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________________ ( ९१ ) का नाम लेने से कतराते हैं । वेद-विहित यज्ञों में हिंसा के साथ-साथ जातिमद का भी बोल-बाला था आगमों में इस प्रकार को वर्ण व्यवस्था का भी निषेध है। उत्तराध्ययन सूत्र में हरिकेशबल नामक चंडाल कुलोत्पन्न नामक जैन का उल्लेख आता है जो किसी यज्ञशाला में भिक्षा मांगने गये लेकिन वहाँ जाति-मद से उन्मत्त राजपुरोहित ने उन्हे भिक्षा देने से इंकार कर दिया और कहा कि यज्ञ करने वाले जाति और विद्यायुक्त ब्राहमण ही दान के सत्पात्र है। इस पर मुनी उन्हें उपदेश देते हैकि क्रोध आदि वासनाओंके मन में रहते हुए केवल वेद पढ़ लेने से अथवा अमुक जाति में पैदा होने से कोई उच्च नहीं हो सकता। जल में स्थान करने यज्ञ आदि के प्राणियों की हिंसा करने से अन्त:करण को शुद्धि नहीं होतो । असली यज्ञ तो भाव यज्ञ है उसका स्वरूप इस प्रकार है--इंद्रिय निग्रह तप उस यज्ञ की अग्नि है, जीव अग्नि स्थान है, मन वचन और काय योग उसकी कड़छी है, शरीर अग्नि को प्रदीप्त करने वाला साधन है; वर्म ईधन है तथा संयम शांति मंत्र है । जितेन्द्रिय पुरुष धर्म रूपी जलाशय में स्नानकर, ब्रह्मचर्य रूपी शांति तीर्थ में नहाकर यज्ञ करते हैं, वहीं वास्तविक यज्ञ है ।"१ इसी सूत्र के २५वें अध्याय में जयघोष मुनि और विजयघोष ब्राह्मण (दोनों भाइयों का) सुन्दर सम्वाद आता है । जयघोष, विजयघोष जो वेदोक्त यज्ञ करने में लगा था, कि यज्ञशाला में भिक्षा मांगने गये लेकिन विजय घोष उसका प्रतिषेध करते हुए भिक्षा देने से इंकार कर देते हैं । तब जयघोष मुनि तब उसे प्रतिबोध देते हुए कहते हैं- “सर्ववेद पशुओं के वध-बंधन के लिये हैं और यज्ञ पाप कर्म का हेतु है वे वेद या यज्ञ वेद पाठी व यज्ञकर्ता के रक्षक नहीं हो सकते अपितु पापकर्मों को बलवान बनाकर दुर्गति में पहुँचा देते हैं।"२ १. उत्तराध्ययन-अध्याय १२ २. वही -अध्याय २५ श्लोक ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003202
Book TitleVibhinna Dharm Shastro me Ahimsa ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1995
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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