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________________ ( २७ ) है-"जो माँस को स्वयं नहीं खाता पर खाने वाले का अनुमोदन करता है वह भी भाव दोष के कारण पाप का भागी होता है इसी प्रकार जो मारने वाले का अनुमोदन करता है वह भी हिंसा दोष से लिप्त होता है ।"१ मांस-भक्षण के त्याग का फल तो सौ वर्षों तक कठोर तपस्या के फल से भी बढ़कर है । जो मांस-भक्षण नहीं करता उसे जिस पुण्य की प्राप्ति होती है उसे सम्पूर्ण वेद और यज्ञ भी नहीं प्राप्त करा सकते, ऐसा बृहस्पति जी का कहना है । महाभारत में भीष्म अहिंसा की प्रशंसा में कहते हैं--"सम्पूर्ण यज्ञों में जो दान किया जा सकता है, समस्त तीर्थों में जो गोता लगाया जाता है तथा सम्पूर्ण दानों का जो फल है- यह सब मिलकर भी अहिंसा के बराबर नहीं हो सकता। इतना ही क्यों वे तो यहाँ तक कहते हैं- "हे कुरूपुगव (कुरूश्रेष्ठ) अहिंसा के फल का कहाँ तक वर्णन करें, यदि कोई मनुष्य सौ वर्षों तक उसका वर्णन करे तो भी वह सम्पूर्ण रोति से कहने में समर्थ नहीं हो सकता ।"२ पद्मोत्तर खण्ड में देवी भगवती का कहना है कि जो मेरा निमित्त (देवी भगवती) लेकर पशु को मारकर अपने बंधुओं के साथ माँस-भक्षण करता है उसका शरीर पशु के शरीर के रोम जितने वर्षों तक असिपत्र नामक नरक में वास करता है । शंकर जी ने पार्वती को धर्म का रहस्य बताते हुए अहिंसा धर्म की ही प्रशंसा की है-"अहिंसा धर्मशास्त्रेषु सर्वेषु परमं पदन" अर्थात् सम्पूर्ण धर्म शास्रों में अहिंसा परम पद है। जो प्राणियों पर दया करने वाले तथा हिंसामय आचरणों को त्याग देने वाले हैं वे स्वर्ग में जाते हैं। जब १. अखादन्ननुमोदंश्च भावदोषेण मानवः । योऽनुमोदति हन्यन्तं सोऽपि दोष लिप्यते ।। अनुशासन पर्व अध्याय ११५, श्लोक ३९ २. एतत् फलम् हिंसाया भूयश्च कुरू पुरङ व। न हिं शक्या गुणा वक्तुमपि वर्ष शतरपि ।। अनुशासन पर्व अध्याय ११६, श्लोक ३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003202
Book TitleVibhinna Dharm Shastro me Ahimsa ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1995
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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