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________________ ( ८२ ) यहां यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि केवल प्राणी को प्राण से रहित करना ही हिंसा नहीं है बशर्ते कि जब तक उसमें हिंसा रूप भाव न हो अर्थात् जब तक हम प्रमादो और अयत्नाचारी न हों तब तक किसी का घात हो जाने मात्र से हम हिंसक नहीं कहलाये जा सकते । । यदि कोई मनुष्य सावधानी से अपना काम कर रहा है और मन में किसी को कष्ट पहुँचाने का भाव नहीं है फिर भी यदि उसके द्वारा किसी को कष्ट पहुँचता है अथवा कोई प्राणी प्राण रहित हो जाता है तो वह हिंसक नहीं कहलायेगाजैसा कि शास्त्रकारों ने लिखा है कि "जो मनुष्य आगे देख भाल कर रास्ता चल रहा है उसके पर उठाने पर अगर कोई जीव पैर के नीचे आ जावे और कुचलकर मार जावे तो उस मनुष्य को उस जोव के मरने का थोड़ा सा भी पाप आगम में नहीं कहा । किन्तु यदि कोई मनुष्य अयत्नाचार से कार्य कर रहा है उसे इस बात ht for परवाह नहीं है कि उसके इस कार्य से किसी को हानि पहुँच सकती है या किसी के प्राण जा सकते हैं, चाहे उस समय किसी को हानि न भी पहुँच रही हो फिर भी वह हिंसा के पाप का भागी बनेगा ही । अर्थात् प्राणों का विनाश न होने पर भी केवल प्रमत्तयोग से ही हिंसा कही जाती है। "जीव मर जाये या जीता रहे तो भी यत्नाचार से रहित पुरुष के नियम से हिंसा होती है और जो यत्नाचारपत्रक प्रवृत्ति करता है, हिंसा के हो जाने पर भी उसे बंध नहीं होता । " १ कहने का तात्पर्य है कि अपने से किसी जीव का घात हो जाने पर भी तब तक हिंसा नहीं कहलाती जब तक अपने भाव उसे मारने के न हों किन्तु यदि हमारे भाव किसी को मारने के हों ओर प्रयत्न करने पर भी हम 9. मरदु व जियदु व जीवौ अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा | पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामित्तेण समिदस्स ॥ सर्वार्थसिद्धि - पृष्ठ ३५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003202
Book TitleVibhinna Dharm Shastro me Ahimsa ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1995
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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