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________________ ( ९० ) इस कारण कर्त्तव्य है कि हमारी आत्मा की ही तरह दूसरों की आत्मा को समझकर उनके प्रति हिंसक आचरण न करे ।" १ इसीलिये अहिंसा व्रत को स्तुति करते हुए वे आगे कहते हैं--अहिंसा माता के समान सब जीवों की हित कारिणी है, अहिंसा मरूधर भूमि में अमृत के समान है, दुखरूप दावानल को शांत करने के लिये वर्षा ऋतु में मेघ के समान है और भव भव में परिभ्रमण करने रूप रोग से मुक्ति दिलाने हेतु परम औषधि के समान है।"२ ७ - उपरोक्त सब सूत्रों का सार एक ही है कि किसी प्राणी को कष्ट न पहुँचाना चाहिये। जैसा कि भगवान महावीर अहिंसा का स्वरूप इस प्रकार फर्माते हैं- "सब प्राणियों को आयु प्रिय है । सब सुख के अभिलाषी हैं. दुख सबके प्रतिकूल है, वध सबको अप्रिय है; सब जोने की इच्छा करते हैं, अत: किसी को मारना अथवा कष्ट न पहुँचाना चाहिये । वास्तव में जीवों का वध अपना ही वध है और जीवों पर दया अपने पर ही दया है इसलिये महापुरुषों का कहना है कि विकण्टक के समान हिंसा को दूर से ही त्याग देना चाहिये और अहिंसा धर्म को जानकर मोक्ष की इच्छा करने वालों को निष्प्रयोजन हिंसा नही करनी चाहिये । हिंसक यज्ञों का विरोध :-- भगवान महावीर के समय की परिस्थितियाँ किसी से छिपी नही हैं । वैदिक यज्ञों के नाम पर किस तरह पशुओं का संहार किया जाना था यह हम पिछले पृष्ठों में बना आये हैं। "जीवो जीवस्य भोजनम्" का शोषणात्मक सिद्धांत अपनी चरम पराकाष्ठा पर था । ऐसे समय में करुणामय महावीर ने संसार कारिणी हिंसा के विरुद्ध अपनी आवाज उठाकर समाज कल्याण के लिये "जीयो और जीने दो” का नारा बुलन्द किया । वेदों को आधार बनाकर जो यज्ञ किये जाते थे उनमें निर्दोष सैंकड़ों पशुओं का होम किया जाता था यही कारण जान पड़ता है जो कि जैन वेदों १. योगशास्त्र – प्रकाश २, श्लोक २० वही - प्रकाश २, श्लोक ५०-५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003202
Book TitleVibhinna Dharm Shastro me Ahimsa ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherKashiram Saraf Shivpuri
Publication Year1995
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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