SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १८ ) बात श्रुति में अप्रमाणिक हो उसे बुद्धिमान कदापि न मानेंगे और माननी भी नहीं चाहिये जैसा कि हम शुरू में ही कह आये हैं कि केवल शास्रों का आश्रय लोकर ही किसी विषय का निर्णय नहीं कर लेना चाहिये। ___यहाँ एक बात और विचारणीय है कि जिन शास्रों में मांस भक्षण को उचित ठहराया गया है वहाँ केवल पशु पक्षियों के माँस का ही उल्लेख है किन्तु मनुष्य मांस खाने का जिक्र कहीं नहीं मिलता इसका कारण क्या हो सकता है। कारण यही रहा होगा कि अपने माँस की रक्षा के लिये मनुष्य का माँस खाना नहीं लिखा होगा क्योंकि शास्रकारों में इतनी बुद्धि तो थी ही कि यदि मनुष्य मांस-भक्षण का लिखेंगे तो मनुष्य कभी उन्हें ही न खा लें। इसीलिये मनुष्य ने अपनी सुरक्षा के लिये मनुष्य-वध निषेध के कानून बनाये, उसके लिये दण्ड देने का प्रावधान रखा । यदि आज कोई किसी मनुष्य की हत्या करता है तो उसे मौत की सजा सुना दी जाती है । इतना कुछ होने पर भी मनुष्य अपने स्वार्थ के लिये मनुष्य हत्या भी करता है और धोखे से लोगों को उसका मांस खिला भी देता है जिसका प्रमाण दिल्ली के माननीय डॉ. हाकिम अजमल खाँ साहब (प्रसिद्ध स्वतन्त्रा सेनानी) के दृष्टांत से समझा जा सकता है। उनके पास चाँदनी चौक बल्ली मारान का रहने वाला एक मरीज दरियागंज स्थित उनके दवाखाने पहुँचा । उस 'बोमार को देखकर हाकिम साहब ने परीक्षण करके कहा कि इस बीमारी की दवा मेरे पास नहीं है। मरीज निराश हो वापिस आ गया और मौत को नजदीक जानकर हर चीज का सेवन करने लगा। उसी मुहल्ले में एक कबाब (माँस) बेचने वाला बैठता था, उससे माँस लेकर रोज खाने लगा। कुछ ही दिनों में वह स्वयं को स्वस्थ्य अनुभव करने लगा तो पुनः हाकिम साहब के पास पहुँचा। उसे देखते ही आश्चर्य चकित हो डॉ. साहब ने उसके स्वस्थ होने का राज पूछा, मरीज ने आप बीतो सुना दी । हाकिम साहब को तो आश्चर्य होना ही था क्योंकि उस बीमारी का इलाज मनुष्य माँस के सिवाय और कुछ था ही नहीं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003202
Book TitleVibhinna Dharm Shastro me Ahimsa ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1995
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy