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( ७६ ) मंसं जानाहि ति" अर्थात् हे आदमी तू जा, तैयार मांस को देख तो। आगे चलकर लिखा है-"न भिक्खवे, जानं उद्दिस्स-कतं मंसं परिभुजितब्बं । यो परिभुजेय आपत्ति दुक्कटस्स । अनुजानामि, भिक्खवे तिकोटि परिसुद्धं मच्छमंसं-अदिळं, असुतं, अपरि सकि तं" अर्थात् नहीं भिक्षु हम अपने प्राण के लिये जानबूझकर प्राण (किसी के) नहीं मारेंगे, जो मारे उसे दुक्क : का दोष हो । तीन कोटि से परिशुद्ध मछली-माँस की अनुज्ञा है।
कहने का तात्पर्य है कि बौद्ध धर्म में जहाँ जोव हिंसा पर प्रतिबन्ध है वहाँ माँस-भक्षण पर पूर्णतया नहीं। हम इसे अहिंसा को कोटि में नहीं गिन सकते, कारण कि स्वयं मारकर न खाया अथवा अपने निमित्त से मरा हुआ जानकर न खाया लेकिन मिल गया तो खा लिया । जरा विचारिये कि जो प्राणि-वध करते हैं वे क्या स्वयं के खाने के लिये ही करते हैं. जिस वस्तु का कोई भक्षक ही न होगा वह वस्तु बनाई ही क्यों जायेगी। उत्पादक किसके लिए वस्तु का उत्पादन करता है? उपभोक्ताओं के लिये ही तो, अब यदि उस वस्तु का कोई उपभोग न करेगा तो क्या सारी वस्तु का उत्पादक स्वयं ही उपभोग कर लेगा?
दुर्भाग्य से भगवान के जीवन के अंतिम भोजन की घटना जो पावा में चुन्द कर्मार पुत्र द्वारा शूकर मार्दव (सूकर मद्दव) तैयार करवा भगवान को खिलाया गया,१ बड़ो विवादास्पद है जिसे खाते ही भगवान को अतिसार हो गया था
सूकर मद्दव पर बुद्धघोषाचार्य की टीका इस प्रकार है-सूकर मद्दव ऐसे सूअर का पकाया हुआ माँस है जो न बहुत तरूण है न वृद्ध, और जो बिल्कुल १. दोघनिकाय-महापरिनिब्बाण सुत्त हिन्दी अनुवाद रा. सां , ज. क.
इसी पुस्तक के फुटनोट में सूकर मद्दव शब्द के दो अर्थं दिये हैं१. सूअर का मांस, २. शूकर कन्द का माँस
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