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________________ ( ६४ ) बुद्ध का ऐसे यज्ञों में विश्वास नहीं था । बुद्ध उपदेश देते हुए कहते हैं - वासत्य कल्पना करो कि यह अचिरावती नदी किनारे तक भरकर जा रही है, इसके दूसरे किनारे पर एक मनुष्य आता है और वह किसी आवश्यक कार्य से इस पार आना चाहता है । वह मनुष्य उसी किनारे पर खड़ा हुआ यह प्रार्थना करना प्रारम्भ करे कि ओ, दूसरे किनारे इस पार आ जाओ ! क्या उसके इस प्रकार स्तुति करने से यह किनारा उसके पास चला जायेगा ? हे वासत्य ! ठीक इसी प्रकार एक त्रयी विद्या में निष्णात ब्राह्मण यदि उन गुणों को क्रिया रूप में अपने अंदर नहीं लाता जो किसी मनुष्य को ब्राह्मण बनाते हैं, अब्राह्मणों का आचरण करता है पर मुख से प्राथना करता है- मैं इंद्र को बुलाता हैं, मैं वरूण को बुलाता हूँ, मैं प्रजापति ब्रह्मा, महेश और यम को बुलाता हूँ तो क्या ये उसके पास चले आयेंगे ? क्या इनकी प्रार्थना से हो कोई लाभ हो जावेगा ? अतः स्पष्ट है कि विविध देवताओं का अव्हान कर ब्राह्मण लोग जो उनकी स्तुति करते थे, बुद्ध उसे निरर्थक समझते थे व्यर्थ के कर्मकांड में उनका विश्वास नहीं था । दीघनिकाय में उल्लिखित है कि यज्ञ चालू रखने के लिये कोसल के पसेनदि राजा ( राजा प्रसेनजित ) ने उकट्ठा नाम का गाँव पोक्खरसाति और सालवतिका गांव लोहिच्च ब्राह्मण को पुरस्कार में दिया था । मगध देश के राजा बिंबिसार ने चम्पा ग्राम सोणंदण्ड व्राम्हण को और खाणुमन गाँव कूटदन्त ब्राह्मण को पुरस्कार में दिया था। इसके अतिरिक्त कोसल संयुक्त के नौवें सुत्त से ऐसा प्रतीत होता है कि स्वयं पसेनदि राजा ( प्रसेनजित) यज्ञ करता था किन्तु इन यज्ञों की व्यापकता कोसल एवं मगभ के राजाओं के राजाओं के राज्यों तक ही सीमित थी क्योंकि बड़े-बड़े यज्ञ करना राजाओं और पुरस्कार पाने वाले ब्राह्मणों के लिये ही सम्भव होता हैं । ऐसे बृहत यज्ञ करना साधारण जनता की शक्ति से परे था इसलिये यज्ञों के छोटे संस्करण निकले थे। महात्मा बुद्ध ने ऐसे छोटे-बड़े सभी यज्ञों का विरोध किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003202
Book TitleVibhinna Dharm Shastro me Ahimsa ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1995
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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