________________
( १२६ ) ही बोध होगा लेकिन 'कल्पद्रुकोशः' से इसका वास्तविक अर्थ बोध होता है
“जो स्वल्प आकार और लाला अंग वाली होती है-वह श्वेत कपोतिका कहलाती है । श्वेत कपोप का दो पत्तों वाली कन्द के मूल में उत्पन्न होने वाली, ईपदरक्त तथा कृष्ण पिंगला, हाथ भर ऊँची, गौ के नाक सी
और फणधारी साँप की आकृति वाली, क्षार युक्त, रोंगटों वाली, स्पर्श में कोमल, जिव्हा चखने पर ईख जैसी मीठी होती है ।
इसी प्रकार के स्वरूप और रसवाली कृष्ण कपोतिका को कहना चाहिये कृष्ण कपोतिका काले सांप के रूप में, वाराही कन्द के मूल में उत्पन्न होतो है, वह एक पत्ते वाली महावीर्य दायिनी और अति कृष्ण अंजन समूह सी काली होती है । पत्र मध्य से उत्पन्न प्ररोह पर लगे हुए गहरे नील मयूर पंख जैसे वारह पत्रों से छत्राति छत्र वाली, राक्षसों का नाश करने वाली, कन्द-मूल से उत्पन्न होने वाली, जरा-मरण के निवारण करने वाली दोनों कपोतिकाएँ जाननी चाहिये ।"१
स्पष्ट है कपोतिका का अर्थ वनस्पति अथवा औषधि से लिया गया है। वैद्यक ग्रन्थों में कपोतिका का अर्थ कूष्मांड* दिया है और उसके गुण को सुश्रुत संहिता में इस प्रकार बताया गया है “उनमें छोटा पेठा पित्तनाशक है और मध्य (अधपका) कफकारक है तथा खूब पका हुआ गरम कुछ-कुछ खरोंहा होता है, दीपन है और वस्ति (मूत्र स्थान) को शोधन करता है और सब दोषों (वात, पित्त कफ) को शांत करता है हृदय कोहित है और १. कल्पद्रु कोश: भाग १, श्लोक ५९१-५९५, पृष्ठ ३१५-३१६ * यह वह फल है जिससे वर्तमान में पेठा बनता है उसे आगरा में
कुम्हड़ा के नाम से जाना जाता है। आज भी बंगाल में दुर्गा देवी के सामने जहाँ पशु बलि नहीं दी जाती उसके स्थान पर गन्ना एवं कूष्मांड फल चढ़ाया जाता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org