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( २९ ) नहीं करते। अब देखिये बंगाल की अधिकांश जनता मछली खाती है और उसे नाम क्या देतो है-जल तोरई । त्याज्य माँस नहीं समझती। उफ, विधाता ने सम्पूर्ण प्राणियों में केवल मानव को ही वाणी एवं विवेक से काम लेने की क्षमता प्रदान की है और यह मानव ऐसा है कि अपने स्वार्थ में अंधा होकर दानव बना बैठा है कोई भी धर्म ग्रंथ ऐसा नहीं जिसमें अहिंसा की प्रशंसा न की गई हो। - यजुर्वेद में अहिंसा का स्वरूप:- वैदिक कालीन लोगों का प्रमुख धार्मिक कृत्य यज्ञ था। आश्चर्य है कि जिन वेदों को आधार मानकर यज्ञ करके उसमें सैकड़ों पशुओं को होम किया जाता है, उन वेदों में भी अहिंसा का अपना ही स्थान है । अपने मत की पुष्टि में यहाँ यह यजुर्वेद के कुछ उदाहरण प्रस्तुत करेंगे
"वह मेरा मन सबके लिये कल्याण का संकल्प धारण करने वाला हो" "हे प्रभो सभी मनुष्यों और पशुओं के लिये कल्याण हो" "सब प्राणियों को मित्र को दृष्टि से देखू" "सब प्राणियों को अपना ही रूप समझो"
"सब जीवों में आत्मा का ही रूप जानो"१ इस प्रकार यजुर्वेद में अहिंसा शब्द की कई प्रकार व्याख्या की गई है । किसी को मारना, किसी से वैर-विरोध करना तथा किसी को ऊँच-नीच समझना हिंसा माना गया है । चींटी से लेकर मनुष्य तक सबके अंतर्गत आत्मा को ही अपना स्वरूप मानने के लिये आदेश दिया गया है। १. तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु ॥ ३४/१
शन्नोऽअस्तु द्विपदेशं चतुष्पदे ॥ ३६/८ मित्रस्यमा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् ।। ३६/१८ यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्ने वानुपश्यति ॥ ४०/६ यस्मिन सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्वि जानतः ॥ ४०/७
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