हत्या कर देश को आर्थिक क्षति पहुँचाना व्यापार की श्र ेणी में आता है तो स्मगलिंग, जुआखोरी, चोरी, डकैती भी इसी कोटि में आना चाहिए । यदि पशुओं के साथ कृत्रिम गर्भाधान कर उनसे प्रजनन करवाना व्यापार है तो फिर वैश्यावृत्ति व्यापार क्यों नहीं ? कहने में संकोच नहीं कि मानव ने अपनी सूझ-बझ को तिलांजलि देकर निर्णय कर लिया है कि धरातल पर रहने का अधिकार केवल मनुष्यों को ही है । मस्तिष्क हीन मांसाहारी अपने तर्कों को येन-केन-प्रकारेण उचित ठहराते हुए प्रश्न करता है कि दूध प्राणिज पदार्थ होने से माँसाहार है क्योंकि मांस और खून से ही दूध बनता है तब फिर अहिंसा-अहिंसा की पुकार कर माँस खाने को बुरा बताना, दूध पीना और माँस से परहेज करना तो वही बात हुई कि गुड़ खाना और गुलगुलों से परहेज करना क्या तात्पर्य हुआ ? Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४४ ) ऐसा ही शंका एक समय पू. आत्माराम जी (विजयानन्द जी) से जीरा में किसी सज्जन के प्रश्न करने पर गुरुदेव ने उसका समाधान इन शब्दों में किया- “यद्यपि यह सत्य है कि रुधिर ही दुग्ध के रूप में परिणित होता है परन्तु परिणित होने से दूध में रुधिरत्व नहीं रहता, रुधिर का पदार्थान्तर हो जाता है । इसलिये दूध पीने में वह दोष नहीं जो रुधिर पीने में है। यदि रुधिर और दूध एक ही पदार्थ हो तो जैसे रुधिर को देखने से स्वाभाविक घृणा उत्पन्न होती है। वैसे ही दूध से भी होनी चाहिये । संसार में दूध पीने वाले को क्या कोई रुधिर पीने वाला कहता है ?" प्रश्नकर्ता स्वयं ही निर्णय करलें। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज अपने लेख "शाकाहार के सूर्य पर मांसाहार की धूल छा गई" में वर्तमान प्रशासन पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखते हैं-"हम तनिक भी प्रशासन के विरोध में नहीं हैं, फिर भी प्रशासन हमारी संस्कृति के खिलाफ क्यों जा रहा है ? सत्ता और व्यापार मिलकर दूध को मांसाहार और अण्डों को शाकाहार क्यों कह रहे हैं ? क्या कभी अण्डे वृक्ष से फलते हुए देखे गये हैं ? क्या कभी पशु-वध से दूध निकलते देखा गया है ? जनोपयोगी प्राणियों का नाश कर जो जन अपनी भूख मिटाते हैं और भ्रांति फैलाते हैं वे कायर और ऋ र हैं, हिंसक हैं।" आज आवश्यकता है अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन जसे करुणापूर्ण हृदय वाले प्रशासकों की, जिनका हृदय एक वराह को पंक में से निकलने में असमर्थ देख द्रवित हो उठता है और कीचड़ में से उस असहाय पशु के प्राणों का रक्षण करते हैं। आवश्यकता है - सुभाषचन्द्र बोस जसे नेताओं की, जो कहते हैं माँ ! मैं तुन्हें बताना चाहता हूँ कि मैं शाकाहारी बनने का बहुत इच्छुक हूँ। अभी तक मैं अपनी इच्छा पूरी नहीं कर सका। महीने भर से मैं मछली के सिवाय और कोई माँस नहीं खा रहा हूँ। मछली भी मैं बड़ो झिझक के साथ खाता हूँ। मैं मांस नहीं खाना चाहता क्योंकि हमारे ऋषि Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४५ ) मुनि कहते चले आये हैं कि अहिंसा के लिये मांसाहार का त्याग आवश्यक है । क्या किसी को उस परमात्मा के प्राणियों का वध करने का अधिकार है ? क्या यह बहुत बड़ा अपराध नहीं ? मैं उन लोगों से सहमत नहीं जो कहते हैं कि मांस न खाने से शारीरिक बल घटता है ।" करुणा मूर्ति श्रीमती मेनका गांधी अपना राजनीति में आने का कारण ही लोगों का कष्ट कम करना बताती हुई कहती है "इसी कारण से मैं शाकाहारी हूँ, मेरे इस शाकाहार का असर दूसरे भी कई लोगों को लगता है । मैं अभी बड़ौदा जिले के छोटा उदयपुर जैसे छोटे से गांव में गई थी तो वहां के राजा के वृद्ध काकाजी ने कहा मुझे ८५ वर्ष पूरे हो गये हैं लेकिन गये महीने ही मैंने आपसे प्र ेरणा लेकर माँसाहार छोड़ा है भारत देश ऊँचा उठ सके, इसके लिये कुछ कर गुजरने की तमन्ना है ।" कई लोगों को ऐसा लगता है कि मेरे मन में मनुष्य की अपेक्षा पशुपक्षी का स्थान अधिक है ऐसा हरगिज नहीं हैं मेरे मन में तो मनुष्य का मूल्य भी उतना ही है । मनुष्य, पशु-पक्षी, वनस्पति सबका मूल्य समान है । मेरे लड़के को बचपन से ही मैंने ऐसी आदत डाली है कि नीचे देखकर चलना जिससे पाँव के नीचे चींटी न कुचल जाये । इसका अर्थ यह नहीं कि चींटी के लिये मैं पागल हैं । इसका अर्थ केवल इतना ही है कि सम्भव हो वहां तक किसी को पोड़ा नहीं पहुँचानी चाहिये " काश ! मेनका देवी जैसी भावना भारत के जन-जन के मन में व्याप्त हो जाये तो आध्यात्मिक क्षेत्र में भारत का उज्जवल भविष्य दूर नहीं । जीवदया से सम्बन्धित कुछ महान विचारकों के कथन : १. सब धर्मों की यह शिक्षा है कि मनुष्य को हमेशा परमात्मा की इच्छा की ओर प्रवृत्त होना चाहिये । उसे बुराई के मुकाबले में नेकी ओर, अथवा पतन के विरुद्ध विकास की ओर रहना चाहिये । जो मनुष्य स्वयं को विकास के पक्ष में द्दढ़ रखता है, वह जानता है Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) कि जानवरों में जो जीवन है वह भी प्रभु की देन है, कि इस संसार में सभी प्रकार का जीवन ईश्वरीय है और इसलिये सभी पशु- पक्षी वास्तव में हमारे बन्धु हैं । हमें अपने स्वाद की खातिर उनके प्राण लेने का कोई अधिकार नहीं है, कोई अधिकार नहीं है उन्हें अपार यातना और कष्ट पहुँचाने का |............... रेवरेण्ड चार्ल्स डब्ल्यू लेड बीटर । २. “मेरे दोस्तों ! अपने शरीर को पाप पूर्ण के द्वारा नापाक या गंदा मत करो। हमारे पास अनाज है, सेव, अंगूर आदि फलों से लदे वृक्ष हैं । मिठास और सुगन्ध से परिपूर्ण कन्द-मूल तथा सब्जियां हैं, जो अग्नि पर पकाई जा सकती हैं। दूध तथा खुशबूदार शहद की भी कमी नहीं है । ऐसे पवित्र और निर्दोष आहार से धरती भरपूर है । पायथागोरस सुबह के खाने में रोटी और शहद तथा शाम को कच्ची तथा पकाई हुई सब्जियां लेता था । इएम्बेलिनस, पायथागोरस की जीवनी में लिखता है कि वह मछुओं को पैसे देकर पकड़ी हुई मछलियाँ वापस समुद्र में छुड़वा देता था । वह जंगली रीछों को सहलाता था । वह मक्का और अनाज पर गुजारा करता था और पशुओं के वध तथा शराब से नफरत करता था । पायथागोरस के अनुसार निरामिष अथया शाकाहारी भोजन मनुष्य में शांति पैदा करता है तथा वासनापूर्ण निम्न वृत्तियों को नहीं भड़काता ।" "कोई ऐसी चीज न खाओ जिसमें रक्त मिला हो और न ही किसी जीव की हिंसा करो। जो दूसरों की जिन्दगी की कद्र नहीं करता वह खुद भी जिन्दा रहने का हकदार नहीं । प्रकृति नहीं चाहती कि एक जीव दूसरे का घात करे । एक समय आयेगा जब मनुष्य पशुओं के वध को उसी प्रकार दुष्ट कर्म और हत्या समझेगा जिस प्रकार कि आज मनुष्य को मारने को समझा जाता है । " ...........लिओनार्डों द विन्सी । 'पायथागोरस | Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. "हर शहर और गाँव मुझे प्रभु ने हुक्म दिया है कि खुद फरियाद नहीं कर सकते । "" उन मासूमों पर रहम कर जो 'एडगर ए. गैस्ट | ५. नोबेल प्राइज विजेता निरामिष भोजी जार्ज बर्नाडे शॉ के नाम से कौन अपरिचित होगा ? आंग्ल देश में जन्म होने पर भी हमारे धार्मिक ग्रन्थों को पढ़कर अपने जीवन की दिशा बदल दी । एक भोज आयोजन में माँसाहारी भोजन को देखकर कहते हैं- मेरे पेट कब्रिस्तान नहीं । प्राणियों को मारकर खाना कहाँ की मानवता है ? दूसरों को मारकर आनन्द करना, यह आनन्द नहीं वरन् क्रूरता है।" ( १४७ ) अरे, इन धर्म ग्रंथों से तो वे इतने प्रभावित हुए कि अपने फूलदान में फूल रखना भी छोड़ दिया उनकी मान्यता बन गई थी कि फूलों में भी जीवन है अत: फूल तोड़ने से उन्हें दर्द होता है । क्या कभी हमने भी इतनी गहराई से अपने धर्म शास्त्रों का मनन किया है ? अफसोस है कि हम अपने ही खजाने का सदुपयोग नहीं कर रहे । विदेशियों की तरह भौतिक उन्नति करने में उनका अनुकरण करके हम 'फारवर्ड' तो बन गये क्या कभी पूज्य पुरुषों द्वारा आध्यात्मिक उन्नति हेतु दिये गये उपदेशों पर चलने के बारे में चिन्तन किया ? नहीं, करें भी क्यों ? क्योंकि वे तो पुरातन को प्राप्त हो चुके हैं । उनका अनुसरण करके हमें 'बैकवर्ड' थोड़े ही बनना है । मानव जो भी हो भौतिकता में मानव चाहे जितनी प्रगति कर ले उसे सच्चा सुख, सच्ची शांति कदापि प्राप्त न हो सकेगी यदि भौतिक साधनों में सुख निहित होता तो भगवान महावीर, गौतम बुद्ध राजपाट को त्याग अध्यात्मिक उन्नति हेतु प्रयासरत न होते । अब भी समय है चेतने का, स्वयं को जाग्रत करने का ज्ञानियों का कहना है - " उठो, जागो, नींद त्यागी, प्रमाद छोड़ो, सुपल का लाभ चूके नहीं ।" भगवान महावीर गौतम स्वामी से कहते हैं-समयं गोयम मा माया" अर्थात हे गौतम ! समय मात्र भी प्रमाद मत कर । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४८ ) "टूटा हुआ जीवन फिर जुड़ नहीं सकता, इसलिये प्रमाद मत करो। सचमुच वृद्धावस्था से ग्रसित पुरुष का कोई शरणाभूत नहीं होता, ऐसा चिन्तन करो। प्रमादी और इसीलिये हिंसक बने हुए विवेक शून्य जीव किसकी शरण में जायेंगे।"१ सभी धर्मशास्त्रों का गहराई से अध्ययन, चिन्तन, मनन करने पर एक ही बात स्पष्ट रूप से विदित होती है कि प्रत्येक धर्म का प्राण या हृदय अहिंसा में ही निहित है। इसीलिये वृहत्स्वयम्भू स्तोत्र में कहा गया है"अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम" यानि इस संसार के प्राणियों के लिये, साधारण प्राणियों के लिये भी और जो विशिष्ट साधक हैं, उनके भी साक्षात् परम ब्रह्म तो अहिंसा ही है। इस अहिंसा के फल का वर्णन कहां तक करें लेखनी में ही सामर्थ्य नहीं अत: अधिक न लिखते हुए हेमचन्द्राचार्य का यह कथन ही पर्याप्त होगा--"सुखदायी, लम्बी उम्र, उत्तम रूप, निरोगता प्रशंसनीयता ये सब अहिंसा के फल हैं । अधिक क्या कहें, मनोवांछित फल देने के लिये अहिंसा कामधेनू के समान है ।"२ भगवान महावीर ने "देवा वितं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो" महावाक्य कहकर अहिंसा के सुखान्त परिणाम का बड़ी सुन्दरता के साथ परिचय करा दिया है जिसका भावार्थ है “जिस व्यक्ति के हृदय में भगवती अहिंसा का वास होता है वह देव वन्दनीय हो जाता है, अहिंसा के परिपालक व्यक्ति के चरणों में देवता भी अपना मस्तक झुका देते हैं।" अतः मनुष्य अपने हृदय में यह भाव स्थापन करे "अहिंसा प्रथमो धर्मः, सर्वशास्त्रेषु विश्रुतः यत्र जीव-दया नास्ति, तत्सर्व परिवर्जयेत" अर्थात् सर्व शास्त्रों में अहिंसा को प्रथम धर्म कहा गया है । जहाँ जीवदया नहीं वहाँ सब कुछ व्यर्थ है। १. उत्तराध्ययन सूत्र--अध्याय ४, गाथा १ २. योगशास्त्र--प्रकाश २, श्लोक ५२ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक ग्रंथ सूची क्र. पुस्तक का नाम लेखक प्रकाशक सन - 1907 1. ऋग्वेद-संहिता वैदिक यंत्रालय, सं. 2010 अजमेर 2. यजुर्वेद-संहिता वैदिक यंत्रालय, सं. 2007 अजमेर 3. अथर्ववेद-संहिता वैदिक यंत्रालय; सं. 2013 अजमेर 4. मत्स्य पुराण सम्पादक !- पूना आप्टे हरिनारायण 5. श्रीमद् भागवत् निर्णय सागर प्रेस, 1923 बम्बई 6. मनुस्मृति भाषा टीका :- निर्णय सागर प्रेस, 1910 रामेश्वर भट्ट बम्बई 7. याज्ञवल्क्य स्मृति भाषा टीका :- चौखम्बा, बाराणसी 1967 डॉ, उमेशचन्द्र पांडेय 8. महाभारत भाषा टीका - गीता प्रेस, गोरखपुर श्री नारायणदत्त शास्त्री 9. गीता संग्रहकर्ता :- गीता प्रेस, गोरखपुर 1893 योगशास्त्री पाठक 10. हिन्दुत्व रामदास गौड़ शिवप्रसाद गुप्ता, 1995 काशी 11. ईशादि दशोपनिषद् - निर्णय सागर प्रेस 1932 भाष्यं बम्बई Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) क्र. पुस्तक का नाम लेखक प्रकाशक सन् 12. भारत का सांस्कृ- श्री हरीदत्त बेदा- आत्माराम एंड संस, 1952 तिक इतिहास लंकार दिल्ली 13. भारतीय इतिहास डॉ. राज बलि पांडेय दरियागंज, देहली 1949 की भूमिका 14. प्राचीन भारत का श्री भगवत् शरण ग्रन्यमाला कार्यालय, 1949 . इतिहास . उपाध्याय पटना 15. भारतीय संस्कृति श्री प्रसन्न कुमार साहित्य सम्मेलन, सं 2014 एवं सभ्यता आचार्य प्रयाग 16. अज्ञान तिमिर आचार्य श्री विजयानन्द भास्कर सूरिजी 17. कुरान-शरीफ हिन्दी अनुवाद दरियागंज देहली तर्जुमा 18. गुरु ग्रन्थ साहिब 19. श्री गुरू नानक श्री तेजसिंह अमृतसर 1991 1991 देवजी 1978 1958 20. नानक सदेश नानक नाम प्रचार कमेटी इन्दौर 21. बाइबिल हिन्दी अनुवाद बंगलोर 22. अशो जरथुस्त अहमदाबाद 23. मज्झिम निकाय संशोधक :- बिहार राजकीय पालि राहुल सांकृत्यायन पाली प्रकाशन एवं जगदीश कश्यप मण्डल 24. संयुक्त निकाय हिन्दी अनुवाद :- महाबोधि सभा भाग १ व २ जगदीश कश्यप व सारनाथ, बनारस धर्मरक्षित 1954 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) क्र. पुस्तक का नाम लेखक प्रकाशक सन् 25. बुद्धचर्या 26. दीधनिकाय 27. विनयपिटक 28. महावग्गपालि 29. धम्मपदं 30. उदानं हिन्दी अनुवाद :- सारनाथ, बनारस 1952 राहुल जी हिन्दी अनुवाद :- सारनाथ, बनारस 1936 राहुल जी एवं जगदीश जी हिन्दी अनुवाद :- सारनाथ, बनारस 1935 राहुल जी सम्पादक :- बिहार राजकीय 1956 जगदीश कश्यप पालि सम्पादक :- उत्तम भिक्षु रंगून 1937 राहुलजी, आनन्दजी, एवं जगदीशजी सम्पादक :- उत्तम भिक्षु रंगून 1937 राहुलजी, आनन्दजी, एवं जगदीशजी सम्पादक :- उत्तम भिक्षु रंगून 1937 राहुलजी, आनन्दजी, एवं जगदीशजी सम्पादक :-- उत्तम भिक्षु रंगून 1937 राहुलजी, आनन्दजी, एवं जगदीशजी धर्मानन्द कोसम्बी राजकमल प्रकाशन 1956 चन्द्रिका प्रसाद उत्तम भिक्षु बर्मा 1933 जिज्ञासु वासी आचार्य चतुरसेन । हिन्दी साहित्य मण्डल,1940 शास्त्री 31. इतिवृत्तकं 32. सुत्तनिपातो 33. भगवान बुद्ध 34. भगवान गौतम बुद्ध 35. बुद्ध और बौद्ध धर्म दिल्ली Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२ ) क्र. पुस्तक का नाम लेखक प्रकाशक : सन् 1906 1946 36. आचारांग सूत्र गुजराती अनुवाद :- राजकोट प्रो. रब्बी भाई देवराज 37. आचारांग के सूत्र हिन्दी अनुवाद :- जैन श्वेताम्बर 1960 श्रीचन्द रामपुरिया तेरापंथी महासभा, कलकत्ता 38. उत्तराध्ययन हिन्दी अनुवाद :- लाहौर 1942 सूत्र भाग 1,2,3 उपाध्याय आत्मारामजी 39. दश वैकालिक हिन्दी अनुवाद :- लाहौर सूत्र उपाध्याय आत्मारामजी 40. भगवती सूत्र गुजराती अनुवाद :- अहमदाबाद सं. 1985 पं. भगवानदास 41. निशीथ सूत्रम् सम्पादक :- सम्मति ज्ञान पीठ, 1957 कवि श्री अमर आगरा मुनिजी 42. सूत्र कृतांग सम्पादक :- राजकोट सं. 1995 अम्बिका प्रसाद दत्त ओझा 43. ठाणांग सुत्त सम्पादक .- महावीर विद्यालय, 1985 मुनि जम्बू बम्बई विजय जी 44. समयसार 45. श्री विपाक श्र तम हिन्दी टीका :- लुधियाना सं. 2010 श्री ज्ञान मुनिजी (पंजाब) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र. पुस्तक का नाम 46. तत्वार्थ सूत्र 47. योगशास्त्र ( १५३ ) 52. कल्पद्र कोष: 53. शब्दार्थं चिन्तामणि कोष लेखक विवेचनकर्ता : पं. मुखलालजी गुजराती भाषांतर- बम्बई कर्त्ता :- मुनि श्री केशर विजयजी भाग २ 49. लैटर्स टू विजयेन्द्र सूरि 50. मानव भोज्य मीमांसा 51. आप्टेज संस्कृत सम्पादक : इंग्लिश पी. के. गौड़ एवं डिक्शनरी - भाग २ सी. जी. कार्वे केशव सुखानन्दनाथ 48. तीर्थंकर महावीर आचार्य श्री विजयेन्द्र- बम्बई सूरिजी प्रकाशक बम्बई CO पन्यास श्री कल्याण जालौर विजयजी पूना बड़ौदा सन् सं. 1996 सं. 1967 सं. 2018 1961 1957 1928 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट "मगल समाटो की धार्मिक नीति पर जैन सन्तो आचार्यों एवं मुनियो का प्रभाव" पुस्तक के विषय में विद्वानो एवं पत्रपत्रिकाओ का अभिप्राय : १. प्रिय डॉ. नीना जी, आपने डबरा में अपनी थीसिस की जो मुद्रित प्रति दो थी उसे मैंने देख लिया है । यू तो प्रतिमास एक-दो थीसिस परिक्षणार्थ आती रहती हैं, पर आपने जैसा प्रामाणिक और महत्व कार्य किया वैसा कदाचित् ही देखने को मिलता है। मैं इस कार्य पर मुग्ध हूँ। पाली, प्राकृत, संस्कृत और मामूली फारसी, उर्दू जानने के कारण मैं इस कार्य को महत्ता को अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक गम्भीरता से आँक सकता हूँ। इतनी सारी मूल स्त्रोत सामग्री एकत्र कर लेना सरल काम नहीं है, खास कर ऐसी सामग्री जिसे कभी किसी ने छुआ तक नहीं । .............. का काम पारम्परिक ढंग का है--चालू किस्म का । आपका प्रबन्ध सर्वथा मौलिक । परिशिष्ट बहुत उपयोगी हैं । आपके गुरुओं के प्रति मेरा आदर जगा है । आपने औरंगजेब तक का काल ले लिया होता तो और अच्छा होता। मैं आपके यशस्वी भविष्य की कामना करता हूँ। (१) आचार्य हेमचन्द्र, (२) कुन्दकुन्दाचार्य और उमास्वाति पर मेरे निर्देशन में कार्य हुआ है। सस्नेह ! ई २/७३, महावीर नगर डॉ. प्रभुदयाल अग्निहोत्री भोपाल-४६२०१६ भूतपूर्व उपकुलपति दिनांक १-६-९२ जबलपुर विश्वविद्यालय ___ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५५ ) २. किसी धर्म के अतीत के अध्ययन का महत्व केवल उस धर्म के विशेष तक सीमित नहीं रहता, उसका अपना महत्व भी है । “मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति पर जैन सन्तों का प्रभाव" प्रस्तुत ग्रन्थ का अध्ययन करने पर ५०० वर्ष का प्राचीन इतिहास जिसमें राजनैतिक, सांस्कृतिक दिशा को रोचक तथ्यों तथा ज्ञानवर्धक सामग्री की जानकारी हो जाती है। वह कि मुगलकाल में जैन धर्म, आचार्य परम्परा, सम्राट अकबर की धार्मिक नीति, जैन अचार्यों एवं मुनियों के सम्पर्क से प्रभाव, जहाँगीर की धार्मिक नीति, जैन सन्तों से सम्पर्क व ज्ञानवर्धक सामग्री से परिपूर्ण ग्रन्थ हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ अपना विशिष्ट स्थान रखता है। लेखिका-कु. नीनाजी द्वारा प्रस्तुत ग्रन्थ लिखकर अतीत की अनजानी गहराइयों में डूबकर जैन धर्म के इतिहास की थाह लेना और उनमें से अनमोल रत्नों को ढूंढ निकालना सरल कार्य नहीं है । अत: अपनी प्रतिभा, परिश्रम एवं त्याग के द्वारा ग्रन्थ लिखकर विद्वानों, शोधकर्ताओं, जैन मुनिराजों एवं ग्रन्थागारों के लिये संग्रहनीय है तथा अभिनन्दनीय है। प्रकाशक श्री काशीनाथ जो शराक संयोजक-श्री विजय धर्म सूरि समाधि मन्दिर द्वारा इस सत् प्रयास के लिये शुभकामनाएँ प्रदर्शित करता हूँ। दिनांक १-८-९२ निवेदक भीकम शाह, 'भारतीय' जैन हिन्दी पत्रकार, अजारी ३. डॉ. नीना वेन, आज ही आपकी पुस्तक पढ़कर पूर्ण किया। मुसलमान दयालु थे इतने आज हिन्दू दयालु नहीं हैं। भारत का भाग्य अब अस्त होने जा रहा है। भौतिकता की चौंध में सारी प्रजा डूब जायेगी और सम्पूर्ण अन्धकार-अज्ञानता का पतन का सर्वत्र छा जायेगा। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) आपने इतनी छोटी वय में गजब की मेहनत की है। अनेक सन्दर्भ ग्रन्थ देख लिये हैं। आज की सरकार और उनके लालची अधिकारी वर्ग को पढ़नी चाहिये । हमारा हृदय पत्थर का हो गया है, करोड़ों पशु कटते हैं । अब तो कोई नया बुद्ध, महावीर या कृष्ण मात्र भारत को बचा सकता है । पुन धन्यवाद ! क्षु. चित्तसागरजी दिनांक ५-९-९२ शांतिनाथ दि. जैन मन्दिर हिम्मत नगर-गुजरात ४. पुस्तक अति उपयोगी है। बहुत श्रम उठाया है। नया प्रकाश मिलेगा। दिनांक २२-८-९१ आचार्य यशोदेव सूरिजी साहित्य मन्दिर पालीताना ५. डॉ. नीना जैन, स्नेहाशीष ! आपकी लिखित पुस्तक “मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति पर जैन सन्तों का प्रभाव" पढ़कर गौरवान्वित हुआ। आपने जो प्रमाण Quote किये हैं, स्वयं सिद्ध है, जैन तत्व को समझाने में आपका प्रयास सराहनीय है। भविष्य में आपसे हमें बहुत आशाएं हैं, इष्ट देव आपकी मदद करे । उमेदभल जैन आपका धर्म स्नेही शत्रुञ्जय ३१० झोकनबाग उमेद मल (एडवोकेट) झाँसी (उ. प्र.) ६. प्रस्तुत पुस्तक कु. नीना जैन द्वारा आपने शोध प्रबन्ध का आधार है। इस पुस्तक को पढ़ने पर भारत के ५०० वर्ष प्राचीन इतिहास की जानकारी भली प्रकार से हो जाती है। भारत की राजनीतिक, सांस्कृतिक दिशा को प्ररूपित करते हुए लेखिका ने पुस्तक में छ: अध्याय दिये हैं । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५७ ) प्रथम अध्याय-मुगलकाल में जैन-धर्म एवं आचार्य परम्परा, दूसरा अध्याय - अकबर की धार्मिक नीति, तीसरा अध्याय -अकबर का जैन आचार्यों एवं मुनियों से सम्पर्क तथा उनका प्रभाव, अध्याय चार-जहाँगीर की धार्मिक नीति, अध्याय पाँच-जहाँगीर का जैन सन्तों से सम्पर्क और अध्याय छ:-शाहजहाँ की धार्मिक नीति जैन धर्म से जुड़ा हुआ है। पुस्तक लिखने में लेखिका ने सैकड़ों ग्रन्थों, प्राचीन पांडुलिपियों को अपना आधार बनाकर अपना शोध प्रबन्ध तैयार किया है। पाठकों को पुस्तक पढ़कर ज्ञात होगा कि लेखिका ने बड़े कड़े परिश्रम से "शोध प्रबन्ध" लिखकर जैन दर्शन की मुगल शासकों के हृदयों पर छाप को प्रस्तुत किया है वह अनुमोदनीय ही नहीं अभिनन्दनीय भी है। महाराणा प्रताप द्वारा श्री हीरविजय सूरिजी को लिखे पत्र की नकल, हस्तलिखित पांडुलिपियों के कुछ दुर्लभ पृष्ठ अंकित कर पुस्तिक की उपादेयता को विशेष रूप से बढ़ाया है। यह पुस्तक सभी जैन ग्रंथालयों, विद्वानों, जैन मुनिराजों के लिये उपयोगी और संग्रहणीय है। हम लेखिका के साथ प्रकाशक श्री काशीनाथ जी सराक को भी धन्यवाद देंगे कि कु. नीनाजी द्वारा संग्रहित दुर्लभ साहित्यिक रत्नों को देखने के लिये आपने पुस्तक का प्रकाशन कर बहुत ही सराहनीय कार्य किया है। श्वेताम्बर जैन, आगरा ८ जुलाई, १९९१ ७. "अकबर ने पर्युषण के दिनों में पशु वध निषिद्ध किया था।" भारत के मध्यकालीन इतिहास में मुगलकाल की कोई तुलना नहीं। मुगलकाल में भी अकबर, जहांगीर और शाहजहाँ के शासनकाल में कला, साहित्य, दर्शन, व्यापार, भवन का निर्माण, धार्मिक सहिष्णुता आदि के Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५८ ) क्षेत्र में जो कार्य हुए, उनका गुणगान आज भी किया जाता है । " मुगल सम्राटों को धार्मिक नीति पर जैन सन्तों का प्रभाव" नामक ग्रन्थ में सन् १५५५ से १६५८ तक के मुगल शासन की धार्मिक नीति और उससे हुए परिवर्तन का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है । अकबर की धार्मिक उदारता की खूब चर्चा हुई है । सभी धर्मों की समान मान्यताओं को लेकर उसने एक नया धर्म प्रचलित करने का प्रयास भी किया था । निरंकुश शासक होते हुए भी उसने दीनेइलाही को मानने के लिये किसी को विवश नहीं किया । उसका धर्म चल नहीं पाया,. क्योंकि उसने लोगों पर बल प्रयोग करके उसे नहीं थोपा और रूढ़िवादी मुल्लाओं ने उसके द्वारा प्रवर्तित मत का विरोध किया । मुगल सम्राट ने इबादत खाना के नाम से एक सभागार का निर्माण कराया था जिसमें सभी धर्मो के सन्तों, विद्वानों और साधकों को आमंत्रित किया जाता था और आध्यात्मिक विषयों पर विचार चर्चा हुआ करती थी । फतेहपुर सीकरी के इबादत खाने में भक्त कवि कुभनदास को जब आमंत्रित किया गया, तो उन्होंने सम्राट को उत्तर भिजवाया - "सन्तन का सीकरी सौ काम । आवत-जात पहनियाँ टूटी, बिसर गयो हरि नाम । " जैन आचार्य श्री हीर विजय सूरी को जब इबादत खाने में निमंत्रण किया गया, तब भी श्रावकों, आचार्य और मुनियों की सभा में विचार-विमर्श की वही दिशा थी, जो उपर्युक्त अभिव्यक्ति में हैं। किन्तु आचार्य हीरविजय सूरीजी तत्व ज्ञान के साथ व्यवहारिक ज्ञान के भी आचार्य थे, इसलिये उन्होंने सभा को समझाते हुए कहा - " अपने पूज्य पुरुषों को तो राज्य दरबार में प्रवेश करने में बहुत सी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ी थीं, लेकिन हमें तो सम्राट स्वयं बुला रहा है । इसलिये उसके आमंत्रण - निमंत्रण को अस्वीकार करना मुझे अनुचित जान पड़ता है । तुम इस बात को भली प्रकार समझते हो कि हजारों, बल्कि लाखों मनुष्यों को उपदेश देने में जो लाभ होता है उसकी अपेक्षा कई गुना ज्यादा लाभ एक राजा को, सम्राट को Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५९ ) उपदेश देने में है। गुरू की कृपा से सम्राट के हृदय में यदि एक बात भी वैठ जाती है, तो हजारों ही नहीं, बल्कि लाखों मनुष्य उसका अनुसरण करने लग जाते हैं।" लेखिका कु. नीना जैन ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में श्वेताम्बर जैन आम्नाय की ऐसी अनेक बातें विवेचित की हैं, जिनका ज्ञान सामान्य पाठक को नहीं होगा। उसके बाद अकबर की धार्मिक नीति का विस्तार से विचार किया गया है। अपने समय के सूफी सन्तों, हिन्दू पण्डितों, ईसाई और पारसी धर्मज्ञों, जैन सन्तों आदि से प्रभावित होकर और इस्लाम के कट्टर पंथी मुल्लाओं, उलेमाओं आदि के पारस्परिक झगड़ों से क्षुब्ध होकर अकबर अपनी धार्मिक नीति को बदलने के लिये प्रेरित हुआ था। हिन्दू तीर्थ यात्रियों से उस समय तीर्थ यात्रा कर वसूल किया जाता था अकबर ने एक आदेश निकालकर इस तरह की कर वसूलौ को समाप्त किया। वह कहा करता था कि “चाहे कोई गलत धर्म के मार्ग पर चलता हो, परन्तु यह कौन जानता है कि उसका मार्ग गलत ही है। ऐसे व्यक्ति के मार्ग में बाधा उत्पन्न करना उचित नहीं है।" उसने मुस्लिम नेताओं व उलेमाओं आदि के कड़े विरोध की परबाह न करके जजिया कर की वसूली समाप्त कर दी। इस्लामेतर धर्मावलम्बियों को अपने धर्म स्थानों व पूजा स्थलों के निर्माण की स्वतंत्रता उसने दी और हिन्दुओं तथा जैनियों को उच्च पदों पर नियुक्त किया। आचार्य हीरविजय सूरी के निवेदन पर अकबर ने "जैन धर्म के पर्युषण पर्व के अवसर पर फरमान निकालकर सारे राज्य में बारह दिनों के लिए जीव-हिंसा की मनाही कर दी। फतेहपुर सीकरी के तालाब से मछलियाँ न पकड़ी जायें. इस आशय का हुक्म भी उसने दिया था।" उसने सप्ताह के कुछ दिन ऐसे तय कर दिये थे, जिनमें उसके भोजन में माँस से बने हुए पदार्थ नहीं होते थे। चितौड़ युद्ध और उसके बाद अकबर ने जो कत्लेआम कराया था उस पर Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) वह पश्चाताप करता है रहा । लेखिका ने उसका एक कथन उद्धृत किया है" मैंने ऐसे पाप किये हैं । जैसे आज तक किसी ने नहीं किये होंगे जब मैंने चित्तौड़गढ़ जीत लिया उस समय राणा के मनुष्य, हाथी, घोड़े मारे थे । इतना ही नहीं चित्तौड़ के एक कुत्ते को भी नहीं छोड़ा था। ऐसे पाप से मैंने बहुत से किले जीते हैं, लेकिन भविष्य में मैं इस तरह के दुष्कार्य न करने की प्रतिज्ञा करता हूँ । लेखिका ने इस कथन का स्त्रोत नहीं दिया है । गो-वध की मुमानियत के बारे में लेखिका ने रामलाल पाण्डेय के लेख का यह अंश उद्धृत किया है - "गो-वध तो बराबर बन्द रहता था ही, पर उसके बधिक के लिये प्राण दण्ड को सजा थी । यह राजाज्ञा शब्दों तक ही सीमित न थी, वरन् उसे कार्य रूप में परिणत करके दिखाया गया । महाभारत के भाषान्तर कार शेख सुलतान थानेसुरी ने जब गो-हत्या की तो थानेश्वर के हिन्दुओं की शिकायत पर उसे देश - निर्वासन का दण्ड दिया गया था । उसकी महान् विद्वता और प्रभाव उसे इस दण्ड से न बचा सके ।" अकबर के पश्चात् जहाँगीर के राज्यकाल में भी बादशाह की धार्मिक नीति में कुछ उदारता रही। जहाँगीर भी अन्य धर्मो के सन्तों और विद्वानों से मिलता रहता था । जैन सन्तों से भी वह मिलता था उसने इबादतखाना आबाद रखा और उसमें पहले की ही तरह धार्मिक चर्चाएँ जारी रखी जिनमें वह सभी धर्मो के सन्तों और विद्वानों को बुलाता था । वह धार्मिक भेद-भावों नापसन्द करता था। जहाँगीर के दरबार में भी हिन्दू और जैन ऊँचे पदों पर रहे थे । उसने सती प्रथा के विरूद्ध भी आदेश निकाला था । " मादक द्रव्यों की खुलेआम बिक्री रोक दी गई थी, धर्म परिवर्तन कराने को भी उसने अपराध घोषित किया था ।" शाहजहाँ की धार्मिक नीति वह नहीं थी जो अकबर और जहाँगीर की थी । उसने हिन्दुओं पर तीर्थ यात्रा कर जैसे कर लगाकर अपनी कट्टर धार्मिक नीति का परिचय दिया । किन्तु धार्मिक सहिष्णुता उसमें कुछ अंशों में थी, क्योंकि शासक यदि शासितों के प्रति पूरी तरह से असहिष्णु रहे, तो उसका शासन चल नहीं सकता । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१ ) पुस्तक लेखिका ने विषय-विवेचन में वैज्ञानिक पद्धति अपनाई है । अपने निष्कर्षो की पुष्टि में लेखिका ने जहाँ जैन साहित्य से प्रमाण दिये हैं वहाँ सुप्रसिद्ध इतिहासकारों और गीता, महाभारत, मनुस्मृति, पुराण आदि ग्रन्थों के उद्धरण भी दिये हैं । अनेक ग्रन्थों के पृष्ठों और मुगलों के फरमानों की फोटो कॉपियां भी दी गई हैं । ग्रन्थ में दस परिशिष्ट दिए गए हैं जिनमें पत्रों, फरमानों, शिलालेखों आदि को संकलित किया गया है। इनमें एक पत्र महाराणा प्रताप का भी है । नई दुनिया, इन्दौर ५-९-१९९१ ८. "इतिहास द्दष्टि से पोषित एक सार्थक शोध कृति " भारतीय धर्म एवं संस्कृति ने सदैव विश्व-मानवता के कल्याण कामना को सर्वोपरि महत्व प्रदान किया है "बसुधैव कुटुम्बकम्" के उद्गाता और "सर्वे भवन्तु सुखिन: ' के सार्थवाह इस देश ने हमेशा व्यष्टि को नहीं समष्टि At at अपने चिन्तन का आधार माना है । यही कारण है कि चाहे एशिया मूल के हों या योरोप के जो भी धर्म भारतीय धर्मों की संस्कृति के सम्पर्क में आये वे प्रभाबित हुए बिना नहीं रहे हैं । " मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति पर जैन सन्तों का प्रभाव" कृति भी इस सत्य को संवाहिका है। शोध परक यह कृति सुश्री नीना जैन की है, जिसे शिवपुरी के आचार्य श्री विजयेन्द्र सूरि शोध संस्थान मै प्रकाशित किया है । दो सौ पृष्ठों की इस कृति में न केवल मुगल बादशाहों द्वारा जैन साधुओं को दिये गये फरमानों की फोटो कापिज है, वरन् तत्कालीन हिन्दु राजामहाराजाओं और मेवाड़ के राणा के पत्र के दुर्लभ चित्र भी संकलित हैं । इसी प्रकार शिलालेखों स्त्रोतों के चित्र भी दिये गये हैं । श्रमण शब्द का विवरण भी शोध - शैली में रोचक एवं जानकारी वर्द्धक है। मुगल सम्राटों धार्मिक नीति पर जैन सन्तों- आचार्यों-मुनियों के प्रभाव का यह समाकलन सन् १५५५ से १६५८ की सौ वर्षों से अधिक की कालावधि को सात अध्यायों में समेटे हुये हैं । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२ ) — कृति में मुगलकालीन जैनाचार्यों की परम्परा और शासकों जन समुदायों पर उनके साधू-प्रभावों का व्यापक लेखा-जोखा है । अकबर तो मुगल सम्राटों में महान है ही इसलिये कि उसने सभी धर्मो को समाद र प्रदान किया था। उसकी धर्म नोति सहिष्णुता और संस्कृति पर क थी जिसकी कि चर्चा बहवधि पर्याप्त मिलती ही है। अकबर के अतिरिक्त जहाँगीर और शा जहाँ की नीतियों की चर्चा है। निष्कर्ष बहुत नवीन नहीं हैं, हाँ सामग्री और नवीन स्त्रोतों का अवश्य ही विपल समावेश कृति में है। वस्तुत: लेखिका का अध्यवसाय जितना इस कृति को पूर्णता प्रदान करता है उतना ही श्रेय श्री काशीनाथ सराक और उनके शोध-संस्थान को भी दिया जाता है कि इतनी पठनीय और मननीय कृति प्रकाश में आ सकी है। आज के इस युग में जबकि जीवन मूल्यों का हनन सर्वत्र, सर्वभावेन हो रहा है, ऐसी कृतियों की प्रासंगिकता महत्वपूर्ण और महनीय है। क्या ही अच्छा ही देश के विभिन्न अंचलों क्षेत्रों में जो ज्ञान राशि का संचित कोष इतस्तत: बिखरा पड़ा है उसे नीनाजी जैसे साधक साधिकाएँ सहेजे सँवारे और प्रकाश में लाए। दैनिक ब्रिगेडियर, उज्जैन ८ दिसम्बर, १९९१ ९. डॉ. कु नीना जैन ने अपने प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में मुगल सम्राट अकबर, जहाँगीर व शाहजहाँ की धार्मिक नीति का विवेचन करते हुए उक्त बादशाहों द्वारा जारी किये गये फरमानों तथा पालीताना, खम्भात, राणकपुर व पावापुरी के जिन मन्दिरों में लगे शिलालेखों एवं प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर प्रतिपादित किया है कि इन बादशाहों को धर्म सहिष्णु नीति अपनाने में श्वेताम्बर जैन आचार्यों व मुनियों विशेषकर होरविजय सूरिजी, शांति चन्द्रजी, भानुचन्द्रजी, विजयसेन सूरिजो, जिनचन्द्र सूरिजी आदि की प्रेरणा रही। इन जैन सन्तों के तप एवं ज्ञान से प्रभावित होकर बादशाह अकबर ने युद्ध बन्दियों को दास बनाया जाना बन्द कर दिया था तथा सैनिकों द्वारा बस्तियों को लूटे जाने की निषेधाज्ञा जारी कर दी थी। (सन् १५६२), हिन्दू तीर्थस्थलों पर यात्री कर समाप्त कर दिया था (सन् १५६३), गुजरात में जजिया कर समाप्त कर दिया था (सन् १५६४) तथा पर्युषण पर्व के १२ दिनों सहित वर्ष में छ: महीने छ: दिन पूरी सल्तनत में जीव हिंसा निषेध के फरमान जारी किये थे तथा उन दिनों में वह स्ययं भा माँसाहार नहीं करता था। जैन गुरुओं के प्रभाव में आकर बादशाह ने शिकार खेलना छोड़ दिया Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३ ) था । बादशाह के दरबार में आये कुछ तत्कालीन विदेशी यात्रियों ने तो यहाँ तक लिख मारा कि बादशाह ब्रती (जैन) सम्प्रदाय के अनुसार आचरण करने लगा है तथा जीव दया पालन करने लगा है । जहाँगीर व शाहजहाँ ने भी बहुत कुछ हद तक बादशाह अकबर द्वारा प्रारम्भ की गई धार्मिक सहिष्णुता की नीति को जारी रखा यद्यपि उसमें उत्तरोत्तर हास होता गया । परिशिष्टों में बादशाहों के फरमान, शिलालेख आदि दिये गये हैं । पुस्तक रोचक है तथा संग्रहीय है । १०. भारतीय इतिहास के कई द्वन्द और अनेक विवाद हैं, जो अँग्रेजों के जाने के बाद से अपना समाधान तलाशते रहे हैं, किन्तु हमने अभी तक उन पर कोई उल्लेखनीय ध्यान नहीं दिया है । आलोच्य कृति भारतीय इतिहास में जैनों की भूमिका के पुनर्मूल्यांकन का एक ठोस । अभिनन्दनीय प्रयास है । भारत के सांस्कृतिक अभ्युत्थान में जैन मुनियों और आचार्यो ने संकटापन्न क्षणों में क्या कितना किया इसका कोई अनुसंधानमूलक अध्ययन अभी तक नहीं हुआ है । प्रस्तुत कृति इस मायने में एक ऐसा स्तुत्य कदम है जो आगे चलकर दिशादर्शक सिद्ध होगा । विदुषी लेखिया ने तथ्यों का सतर्क । श्रमसाध्य दोहन किया और उन आधार भूमियों को स्पष्ट किया है, जो भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन के संवेदनशील क्षणों में महत्व की सिद्ध होगी । हमें चाहिए कि हम ऐसे प्रयत्नों को उत्साहित करे और उन तथ्यों का उत्खनन करें जो जैन धर्म, दर्शन, आचार आदि की उज्जवलताओं को सामने लाने में समर्थ हों । हमें विश्वास है इस पुस्तक को व्यापक रूप में पढ़ा जाएगा ताकि इतिहास के पुनर्लेखन का जो संकट है । इसके लिये एक स्वस्थ समझ विकसित हो सके । शोधादर्श, लखनऊ नवम्बर १९९१ मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति पर जैन सन्तों (आचार्यों एवं मुनियों) का प्रभाव ( १५५५ - १६५८) कु. नीना जैन, काशीनाश सराक, आचार्य श्री विजयेन्द्र सूरि शोध संस्थान शिवपुरी (म. प्र. ) तीर्थंकर, इन्दौर जून, १९९२ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) एन/१४ चेतकपुरी ग्वालियर-४७४००९ दिनांक २५-७-९४ "मुगल सम्राटों की धार्मिक नीति पर जैन सन्तों आचार्यों एवं मुनियों का प्रभाव सन् १५५५ से १६५८ तक।" . लेखिका : डॉ. नीना जैन डॉ. नीना जैन का उपरोक्त शोध ग्रन्थ नितान्त मौलिक और अनेकानेक अछूते संदर्भो को उद्घाटित करता है। इसे मेरे प्रणम्य श्री काशीनाथ सराक आचार्य श्री विजयेन्द्र सूरि शोध संस्थान शिवपुरी (म. प्र) ने प्रकाशित किया है। इस ग्रन्थ में अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ की जैन धर्म के प्रति धार्मिक नीति का अनुपम वर्णन है। हस्तलिखित पाण्डलिपियों शाही फरमानों की प्रतियों की फोटो उपलब्ध कराने से शोध-ग्रन्थ की महनीयता स्वयं अपने आप पाठक के सामने बोलने लगती है। पालीताणा के आदीश्वर भगवान मन्दिर, खम्भात के चिन्तामणि पार्श्वनाथ जैन मन्दिर, राणकपुर, आदीश्वर भगवान मन्दिर तथा पावापुरी जैन तीर्थ मन्दिर शिलालेख भी परिशिष्ट में दिये गये हैं। शाकाहार प्रचार-प्रसार की बात आज जोरों पर है। अन्तर्राष्ट्रीय| राष्ट्रीय सम्मेलन हो रहे हैं। १९९५ का वर्ष पूरा शाकाहार को समर्पित है। अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ के काल में दशलक्षिणी धर्म के दिनों में पशु-वध और मांस की बिक्रो पर पूरी तरह रोक थी इसके साक्ष्य प्रमाण भी इस ग्रन्थ में दिये गये हैं। आज हमारी सरकार इसे लागू नहीं कर पा रही है, कैसी विसंगति है ? संक्षेप में हम इतना कह सकते हैं कि डॉ. नीना जैन का शोध प्रयास गागर में सागर है तथा उनको अपने इस शोध को निरन्तर गतिमान रखना चाहिए। समीक्षक डॉ. अभय प्रकाश जैन Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www jainelibrary.org