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निघण्टु रत्नाकर (भाग १, पृ. १५२), शब्दार्थ चिन्तामणि कोष (भाग ३, पृ. ५७४) वैद्यक शब्द सिन्धु कोष (पृ. ७३६) आदि ग्रन्थों में माँस को गरम, देर में हजम होने वाला और वायुनाशक बताया गया है। इसका पित्त ज्वर से कोई सम्बन्ध न होने के कारण पित्त ज्वर में देने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता । सुश्रुत संहिता ( मुरलीधर - सम्पादित पृ. ४१४ ) में मुर्गे के माँस को भारी और गरम बताया गया है । अत: वैद्यक दृष्टि से भी पचने में भारी और उष्ण प्रकृति वाले पदार्थ को कोई अतिसार तथा दाह प्रधान पित्त ज्वर में देने की बात नहीं कर सकता । फिर जिनका शरीर छै: महीनों से दाह ज्वर से ग्रस्त है बाह्याभ्यन्तर तापमान बहुत बढ़ा हुआ है ऐसे महावीर अपने शिष्य के द्वारा बासी मुर्गे का मांस मँगाकर खाने की इच्छा करे यह बात डॉक्टरों, वैद्यों के अलावा हमारी बुद्धि से भी परे है क्योंकि ये पदार्थ रोग को दूर तो क्या अच्छे-भले आदमी को बीमार और कर देंगे ।
दूसरा कारण यह भी है कि उस समय वैदिक धर्म शास्त्रानुसार ग्राम्य कुक्कुट एवं मार्जाराघ्रात भोजन अभक्ष्य माना जाता था, जिसका प्रमाण आप स्तम्बीय धर्मं सूत्र एवं गौतम धर्म सूत्र में मिलता है ।
अब प्रश्न उठता है कि भगवती सूत्र में आये कवोय, शब्दों का क्या अर्थ होगा ?
कवोय का अर्थ :
कवोय का संस्कृत रूप 'कपोत ' है । इस शब्द से आजकल कबूतर का बोध होता है किन्तु प्राचीन काल में कपोत पक्षी मात्र का वाचक था और सौवीर नामक श्वेत सुर्मा भी कपोत कहलाता था । सुरनें का वर्ण कपोत से मिलता-जुलता होने के कारण वह कपोत नाम से प्रसिद्ध हुआ । इसी प्रकार सज्जी का वर्ण भी कपोत जैसा होने के कारण वह कपोत नाम से विख्यात हुआ । अब यदि इनका शाब्दिक अर्थ ही लिया जाये तो वे श्वेत कपोतिका, कृष्ण कपोतिका का अर्थ श्वेत तथा कृष्ण मादा पक्षी कपोत का
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कुक्कुट आदि
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