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________________ ( ११९ ) इसमें गूदा और गर्भ रूप जो सारभाग है उसे दे दो, गुठली आदि नहीं। यह कहते हुए भी गृहस्थ एक दम वह कचरे वाली चीज के बहुत विभाग करके पात्र में डाल दे तो वह पात्र यदि दूसरे के हाथ में अथवा दूसरे के पात्र में रखा हो तो उसे कहना-यह अप्रासुक, अनेषणीय है, हमें नहीं कल्पता। यदि वह पात्र सहसा अपने हाथ में ले लिया हो तो न भला कहे न बुरा कहे, वह उसको लेकर एक तरफ हटकर किसी उद्यान में वृक्ष के नीचे उपाश्रय में जहां कीड़े आदि सूक्ष्म जन्तुओं के अंडे न हों तथा मकड़ी के जाले न हो वहाँ फल का गर्भ तथा मेवा का गूदा खाकर गुठलियां बीज आदि कूड़ा कर्कट लेकर एकान्त में जा जली भूमि आदि निर्जीव भूमि को झाड़कर वहां रख दे।" उपर्युक्त दोनों अनुवादों में अर्थ भिन्नता यह है कि कोसम्बी ने "बहुअट्ठियं मंसंवा मच्छंवा बहुकण्टक" का अर्थ किया है "बहुत हड्डियों वाला माँस या बहुत काँटों वाली मछली" जबकि कल्याण विजय जी ने इन्हीं शब्दों के अर्थ "अधिक बीज वाला फल का गूदा या बहुत काँटों वाला फल" किया है। सहज ही प्रश्न उठता है कि अट्ठियं को बीज (गुठली) और मंसं को गूदा क्यों कहा गया ? अदिव्यं (अस्थि) शब्द का विश्लेषण : जिस प्रकार मनुष्य आदि प्राणधारियों के शरीर में सात धातु माने जाते हैं, उसी प्रकार अति प्राचीन काल में वनस्पतियों के भी रस आदि सात धातु माने जाते थे। प्राणधारियों के शरीर में रहने वाले कठोर भाग को अस्थि कहते हैं वैसे ही वनस्पतियों के शरीर में होने वाले कठोर दारू भाग को अस्थि कहते थे तथा वनस्पतियों के फलों में रही हुई गुठलियों तथा बीजों को भी अस्थिक के नाम से जाना जाता था। प्रमाण स्वरूप यहाँ कुछ उदाहरण देना उपयुक्त होगा-- "कच्चा कटहल, कषाय रस वाला, स्वादिष्ट और शोत वीर्य होता है। कफ पित्त का नाशक है। इसके फल का अस्थि (गुठली) भी फल के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003202
Book TitleVibhinna Dharm Shastro me Ahimsa ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1995
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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