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________________ ( १५८ ) क्षेत्र में जो कार्य हुए, उनका गुणगान आज भी किया जाता है । " मुगल सम्राटों को धार्मिक नीति पर जैन सन्तों का प्रभाव" नामक ग्रन्थ में सन् १५५५ से १६५८ तक के मुगल शासन की धार्मिक नीति और उससे हुए परिवर्तन का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है । अकबर की धार्मिक उदारता की खूब चर्चा हुई है । सभी धर्मों की समान मान्यताओं को लेकर उसने एक नया धर्म प्रचलित करने का प्रयास भी किया था । निरंकुश शासक होते हुए भी उसने दीनेइलाही को मानने के लिये किसी को विवश नहीं किया । उसका धर्म चल नहीं पाया,. क्योंकि उसने लोगों पर बल प्रयोग करके उसे नहीं थोपा और रूढ़िवादी मुल्लाओं ने उसके द्वारा प्रवर्तित मत का विरोध किया । मुगल सम्राट ने इबादत खाना के नाम से एक सभागार का निर्माण कराया था जिसमें सभी धर्मो के सन्तों, विद्वानों और साधकों को आमंत्रित किया जाता था और आध्यात्मिक विषयों पर विचार चर्चा हुआ करती थी । फतेहपुर सीकरी के इबादत खाने में भक्त कवि कुभनदास को जब आमंत्रित किया गया, तो उन्होंने सम्राट को उत्तर भिजवाया - "सन्तन का सीकरी सौ काम । आवत-जात पहनियाँ टूटी, बिसर गयो हरि नाम । " जैन आचार्य श्री हीर विजय सूरी को जब इबादत खाने में निमंत्रण किया गया, तब भी श्रावकों, आचार्य और मुनियों की सभा में विचार-विमर्श की वही दिशा थी, जो उपर्युक्त अभिव्यक्ति में हैं। किन्तु आचार्य हीरविजय सूरीजी तत्व ज्ञान के साथ व्यवहारिक ज्ञान के भी आचार्य थे, इसलिये उन्होंने सभा को समझाते हुए कहा - " अपने पूज्य पुरुषों को तो राज्य दरबार में प्रवेश करने में बहुत सी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ी थीं, लेकिन हमें तो सम्राट स्वयं बुला रहा है । इसलिये उसके आमंत्रण - निमंत्रण को अस्वीकार करना मुझे अनुचित जान पड़ता है । तुम इस बात को भली प्रकार समझते हो कि हजारों, बल्कि लाखों मनुष्यों को उपदेश देने में जो लाभ होता है उसकी अपेक्षा कई गुना ज्यादा लाभ एक राजा को, सम्राट को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003202
Book TitleVibhinna Dharm Shastro me Ahimsa ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1995
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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