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________________ १३५ ) के लिये दर्पण व्यर्थ है उसी प्रकार मन की शुद्धि बिना सारी धार्मिक क्रियाएँ निरर्थक हैं । इसीलिये महापुरुषों ने कहा है “जो मन की शुद्धि किये बिना मुक्ति के लिये तपस्या करते हैं, वे नाव को छोड़कर हाथों से महासागर को पार करना चाहते हैं । कहने का भाव है कि अहिंसा का केवल आवरण ओढ़ लेने से ही हम अहिंसक नहीं कहला सकते । हमारे अन्तर्मन के भाव क्या हैं ? क्योंकि संसार में रहते हुए मानव अनेकों क्रियाएँ ऐसी करता है जो प्रत्यक्ष में हिंसक दिखाई देने पर भी मलिन भाव से न करने पर हिंसा की कोटि में नहीं आयेगी । जैसाकि बुद्ध ने भी कहा है- "यदि हाथ में घाव न हो तो उस हाथ में विष लेने पर भी शरीर में विष का प्रभाव नहीं होता है । इसी प्रकार मन में पाप न रखने वाले को बाहर से कर्म का पाप नहीं लगता ।" १ अहिंसा की पूर्ण उद्घोषणा जैन धर्म करता है, यह जगत् प्रसिद्ध है । प्रायः उनके इस सिद्धान्त पर छींटाकशी की जाती है। जैनियों के पानी छानकर पीने के तर्क को लेकर अक्सर लोग उपहासजनक वाक्यों में कहते हैं- "जन पानो पीते छानकर, जीव मारते जानकर ।” यूँ तो जैन-धर्म में पानी उबालकर पीने का विधान है. चूँकि प्रत्येक गृहस्थ के लिये यह सम्भव न होने पर भी वे पानी छानकर तो पीते ही हैं । तो यह जैन-धर्म की कोई नवीन बात नहीं । पुराण आदि लौकिक शास्त्रों में भी पानी छानकर उपयोग में लाने का माहात्म्य इस प्रकार बताया गया है १. वेद के पारगामी ब्राह्मण को समग्र विश्व का दान करने से जो पुण्य होता है इससे करोड़ गुना पुण्य पानी छानकर उपयोग करने वाले को होता है । २. सात गाँव जलाने से जो पाप कर्म का बन्ध जीव को होता है, उतना ही पाप बिना छना पानी के घड़े का उपयोग करने से होता है। १. धम्मपद पृष्ठ १६. सुत्त ९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003202
Book TitleVibhinna Dharm Shastro me Ahimsa ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1995
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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