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( ११८ ) पर यह ज्ञात हो जायेगा कि इसमें खाने का पदार्थ कम और फेंकने का अधिक है । इस प्रकार बहुत हड्डियों वाला मांस या बहुत काँटों वाली मछली मिल जाये तो उन्हें वह नहीं लेनी चाहिए। वह भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर भिक्षा के लिये जाये तो गृहस्थ कहेगा, “हे आयुष्मान श्रमण, क्या यह बहुत हड्डियों वाला मांस लेने की इच्छा तुम रखते हो? इस प्रकार का भाषण सुनकर वह पहले ही कहदे कि; "हे आयुष्मान, (या स्त्री हो तो) हे बहन, यह बहुत हड्डियों वाला माँस लेना मुझे शोभा नहीं देता । यदि तुम्हारी इच्छा हो तो, मुझे केवल मांस दे दो, हड्डियां मत दो। इतना कहते हुए भी यदि वह गृहस्थ आग्रह के साथ देने को तैयार हो जाये तो उसे आयोग्य समझकर नहीं लेना चाहिए। यदि वह पात्र में उसे डाल दे तो उसे लेकर एक ओर जाना चाहिए और आराम या उपाश्रय में ऐसे स्थान पर बैठकर जहां प्राणियों के अंडे बहुत कम होंगे, केवल मांस और मछली खाकर हड्डियां तथा काँटे लेकर एक ओर जाना चाहिये। वहाँ जाकर जलाई हुई भूमि पर हड्डियों के ढेर पर, जंग खाये हुए लोहे के पुराने टुकड़ों के ढेर पर, तुस के ढेर पर, सूखे हुए गोबर के ढेर पर या इसी प्रकार के अन्य स्थंडिल पर (टीले पर) स्थान को अच्छी तरह साफ करके वे हड़ियाँ या वे काँटे संयमपूर्वक रख देने चाहिए।" . इसी का सूत्र का अर्थ पन्यास श्री कल्याण विजय जी ने अपनी पुस्तक "मानव-भोज्य मीमांमा" के तीसरे अध्याय में इस प्रकार किया है-“वह भिक्षु या भिक्षुणी ऐसा फल मेवों का गूदा जिसमें सारभाग ले लिया गया है अधिक मात्रा में गुठली तथा बीज शेष रहे हैं, ऐसा फल, मेवा आदि मिलता हो तो ग्रहण न करे। गृहस्थ के घर में भिक्षार्थ गये भिक्षु-भिक्षुणी को उस प्रकार के अधिक बीज गुठली वाले फल मेवा लेने के लिये गृहस्वामी अथवा उसकी स्त्री उसे निमंत्रण करे कि हे आयुष्मान ! श्रमण यह अधिक बीज वाला फल मेवा तुम चाहते हो क्या ? इस प्रकार का शब्द सुनकर वह पहले ही सोचकर कह दे, हे आयुष्मान ! अथवा हे बहन ! मुझे नहीं कल्पता बहु गुठली और काँटों वाला फल मेवा, यदि तुम मुझे देना चाहते हो तो
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