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________________ जैन ग्रंथ एवं अहिंसा अहिंसा जैन जगत का प्राण हैं । पुण्य जीवन को यदि भव्य भवन कहा ये तो अहिंसा तत्व ज्ञान को उसकी नींव मानना होगा, साधन का प्राण अथवा जीवन रस अहिंसा है । अहिंसात्मक वृत्ति के बिना न व्यष्टि का कल्याण है और न ही समष्टि का । यही कारण है कि विश्व के सभी धर्मों ने घूम फिर कर ही सही अन्तोगत्वा अहिंसा को ही आश्रय लिया है । जैन धर्म का नाम लेते ही जो अहिंसा की स्मृति सर्वसाधारण को हुआ करती है वह भू-मण्डल पर जैन धर्म के अहिंसा सम्बन्धि महान प्रतिनिधित्व का परिचायक है । जैन धर्म में अध्यात्मिक जोवन के निर्माण के लिए किये जाने वाले व्रत विधान में पहला स्थान अहिंसा का है । अहिंसा के वास्तविक स्वरूप को समझने से पहले हिंसा को समझना भी आवश्यक है क्योंकि हिंसा का विरोधी भाव अहिंसा है । हिंसा एवं अहिंसा का अर्थ : " हिंसा शब्द हननार्थक "हिंसी" धातु से बना है। इससे हिंसा का अर्थ किसी प्राणी को मारना या सताना होता है। भारतीय ऋषियों ने हिंसा शब्द की स्पष्ट व्याख्या इस प्रकार की है- “प्राण वियोग प्रयोजन व्यापारः ' अथवा " प्राणि दुख साधन व्यापारी हिंसा" अर्थात् प्राणी को प्राण से रहित करने के निमित्त जो प्रयत्न किया जाता है, उसे हिंसा कहते हैं । इसके वितरित किसी भी जीव को दुख या कष्ट नहीं पहुँचाना अहिंसा कहलाती है। मानव और दानव में अहिंसा और हिंसा का ही तो अंतर है । अहिंसा मानवी है तो हिंसा दानवी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003202
Book TitleVibhinna Dharm Shastro me Ahimsa ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1995
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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