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________________ ( २८ ) पार्वती जी शंकर जी से पूछती हैं कि माँस खाने में क्या दोष है ? शंकर जी प्रत्युत्तर देते हैं- "जो पराये माँस से अपने माँस को बढ़ाना चाहता है, वह जहाँ कहीं भी जन्म लेता है वहीं उद्व ेग में पड़ा रहा है ।" १ अतः प्रत्येक विज्ञ पुरुष को यह समझना चाहिये कि जैसे अपने माँस को काटना अपने लिये पीड़ाजनक होता है वैसे ही दूसरों का माँस काटने पर उसे पीड़ा होती है। पद्मोत्तर खण्ड में पार्वती जी का कहना है कि जो स्वयं फल की इच्छा वाले होकर, अज्ञान से मोह को पाया हुआ जो मनुष्य मेरे नाम से विविध जीवों की हिंसा करता है उसका राज्य, वंश, सम्पत्ति आदि सब ऐश्वर्य थोड़े ही समय में नष्ट हो जाता है और वह मृत्यु पाकर नरक में जाता है । शिवपुराण में लिखा है "भुक्त' हलाहलं तेन कृतं चाभक्ष्या भक्षणम्" अर्थात् माँस तुल्य जिसने अभक्ष्य का भक्षण किया उसने हलाहल जहर भक्षण किया । अहिंसा धर्म का पालन तो वही कर सकता है जो संसार की सब आत्माओं को अपनी आत्मा के समान समझे । गीता में श्री कृष्ण ने कहा है- अगर तुम संसार में रहकर हिंसा से बचना चाहते हो तो संसार की सब आत्माओं को अपने समान समझो । हे अर्जुन जो योगी अपनी भाँति सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुख को भी सम देखता है वह योगो, श्र ेष्ठ माना गया है । २ स्पष्ट है कि धर्म - शास्त्र हिंसा निषेध के लिये क्या क्या फरमा रहे हैं । अफसोस तो इस बात है कि सब कुछ जानते, समझते हुए भी लोग रसनेन्द्रिय के लालच में धर्म को निमित्त बनाकर पशु वध करते हुए जरा भी संकोच १. स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति । उद्विग्नवासं लभते यत्र यत्रोपजायते ॥ २ - अनुशासन पर्व पृ० ५९९० आत्मौपम्येन सर्बत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुखं स योगी परमोमतः ॥ गीता - अध्याय ६, श्लोक ३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003202
Book TitleVibhinna Dharm Shastro me Ahimsa ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1995
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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